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वन संसाधन संरक्षण के उपाय क्या है ? वन संसाधन संरक्षण की आवश्यकता महत्व conservation of forest resources in india in hindi
what is conservation of forest resources in india in hindi वन संसाधन संरक्षण के उपाय क्या है ? वन संसाधन संरक्षण की आवश्यकता महत्व ?
वन संसाधनों का संरक्षण
(Conservation of Forest Resources)
वन मानव को प्रकृति का सबसे मूल्यवान तोहफा हैं। ये भारत जैसे कृषि प्रधान एवं विकासशील देश में अर्थव्यवस्था का मूल आधार हैं। कृषि और उद्योग वनों पर काफी हद तक निर्भर करते हैं। ये पर्यावरण को स्वच्छ रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या तथा मानव की बढ़ती हुई आवश्यकताओं के कारण वनों का बड़े पैमाने पर विनाश किया गया है। पिछले चार दशकों में 2500 लाख हेक्टेयर भूमि पर वनों को विभिन्न प्रकार की हानि पहुंचाई गई है। वनों के संरक्षण का अर्थ मानव को वनों के गुणों से वंचित रखने से नहीं है बल्कि वनों को इस प्रकार प्रयोग करने से है कि इससे हमारी अर्थव्यवस्था तथा पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। वनों का संरक्षण हमारी राष्ट्रीय समस्या है और इसका हाल भी राष्ट्रीय स्तर पर ही ढूंढना पड़ेगा। इसके लिए वन विभाग का अन्य संबंधित विभागों से उचित ताल-मेल होना चाहिए और जन समुदाय के सहयोग को उच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
वनों का संरक्षण अति आवश्यक हो गया है। इसके लिए निम्नलिखित उपाय सुझाए जाते हैं:
1. वनों की अंधाधुंध कटाई को नियंत्रित किया जाए और विशेष परिस्थितियों में ही वृक्षों को काटा जाए।
2. वृक्षारोपण का कार्यक्रम बड़े पैमाने पर चलाया जाए ताकि जिन क्षेत्रों में वनों को काटा गया है वहां पर फिर से वन उग सकें। वृक्षारोपण का कार्यक्रम इस ढंग से चलाया जाए कि बंजर तथा अनुपजाऊ भूमि को वनों के आवरण से ढकने में सहायता मिले और उनसे ईंधन व इमारती लकड़ी, घास तथा अन्य वन्य उत्पादन प्राप्त हो सकें।
3. सड़कों, रेल मार्गों तथा नदियों नहरों एवं झीलों के किनारों पर वृक्ष उगाए जाएं ताकि इनके आस-पास भूमि को क्षति न पहुंचे और पर्यावरण को स्वच्छ रखने में सहायता मिल सके।
4. नगरों में हरित पट्टी का विस्तार किया जाए तथा सामुदायिक भूमि पर पेड़ लगाए जाए। गांवों में ग्राम पंचायत की भूमि अथवा सामुदायिक भूमि पर पेड लगाए जाएं।
5. गांवों में बंजर तथा अनुपजाऊ भूमि पर पेड़ लगाने के लिए आसान शर्तों पर ऋण देने की व्यवस्था होनी चाहिए।
6. कृषि क्षेत्र के विकास के लिए वनों के ह्रास को नियंत्रित करना चाहिए।
7. ग्रामीण इलाकों में वनों में पशु चराने, लकड़ी काटने आदि की प्रथा है। इन क्रियाओं को इस प्रकार नियंत्रित करना चाहिए कि वनों की वहन शक्ति से अधिक विनाश न होने पाए।
8. लकड़ी के स्थान पर ईंधन के वैकल्पिक संसाधनों के प्रयोग को प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि ईंधन के लिए लकड़ी की मांग कम हो और वनों के संरक्षण में सहायता मिल सके। गोबर गैस तथा प्राकृतिक गैस अच्छे विकल्प हैं।
9. विकास संबंधी कार्यक्रमों को इस प्रकार से नियोजित करना चाहिए कि वनों को न्यूनतम हानि पहुंचे। खनन, उद्योग, परिवहन, नगरीकरण आदि ऐसे विकास संबंधी कार्यक्रम हैं, जिनसे वनों की क्षति होती है।
10. यदि विकास कार्यक्रमों के लिए वनों को काटना अनिवार्य हो तो उसकी भरपाई की व्यवस्था होनी चाहिए। उदाहरणतया जब खानों से खनिज समाप्त हो जाते हैं तो खानों के स्थान पर पेड़ों को उगाने की व्यवस्था अनिवार्य होनी चाहिए। इसी प्रकार से उद्योगों के लिए हरित पट्टी के विकास को अनिवार्य कर देना चाहिए। नई बस्तियां बसाने तथा पुरानी बस्तियों के विकास के लिए ऐसी योजना का विकास करना चाहिए कि वनों को न्यूनतम हानि हो।
11. देश के विभिन्न इलाकों में स्थानांतरी कृषि (Shifting Agriculture) से वनों को भारी हानि पहुंचती है। अतः स्थानांतरी कृषि के स्थान पर स्थाई कृषि को बढ़ावा देना चाहिए।
12. वनों की उपयोगिता तथा इनके संरक्षण के संबंध में जन-साधारण में जागरूकता पैदा करनी चाहिए। वनों की समस्याओं के सम्बन्ध में लोगों को जागरूक बनाने हेतु 1950 में वन महोत्सव आरम्भ किया गया। चिपको आन्दोलन वनों के प्रति लोगों में जागरूकता का ज्वलन्त उदाहरण है। प्रतिवर्ष 21 मार्च को विश्व वन दिवस मनाया जाता है, जो जन-साधारण में जागरूकता उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान करता है।
13. वनों में आग लगने से वनों को भारी क्षति पहुंचती है। अतः वनों को आग से बचाने के लिए आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग करना चाहिए।
14. वनों को कीड़ों एवं बीमारियों से भी भारी क्षति पहुंचती है। अतः पेड़ों की उचित देखभाल के लिए उन्हें कीड़ों एवं बीमारियों से बचाने के उपाय करने चाहिए।
15. वनों की उचित देख-भाल के लिए वन विभाग तथा अन्य विभागों में नियमित ताल-मेल होना चाहिए।
16. वनों के संरक्षण के लिए वन संबंधी शोध कार्य अति आवश्यक हैं। अतः सरकार को चाहिए कि वह इसके लिए आधारभूत ढांचा तैयार करे और इस प्रकार के शोध कार्य को प्रोत्साहित करे।
17. वनों के संबंध में हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। वनों को केवल आय का साधन न समझ कर इसे प्रकृति प्रदत्त अनमोल उपहार समझना चाहिए जो हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ पर्यावरण को शुद्ध रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अतरू इसे धरोहर समझ कर इसका दुरुपयोग नहीं बल्कि सदुपयोग करना चाहिए।
18. वनों के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्व के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए गोष्ठियों, वार्ताओं, प्रदर्शनियों आदि का आयोजन करना आवश्यक है।
वन नीति और कानून (Forest Policy and law)
वनों से विभिन्न वस्तुओं को प्राप्त करने, बाढा व मृदा अपार नियंत्रित करने आदि के लिए वनों का उचित विकास है अतरू वनों के संरक्षण के लिए वैज्ञानिक नीति अपनाना है। भारत उन कुछ देशों में से है जहां 1894 से ही वनी है। इसे 1952 तथा 1988 में संशोधित किया गया। इसके साथ निम्नलिखित हैंः
1. पारिस्थितिकी संतुलन के संरक्षण तथा पुनर्स्थापना द्वारा पर्यावरण संतुलन को बनाए रखना।
2. प्राकृतिक संपदा का संरक्षण करना।
3. नदियों, झीलों और जलाश्यों के जलग्रहण क्षेत्र में भूमि कटाव तथा वनों के क्षरण को नियंत्रित करना।
4. राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों तथा तटवर्ती क्षेत्रों में रेत का टीलों के विस्तार को रोकना।
5. व्यापक वृक्षारोपण और सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के माध्यम से वनों के आच्छादन में महत्वपूर्ण वृद्धि करना।
6. ग्रामीण तथा आदिवासी जनसंख्या के लिए ईंधन की लकड़ी चारा तथा अन्य छोटी-मोटी वन उपज आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कदम उठाना।
7. राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वन उत्पादों में वृद्धि करना।
8. वन उत्पादों के सही उपयोग को बढ़ावा देना तथा लकड़ी का अनुकूलतम विकल्प ढूंढ़ना।
9. इन उद्देश्यों की पूर्ति एवं वर्तमान वनों पर दबाव कम करने के लिए बड़े पैमाने पर आम जनता विशेषकर महिलाओं का अधिकतम सहयोग प्राप्त करना।
राष्ट्रीय वन अधिनियम 1927 के लागू होने के बाद वनीकरण के क्षेत्र में कई वैचारिक बदलाव आए। वनों एवं वन जीवन क्षेत्र के कामकाज की समीक्षा के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 7 फरवरी, 2003 को राष्ट्रीय वन आयोग का गठन किया। आने वाले 20 वर्षों के लिए एक बृहद रणनीति योजना के रूप में राष्ट्रीय वन्य कार्यक्रम भी तैयार किया गया है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य वनों की कटाई पर रोक लगाना तथा देश के एक-तिहाई भाग को वनों से ढकना है। वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 के प्रावधानों के अन्तर्गत वन भूमि को गैर-वन भूमि में परिवर्तित करने से पहले सरकार की अनुमति लेना अनिवार्य है। 1987 में केन्द्रीय पर्यावरण तथा वन मंत्रालय के अधीन भारतीय वन्य अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (Indian Council of Forestry Research and Education) की स्थापना की गई। बाद में इसे भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ( Indian Council of Agriculture Research) का स्वायत्तता प्रदान की गई।
वन क्षेत्र को बढ़ाने के लिए छठी पंचवर्षीय योजना के दौरान सामाजिक वानिकी आरंभ की गई। इस योजना का उद्देश्य समुदाय की लकड़ा. इंधन तथा चारा संबधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पेड़ लगाना है। इसके अंतर्गत समुदाय की भूमि, निजी भूमि तथा सड़कों एवं नदियों के किनारों पर पेड़ लगाए जाते हैं। इससे लोगों की भागीदारी बढती है। बंजर भूमि तथा कटे हुए वनों की भूमि पर भी पेड़ लगा कर वनों के आवरण में वृद्धि की जाती है। इतना कुछ होने के बाद भी इस कार्यक्रम को आंशिक सफलता ही मिली है।
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