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वर्ग और वर्ग संघर्ष क्या है | वर्ग संघर्ष की कारकों की व्याख्या कीजिए कारणों अवधारणा class conflict in sociology in hindi

class conflict in sociology in hindi or struggle वर्ग और वर्ग संघर्ष क्या है | वर्ग संघर्ष की कारकों की व्याख्या कीजिए कारणों अवधारणा की परिभाषा किसे कहते है ?

वर्ग एवं वर्ग संघर्ष
अभी तक हमने यह अध्ययन किया है कि उत्पादन प्रणाली अथवा आर्थिक संरचना समाज की आधारशिला है। अधोसंरचना (infrastructure) में कोई भी परिवर्तन अधिसंरचना (superstructure) में मौलिक परिवर्तन लाता है (अधोसंरचना तथा अधिसंरचना के लिये इकाई 6 देखिए), जिसके परिणामस्वरूप समाज में परिवर्तन होते हैं। उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन मूलतरू उत्पादन शक्तियों और उत्पादन संबंधों में परिवर्तन है। आइए, हम वर्ग संघर्ष के संदर्भ में उत्पादन प्रणाली में परिवर्तनों पर चर्चा करें। आदिम साम्यवादी अवस्था में अतिरिक्त उत्पादन की संभावनायें नहीं थीं तथा उत्पादन के साधनों में निजी स्वामित्व भी नहीं था। इस कारण उस अवस्था में किसी प्रकार की असमानता अथवा शोषण भी नहीं दिखाई देता। उत्पादन के साधन मानव समुदाय की सामूहिक सम्पत्ति थे तथा कोई वर्ग संघर्ष नहीं थे। उत्पादन शक्तियों में विकास और सुधार के साथ-साथ उत्पादकता भी बढ़ी, जिसके फलस्वरूप उत्पादन के साधनों का निजी स्वामित्व संभव हुआ और इन सभी कारणों से उत्पादन संबंधों में भी परिवर्तन हुआ। इस मोड़ पर आकर आदिम साम्यवादी अवस्था खत्म हो जाती है और एक नई अवस्था, दास प्रथा, प्रारंभ होती है। इसके साथ प्रारंभ होता है मानवीय इतिहास में असमानता, शोषण और वर्ग संघर्ष का एक लम्बा दौर।

दास प्रथा में मालिकों और गुलामों के मध्य वर्ग संघर्ष के कारण उत्पादन के तरीकों में परिवर्तन आया, जिसकी वजह से सामंतवादी अवस्था का प्रादुर्भाव हुआ। मार्क्स ने कहा कि आज तक के समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है। इसका अर्थ है कि समाज का सम्पूर्ण इतिहास वर्ग संघर्ष की विभिन्न अवस्थाओं और कालों का साक्षी रहा है। वर्ग संघर्ष का इतिहास दास प्रथा से प्रारंभ होकर सामंतवादी अवस्था में जारी रहता है। पहले, वर्ग संघर्ष दास तथा मालिक वर्गों के मध्य शुरू हुआ। सामंतवादी अवस्था में वर्ग संघर्ष भूपति सामंतों और भूमिहीन कृषि मजदूरों के मध्य हुआ। उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन तथा वर्ग संघर्ष के कारण समाज में इस सामंतवादी व्यवस्था का स्थान पूंजीवादी व्यवस्था ने ले लिया।

पूंजीवादी व्यवस्था में वर्ग संघर्ष चरमोत्कर्ष पर पहुंच जाता है, जिससे कि कामगार वर्ग का आंदोलन एक ठोस शक्ल लेकर क्रियान्वित होता है। पूंजीपतियों के वर्ग और औद्योगिक श्रमिकों के मध्य वर्ग संघर्ष के कारण पूंजीवादी व्यवस्था का स्थान समाजवाद ले लेता है। इस क्रांतिकारी आमूल परिवर्तन को मार्क्स ने क्रांति कहा है। अगले भाग (8.3) में हमने क्रांति की अवधारणा पर विस्तार से चर्चा की है। अगला भाग पढ़ने से पहले सोचिए और करिए 2 पूरा करें।

सोचिए और करिए 2
क्या भारतीय इतिहास वर्ग संघर्ष के कुछ उदाहरण प्रस्तुत करता है? यदि हां तो, कम से कम एक उदाहरण को विस्तार से बतलाइये। यदि नहीं तो, भारतीय इतिहास में वर्ग संघर्ष के न होने के कारण बताइये।

 वर्ग संघर्ष एवं क्रांति
मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था में वर्ग संघर्ष के कारण क्रांति होगी, जिसके फलस्वरूप समाजवाद आयेगा। यहां यह प्रश्न उठता है कि पूंजीवादी समाज में वर्ग संघर्ष का कारण क्या है? वस्तुतः यहां उत्पादन की शक्तियों और संबंधों में परस्पर विरोध देखने में आता है। बुर्जुआ वर्ग निरंतर उत्पादन के सशक्त साधन सृजित करता है। परन्तु उत्पादन की शक्तियों में इन परिवर्तनों से उत्पादन संबंध अप्रभावित रह जाते हैं। अर्थात् उत्पादन के साधनों में स्वामित्व और आय की वितरण संरचना में उसी दर से परिवर्तन नहीं आते। पूंजीवादी उत्पादन के तरीके वृहत्-स्तरीय उत्पादन करने में सक्षम होते हैं। इस वृहत्-स्तरीय उत्पादन और आर्थिक समृद्धि में अत्यधिक वृद्धि के बावजूद पूंजीवादी व्यवस्था में अधिकांश जनसंख्या निर्धनता और मुसीबतों का शिकार रहती है। दूसरी ओर कुछ परिवारों के पास कल्पना से परे इतनी अधिक सम्पदा का संचय होता है कि ये विषमतायें स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगती हैं। निर्धनता और मुसीबतों के विशाल समुद्र में ऐसा लगता है, जैसे समृद्धि के छोटे-छोटे द्वीप उठ खड़े हुये हों। इस भीषण विषमता का उत्तरदायित्व असमान तथा शोषक उत्पादक संबंधों पर होता है, जो कि उत्पादन और उत्पादन से उत्पन्न समृद्धि का असमान तरीकों से वितरण करते हैं। मार्क्स के अनुसार इस विरोध के कारण एक क्रांतिकारी संकट उत्पन्न होता है। मार्क्स की भविष्यवाणी थी कि इस स्थिति में सर्वहारा वर्ग जो कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा होता है, वह एक संघर्षकारी वर्ग बन जायेगा और एक ऐसी सामाजिक शक्ति के रूप में उभरेगा जो कि इन उत्पादन संबंधों को परिवर्तित करना चाहेगा।

 वर्ग संघर्ष के विचार का संक्षिप्त इतिहास
यहां यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि वर्ग संघर्ष का विचार सबसे पहले मार्क्स ने नहीं दिया था। सेंट सिमों ने भी मानव इतिहास को सामाजिक वर्गों के मध्य हो रहे संघर्ष के रूप में देखा था। 1790 के दशक में एक फ्रांसीसी राजनैतिक आंदोलतकर्ता बाबेफ ने सर्वहारा वर्ग की अधिनायकता के बारे में लिखा है। बाद में बाबेफ के शिष्य ब्लॉकी तथा एक जर्मन दर्जी वाइटलिंग ने बाबेफ के विचारों को आगे विकसित किया। फ्रांसीसी समाजवादियों ने औद्योगिक राज्यों में कामगारों की भावी प्रस्थिति तथा उनके महत्व की विवेचना की थी। वास्तव में, अट्ठारहवीं शताब्दी में बहुत से चिंतकों ने ऐसी धारणाएं विकसित की थीं। मार्क्स ने सभी के विचारों की बारीकी से जांच पड़ताल की तथा एक नया सामाजिक विश्लेषण प्रस्तुत किया। वर्ग संघर्ष पर मार्क्स का विश्लेषण साधारण मूल-सिद्धातों के विस्तृत विवरण पर आधारित है। मार्क्स के अनुसार सर्वहारा वर्ग सामाजिक संस्तरण में सबसे निम्न वर्ग है। इसके नीचे अन्य कोई वर्ग नहीं है। वस्तुतरू सर्वहारा वर्ग के उद्धार में ही मानव जाति का उद्धार है। मार्क्स बुर्जुआ वर्ग द्वारा संघर्ष करने के अधिकार को भी मान्यता देता है। लेकिन सर्वहारा वर्ग के लिए यह संघर्ष जीतना उसके जीवित रहने के लिए अर्थात् अस्तित्व के लिए अनिवार्य है।

 मार्क्स की अलगाव की अवधारणा
अलगाव (alienation) का शाब्दिक अर्थ है ‘‘अलग होना‘‘। साहित्य में यह शब्द अक्सर प्रयुक्त हुआ है लेकिन मार्क्स ने इसे समाजशास्त्रीय अर्थ दिया है। मार्क्स का अलगाव की अवधारणा से अभिप्राय ऐसे समाज की संरचना से है जिसमें उत्पादन के साधनों से उत्पादक वंचित रहता है तथा जिसमें ‘‘निर्जीव श्रम‘‘ (पूंजी) का ‘‘जीवित श्रम‘‘ (श्रमिक) पर प्रभुत्व होता है। आइए हम जूते बनाने के कारखाने के एक मोची का उदाहरण लें। यह मोची जूते तो बनाता है लेकिन उनका अपने लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता। उसकी बनाई हुई रचना (जूता) एक ऐसी वस्तु बन जाती है जो उससे अलग हो जाती है। यह वस्तु एक ऐसा रूप ले लेती है जो उसके बनाने वाले से पृथक हो जाती है। वह अपनी काम करने तथा सजृन करने की अन्तःप्रेरणा को संतुष्ट करने के लिए जूते नहीं बनाता अपितु अपनी जीविका कमाने के लिए ऐसा करता है। कारीगर के लिए वस्तु का पृथक रूप धारण कर लेना और भी गहरा हो जाता है जब कारखाने में उत्पादन प्रक्रिया अलग-अलग हिस्सों में बांट दी जाती है तथा कारीगर के हिस्से में एक पूरे काम (जूता बनाना) का छोटा सा हिस्सा ही आता है। इस तरह वह जूता बनाने के किसी एक भाग पर काम करने की गतिविधि (जैसे सिलाई अथवा कटाई आदि) में लगा रहता है। उसका काम मशीन जैसा हो जाता है तथा वह सोच-समझ से काम करने की क्षमता को खो देता है। मार्क्स ने ‘फटिशिज्म ऑफ कमोडिटीज एण्ड मनी‘ शीर्षक के अंतर्गत कैपीटल (1861-1879) में इस अवधारणा की विस्तृत एवं व्यवस्थित व्याख्या दी है। परन्तु इस अवधारणा की नीतिशास्त्रीय बुनियाद 1844 में रखी गई। इस समय मार्क्स ने ‘‘राज्य‘‘ एवं ‘‘धन‘‘ की पूर्ण रूप से आलोचना की, इन्हें अस्वीकृत कर दिया तथा सम्पूर्ण समाज के उद्धार का ‘‘ऐतिहासिक मिशन‘‘ सर्वहारा वर्ग को सौंपा।

 

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