हिंदी माध्यम नोट्स
कोरकू समाज में मृत्यु और अंतिम संस्कार कैसा होता है (Death and Funeral Among the Korkus in hindi)
(Death and Funeral Among the Korkus in hindi tribes) कोरकू समाज में मृत्यु और अंतिम संस्कार कैसा होता है कोरकुओं जनजाति ?
कोरकू समाज में मृत्यु और अंतिम संस्कार (Death and Funeral Among the Korkus)
कोरक आदिवासियों में जब किसी व्यक्ति की मत्य निकट आती है तो उसे चावल का पानी या सादा पानी पीने को दिया जाता है। अगर वह व्यक्ति पानी को गटक नहीं पाता तो मान लिया जाता है कि उसकी मृत्यु निकट है। तब उसे जमीन पर लिटा दिया जाता है। अगर किसी कोरकू की मृत्यु पलंग परं होती है तो उस पलंग का हमेशा के लिए त्याग कर दिया जाता है। उस पलंग पर कोई भी व्यक्ति इस डर से नहीं सोता कि मृतक की आत्मा आकर उसे परेशान करेगी।
कोरकू लोग कुल में होने वाली प्रत्येक मृत्यु पर शोक करते हैं। स्त्रियां सिर और छाती पीटती हैं, व चीत्कार करती हैं। चीत्कार करते हुए वे जो कुछ बोलती हैं उसमें वे मृतक के साथ जाने की इच्छा व्यक्त करती हैं। पुरुष बांस के लट्ठों और सात आड़े डंडों की मदद से अर्थी तैयार करते हैं। मृतक के शरीर से सारे वस्त्र और गहने उतार लिए जाते हैं। मृतक अगर पुरुष है तो उसे सफेद चादर में लपेटा जाता है। विवाहित स्त्री के शव को लाल चादर में और विधवा के शव को सफेद चादर में लपेटते हैं।
जिस स्त्री का पति मरता है वह विलाप करती है और अपने सारे गहने उतार देती है। दूसरी ओर पुरुष अपनी पत्नी के मरने पर ऐसा कुछ नहीं करता। वह बस अपनी पत्नी के शव के पास बैठ कर शोक करता है। कोरकू विधवा अपने पति की मृत्यु के दस दिन बाद गहने पहन सकती है। ये सभी अतिम संस्कार के पूर्व सांक्रातिक पहलू हैं । और जहा तक शोक में छाती पीटने का सवाल है, कोरकू और सीरियाई ईसाई एक जैसे होते हैं। कोरकुओं की तरह हिंदुओं में भी स्त्रियां विधवा हो जाने पर अपने गहने उतार देती है।
शव यात्रा (The Funeral Procession)
अंतिम संस्कार की सारी तैयारियां हो जाने के बाद शव यात्रा शुरू होती है। मृतक का सब से बड़ा बेटा चावल के पानी से भरी एक हंडिया लेकर चलता है। अगर सबसे बड़ा बेटा
किसी कारणों से न हो तो उसकी जगह उसका कोई छोटा या कोई घनिष्ठ रिश्तेदार यह कार्य करता है। कब्रिस्तान की आधी दूरी तय हो जाने पर शव यात्रा में शामिल लोग रुक जाते हैं। यहां अर्थी को जमीन पर रख दिया जाता है और शव को कंधा देने वाले बाएं से दाहिने आ जाते हैं। स्त्रियां शव यात्रा में शामिल नहीं होती क्योंकि उनके रोने धोने से विघ्न पड़ता है। कोरकुओं के गांवों में उनके अपने कब्रिस्तान होते हैं जहां कब्रों को बेतरतीब ढंग से खोद दिया जाता है और वहां ऐसे टीले देखने को मिलते हैं जिनके ऊपर पत्थरों और कांटों का ढेर होता है।
कब्रिस्तान में तीन-चार फुट का एक गड्ढा उत्तर-दक्षिण दिशा में खोदा जाता है। मृतक का चेहरा उत्तर की ओर रखा जाता है। गड्ढे के दक्षिणी सिरे पर मृतक का सिरहाना होता है जहां पहले गोबर और पत्ते रख दिए जाते हैं। शव को कब्र में उतारने से पहले उसमें तांबे के कुछ सिक्के फेंके जाते हैं। कब्र के चारों और आटा और हल्दी छिड़कते हैं। शव को पीठ के बल इस तरह कब्र में रखते हैं कि उस का चेहरा उत्तर की ओर रहे। कभीकभी मृतक के मुंह में एक सिक्का रख दिया जाता है जिससे वह परलोक में उसे काम में ला सके। कब्र को आधा कीचड़ में भर दिया जाता है और फिर उस पर कांटों की तह लगा दी जाती है। फिर उसे मिट्टी से भर दिया जाता है। मिट्टी छिद्री होती है और उसे कूटा नहीं जाता क्योंकि इससे मृतक को चोट पहुंच सकती है। कोरकुओं का यह विश्वास है कि जब मृतक फिर से जन्म लेगा तो मिट्टी कूटने के निशान उसके शरीर पर होंगे, कब्र में कांटे और पत्थर इसलिए डाले जाते हैं ताकि जंगली जानवर शव को खा न जाएं। अक्सर शव के साथ सिक्का, बाँसुरी या कोई और वस्तु गाड़ दी जाती है। चावल के पानी वाली हंडिया को कब्र के सिरहाने फोड़ दिया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि अगर मृतक को परलोक में एकाएक कुछ खाने को न मिले तो वह इसे खा कर अपना काम चला ले । जहाँ तक हमारी समझ में आता है कि ये संस्कार सामाजिक संसार से विच्छेद और दूसरे में समावेशन के संस्कार हैं। ये पारगमन के संस्कार हैं।
ये सभी अनुष्ठान मृतक से विच्छेद के समय उसके प्रति स्नेह की अभिव्यक्ति भी हैं। वह इसे अपना दायित्व मानते हैं कि वे मृतक को जहाँ तक हो सके अच्छे ढंग से विदा दें। सांक्रांतिक प्रथाएं ऐसी होती हैं कि वे उनमें शामिल होने वाले सभी व्यक्तियों को स्पष्ट कर देती हैं कि मृतक अब मृतकों के लोक में जा चुका है। वे समाजीकरण और आत्मिक गुण वाले संस्कार होते हैं। उनमें उपचार का भी पक्ष शामिल होता है। मृतक को गाड़ दिए जाने के बाद उसकी कब्र पर चावल की हंडिया फोड़ने के साथ ही सांक्रांतिक पक्ष का क्रमशः समापन हो जाता है।
अंतिम सस्कार के बाद की रस्में (Post Funeral Customs)
अंतिम संस्कार के बाद शोक करने वाले पुरुष पास की किसी नदी या जलाशय में स्नान करते हैं। वे एक पगड़ी पहनते हैं जिसे बाद में धोया जाता है। मृतक के साथ के सारे बंधनों को कब्रिस्तान की आधी दूरी पर किसी बेर के पेड़ के नीचे तोड़ दिया जाता है । यहाँ सभी शोक करने वाले पुरुष एक पत्ती तोड़ते हैं और एक पत्थर उठाते हैं। वे उन्हें सिर के ऊपर से घुमा कर फेंक देते है। यह शुद्धिकरण और विच्छेद का अनुष्ठान हैं। यह मृतक के साथ सभी बंधनों को तोड़ देने का बोध कराता है। पीतल के एक कलश में भर कर लाए गए पानी को प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में थोड़ा-थोड़ा डाला जाता है। वह व्यक्ति इसे अपने सिर के ऊपर से घुमाकर उसे अपने बांए पांव के ऊपर डालता है। इस पांव को दरवाजे पर जलने वाली आग के ऊपर रखा जाता है। यह शुद्धिकरण का संस्कार है जो प्रत्येक अंत्येष्टि के समय किया जाता है
उत्तर सांक्रांतिक संस्कार चलते रहते हैं। शाम को शोक वाले घर में मृतक की फोटो आटे से बनाई जाती है। फोटो की लम्बाई आमतौर पर 10 सेंटीमीटर की होती है। इसके ऊपर एक टोकरी उलटी करके रख दी जाती है। एक घंटे के बाद टोकरी को हटा लिया जाता है और फोटो का मुआयना किया जाता है। उसमें आए किसी भी बदलाव के आधार पर लोग यह पता लगाने का प्रयास करते हैं कि उस व्यक्ति की मृत्यु क्यों हुई और उसकी आत्मा कैसे रहेगी। उदाहरण के लिए अगर उसके पेट के पास से बदलाव नजर आते हैं तो यह कहा जाता है कि उसकी मृत्यु पेट की खराबी से हुई है इन अनुष्ठानों में अगर कोई रुकावट आती है तो उसे भी जादू टोना का चिह्न माना जाता है। इस शकुन विचार, विशेषतया आत्मा से संबंधित पक्ष को परलोक में समावेश के संस्कार के रूप में देखा जा सकता है। कोरकू समाज में उत्तर सांक्रांतिक अनुष्ठान बहुत स्पष्ट हैं और उनमें नहाना, सिर के ऊपर से पत्तियों का फेंकना और प्रत्येक शोक करने वाले के हाथ में पीतल के कलश से पानी डालना शामिल है। इन संस्कारों से यह संदेश मिलता है कि मृतकों और जीवितों में अंतर होता है। क्रियाओं का उपचारात्मक महत्व भी होता है क्योंकि इनसे शोक करने वालों को कुछ करने का अवसर मिलता है। 10 सेंटीमीटर लंबा आटे का बना चित्र भी दुःखी व्यक्तियों को इस ओर से आश्वास्त करता है कि मृत्यु का एक विशिष्ट कारण अवश्य था।
शकुन विचार समाप्त हो जाने के बाद एक मुर्गा मार कर उसे भूना जाता है। इसे चावल के साथ खाया जाता है। इस भोज के बाद अक्सर कोई स्त्री समाधि की स्थिति में पहुंच जाती है जिसके बारे में यह विश्वास किया जाता है कि उस पर मृतक की आत्मा आ गई हैं। यह स्त्री अक्सर शोक करने वालों को उनका भविष्य बताती है।
फिर शोक वालों के घर में रात्रि भोज का प्रस्ताव रखा जाता है। शव रहने तक वहां खाना नहीं बनाया जाता । मौत वाले इस घर में रोज सुबह शोक गीत गाए जाते हैं। विच्छेद पूरा होने के साथ-साथ ये गीत छोटे होते चले जाते हैं।
मृतक की स्मृति में लगभग दो सप्ताह बाद मृत्यु भोज का आयोजन किया जाता है । सारे मेहमान इनमें अपना-अपना योगदान देते हैं। प्रारंभ में एक बकरे और कुछ मुर्गों की बली चढ़ाई जाती है। ये मृतक के लिए भेट होती हैं और इससे उसकी आत्मा को आसानी से शांति मिल जाती है। बलि का अनुष्ठान पूरा होने के बाद मृतक की आत्मा घर के बीच वाले खंभे पर जाती है। यहां मृत्यु भोज के बाद पैंतालीस दिन तक प्रार्थना होती है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कोरकुओं में ये उत्तर सांक्रांतिक अनुष्ठान कहीं अधिक विस्तृत होते हैं जिनके माध्यम से मृतक का परलोक में समावेशन होता है। इसमें घर के बीच वाले खंभे पर पैंतालिस दिन होने वाली प्रार्थना भी शामिल है। मृत्यु के बाद वृद्ध तो प्रेतात्मा बन जाते हैं और जो लोग छोटी उम्र में मरते हैं उन्हें कोई दुष्टात्मा खा जाती है। कोरकुओं में प्रकृतिगत विश्वास पाए जाते है और वे ये मानते हैं कि आत्माएं चक्रवातों और दूसरी प्राकृतिक प्रघटनाओं में वास करती हैं। वे पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। वे यह भी मानते
हैं कि मृतक आमतौर पर जीवितों के प्रति उदासीन होते हैं। वे गांव के ठीक बाहर किसी छायादार पेड़ के नीचे मृतकों की स्मृति में पत्थरों का ढेर लगा कर रहते हैं। उनमें यह बुनियादी विश्वास भी पाया जाता है कि मृतक ने अपने जीते जी धरती पर जैसे कर्म किए होते हैं उसे उसी के अनुसार स्वर्ग में दंड या पुरस्कार मिलता है। जिस व्यक्ति ने अच्छे कर्म किए होंगे उसे स्वर्ग में अच्छे फल मिलेंगे और जिसने बुरे कर्म किए होंगे उसे नर्क में दंड भुगतना होगा।
स्मृति भोज (The Memorial Feasts)
उपर्युक्त उल्लिखित उत्तर सांक्रांतिक अनुष्ठान अपने आप में पूर्ण नहीं होते और इस संदर्भ में एक साल बाद स्मृति भोज का आयोजन भी किया जाता है, सिदौली भोज के बाद ही जाकर मृतक की आत्मा को शांति मिलती है और तब दूसरे लोक में उसके समावेश को पूर्ण समझा जाता है। इस दौरान सांक्रांतिक पहलू बरकरार रहते हैं और आत्मा संक्रांति की स्थिति में ही रहती है।
भोज का आयोजन और प्रबंध मृतक के परिवार के लोग करते हैं और वे ही भोजन परोसते भी हैं । भोज में सगे संबंधियों और नजदीकी लोगों को आमंत्रित किया जाता है। भोज के आयोजन से मृतक की आत्मा को शांति मिलती है। उसके अवशेषों को नदी किनारे ले जाया जाता है। वहां उसकी स्मृति में एक खंभा गाड़ा जाता है जिसे मुंडा कहते हैं। यह सागवान की लकड़ी का बना होता है। इसे जमीन में दो फुट गहरा गाड़ते हैं और इसका शेष तीन फुट जमीन से ऊपर निकला रहता है। यह स्मृति स्तंभ चैकोर होता है। अगर व्यक्ति की मृत्यु परदेश में हुई होती है तो मुंडा उसके अपने घर में गाड़ा जाता है। लेकिन कोरकुओं के सभी वंशों में मुंडा गाड़ने की प्रथा नहीं है।
इसके अतिरिक्त उत्तर दिशा में एक मांडो झोपड़ी भी बनाई जाती है। इसके अंदर नदी से लाए गए शंकु के आकार के सात पत्थर होते हैं। इनमें से प्रत्येक पत्थर एक देव का प्रतीक होता है। इस तरह की झोपड़ी केवल ओझाओं और गांव के पुरोहितों के लिए होती है।
इसके बाद कुछ और भोज भी आयोजित किए जाते हैं। ये भोज मृतक को शरीर और आत्मा अर्थात दोनों को अपने समाज से निकाल देने के लिए जीवितों के प्रयास का संकेत है। यह मृतक के दूसरे लोक में समावेशन को सुगम बनाने का प्रयास भी है। हम यह कह सकते हैं कि इनके बीच का समय मृतक की आत्मा के लिए एक प्रकार का सांक्रांतिक चरण होता है। एकजुटता का यह दिलचस्प अनुष्ठान होता है। जिसमें पिछले सिदौली भोज से प्रत्येक पड़ोसी के यहां एक दीया धरी टोकरी लेकर जाया जाता है। इसके बाद भजन गाए जाते हैं। भोज के मुख्य आयोजक वर और वधू का वेश धारण करते हैं। उनके वस्त्रों को गाँठ लगा कर जोड़ दिया जाता है। उसकी जगह कोई लड़का लड़की भी ले सकते हैं, लेकिन उन पर बाद में विवाह करने का कोई बंधन नहीं होता। आधी रात के बाद वे दोनों अलग हो जाते हैं और एक कमरे में एक दूसरे से विपरीत दिशा में चले जाते है। और एक दूसरे पर चिल्लाने लगते हैं और एक दूसरे को गाली देते है। उसके तुरंत बाद दूसरे मेहमान भी ऐसा ही करते हैं। यह एक प्राचीन संस्कार है और बाहरी व्यक्ति को यह गंदा भी लग सकता है। लेकिन यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वे यह व्यक्त करना चाहते हैं कि उनका सरोकार अब इस लोक से और एक दूसरे से है, किसी आत्मा से नहीं । भोज के तीसरे दिन मुंडा को खड़किया ले जाया जाता है जहां होली मनाई जाती है।
यहां एक बकरे को मारा जाता है। भोज के चैथे दिन मुंडा को किसी नदी के पास गाड़ा जाता है। कुछ और संस्कार भी होते हैं। वैसे उन सभी का एक ही अर्थ होता है अर्थात मृतक की आत्मा का जीवितों का लोक छोड कर मतकों में समावेश करना।
Recent Posts
सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke rachnakar kaun hai in hindi , सती रासो के लेखक कौन है
सती रासो के लेखक कौन है सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke…
मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी रचना है , marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the
marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी…
राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए sources of rajasthan history in hindi
sources of rajasthan history in hindi राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए…
गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है ? gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi
gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है…
Weston Standard Cell in hindi वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन
वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन Weston Standard Cell in…
polity notes pdf in hindi for upsc prelims and mains exam , SSC , RAS political science hindi medium handwritten
get all types and chapters polity notes pdf in hindi for upsc , SSC ,…