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चोल और पल्लव स्थापत्य में अन्तर क्या है | chol and pallav style difference in hindi architecture of chaul dynasty

जान लीजिये कि चोल और पल्लव स्थापत्य में अन्तर क्या है | chol and pallav style difference in hindi architecture of chaul dynasty ?

चोल एवं पल्लव स्थापत्य की तुलनात्मक विवेचना :

चोल शैली पल्लव शैली की उत्तराधिकारिणी थी, और चोलों ने इस वास्तु परम्परा को और आगे विकसित ही किया। पल्लव मंदिरों के सबसे प्रमुख निर्माण चोल काल में पहुंचकर और अधिक प्रभावशाली एवं विशाल हो गए। इसी प्रकार पल्लव मंदिरों में गोपुर जहां अपने अत्यंत प्रारंभिक रूप में हैं, वहीं चोल मंदिर में ये वृहद एवं भव्य आकार के होते गए हैं, जैसे वृहदेश्वर तंजावुर का गोपुर। दूसरी ओर पल्लव वास्तु के ‘सिंह आधार वाले’ स्तंभ चोल काल में लुप्त हो गए तथा उनका स्थान सादे वग्रकार स्तंभों ने ले लिया। इसी प्रकार पल्लव द्वारपाल मूर्तियां दो हाथों वाली तथा सामान्य हैं, जबकि चोलकाल में चार भुजाओं वाली व दैत्यों जैसी भयानक हैं। पल्लव देवगेष्ठों के ऊपर सादे तोरण मिहिराभ बना, गए थे जो चोल काल में आकर वृत्ताकार एवं अलंकारिक हो गए। मूर्तिकला के अंतग्रत पल्लवों ने अनेक प्रकार के लोकातीत पशु बना, थे, जबकि चोलों ने जगती की भित्तियों पर ‘याली’ (एक काल्पनिक पशुद्ध फलक बना, हैं। पल्लवकालीन मंदिरों की एकाकी रचनाएं चोल शैली के अंतग्रत विकसित मंदिर परिसरों में परिवर्तित हो गई, जिनमें विस्तृत प्रांगण, प्राकार तथा परिखा का भी निर्माण कराया गया।

चोलकालीन स्थापत्य शैली
पल्लवों की विरासत चोल राजाओं (10वीं से 11वीं शताब्दी) के हिस्से आई,जिन्होंने इसे एक नई शिल्पदृष्टि से और आगे बढ़ाया। ईसा की प्रथम सहस्राब्दी की अंतिम कुछ शताब्दियों में दक्षिण के पल्लव, चोल, पाण्ड्य, चालुक्य तथा राष्ट्रकूट आदि राजवंशों के बीच आपसी युद्ध होते रहे। इस शक्ति परीक्षण में अंततः चोलों का वर्चस्व स्थापित हो गया, तथा एक शताब्दी के भीतर ही उनकी शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई। चोल वंश पल्लवों का उत्तराधिकारी राजवंश था, अतः उन्हें पल्लवों की कला सम्पदा भी विरासत में मिली थी, जिसे चोल शासकों ने इस सीमा तक समृद्ध किया कि उनके शासन काल में द्रविड़ स्ािापत्य एवं शिल्पकला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई। मंदिरों के निर्माण में जिस द्रविड़ शैली का आरंभ पल्लवों के काल में हुआ, चोल नरेशों के काल में उसका अत्यधिक विकास हुआ। चोल शासन काल में स्थापत्य के साथ मूर्तिकला के क्षेत्र में भी अत्यधिक उन्नति हुई। चोलकालीन कांस्य मूर्तिकला विशेष रूप से संसार प्रसिद्ध है। ये कांस्य मूर्तियां बड़ी मात्रा में दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में भी पाई गई हैं, क्योंकि ये क्षेत्र लम्बे समय तक चोलों के प्रभाव में रहे।
11वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में राजराज तथा राजेंद्र चोल के राज्यकाल में चोल साम्राज्य चरमोत्कर्ष पर था। चोल सम्राटों ने अपनी शक्ति और ऐश्वर्य का प्रदर्शन भव्य तथा उत्तुंग शिखर मंदिरों के निर्माण में किया। चोल शिल्पियों ने चट्टान काटकर बना, गए मंदिरों की प्रणाली छोड़कर एक स्वतंत्र रूप से खड़े पत्थर के मंदिर बनाने पर अपना ध्यान केंद्रित किया। चोल मंदिरों में पूजा-स्थल के केंद्रीय कक्ष पर बल दिया जाता था जिसमें प्रवेश के लिए एक या दो बड़े कक्षों को मंदिरों के आकार के अनुसार पार करके जागा पड़ता था और उनके ऊपर लगभग पिरामिड की शक्ल का एक लम्बा शिखर होता था जो मंदिर के आकार के अनुपात में होता था। मंदिर को चारों ओर घेरकर एक चैक होता था साथ ही चारों ओर की दीवार के अंदर की ओर खम्भों की श्रेणी होती थी, जैसा कि तंजौर तथा गंगई कोंडा चोलपुरम् के मंदिरों में है। प्रवेश के लिए शिखर की शैली की तर्ज पर बने हुए अलंकृत प्रवेश-द्वार होते थे। धीरे-धीरे इन प्रवेश द्वारों पर अधिक बल दिया जागे लगा, यहां तक कि ये शिखर से बराबरी करने लगे जैसाकि मदुरई के मीनाक्षी मंदिर और त्रिचनापल्ली के निकट स्थित श्रीरंगम मंदिर से स्पष्ट है।
चोलकालीन मंदिर-स्थापत्य कला को दो वर्गें में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम वग्र में दसवीं शताब्दी तक निर्मित प्रारंभिक चोल मंदिर हैं, जिनमें तिरुकट्टलाई का सुंदरेश्वर मंदिर, नरतमालै का विजयालय मंदिर एवं कदम्बर मलाई मंदिर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। दूसरे वग्र के चोलकालीन मंदिर स्ािापत्य कला का युग तंजावुर के वृहदीश्वर मंदिर के साथ प्रारंभ होता है। यह मंदिर द्रविड़ मंदिर-स्थापत्य कला शैली का पूर्ण विकासमान रूप है और इसके निर्माण के दो शताब्दियों बाद तक चोलों ने सम्पूर्ण सुदूर दक्षिण एवं श्रीलंका में शृंखलाबद्ध रूप में अनेक मंदिरों का निर्माण कराया। चोलों ने मंदिरों के निर्माण के लिए प्रस्तर खण्डों एवं शिलाओं का प्रयोग किया। इस काल के मंदिरों का आकार बहुत विशाल और इनका धार्मिक कार्यों के अतिरिक्त सामाजिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक प्रयोजनों के लिए भी उपयोग किया जाता था।
तंजौर का भव्य शैव मंदिर, जो राजराजेश्वर अथवा वृहदीश्वर नाम से प्रसिद्ध है, का निर्माण राजराज प्रथम के काल में हुआ था। भारत के मंदिरों में सबसे बड़ा तथा लम्बा यह मंदिर एक उत्कृष्ट कलाकृति है जो दक्षिण भारतीय स्ािापत्य के चरमोत्कर्ष को द्योतित करती है। भारतीय वास्तु कलाकारों द्वारा बना, गए मंदिरों में यह विशाल मंदिर है। इस मंदिर के चार भाग एक-दूसरे से सम्बद्ध एक ही धुरी पर बने हुए हैं। नंदी मण्डप, अर्द्ध मण्डप तथा गर्भगृह एवं सारा मंदिर एक चारदीवारी के भीतर बना हुआ है। मंदिर का सबसे महत्वपूर्ण अंग है गर्भगृह एवं शिखर (विमान)।
चोलों के वैभवकाल में बनाया गया दूसरा मंदिर गंगैकोंड चोलपुरम का मंदिर है। इसका निर्माण राजराज के पुत्र राजेन्द्र चोल के शासनकाल में हुआ। इसकी शैली तंजौर मंदिर की शैली के ही समान है। इस मंदिर का विमान, बृहदीश्वर मंदिर की ही भांति, तीन भागों में विभक्त है। मंडप कम ऊंचा है लेकिन इसमें 150 स्तम्भ हैं। इस स्तम्भ युक्त मंडप में हमें बाद में आने वाले मंदिरों के सहस्त्र स्तम्भ वाले मण्डपों की शुरुआत परिलक्षित होती है। तंजौर मंदिर में शक्ति, संतुलन और गांभीर्य अधिक है जबकि गगैकौंड चोलपुरम के मंदिर में मार्दव, सौंदर्य और विलास अधिक है। इन दो विशाल स्मारकों से सिद्ध होता है कि चोल काल में वास्तुकला चरमोत्कर्ष पर थी। इन मंदिरों के निर्माण के साथ ही ऐसा दिखाई देता है कि वास्तुकला की गतिविधि का प्रबल वेग क्षीण हो चला था। इसके बाद कोई विशेष उल्लेखनीय मंदिर नहीं बने।
राजेन्द्र चोल के उत्तराधिकारियों के समय में भी मंदिर निर्माण की गति जारी रही। इस दौरान कई छोटे-छोटे मंदिरों का निर्माण किया गया। इनमें मंदिरों की दीवारों पर अलंकृत चित्रकारी एवं भव्य मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। राजराज द्वितीय तथा कुलोत्तुंग तृतीय द्वारा बनवा, गए क्रमशः दारासुरम का ऐरावतेश्वर मंदिर तथा त्रिभुवनम् का कम्पहरेश्वर का मंदिर चोल शैली की कुछ परम्पराओं को बारहवीं शती उत्तरार्द्ध तक ले जाते हैं। इन मंदिरों का निर्माण भी तंजौर मंदिर की योजना पर किया गया है। इनके अतिरिक्त तिरुवरूर का त्यागराज मंदिर भी उल्लेखनीय है, परंतु इसमें प्राचीन मंदिर का पुनर्निर्माण मात्र ही किया गया है।
चोलों ने अपनी महानता एवं गौरव गाथा के झ.डे तक्षण कला के क्षेत्र में भी गाड़े हैं। चोलों ने पत्थर तथा धातु की बहुसंख्यक मूर्तियों का निर्माण किया। उनके द्वारा निर्मित मूर्तियों में देवी.देवताओं की मूर्तियां ही अधिक हैं। कुछ मानव मूर्तियां भी प्राप्त होती हैं। चूंकि चोलवंश के अधिकांश शासक उत्साही शैव थे, अतः इस काल में शैव मूर्तियों का निर्माण ही अधिक हुआ। सर्वाधिक सुंदर मूर्तियां नटराज (शिव) की हैं। इनकी पूजा दक्षिण में विशेष रूप से होती है। नटराज की एक विशाल प्रतिमा त्रिचनापल्ली के तिरुभरंग कुलम में प्राप्त हुई है। चोल मूर्तिकला मुख्यतः वास्तुकला की सहायक थीं और यही कारण है कि अधिकांश मूर्तियों का उपयोग मंदिरों को सजागे में किया जाता था।
चित्रकला का विकास चोलों की महत्वपूर्ण विशेषता रही है। इस युग के कलाकारों ने मंदिरों की दीवारों पर अनेक सुंदर चित्र उत्कीर्ण करवाए। बृहदीश्वर मंदिर की दीवारों के चित्र आकर्षक एवं कलापूर्ण हैं। इन चित्रों में पौरिणकता का बाहुल्य है। यहां शिव की विविध लीलाओं से संबंधित चित्रकारियां प्राप्त होती हैं। इसमें प्रमुख चित्रकारियां हैं, राक्षस का वध करती हुई दुग्र तथा राजराज को सपरिवार शिव की पूजा करते हुए प्रदर्शित किया गया है। इस प्रकार चोल राजाओं का शासन काल स्थापत्य, तक्षण कला तथा चित्रकला का चरमोत्कर्ष काल रहा है।

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