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सूती वस्त्र उद्योग क्या है | सूती वस्त्र उद्योग भारत में की परिभाषा किसे कहते है Cotton textile industry in hindi

Cotton textile industry in hindi in india meaning definition सूती वस्त्र उद्योग क्या है | सूती वस्त्र उद्योग भारत में की परिभाषा किसे कहते है ?

सूती वस्त्र उद्योग
भारत में सूती वस्त्र उद्योग पहला आधुनिक उद्योग है जिसके आधार पर औद्योगिकरण की पूरी इमारत तैयार हुई है। सौ वर्षों से भी अधिक पुराना यह उद्योग, जो मुख्य रूप से कताई उपक्रम के रूप में शुरू हुआ था, धीरे-धीरे सम्पूर्ण सम्मिश्र उपक्रम के रूप में विकसित हो गया।

पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान विकास
अप्रैल, 1951 में अर्थात् भारत में आर्थिक नियोजन के आरम्भ के समय 378 सूत मिलें थीं, इनमें 103 कताई मिलें और 275 सम्मिश्र मिलें (सम्मिश्र मिल में धागा की कताई, वस्त्र बुनाई और उनका प्रसंस्करण एक ही छत के नीचे होता है) थीं।

पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान आम नीति यह रही कि इस उद्योग की कताई क्षमता का विस्तार किया जाए ताकि अर्थव्यवस्था के संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों को बुनाई के लिए अधिक से अधिक धागा उपलब्ध कराया जा सके। इस नीति के अनुसरण में, पिछले पाँच दशकों के दौरान, सम्मिश्र मिलों की संख्या में मामूली गिरावट आई है जो 1951 में 275 से घटकर इस समय 270 हो गई है। जबकि दूसरी ओर, कताई मिलों की संख्या में नौ गुनी वृद्धि हुई, उनकी संख्या 1951 में 103 से बढ़ कर इस समय 905 हो गई है। इसी प्रकार, जहाँ विगत पाँच दशकों के दौरान उद्योगों में स्थापित तकलियों की संख्या में तीन गुनी से भी अधिक वृद्धि हुई, जो 1951 में 11 मिलियन थी, से बढ़कर इस समय 33.53 मिलियन हो गई है वहीं स्वचालित करघों की संख्या में कमी आई है जो 1951 में 1.95 लाख थी, से घटकर 1.23 लाख रह गई है।

सूती वस्त्र उद्योग में निवेश की गई पूँजी की राशि 2.70 करोड़ रु. के करीब होने का अनुमान लगाया गया है, निर्गत का वार्षिक मूल्य लगभग 2,500 करोड़ रु. तक है। इस उद्योग में 260 लाख व्यक्तियों को सीधे रोजगार मिला हुआ है जो संगठित क्षेत्र में कुल रोजगार का लगभग 20 प्रतिशत है। इस उद्योग द्वारा परोक्ष रूप से कई मिलियन लोगों को रोजगार मिलता है।

 उद्योग में निर्गत
सूती वस्त्र उद्योग में एक-दूसरे से अनन्य और असमान तीन क्षेत्र मिल, हथकरघा और विद्युत करघा सम्मिलित हैं । कपड़ा का विनिर्माण करने वाली मिलें संगठित क्षेत्र में आती हैं जबकि अन्य दो सामान्यतया असंगठित क्षेत्र में शामिल हैं।

साठ के दशक के आरम्भ तक, भारत में अधिक अनुपात में कपड़ा उत्पादन मिल क्षेत्र में होता था (1960 में 72.5 प्रतिशत)। साठ के दशक के मध्य से सूती वस्त्र उद्योग में असंगठित क्षेत्र की भूमिका बढ़ रही है; इस समय, कपड़ा उत्पादन का अधिकांश हिस्सा (लगभग 95 प्रतिशत) इसी क्षेत्र से आता है।

नीचे दी गई तालिका 12.1 में हाल के वर्षों में क्षेत्र-वार उत्पादन दर्शाया गया है।
तालिका 12.1: भारत में वस्त्र का उत्पादन
निर्गत में प्रतिशत हिस्सा
1994- 1995- 1996- 1997- 1998- 1999- 2000
95 96 97 98 99 2000 2001

मिलें
विद्युत करघा
(होजियरी समेत)
हथकरघा
अन्य 7.9 6.3 5.6 5.2 5.0 4.4 4.3
69.0 69.6 71.4 73.0 74.7 75.4 76.5

21.6 22.5 21.4 20.3 18.8 18.8 19.2
1.5 1.6 1.6 1.5 1.5 1.5 —
कुल 100.0 100.0 100.0 100.0 100.0 100.0 100.0
स्रोत: आर्थिक सर्वेक्षण 2000-01

तालिका 12.1 में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि भारत में वस्त्र के कुल उत्पादन में विद्युत करघों का हिस्सा निरंतर बढ़ रहा है और मिलों का हिस्सा घट रहा है। भारत में सूत का कुल उत्पादन चार गुना से भी अधिक बढ़ा है जो 1950-51 में 53.4 करोड़ कि. ग्रा. से बढ़कर 1999-2000 में 210.1 करोड़ कि.ग्रा. हो गया है।

 खपत का स्वरूप
खपत के स्वरूप का अध्ययन दो शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है:
क) वस्त्र के खपत की प्रवृत्ति; और
ख) खपत की संरचना।

पहले के संबंध में, कपड़े की खपत वस्त्र उद्योग में उत्पादन की वृद्धि दर पर सीधे-सीधे निर्भर करती है। कपड़े का उत्पादन जनसंख्या की वृद्धि दर के समरूप नहीं रहा है। विगत पांच दशकों के दौरान कपड़े का उत्पादन लगभग 1.7 प्रतिशत की वार्षिक औसत दर से बढ़ा है जबकि जनसंख्या वृद्धि की वार्षिक औसत दर 2.0 प्रतिशत से भी अधिक रही है। इसके परिणामस्वरूप, पिछले वर्षों में कपड़े की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में कमी आई थी और यह 1964-65 में 16.8 मीटर से घटकर 1977-78 में 13.5 मीटर रह गई, किंतु इसके बाद इसमें वृद्धि हुई तथा 1999-2000 में यह 30.6 मीटर तक पहुंच गई।

दूसरे के संबंध में, हमारे देश में कपास की खपत का प्रतिशत सभी फाइबरों और फिलामेंटों की तुलना में लगभग 60: 40 है। इसका कारण भारत को कपास उत्पादन और इसकी गुणवत्ता के मामले में प्राप्त अन्तर्निहित लाभ है। तथापि, पूरे विश्व में यह अनुपात 50: 50 है। ऐसा प्रतीत होता है कि हम भी इसी भूमंडलीय प्रवृत्ति की दिशा में बढ़ रहे हैं। ऐसा इसलिए है कि पॉलिएस्टर और ब्लेंडेड फैब्रिक की ‘‘धोइये और पहनिए‘‘ (वाश एन वीयर) विशेषता धुलाई और इस्त्री (प्रेस) संबंधी खर्च को कम कर देते हैं।

 वर्तमान प्रवृत्ति
वर्तमान नीतिगत सुधारों के मद्देनजर वस्त्र उद्योग में निम्नलिखित कुछ परिवर्तन देखे जा सकते हैं।

प) भारत के कुल निर्यात, वस्त्र उत्पादन और कुल आय वृद्धि में कपास ने अग्रणी-क्षेत्र का स्थान ले लिया है।
पप) घरेलू खपत में सूती वस्त्र की पसन्द अपने स्थान पर बनी हुई है क्योंकि निर्यात के क्रम में घरेलू उत्पादकों ने नई दक्षता प्राप्त की है जिससे नए उत्पाद पेश किए जा सके हैं।
पपप) वस्त्र निर्यात और उत्पादन के मामले में अनौपचारिक क्षेत्र ने अग्रणी स्थान ले लिया है।
पअ) आदानों और मशीनों के लिए विश्व बाजार में पहुँच द्वारा औपचारिक और प्रकट रूप से अनौपचारिक क्षेत्र की क्षमता में सुधार हुआ है।
अ) औपचारिक और अनौपचारिक दोनों क्षेत्रों में इतने अनम्य और नियंत्रित फर्म हैं कि वे अनुकूलनीयता नहीं कर सकते, परिणामस्वरूप विषमतापूर्ण अनुकूलनीयता विद्यमान है। फलस्वरूप उद्योग के सभी प्रमुख क्षेत्रों, जहाँ सुधार हुए हैं, में क्षमता आधिक्य और माँग आधिक्य दोनों साथ-साथ विद्यमान हैं।
अप) लागत संबंधी वैश्विक प्रवृत्ति भारत को मानव निर्मित वस्त्र के क्षेत्र में प्रमुख संभावित उत्पादक बना रही है।

नई वस्त्र नीति, 2000

सरकार ने सत्यम समिति के प्रतिवेदन के आधार पर 3 नवम्बर, 2000 को नई वस्त्र नीति की घोषणा की। यह नई नीति निम्नलिखित दो तथ्यों के पृष्ठभूमि में तैयार की गई हैं:

एक, वस्त्र का अन्तरराष्ट्रीय व्यापार मल्टी-फाइबर अरेंजमेंट (एम एफ ए) द्वारा विनियमित होता है। एम एफ ए ने वस्त्र के आयात की अधिकतम सीमा निर्धारित कर विकासशील देशों से वस्त्र के निर्यात में बड़े बाधक के रूप में काम किया है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू टी ओ) की स्थापना के साथ इस व्यवस्था को 01 जनवरी, 2005 तक समाप्त करने का निर्णय लिया गया है। इससे भारत के वस्त्र उद्योग के विकास की असीम संभावनाएँ उत्पन्न होंगी।

दो, उपर्युक्त भाग 12.2.4 वस्त्र उद्योग में हाल के यथा सूचीबद्ध परिवर्तनों ने नीतिगत निर्णयों को प्रभावित किया है।

नई नीति के लक्ष्य इस प्रकार हैं:

प) परिधान और वस्त्र के निर्यात को वर्तमान 11 बिलियन डॉलर से बढ़ा कर 50 बिलियन डॉलर तक पहुँचाना।
पप) उद्योग की विभिन्न आवश्यकताओं के वित्तपोषण के लिए निजी क्षेत्र को विशेषीकृत वित्तीय व्यवस्था की स्थापना के लिए प्रोत्साहित करना।
पपप) समेकित परिसरों और इकाइयों की स्थापना के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करना।

यह आशा की जाती है कि नई नीति से यह सुनिश्चित होगा कि वर्ष 2005 तक एम एफ ए के पूरी तरह से समाप्त हो जाने के बाद वस्त्र उद्योग अन्तरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के लिए पूरी तरह से तैयार हो जाएगा।

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