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साम्प्रदायिकता क्या है | साम्प्रदायिकता की समस्या , कारण , उपाय राजनीति क्या है communalism in hindi

communalism in hindi definition in india साम्प्रदायिकता क्या है | साम्प्रदायिकता की समस्या , कारण , उपाय राजनीति क्या है ?

धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिक चुनौती

धर्मनिरपेक्षता को साम्प्रदायिक चुनौतियाँ
ऐसी आशा थी कि पूँजीवादी आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के साथ एक हेतुवादी संलाप चल पड़ेगा और धर्म लोगों के जीवन के ऊपर नियंत्रण खो देगा। भारत में बहरहाल, पूँजीवाद का द्रुतगति से बढ़ना सम्प्रदायवाद के तीव्रीकरण के साथ ही हुआ। यह घातक रूप से हुआ है बावजूद इसके कि एक धर्मनिरपेक्ष संरचना के लिए प्रावधान और धर्मनिरपेक्ष ताकतों का सम्पूर्ण सांस्थानिक समर्थन हासिल हैं। इसके लिए निम्नलिखित कारक उत्तरदायी माने जा सकते हैं:

राष्ट्रीय आंदोलन का स्वभाव
संगठित साम्प्रदायिक चुनौतियों के रूप में धर्मनिरपेक्षता की इस हार का अन्वेषण करने के लिए हमें विभिन्न कारकों की जाँच करनी होगी। सुदीप्त कविराज ने धर्मनिरपेक्षता पर अपनी अनेक चर्चाओं में यह जताया है कि भारतीय बुर्जुआ वर्ग की भयंकर भूलों में से एक थी इसका पूँजीवादी आधुनिकतावाद के लिए वांछित सांस्कृतिक पूर्वशर्तों के निर्माण की उपेक्षा किया जाना। स्वतंत्रता से पूर्व, राष्ट्रवादी संलाप ने यह स्पष्टता अनुभव किया कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद पर आधारित नई पहचान की भंगुरता जाति अथवा धर्म की अधिक सुपरिचित पहचानों के विरुद्ध है। स्वतंत्रता के बाद, बहरहाल, एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के निर्माण की इस राष्ट्रवादी परियोजना ने अपने लोकप्रिय गुण और वैचारिक उत्साह को खो दिया और मात्र राज्य की विचारधारा बनकर रह गई। शासक वर्ग यह स्पष्टतया अनुभव करने में असफल रहा कि भारतीय राष्ट्रवाद एक भंजनशील सृजन था और सतत् सांस्कृतिक व राजनीतिक पोषण चाहता था। इतिहास का राष्ट्रवादी लेखाजोखा जो भारत के बीते काल को एक ‘मिश्रित संस्कृति‘ मानता है, विकृत रूप में सामने आया, तात्पर्य यह था कि इस सामंजस्य को भंग करने वाले उपनिवेशवाद के बुरे मनसूबे ही थे।

इतिहास के इस वर्णन में इस तथ्य को पूरी तरह से झुठलाया गया है कि भारतीय राष्ट्रवाद को अधिकतर शक्ति एक धर्मनिरपेक्ष मुहावरे से स्वयं नहीं मिली बल्कि धर्म, विशेषतः हिन्दूवाद के दवाबों, भाषा-पद्धतियों व प्रतीकों से मिली। हम यहाँ यह तथ्य भी रखेंगे कि कांग्रेस पार्टी स्वतंत्रतापूर्व अपनी राजनीति इस सिद्धांत के आधार पर चलाती थी भारत दो भिन्न संप्रदायों हिन्दू और मुसलमान से मिलकर बना है।

अकील बिलग्रामी ने भारतीय धर्मनिरपेक्षता की चुनौती को इसके बे-मोलतोल, आर्कमिडीयन लक्षण के परिणाम के रूप में पहचाना है। उनका तर्क यह है कि राष्ट्रीय आंदोलन ने समुदायों के बीच किसी रचनात्मक वार्तालाप को सुसाध्य नहीं बनाया जिसने सम्प्रदायवाद की एक मोलभाव की गई शर्त के आविर्भाव को सुनिश्चित किया होता। कांग्रेस पार्टी ने, उदाहरण के लिए, ऐसी किसी चर्चा को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया। बिलग्रामी का मत है कि धर्मनिरपेक्षता को धार्मिक राजनीति की सीमा से अन्तर्मन से बाहर आना होगा, और इससे पहले कि एक खदबदाहटपूर्ण स्थिरबुद्धि सत्ता कायम हो जो धार्मिक और राजनीतिक वचनों से मुक्त होती है। ऐसी एक मोलभाव की गई धर्मनिरपेक्षता ने, उदाहरण के लिए, अल्पसंख्यकों के प्रति नाराजगी को टाल दिया होता क्योंकि उनका विशेष दर्जा एक गैर-मोलतोल की धर्मनिरपेक्षता के परिणामस्वरूप है।

बिना करार की इस धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करना उत्तरोत्तर रूप से मुश्किल होता जा रहा है। इस प्रकार, यह टिप्पणी वास्तव में आश्चर्यजनक नहीं है कि संप्रदायवाद आज कोई विपथगमन नहीं रहा है जो भारत राष्ट्र के हाशियों पर है, लेकिन जैसा कि रजनी कोठारी उल्लेख करती हैं, यह राजनीतिक व्यवस्था का एक अंग बन गया है। ऐसा नहीं कि राज्य साम्प्रदायिक ताकतों का शिकार बन गया है, बल्कि सम्प्रदायवाद भारतीय राज्य की तर्क-संगति का सीधा-सीधा परिणाम दिखाई पड़ता है। यद्यपि भारतीय समाज ने इसे धर्मनिरपेक्ष कार्यसूची की एक औपचारिक स्वीकृति प्रदान की थी, वास्तविकता यह है कि धर्मनिरपेक्षता को समझने में गांधीवादियों और नेहरूवादियों के बीच मतभेदों से परे, राजनीतिक वर्ग का एक पूरा भाग ऐसा था जो संशयवादी और इन धर्मनिरपेक्ष आदर्शों को स्वीकार करने का अनिच्छुक भी था।

चुनावीय राजनीति और लोकतंत्रीय संस्थाओं का पतन
धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों के प्रति अनिश्चित वचन के चरमोत्कर्ष का अर्थ है उन सभी बड़े राजनीतिक दलों द्वारा साम्प्रदायिक आशंकाओं और संवेदनशीलताओं का एक असैद्धांतिक शोषण, जिनमें शामिल मुख्य दलों में एक दल कांग्रेस पार्टी है। धर्म का यह विषादयुक्त उपयोग अस्सी के दशक में एक चुनावीय रणनीति के रूप में परिष्कृत हुआ जिसके विनाशकारी परिणाम हुए । कांग्रेस जो अपना लोकप्रिय आंदोलन-लक्षण काफी पहले से छोड़ चुकी थी, अब चुनाव जीतने की एक मशीन मात्र हो गई थी। पार्टी का बहुधर्मी समाज का वायदा जल्द ही वोट बैंक की राजनीति में अधःपतित हो गया जहाँ चुनावीय उद्देश्यों के लिए बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदाय की केवल सांख्यकीय शक्ति का ही महत्त्व था।

तीक्ष्ण होते सामाजिक व आर्थिक विवाद और प्रचण्ड पर्यावरणीय ह्रास जिसके कारण जनसाधारण से उनकी आजीविकाएँ छिन गईं, ने आम असंतोष को एक दूर-दूर तक व्याप्त वास्तविकता बना दिया। सत्तर के दशकांत तक कांग्रेस को यह स्पष्ट होने लगा था कि उसके पहले वाले समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के नारे पारम्परिक समर्थकों के बीच अपना प्रभाव खोने लगे थे क्योंकि ये नारे मात्र .नारे ही रहे, और समाज के गरीब और हाशिए के तबकों, जिनमें कई पारम्परिक कांग्रेस समर्थक थे, के जीवन में ये कोई महत्त्वपूर्ण बदलाव नहीं लाए। ये तबके धीरे-धीरे कांग्रेस से दूर हो गए। पार्टी ने पलटकर एक नए निर्वाचन क्षेत्र की ओर रुख कर लिया और अस्सी के दशक में परिश्रमपूर्वक हिन्दु मध्यम और निम्नतर वर्गों को तैयार किया जो कि उत्तरोत्तर रूप से विभिन्न पिछड़ी जाति और निचले दर्जे आंदोलनों से अपने को भयग्रस्त महसूस कर रहे थे। ये आंदोलनकारी इस तथ्य को लेकर काफी शक्ति और लोकप्रियता हासिल कर रहे थे कि राष्ट्रीय विकास परियोजना बिल्कुल उनके पास से होकर गुजर चुकी है। कांग्रेस पार्टी द्वारा एक मुक्तरूप से बहुमतवादी राजनीति का अपनाया जाना उसकी स्वायत्त शासन के बुर्जुआ सलाहकारी सिद्धांत वाली ऐतिहासिक भूमिका के बिल्कुल विपरीत था। कांग्रेस ने इस प्रकार और अधिक विस्तृत सामाजिक मामलों की छद्म-क्रीड़ा की रणनीति अपनाई और बहुमत समुदाय से सीधे-सीधे समर्थन माँगने का निर्णय लिया। यह रणनीति थी भारत देश को उत्तरोत्तर रूप से बहुसंख्यक समुदाय के शब्दों में परिभाषित करना, इस प्रकार साम्प्रदायिक राजनीति के लिए आधार बनाना जिसने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का रूप ले लिया।

इस प्रकार, आम असंतोष ओर माँगों के प्रत्युत्तर की बजाय साम्प्रदायिक तेवर उत्पन्न करने वाली भावनाओं व अनुभूतियों को शामिल करके मामलों का एक और सेट थोपने का प्रयास किया गया। सामान्यतः साम्प्रदायिक राजनीति, और विशेषतः भारतीय जनता पार्टी जैसे दलों, को सर्वसम्मति के ढेर हो जाने से लाभ मिला जो भारतीय राजनीतिक संभ्रान्त वर्ग को धर्मनिरपेक्षता, आर्थिक स्वाबलम्बन और गुटनिरपेक्षता से प्राप्त था।

चुनावीय मजबूरियों के चलते कांग्रेस ने एक बहुमतवादी मार्ग को छोड़कर एक तकनीकी-नौकरशाही-सैन्य मार्ग पकड़ा जहाँ राज्य नीचे से मिलने वाली किसी भी चुनौती को कुचलने का हथियार था बजाय इसके कि वह परिवर्तन और रूपांतरण का मुख्य अभिकर्ता हो।

साम्प्रदायिक हिंसा की बढ़ती घटनाओं से परे, अब तक अछूते ग्रामीण क्षेत्रों में साम्प्रदायिक राजनीति व हिंसा का फैलाव उस धर्मनिरपेक्ष संरचना पर अभी एक और बड़ा खतरा है जिसे बुनने का भारतीय राज्य प्रयास कर रहा था। इस घटनाक्रम ने विभिन्न “हिन्दू सांस्कृतिक गुटों‘‘ के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ प्रदान की, जैसे विश्व हिन्दू परिषद् व अन्य के लिए जो ‘हिन्दू‘ समुदाय के विकास के लिए पुनर्निर्माण और एकीकरण में संलिप्त होने का दावा करते थे। उन्होंने भारतीय डाइस्पर (क्पंेचवतं) के एक तबके से काफी समर्थन जुटा भी लिया। ये संगठन उस मध्यम वर्ग के कुछ खास डरों का जवाब दे सकने में समर्थ थे जो चाहता था कि सत्ता की पारम्परिक संरचनाओं और अनुक्रम को कोई चुनौती न दे जबकि साथ ही वे आधुनिक विपणन स्थान व अर्थव्यवस्था के उदारदानों की इच्छा भी रखते थे।

इस चरण ने, इस प्रकार, लोकतांत्रिक राजनीति और दल-पद्धति व राजनीतिक संस्थाओं का पूरी . तरह अपयश होते देखा। परिणामी रिक्तता को, रजनी कोठारी के मतानुसार, साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा भरा गया है। यह भारतीय राज्य की धर्मनिरपेक्ष संरचना को निश्चित रूप से एक बड़ी चुनौती है।

 पूँजीपति विकास का स्वभाव और भारतीय शासक वर्ग का चरित्र
शासकवर्गीय राजनीति की अपनी प्रकृति ही, रणधीर सिंह के अनुसार, भारत में समुदायवाद का मुख्य कारण है । सम्प्रदायवाद का बढ़ता कद और धार्मिक पुनर्जागरणवाद आदि जैसे संबंधित प्रपंच, उनका तर्क है, एक और भारतीय राज्य-व्यवस्था और शासक वर्ग की राजनीति में संकट-काल की तह तक समानुपात में हैं, और दूसरी ओर जनता की वाम व वर्ग-आधारित राजनीति के अस्तित्व व शक्ति के व्युत्क्रमानुपात में। अतैव, उन्होंने भारत में धर्मनिरपेक्षता को साम्प्रदायिक चुनौती को अपनी ऐतिहासिक रूप से पूँजीवादी विकास वाली विशिष्ट शैली के अधीन एक ऐसे समाज में भारतीय शासक-वर्गों की राजनीतिक विचारधारा व व्यवहार के रूप में परिभाषित किया है जो बृहत् सामंती-औपनिवेशिक विरासत, गहरे धार्मिक विभाजनों वाला है।

तर्क यह है कि विकास के चार दशकों ने भारतीय समाज की गहरी असमान प्रकृति को परिवर्तितः नहीं किया है. वास्तव में पूँजीवादी विकास ने सामाजिक तनावों को बढ़ाया है। चूंकि उपलब्ध अवसर स्वभावतः सीमित हुआ करते हैं, संकीर्ण और अनन्यतावादी स्वार्थों को प्रोत्साहित करने वाली राजनीति और विचारधारा ही अल्पसंख्यकों के विरुद्ध इस सामाजिक तनाव को दिशा देती हैं। वास्तव में, यह सत्य है कि जीवन की परिस्थितियाँ बदतर हुई हैं और पृथक्करण बढ़ा है। यह असन्तोष जो कि लोग अमीर व गरीब के बीच लोकतांत्रिक संघर्षों के माध्यम से पाटने की बजाय गहरी की जा रही खाई के कारण मानते हैं, एक पुनर्जागरणवादी और भड़कीली धार्मिकता के माध्यम से व्यक्त किया जा रहा है जिसको कई मायनों में मीडिया ने भी समर्थन दिया है। मुख्य दूरदर्शन चैनलों पर देखा जा सकता है किस प्रकार धार्मिक अतिरंजिकाओं को पेश करने की होड़-सी लगी है। अस्सी के दशक में धार्मिक आग्रह के बृहत् आधार को चैड़ा करने का सभिप्राय प्रयास देखा गया – बड़े पैमाने पर और लगभग पूरी तरह लाभ कमाने के उद्देश्य से किए जाने वाली कुछ चुनींदा त्योहारों का आयोजन उस वृहद्तर रणनीति का हिस्सा है जो स्थानीय त्योहारों व अनुष्ठानों के महत्त्व को प्रतिस्थापित कर और धार्मिक सार्वभौमिक हिन्दूवादश् उत्पन्न करने के लिए है।

 धर्मनिरपेक्षता को प्रति-आधुनिकतावादी चुनौती
उपर्युक्त चर्चा के आधार पर यह स्पष्ट है धर्मनिरपेक्ष राज्य, इसकी संरचना और स्वयं धर्मनिरपेक्ष राजनीति को आज उस सम्प्रदायवाद की बढ़ती ताकतों द्वारा गंभीर चुनौती दी जा रही है जिसकी जड़ें विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, आर्थिक व चुनावीय कारकों में हैं। बौद्धिक रूप से भी, शैक्षिक और पत्रकारिता साहित्य, दोनों में एक-के-बाद-एक ऐसी रचनाएँ हुई हैं जो आज मुक्त रूप से भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य और इसकी संस्थाओं के विरुद्ध तर्क देती हैं। इन तर्कों के परे जो कि एक विशुद्ध साम्प्रदायिक प्रकृति के हैं और इस कारण वाग्मितापूर्ण हैं, बौद्धिक रूप से परिष्कृत ऐसे तर्क भी हैं जो भारत में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य और राजनीति के अर्थ और उद्देश्य पर प्रतिवाद की फिराक में रहते हैं।

ऐसे भी पर्यवेक्षक हैं जो कहते हैं कि धर्मनिरपेक्षता की पाश्चात्य अवधारणा भारतीय समाज के उपयुक्त नहीं है। इसका तात्पर्य है उस धर्मनिरपेक्षता की विफलता। अशीष नन्दी, उदाहरण के लिए, तर्क देते हैं कि धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा और राजनीति, जैसा कि पाश्चात्य अर्थ में समझा गया है, न्यूनाधिक अपनी संभावनाएँ समाप्त कर चुके हैं। धर्मनिरपेक्षता का पाश्चात्य अर्थ, उनका कहना है, अवश्य ही धर्म के विरुद्ध है और मानता है कि केवल सार्वभौमिक श्रेणियाँ ही सार्वजनिक क्षेत्र को नियंत्रित कर सकती हैं। धर्म, इस प्रकार, किसी भी आधुनिक राज्य-व्यवस्था के लिए खतरा माना जाता है क्योंकि यह सार्वभौमिक नहीं होता। नन्दी के अनुसार, धर्मनिरपेक्षता एक विचाधारा के रूप में विफल रही है क्योंकि इसको आज एक बड़े पैकेज के हिस्से के रूप में देखा जा रहा है जिसमें मानकीकृत विचारधारागत उत्पादों और विकास, महाविज्ञान और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसी सामाजिक प्रक्रियाओं का एक सेट शामिल है। राज्य के बल से समर्पित ये तत्त्वतः उग्र विचारों के रूप में दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि धर्मनिरपेक्षता समेत इन विचारों में से किसी को समर्थन देने के लिए, राज्य तर्कसंगत रूप से हिंसा का प्रयोग कर सकता है। नन्दी इस बात की आलोचना करते हैं कि जब आधुनिक राष्ट्र-राज्य आस्तिकों को अपनी निजी आस्थाएँ सार्वजनिक जीवन से दूर रखने का आग्रह करता है तो यह सुनिश्चित करना असंभव होता है कि धर्मनिरपेक्षवाद, विकास और राष्ट्रवाद की विचारधाराएँ स्वयं ही अन्यों के प्रति असहिष्णुता वाली आस्थाओं के रूप में व्यवहार न शुरू कर दें। ऐसी परिस्थितियों में राज्य की भूमिका की तुलना नन्दी द्वारा धार्मिक विचारधाराओं की धर्मयुद्ध वाली और अनुसंधानात्मक भूमिका से की गई है।

इसके अलावा, यह कथन तथ्याधारित नहीं है कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा से व्युत्पन्न मान्यताएँ राजनीतिक क्रियातंत्र के लिए और धार्मिक सिद्धांतों पर आधारित मूल्यों व राजनीति की अपेक्षा कम उग्र और समृद्धतर राजनीतिक जीवन के लिए किसी भी प्रकार से एक बेहतर मार्गदर्शक हो सकती हैं। नन्दी का दावा है कि एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य के सार-सिद्धांत विषयीकरण, वैज्ञानिकीकरण, और नौकरशाही-समझदारी केवल हिंसा ही फैला सकते हैं। ऐसे राज्यों में संभ्रान्त वर्ग शासनकला को विशुद्ध ‘धर्मनिरपेक्ष‘ और ‘नीतिनिरपेक्ष‘ शब्दों से तौलते हैं, इस प्रकार धर्म और जातीयता को राष्ट्र-निर्माण व राज्य के गठन की बृहत् परियोजना के रास्ते की अड़चनें मानते हैं । इस प्रकार, नंदी तर्क देते हैं, धर्म-निरपेक्षता की पाश्चात्य संकल्पना वैधता प्रदान करती सार-संकल्पनाओं के एक सेट के लिए सुचालनीय सहायक बन जाती है, इस विचारधारा को स्वीकार करना, उनका दावा है, सत्ता के औचित्य और स्वीकृति को तथा प्रगति व आधुनिकता के नाम पर कर बैठी गई हिंसा को प्रेरित करता है। यह उन अनुनायियों के बीच घृणा ओर हिंसा भी उत्पन्न करता है जो एक ऐसी दुनिया का सामना कर रहे हैं जो उनके चंगुल से तेजी से निकलती जा रही है।

इस प्रकार की धर्मनिरपेक्षता उन लोगों पर थोपी गई है जो राजनीति से धर्म को कभी अलग नहीं करना चाहते थे, इस अधिरोपण को एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य का सृजन पूरा करने के लिए आवश्यक वांछनीयताओं के अंग के रूप में रखना पड़ा, इसने यद्यपि भारत की आम जनता को बहुत मायूस किया, जिनके पास आधुनिकता के नाम पर देश की नृशंसताओं के विरुद्ध लड़ाई के सिवा कोई रास्ता न रहा, एकमात्र धार्मिक राजनीति की ओर मुड़े जो अनुमति आधुनिकता ही देती, नामतः साम्प्रदायिक राजनीति । इस प्रकार, व्यावहारिक रूप में धर्मनिरपेक्षता ही है जो संप्रदायवाद को जन्म देती है। असहिष्णुता दोनों ही से संबद्ध है, जिसने कि उस सहनशीलता के गुण का स्थान ले लिया है जो धर्म के आधार पर संगठित परम्परागत समाज की विशेषीकृत करती रही है।

 बचाव क्या है?
इस तरह की चर्चा अधूरी रहेगी यदि हम धर्मनिरपेक्षता को मिल रही साम्प्रदायिक चुनौतियों का जवाब देने के तरीकों पर एक नजर न डालें। साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष को एक ऐसा संघर्ष बनाना होगा जो मात्र साम्प्रदायिक के विरुद्ध होने से कहीं अधिक हो, यह अपेक्षाकृत अधिक भागीदारी के लिए एक वृहद्तर संघर्ष का अंग और समाज का समतावादी आदर्श हो। इसको आवश्यक रूप से उन सभी आंदोलनों को साथ लेकर चलना होगा जो अन्याय, क्रम-परंपरा और उत्पीड़न के प्रश्नों के उत्तर पाने की चेष्टा में हैं। इस प्रकार, नारी-आंदोलन, दलित-आंदोलन और हमारे समाज के पददलित और हाशिये पर के तबकों के अन्य आंदोलनों को साम्प्रदायिक चुनौती का एक धर्मनिरपेक्ष जवाब देने के लिए एक साथ सामने आना होगा।

मनोरंजन मोहन्ती का तर्क है कि धर्मनिरपेक्षता तभी अर्थपूर्ण हो सकती है जब यह लोकतांत्रिक रूपान्तरीकरण की सम्पूर्ण प्रक्रिया का एक अंग बन जाए। अब तक हमने भारत में जो देखा है वो है एक राज्य द्वारा थोपी गई धर्मनिरपेक्षता जो उत्तरोत्तर रूप से सत्तावादी बन चुकी है, इसके विपरीत धर्मनिरपेक्षता को सामाजिक-राजनीतिक प्रभुत्व के विरुद्ध कहीं अधिक विस्तृत संघर्ष का एक अंग बनना होगा।

इस संघर्ष का एक बहुत महत्त्वपूर्ण पहलू होना चाहिए हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं का ध्यानपूर्वक पुनर्परीक्षण, और परम्परा और संस्कृति के प्रश्नों के साथ एक सक्रिय आबन्ध, ताकि इस बात में संशय न रहे कि संस्कृति एक बहुत महत्त्वपूर्ण धुरी है जिसके इर्द-गिर्द आजकल खूब साम्प्रदायिक लामबन्दी चल रही है। इस प्रकार, धर्मनिरपेक्षता को भारत की आम जनता के उस संघर्ष का हिस्सा बनना होगा जो कि वे अपने ऐसे जीवन के अधिकार के लिए कर रहे हैं जो गौरवपूर्ण हो और राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक रूप से स्वतंत्र हो।

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