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दाओजली हेडिंग कहां स्थित है , daojali hading is located in which state in hindi
daojali hading is located in which state in hindi दाओजली हेडिंग कहां स्थित है ?
दाओजली हडिंग (लगभग 25° उत्तर, 93° पूर्व)
दाओजली-हडिंग असम में दिमा हसाओ जिले (जिसे पहले उत्तर कछार पहाड़ियां जिला नाम से जाना जाता था) में स्थित है। यह एक नवपाषाण स्थल है जहां से उत्खनन में पाषाण तथा लकड़ी की कुल्हाड़ियां, कुदाल, छेनी, पीसने वाली सिल्ली, हाथ की चक्कियां, हाथ का बना वस्त्र, भोथरा लाल सेल्ट, बर्तन के टूटे हुए टुकड़े आदि मिले हैं। यहां से मिले औजार शैल, जीवाश्म लकड़ी तथा बलुआ पत्थर के बने हैं।
दौलताबाद (19.94° उत्तर, 75.21° पूर्व)
महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित, दौलताबाद को पहले दिओगिरी या देवगिरि (ईश्वर की पहाड़ी) नाम से जाना जाता था। यदुवंशियों के राजा भिल्लामा पंचम ने देवगिरि को अपनी राजधानी बनाया था। यदुवंशी, कल्याण के चालुक्यों के सामंत थे, जो चालुक्यों के पतन के बाद उत्कर्ष पर पहुंचे। ऐसा माना जाता है कि ये यदुवंशियों के वंशज रहे होंगे जिससे पौराणिक नायक कृष्ण संबंधित थे।
मध्य काल में देवगिरि एक प्रमुख किला तथा प्रशासनिक केंद्र था। यह दुर्ग एक बड़ी उभरी हुई चट्टान पर इस प्रकार से स्थित था कि यह अपराजेय था, केवल किसी षड्यंत्र द्वारा ही इसे विजित किया जा सकता था, बल द्वारा नहीं। यहां तक कि मुगल भी इसे रिश्वत दे कर ही जीत सके। 14वीं शताब्दी में यह नगर दिल्ली के सुल्तान, अलाउद्दीन खिलजी तथा तदोपरांत मुहम्मद-बिन-तुगलक के अंतर्गत आया। 1327-30 तक, मुहम्मद बिन तुगलक ने अपनी राजधानी भी दिल्ली से देवगिरी स्थानांतरित कर दी थी जिसका नाम उसने दौलताबाद रखा, ताकि उसे अपने दक्कनी अभियानों में सहायता मिल सके। यद्यपि उसका प्रयोग असफल रहा, उसके द्वारा दौलताबाद को राजधानी के रूप में स्थापित करने के लिए बनवाए गए भवन इस स्थान के लिए वरदान साबित हुए। दौलताबाद ने, दिल्ली सल्तनत बहमनी तथा अहमदनगर साम्राज्य के शासनाधीन अपने महत्व को बनाए रखा, परंतु 17वीं शताब्दी में इसका स्थान वह नहीं रहा जब मुगलों ने इसे दक्कन में अपना प्रशासनिक केंद्र बना लिया। औरंगजेब ने गोलकुंडा के अंतिम शासक को इसी दुर्ग में 13 वर्ष के लिए अपना बंदी बनाए रखा।
ऐसा माना जाता है कि यह दुर्ग सबसे अच्छी तरह से संरक्षित दुर्ग है।
देबल (24°51‘ उत्तर. 67°0‘ पर्व)
देबल सिंध प्रांत के निकट पाकिस्तान में स्थित है। प्राचीन काल में यह सिंध की कालरा या ब्राह्मशाही वंश का एक प्रमुख बंदरगाह नगर था।
बगदाद के खलीफा अल हाजिब के भतीजे मु. बिन कासिम के नेतृत्व में अरबों ने 712 ई. में देबल पर अधिकार कर लिया। दाहिर को आगे बढ़ने के मंच के तौर पर प्रयोग करते हुए, उसने नेहरून, सिविस्तान (सेहवान), ब्रह्मनाबाद, अलोर तथा मुलतान जैसे अन्य क्षेत्रों को अपने अधीन कर लिया। अरबों की सिंध पर विजय भारत में मुस्लिमों के आने की महत्वपूर्ण घटना थी। परंतु अरब इस क्षेत्र पर अपना अधिकार बहुत दिनों तक नहीं रख पाए।
कालांतर में देवल, गजनी के अधिकार में चला गया परंतु महमूद गजनवी का शासन काल कम अवधि का ही रहा। उसकी मृत्यु के उपरांत, सुमारा नामक जाति ने सिंध में अपना शासन स्थापित कर लिया तथा देबल को इसकी राजधानी बनाया। 1182 में, मोहम्मद गौरी ने सिंध पर अचानक आक्रमण कर दिया तथा सिंधु के शासक को अपनी अधीनता मानने के लिए बाध्य कर दिया।
इल्तुतमिश के समय देबल दिल्ली सल्तनत के अधीन आ गया।
चिरांद (25.78° उत्तर, 84.72° पूर्व)
चिरांद, छपरा से 11 किमी. पूर्व गंगा नदी के तट पर बिहार राज्य में स्थित है। यहां के उत्खनन से इस बात के प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि यह तीसरी शताब्दी ई. का एक महत्वपूर्ण पाषाणयुगीन स्थल है तथा कालांतर में मध्य युग के पूर्वार्द्ध में।
पाषाण युग में प्रस्तर की कुल्हाड़ियों, ब्लेड्स, तीरों एवं दरातियों जैसे पाषाण उपकरणों का प्रयोग किया जाता था। चावल, गेहूं, जौ, मूंग एवं मसूर के प्रमाण पाए गए हैं तथा कुछ अन्य वस्तुओं से भी यहां कृषि किए जाने के प्रमाण मिलते हैं। रेडियो कार्बन तिथि से यह अनुमान लगाया जाता है कि यह काल उत्तर हड़प्पा सभ्यता का समकालीन था किंतु दोनों के मध्य वैसा संबंध था, यह ज्ञात नहीं हो सका है। एनबीपीडब्ल्यू चरण के लोग लोहे के बने उपकरणों एवं औजारों का प्रयोग करते थे।
यद्यपि प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर तीसरी शताब्दी ईस्वी तक सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक प्रगति हुई, जिसे मुख्यतया कुषाण काल में देखा जा सकता है। यहां से प्राप्त अधिकांश स्थलों से ईंटों के अवशेष ही प्राप्त किए गए हैं। यहां से तीन खंडों वाला एक बौद्ध मठ भी पाया गया है, जिसके प्रत्येक खंड में तीन-तीन कोठरियां बनी हुईं हैं। कुषाणकालीन तांबे के सिक्कों की प्राप्ति से इस बात के संकेत मिलते हैं कि प्रथम शताब्दी ईस्वी में यह एक प्रमुख वाणिज्यिक केंद्र था। इसका तक्षशिला से ताम्रलिप्ति के मध्य के व्यापारिक मार्ग से जुड़ा होना भी इसका प्रमुख कारण था।
ऐसा अनुमान है कि प्रथम शताब्दी ईस्वी में चिरांद उजड़ गया था किंतु 11वीं एवं 12वीं शताब्दी के दौरान यह पुनः बस गया। यहां से कल्चुरी शासक गांगेयदेव के (11वीं शताब्दी) के सोने के सिक्के प्राप्त हुए हैं। साथ ही तारा एवं त्रिमूर्ति की आकृति वाले पालों के समय के सिक्के भी प्राप्त किए गए हैं।
चित्तौड़ (24.88° उत्तर, 74.63° पूर्व)
चित्तौड़, जिसे चित्तौड़गढ़ के नाम से जाना जाता है, राजस्थान में है। चित्तौड़ लंबे समय तक मेवाड़ के शासकों की राजधानी बना रहा। यह सातवीं शताब्दी से तब तक राजधानी नगर रहा, जब तक राजधानी को उदयपुर स्थानांतरित नहीं कर दिया गया।
मध्यकाल में चित्तौड़ अपने अभेद्य एवं अति सशक्त किले के लिए प्रसिद्ध था। इसकी ख्याति यहां के राजपूत शासकों के शौर्य एवं पराक्रम के लिए भी थी। इन शासकों ने सभी आक्रमणकारियों को अपनी बहादरी के जौहर दिखाए।
चित्तौड़ के प्रसिद्ध किले का निर्माण 7वीं शताब्दी के आसपास हुआ था। राणा कुंभा ने यहां एक विजय स्तंभ बनवाया, जिसे श्कीर्तिस्तंभश् के नाम से जाना जाता है। यह स्तंभ मांडू के होशांगी शाह पर विजय के उपलक्ष्य में बनवाया गया था।
अलाउद्दीन खिलजी ने 1305 में चित्तौड़ पर आक्रमण कर इसे काफी क्षति पहुंचाई। अलाउद्दीन के इसी अभियान में राणा रतन सिंह की पत्नी रानी पद्मावती ने जौहर किया था। गौरा एवं बादल की कहानी भी इसी घटना से संबंधित है।
बाबर ने पानीपत के प्रथम युद्ध (1526) में इब्राहीम लोदी को पराजित कर दिया किंतु उसका भारतीय विजय अभियान तभी पूर्ण हो सका जब उसने 1527 में खानवा के युद्ध में राणा सांगा को हराया।
अकबर ने 1567 में इस किले पर अधिकार कर लिया यद्यपि अकबर को इस सफलता के लिए नाकों चने चबाने पड़े। अकबर जयमल एवं पत्ता नामक राजपूत सरदारों की बहादुरी से अत्यधिक प्रभावित हुआ तथा उसने इन महान राजपूत सरदारों के सम्मान में इनकी मूर्तियां आगरे के किले के सामने स्थापित करवाई। किले के हाथ से निकल जाने के उपरांत भी राजपूत राणा प्रताप के नेतृत्व में मुगलों से संघर्ष करते रहे। अंततः जहांगीर ही मेवाड़ में शांति स्थापित करने में सफल हो सका।
चोपानी-मंडो (24°55‘ उत्तर, 82°4‘ पूर्व)
चोपानी-मंडो उत्तर प्रदेश में दक्षिण-पूर्वी दिशा में इलाहाबाद से 70 किमी. दूरी पर स्थित है। यह स्थल बेलन घाटी के बेलन नदी के तट पर स्थित है। भिन्न-भिन्न आकार के पाषाण खंड यहां पर प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। कुल मिलाकर उत्खननकर्ताओं ने इस स्थल का तिथि निर्धारण सत्ररहवीं सहस्राब्दी ई.पू. से सातवीं सहस्राब्दी ई. पू. के बीच की है। इसके अलावा चोपानी मंडो में मिले साक्ष्य संकेत करते हैं कि संभवतः थोड़ी बहुत कृषि के साथ ही यहां घुमंतु जीवन से स्थिर जीवन की ओर शुरुआत हो चुकी थी।
चोपानी मंडो में उच्च पुरापाषाण काल से नवपाषाण काल की ओर जाने का क्रम मिलता है। बेलन नदी के चारों निक्षेप चक्रों से प्राप्त कंकड़ों में जीवाश्म अस्थियों की प्राप्ति हुई है। यहां कंकड़ों में भेड़ तथा बकरियों की अस्थियां मिली हैं, जो इस क्षेत्र की न होकर प्रवासी मानव समूहों द्वारा हिमालय अथवा पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्रों द्वारा लाई गई प्रतीत होती हैं। उत्खनन में मिली झोपड़ियों के तल पत्थरों के टुकड़ों, लघुपाषाणों, पत्थर के हथौड़े, निहाई, सपाट चक्की, बट्टा, लटकने वाले पत्थर, चिकनी मिट्टी के जले हुए पिण्ड, टूटे हुए मिट्टी के बर्तनों द्वारा ढके हुए हैं। तीसरे चरण की झोपड़ियां अत्यधिक पास-पास स्थित थीं एवं मधुमक्खियों के छत्ते की भांति प्रतीत होती हैं। इसी चरण की मिट्टी की बनी एक जली हुई वस्तु प्राप्त हुई जिसमें जले हुए चावल गढ़े हुए हैं। इस पर बांस की छाप भी पड़ी हुई है।
चुनार (25.13° उत्तर, 82.9° पूर्व)
चुनार बनारस के दक्षिण पश्चिम दिशा में गंगा के तट पर मिर्जापुर जिले (उत्तर प्रदेश) में स्थित है। यहां अफगानों का एक सशक्त किला था। अफगान शासक शेरशाह ने चुनार की लाड मलिका से विवाह कर इस किले को प्राप्त कर लिया तथा यह उसके सैन्य अभियानों का मुख्य स्थल बन गया।
मुगल शासक हुमायूं ने 1532 में चुनार के किले का घेरा डाल दिया तथा शेरशाह से चुनार के किले को सौंपने की मांग की। यद्यपि 1537-38 के चुनार के दूसरे घेरे में हुमायूं ने अपना बहुमूल्य समय बर्बाद कर दिया तथा यही उसकी शेरशाह से पराजय का एक प्रमुख कारण बना। कालांतर में चुनार के किले का प्रयोग अंग्रेजों ने त्रिम्बकाजी, जो पेशवा बाजीराव द्वितीय का विश्वासपात्र था, को कैद में रखने के लिए किया।
डाभोल (17°35‘ उत्तर, 73°10‘ पूर्व) डाभोल, महाराष्ट्र में पश्चिमी तट पर स्थित है। मध्यकालीन भारत में यह बहमनी साम्राज्य का एक हिस्सा था। बहमनी साम्राज्य के पतन के पश्चात यह आदिलशाही वंश द्वारा शासित बीजापुर राज्य की राजधानी बन गया। बीजापुर में आदिलशाही वंश की स्थापना युसुफ आदिलशाह ने की थी।
मध्यकालीन समय में यह कोंकण तट का सबसे प्रमुख बंदरगाह था तथा यहां से फारस एवं लाल सागर के बंदरगाहों के साथ व्यापारिक वस्तुओं का आदान-प्रदान किया जाता था।
बाद में डाभोल, मराठों के नियंत्रण में आ गया एवं मराठों ने इसे प्रमुख बंदरगाह केंद्र के रूप में विकसित किया।
हाल के समय में, डाभोल एनरॉन विद्युत परियोजना या डाभोल की विद्युत परियोजना के कारण विवादों के घेरे में रहा था तथा लंबे समय तक चर्चा का विषय बना रहा। इस परियोजना से पर्यावरण को गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया था, इसके बाद पर्यावरणविदों ने इसका विरोध प्रारंभ कर दिया। अंत में कंपनी ने इस परियोजना को अधूरा ही छोड़ दिया तथा इससे अलग हो गई।
डाभोल में स्थित ऐतिहासिक स्थलों पर दृष्टिपात करें तो यहां चण्डीकुबाई को समर्पित एक भूमिगत मंदिर है, जिसका निर्माण 550-578 ई. के मध्य हुआ था। यहां एक सुंदर मस्जिद भी है।
दैमाबाद (19°31‘ उत्तर, 74°42‘ पूर्व)
दैमाबाद, महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में स्थित है। यह तीन विभिन्न कालों-नवपाषाणयुग, हड़प्पा एवं जोरवे की मिश्रित सांस्कृतिक विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करता है।
यहां से दक्षिण भारतीय प्रस्तर उपकरणों के निर्माण के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। ये पाषाण उपकरण पाषाण काल से ही संबंधित हैं। काले रंग के मृदभाण्डों की प्राप्ति यहां की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता हड़प्पा युग में यह हड़प्पा सभ्यता की दक्षिणी सीमा का निर्धारण करता था। यहां से इस चरण की पकी मिट्टी की मूर्तियां, मुहरें एवं पकी हुईं ईंटों के साक्ष्य मिले हैं, जो इसका हड़प्पाई संस्कृति से तादात्म्य स्थापित करते हैं। ये ईंटें दफनाने के स्थल में 4: 2: 1 के अनुपात में बनी हुईं थीं परंतु हड़प्पा सभ्यता की सबसे महत्वपूर्ण खोज है कांसे से बनी कलाकृतियां, जैसे कि गैंडा, भैंस, एक हाथी तथा एक रथ जिसमें एक जोड़ी बैल हैं, जिन्हें मनुष्य द्वारा हांका जा रहा है। ये कलाकृतियां 60 किग्रा. से अधिक भार की हैं। दैमाबाद जोरवे सभ्यता का भी एक महत्वपूर्ण स्थल था। यह जोरवे स्थलों के अब तक खोजे गए 200 स्थलों में से सबसे बड़ा है। यह 20 हेक्टेयर तक फैला था तथा यहां 4000 लोग तक रह सकते थे। ऐसा भी लगता है कि इस स्थल का दुर्गीकरण पत्थर तथा कंकड़ों के बुर्ज वाली मिट्टी की दीवार से किया गया था।
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