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वर्ग की अवधारणा को समझाइए क्या है | समाज में वर्ग किसे कहते है परिभाषा what is class in sociology in hindi

what is class in sociology in hindi वर्ग की अवधारणा को समझाइए क्या है | समाज में वर्ग किसे कहते है परिभाषा ?

वर्ग संरचना
अंग्रेजी की शब्द ‘क्लास‘ (बसंेे) अर्थात् वर्ग का उद्भव लैटिन शब्द ‘क्लासिस‘ (बसंेेपे) से हुआ है। ‘क्लासिस‘ शब्द का प्रयोग व्यक्तियों के सशस्त्र समूह के लिये किया जाता था। प्रसिद्ध रोमन राजा, सर्वियस टुलियस (678-534 ईसा पूर्व) के शासन में रोमन समाज सम्पत्ति के आधार पर पाँच वर्गों में विभक्त था। आगे चलकर वर्ग शब्द का प्रयोग मानव समाज के वृहत् समूहों के लिए किया जाने लगा।

मार्क्स के अनुसार पूँजीवादी समाज की एक बेजोड़ विशेषता वर्ग है। यही कारण था कि मार्क्स ने पूंजीवाद समाज के अलावा किसी अन्य तरह के समाज में वर्ग संरचना तथा वर्ग संबंधों का अध्ययन नहीं किया।

वस्तुतः समाजशास्त्र में मार्क्स के योगदान को वर्ग संघर्ष का समाजशास्त्र कहा जा सकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि मार्क्सवादी चिन्तन एवं दर्शन के किसी भी अध्ययन के लिए हमें वर्ग की मार्क्सवादी धारणा को समझना अत्यंत आवश्यक है। मार्क्स ने अपनी संपूर्ण कृतियों में सामाजिक वर्ग की अवधारणा प्रयुक्त की है लेकिन इसकी व्याख्या पूर्ण रूप से कहीं नहीं की है। मार्क्स ने वर्ग संरचना की जो भी महत्वपूर्ण एवं विशद व्याख्या की है वह उसकी प्रसिद्ध कृति, कैपिटल (1894) के तीसरे भाग में है। ‘सामाजिक वर्ग‘ के शीर्षक के अन्तर्गत मार्क्स ने आय के तीन स्रोतों से संबंधित तीन विभिन्न वर्गों को अलग-अलग किया तथा परिभाषित किया है। ये वर्ग हैं (अ) साधारण श्रमशक्ति पर निर्भर रहने वाले वे श्रमिक जिनकी आजीविका का मुख्य स्रोत श्रम है, (ब) पूंजीपति जिनकी आय का मुख्य स्रोत अतिरिक्त मुल्य अथवा उत्पादन से होने वाला लाभ है, तथा (स) भूमिपति जिनकी आय का मुख्य स्रोत भूमि का किराया है। इस प्रकार आधुनिक पूंजीवादी समाज की वर्ग संरचना में तीन वर्ग मुख्य हैं, वेतनभोगी श्रमिक अथवा कामगार, पूंजीपति तथा भूमिपति।

मौटे तौर पर समाज को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पहला पूंजीपति जिसे ‘बुर्जुआ वर्ग‘ कहा जाता है, इनके पास भूमि अथवा पूंजी, फैक्टरी जैसे उत्पादन के साधनों का स्वामित्व होता है। दूसरा सर्वहारा वर्ग, जिसके पास अपनी आजीविका के लिये श्रम के अतिरिक्त कुछ नहीं होता। मार्क्स ने सामाजिक वर्ग की सुनिश्चित परिभाषा देने का प्रयास किया है। उसके अनुसार किसी भी सामाजिक वर्ग का उत्पादन की प्रक्रिया में एक निश्चित स्थान होता है।
सोचिए और करिए 1
क्या भारतीय समाज को, मार्क्सवादी वर्ग की अवधारणा के संदर्भ में, वर्गों में बांटा जा सकता है? यदि हां, तो इन वर्गों का वर्णन कीजिये। यदि नहीं, तो बताइये भारतीय समाज को इस तरह क्यों वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।

वर्ग निर्धारण के प्रमुख आधार
वर्ग और वर्ग संरचना की विशद् विवेचना से पूर्व हमें यह जान लेना चाहिये कि वर्ग कैसे बनते हैं तथा इनके निर्धारण के प्रमुख आधार क्या हैं। सभी मानव समूह वर्ग नहीं कहे जा सकते हैं। इसलिये आइये हम सब इस बात की चर्चा करें कि मार्क्सवादी संदर्भ में किन मानवीय समूहों को वर्ग कहा जा सकता है और किस समूह को वर्ग नहीं कहा जा सकता। किसी भी सामाजिक वर्ग के निर्धारण में दो प्रमुख आधार होते हैं- (प) वस्तुपरक आधार (पप) स्वचेतना परक आधार। वर्ग को समझने के लिये आइये अब हम इन आधारों की व्याख्या करें।

(प) वस्तुपरक (वइरमबजपअम) आधारः उत्पादन के साधनों के साथ जब व्यक्तियों के समान संबंध होते हैं तो ऐसे समूह को वर्ग कहा जाता है। इसे समझने के लिये आइये हम एक उदाहरण लें, जैसे कि कृषि व्यवस्था में सभी खेतिहर मजदूरों के भूमि तथा भूमिपतियों से एक जैसे संबंध होते हैं। उसी तरह से भूमिपतियों के भूमि तथा खेतिहर मजदूरों से एक समान संबंध होते हैं। इस प्रकार इस व्यवस्था में दो वर्ग हैं, एक ओर श्रमिक वर्ग और दूसरी ओर भूमिपति वर्ग। लेकिन मार्क्सवादी संदर्भ में वर्ग निर्धारण के लिए ये संबंध पर्याप्त नहीं हैं। इस संदर्भ में मार्क्स का. एक कथन बहुत प्रसिद्ध है कि वर्ग अपने आप में वर्ग होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु उसे एक सचेत वर्ग होना चाहिए। इससे क्या अभिप्राय है? मार्क्स के अनुसार किसी सामाजिक वर्ग के वस्तुपरक आधार ही उसके अपने आप में वर्ग होने का निर्धारण करते हैं। वर्ग का अपने आप में वर्ग होने को किसी भी सामाजिक वर्ग का वस्तुपरक आधार माना जाता है। परन्तु मार्क्स ने वर्ग की परिभाषा करते समय केवल वस्तुपरक आधारों को ही वर्ग का पूर्ण आधार नहीं माना अपितु उसने वर्ग के दूसरे प्रमुख आधार अर्थात् स्वचेतनापरक आधार को भी समान रूप से महत्व दिया।

(पप) स्वचेतनापरक (ैनइरमबजपअम) आधारः किसी भी समाज में अनेक समूह होते हैं, यदि इन समूहों को हम पहले आधार पर ही वर्ग माने लें तो ऐसे वर्ग वर्ग न होकर केवल संवर्ग (केटेगरी) होंगे। अतः वर्ग निर्धारण में स्वचेतनापरक आधार अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस प्रकार किसी भी वर्ग में सदस्यों के उत्पादन साधनों से न केवल एक से संबंध होते हैं, अपितु उनमें इस बात की जागरूकता या वर्ग चेतना भी पाई जाती है कि वे एक ही वर्ग के सदस्य हैं।

वर्ग के बारे में यह एक सी चेतना, कि वे एक ही वर्ग के सदस्य हैं, किसी भी वर्ग के सदस्यों को सामाजिक क्रिया हेतु संगठित करने का.आधार बन जाती है। अपने वर्ग हित के लिये संगठित प्रयास करने की यह वर्ग चेतना मार्क्स के शब्दों में सही वर्ग चेतना है। इसी को मार्क्स ने सचेत वर्ग (बसंेे वित पजेमस)ि माना है।

इस प्रकार किसी भी समाज में इन दो आधारों के द्वारा वर्ग और वर्ग संरचना निर्धारित होती है। अभी तक पढ़ी इस इकाई की पाठ्य सामग्री को आत्मसात कर पाने हेतु बोध प्रश्न 1 पूरा करें।

बोध प्रश्न 1
प) सामाजिक वर्ग को दो पंक्तियों में परिभाषित कीजिये।
पप) वर्ग निर्धारण के कौन से दो आधार हैं? तीन पंक्तियों में बताइए।

 बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 1
प) वे लोग, जिनके उत्पादन के साधनों के समान संबंध होते हैं अर्थात् अपने समान हितों के प्रति जिनमें समान जागरूकता पाई जाती है। वे एक वर्ग का निर्माण करते हैं।
पप) वर्ग निर्धारण के दो आधार हैंरू अ) वस्तुपरक आधार तथा ब) स्वचेतनापरक आधार ।

इतिहास में समाजों का वर्गीकरण एवं वर्गों का उदय
मार्क्स ने मानव इतिहास को आर्थिक अवस्थाओं अथवा उत्पादन प्रणाली के आधार पर विभिन्न अवस्थाओं में बाँटा। इन्हीं आधारों पर उसने एशियाटिक, प्राचीन, सामन्तवादी तथा पूंजीवादी उत्पादन के चार प्रमुख तरीके बताये। मार्क्स के अनुसार सामाजिक विकास की उत्कृष्ट अवस्था साम्यवाद होगी। आइये हम मानव इतिहास की इन विभिन्न अवस्थाओं अथवा समाज की इन विभिन्न ऐतिहासिक अवस्थाओं का अध्ययन करें। इन्हें आदिम-साम्यवादी, दास अवस्था, सामन्तवादी अवस्था, पूंजीवादी अवस्था तथा साम्यवादी अवस्था कहा गया है। इस उपभाग में हमने, वर्ग के संदर्भ में, पहली तीन अवस्थाओं की चर्चा की है।

(प) आदिम साम्यवादी अवस्था मनुष्य के समाज के इतिहास में सबसे पहली अवस्था थी और मनुष्य के संगठन का सबसे सरलतम एवं निम्नतम स्वरूप था। यह अवस्था हजारों वर्षों तक चलती रही। मनुष्य काठ के डण्डों तथा पत्थरों जैसे आदिम तरीकों को अपनाकर शिकार करता था अथवा जंगली भोजन एकत्रित करके जीवनयापन करता था। समय के साथ-साथ धीरे-धीरे मनुष्य ने आदिम औजारों को सुधारा और उसने आग जलाना सीखा, कृषि एवं पशुपालन करना सीखा। इस अवस्था में उत्पादन की तकनीक अथवा जानकारी बहुत निम्न स्तरीय थी अर्थात् दूसरे शब्दों में उत्पादन की शक्तियां निम्न स्तरीय थीं। उत्पादन के संबंध उत्पादन के साधनों के संयुक्त स्वामित्व पर आधारित थे। अतः ये संबंध परस्पर सहायता एवं सहयोग पर निर्भर थे। इन संबंधों की प्रकृति परस्पर सहयोग की इसलिये भी थी, कि उस समय प्रकृति के प्रकोपों और भीषण शक्तियों से मनुष्य सामूहिक रूप से मिलकर ही निपट सकता था। क्योंकि उसके औजार, उसकी तकनीकी जानकारी बहुत निम्न स्तरीय थी।

इस अवस्था में एक दूसरे का शोषण न होने के दो कारण थे। एक तो उत्पादन के साधन अर्थात् उपयोग में लाए जाने वाले औजार साधारण किस्म के होते थे, जैसे कि भाला, लाठी, धनुष एवं तीर, आदि। इसीलिए किसी व्यक्ति अथवा समूह का औजारों पर एकाधिकार नहीं होता था। दूसरा उत्पादन भी निम्न-स्तर का अथवा बहुत कम होता था। लोग केवल जीवन निर्वाह कर पाने में ही समर्थ थे। सभी के काम करने के बावजूद उत्पादन केवल इतना ही होता था कि सब का जीवन निर्वाह हो सके। अतः यह एक ऐसी अवस्था थी जिसमें कोई किसी का कोई मालिक अथवा सेवक नहीं था। सभी व्यक्ति एक समान थे।

धीरे-धीरे समय के साथ-साथ मनुष्य ने अपने औजारों और उत्पादन तकनीक को बेहतर बनाना शुरु किया तथा इसके साथ-साथ आवश्यकता से अतिरिक्त उत्पादन होने लगा। इस अतिरिक्त उत्पादन के कारण कुछ लोगों के पास निजी सम्पति संचित होने लगी और आदिम समानता का स्थान समाज में सामाजिक असमानता ने ले लिया। इस अवस्था में पहली बार दास तथा मालिकों के रूप में परस्पर विरोधी वर्ग अस्तित्व में आये। इससे हमको यह पता चलता है कि किस प्रकार उत्पादन की शक्तियों के विकास के फलस्वरूप आदिम साम्यवादी अवस्था का स्थान दास अवस्था ने ले लिया। यह कहा जा सकता है कि आदिम साम्यवादी अवस्था में वर्ग नहीं थे तथा वर्ग बनने के साथ-साथ दूसरी अवस्था आ गई जिसे दास अवस्था कहा गया।

(पप) दास अवस्था में आदिम औजारों को परिष्कृत किया गया। पत्थर और लकड़ी के औजारों का स्थान काँसे तथा लोहे के औजारों ने ले लिया। इसी अवस्था में वृहत्-स्तरीय कृषि, पशुपालन, खान उद्योग और हस्तकला जैसी विधाओं का विकास हुआ। उत्पादन की इस तकनीकी जानकारी अथवा उत्पादन की इन शक्तियों के विकास के कारण उत्पादन के संबंधों में परिवर्तन आये। ये संबंध इस बात पर आधारित थे कि मालिकों का गुलामों, उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं और उत्पादन के साधनों पर पूर्ण स्वामित्व था। मालिक गुलामों को उत्पादन का सिर्फ इतना ही हिस्सा देते थे, जिससे कि उनकी न्यूनतम आवश्यकतायें पूरी हो सकें और वे भूख से न मर जायें।

इस प्रकार मानव इतिहास में प्रथम बार मनुष्य का मनुष्य के द्वारा शोषण का इतिहास प्रारंभ हुआ और इसी के साथ वर्ग संघर्ष का इतिहास भी अस्तित्व में आया। समय के साथ-साथ उत्पादन की शक्तियों का विकास निरंतर जारी रहा, जिसके फलस्वरूप उत्पादन बढ़ने की प्रक्रिया में दास प्रथा एक बाधा प्रतीत होने लगी। उत्पादन की नई शक्ति उच्च उत्पादन के उद्देश्य से प्रेरित थी तथा इसके लिए उत्पादन के उपकरणों का और बेहतर होना भी जरुरी था। परन्तु गुलामों की इस नई प्रक्रिया में कोई रुचि नहीं थी, क्योंकि इस सबसे उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं होने वाला था। समय के साथ-साथ मालिक वर्ग और दास वर्ग में वर्ग संघर्ष चरम सीमा तक पहुंच गया, जिसके फलस्वरूप दास क्रांतिया हुई। पड़ौसी जनजातियों के आक्रमण के साथ-साथ इन क्रांतियों के फलस्वरूप दास प्रथा की जड़ें हिल गई और एक नई अवस्था का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे मार्क्स ने सामंतवादी (देखिए कोष्ठक 8.1) अवस्था कहा। बिंदु पपप) में सामंतवादी अवस्था की चर्चा की गई है।

कोष्ठक 8.1ः सामंतवादी व्यवस्था
सामंतवाद शब्द को ‘‘फीफ‘‘ (पिम)ि की संस्था से लिया गया है। फीफ जागीर को कहते हैं, जो कि भूमि सम्पति का एक टुकड़ा होती थी। यूरोपीयन इतिहास के मध्य युग में शासकों ने इस प्रथा को शुरू किया था। इसके अंतर्गत शासक अपने अधीनस्थ समूहों से सैन्य सुविधाएं लेकर, इसके बदले में उन्हें भूमि देता था। यह संबंध सम्पत्ति के अथवा फीफ या जागीर के हक के रूप में अभिव्यक्त होता था। इस संबंध को कानून की मान्यता मिली हुई थी। शासक अपने अधीनस्थों के लिये न्यायालय लगाते थे। जहां वे झगड़ों का निपटान करते थे तथा कानून एवं प्रथाओं का उल्लंघन करने वाले को दण्ड देते थे। यही न्यायालय एक प्रशासनिक निकाय भी था जो कि कर लगाता था तथा सैन्य बल का भी गठन करता था। भूमिपति कृषक वर्ग पर नियंत्रण रखते थे। बारहवीं शताब्दी तक भूमि के किरायेदार किसानों (खातेदार) तथा अन्य कृषकों पर भूमिपतियों का नियंत्रण अत्यधिक बढ़ गया था

(पपप) सामंतवादी अवस्था में उत्पादन की शक्तियों का विकास जारी रहा। मनुष्य ने इस अवस्था में मानव श्रम के अतिरिक्त, ऊर्जा अर्थात् अजैवकीय शक्ति के स्रोत प्रयोग में लाने शुरू कर दिए जिसमें जल तथा वायु प्रमुख थे। कारीगरी का विकास हुआ, नये औजार और मशीनों का आविष्कार हुआ और पुराने औजारों को परिष्कृत किया गया। इस अवस्था में निपुण कारीगरों ने उत्पादकता में महत्वपूर्ण वृद्धि की। उत्पादन की शक्तियों के विकास के कारण उत्पादन के सामंतवादी संबंधों की स्थापना हुई। ये सामंतवादी संबंध भूपतियों और भूमिहीन किसानों के मध्य स्थापित हुये। इन संबंधों में महत्वपूर्ण बात यह थी कि भूमिहीन कृषकों पर भूपति सामंतों का पूर्ण प्रभुत्व था और ये सामंत इन कृषकों का शोषण करते थे। तथापि दास प्रथा की तुलना में ये संबंध अधिक प्रगतिशील थे, क्योंकि इनके अंतर्गत दासों की तुलना में श्रमिकों की स्थिति बेहतर थी और श्रमिक कुछ हद तक अपने श्रम में रुचि लेने लगे थे। इसके साथ-साथ इस अवस्था में कृषक तथा कारीगर कुछ लघुस्तरीय उत्पादन के औजारों और कृषि की छोटी जोत के मालिक भी हो सकते थे।

समय के साथ-साथ नये आविष्कार हुये, जिससे उत्पादन की शक्ति में परिवर्तन आये, जनसंख्या में वृद्धि हुई, जिसके कारण उपभोग की वस्तुओं की मांग बढ़ी और उपनिवेशीकरण का युग प्रारंभ हुआ, जिसके कारण नये बाजार अस्तित्व में आये। नई प्रौद्योगिकी तथा आवश्यकताओं के कारण वृहत् स्तरीय उत्पादन की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। इस सब बातों ने असंगठित श्रमिकों को उत्पादन प्रक्रिया में एक स्थान पर लाकर खड़ा किया, जो कि फैक्ट्री अथवा असंगठित उद्योग कहलाये। इसका परिणाम यह हुआ कि पहले से ही तीक्ष्ण हुए वर्ग संघर्षों ने भूमिपतियों के विरुद्ध कृषक क्रांति का रूप ले लिया। उत्पादन की नई व्यवस्था में मुक्त श्रमिक की आवश्यकता थी जबकि भूमिहीन कृषक का श्रम केवल जमीन से जुड़ा हुआ था। अतः उत्पादन की नई शक्तियों ने उत्पादन के संबंधों को भी परिवर्तित किया, जिसके फलस्वरूप सामंतवादी उत्पादन के तरीके का पूंजीवादी उत्पादन के तरीके में परिवर्तन हुआ। अगले उपभाग (8.2.2) में हमने पूंजीवादी समाज में वर्ग संघर्ष पर चर्चा की है। परंतु अगले उपभाग को पढ़ने से पहले आइए बोध प्रश्न 2 पूरा करें।

बोध प्रश्न 2
प) मार्क्स द्वारा दी गई, समाज की पांच अवस्थाएं बताइए।
(पप) निम्नलिखित कथनों में से प्रत्येक के सामने सही अथवा गलत पर निशान लगाइए।
अ) दास अवस्था के साथ वर्ग संघर्ष अथवा विरोध का इतिहास शुरू हुआ। सही/गलत
ब) आदिम साम्यवादी अवस्था में सम्पति का निजी स्वामित्व नहीं था। सही/गलत

बोध प्रश्न 2 उत्तर
प) 1) आदिम साम्यवादी अवस्था 2) दास अवस्था
3) सामन्तवादी अवस्था 4) पूंजीवादी अवस्था
5) साम्यवाद
पप) अ) सही
ब) सही

 पूंजीवाद के अंतर्गत वर्ग संघर्ष की तीव्रता
पूँजीवाद पर आधारित व्यवस्था में उत्पादन शक्तियों का प्रमुख लक्षण वृहत् स्तरीय उत्पादन है। इस व्यवस्था के अस्तित्व में आते ही हस्तकला क्षेत्रों तथा लघु कृषि का स्थान विशालकाय फैक्ट्रियों और उद्योगों ने ले लिया। मार्क्स और एंजल्स (1848) ने मैनिफेस्टो ऑफ द कम्युनिस्ट पार्टी में यह बतलाया है कि पूंजीवादी उत्पादन शक्तियों ने किस तरह नए आविष्कारों से बड़ी-बड़ी आबादियों का नक्शा ही बदल दिया। पिछली दो शताब्दियों में पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन शक्तियों में इतना अधिक परिवर्तन आया जितना कि इससे पूर्व के सम्पूर्ण मानव इतिहास में नहीं आया था।

उत्पादन की शक्तियों की इस तीव्र प्रगति में पूंजीवादी उत्पादन के संबंधों का भी योगदान था। पूंजीवादी उत्पादन के संबंध उत्पादन के साधनों पर पूंजीपतियों के स्वामित्व पर आधारित थे। उत्पादक अथवा औद्योगिक श्रमिक कानूनी रूप से स्वतंत्र है अर्थात् है किसी जमीन अथवा किसी विशेष फैक्ट्री से जुड़ा हुआ नहीं है। इस व्यवस्था में श्रमिक की स्वतंत्रता इस अर्थ में है कि वह अपनी मनमर्जी से किसी भी पूंजीपति के पास कार्य करने जा सकता है, परन्तु वह बुर्जुआ वर्ग से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं है। उत्पादन के साधनों का स्वामित्व न होने के कारण उसे अपनी श्रम शक्ति बेचने के लिये बाध्य होना पड़ता है और उसे किसी न किसी पूंजीपति के पास कार्य करना पड़ता है। इस प्रकार वह इस शोषण के चक्र से नहीं बच सकता।

पहले की अपेक्षा स्वतंत्र औद्योगिक श्रमिक शोषण के कारण अपने वर्ग हितों के प्रति अधिक सचेत रहते हैं और अपने आपको कामगार आंदोलन के रूप में संगठित करते हैं। यह आंदोलन बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध संघर्ष को तेज करता है। इसमें सर्वप्रथम बेहतर वेतन और काम करने की दशाओं के लिये सौदेबाजी होती है। परन्तु अन्त में इसका उद्देश्य पूंजीवादी व्यवस्था का तख्ता पलटना होता है। मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था असमानता, शोषण तथा वर्ग संघर्ष के सबसे उग्रवादी स्वरूप का प्रतीक है। ये कारण मिलकर समाजवादी क्रांति का मार्ग प्रशस्त करते हैं, जिसके फलस्वरूप एक नयी अवस्था का प्रादुर्भाव होता है, जिसे साम्यवाद कहा गया है।
कोष्ठक 8.2ः साम्यवाद
‘‘साम्यवाद‘‘ शब्द का उद्भव 1830 ईस्वी के मध्य में हुआ था। इस समय पैरिस में गुप्त क्रांतिकारी पार्टियों ने ‘‘साम्यवाद‘‘ शब्द को अपनाया था। कामगार वर्ग ने पूंजीवादी समाज में पूंजीपतियों के विरुद्ध यह राजनैतिक आंदोलन चलाया था। साम्यवादी समाज का अभिप्राय उस समाज से था जो कामगार वर्ग के संघर्ष के परिणामस्वरूप सामने आने वाला था।

उन्नीसवीं शताब्दी के पिछले भाग में कामगार वर्ग के आंदोलन की चर्चा में साम्यवाद और समाजवाद का एक ही अर्थ समझा जाने लगा। मार्क्स तथा एंजल्स ने भी अपने लेखों में प्रायः इन अवधारणाओं का इसी तरह प्रयोग किया। तीसरे अंतर्राष्ट्रीय साम्यवादी सम्मेलन, 1917 के समय से पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने वाली क्रांति के रूप में साम्यवाद की अवधारणा का प्रयोग किया जाने लगा। लेकिन अब समाजवाद का अभिप्राय शांतिपूर्वक व वैधानिक गतिविधि द्वारा लाए गए दीर्घकालीन परिवर्तनों से समझा जाता है जबकि साम्यवाद का अर्थ हिंसात्मक क्रांति द्वारा लाए गए परिवर्तनों से है। मार्क्स ने साम्यवाद को समाज का एक विशिष्ट रूप माना है। इकॉनॉमिक एण्ड फिलॉसॉफिकल मैनुस्क्रिप्ट्स (1844) में मार्क्स ने लिखा है कि साम्यवाद के अंतर्गत निजी सम्पत्ति, स्व का अलगाव (ेमस-िंसपमदंजपवद) तथा मनुष्य का मनुष्य द्वारा शोषण पूर्ण रूप से समाप्त हो जाएगा।

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