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गौतम बुद्ध का बचपन का नाम क्या था ? childhood name of gautama buddha in hindi real name
childhood name of gautama buddha in hindi real name गौतम बुद्ध का बचपन का नाम क्या था ?
बौद्ध धर्म
गौतम बुद्ध, जिनका ज्ञान प्राप्ति से पूर्व सिद्धार्थ नाम था, का जन्म ई.पू. 563 में हुआ था। कपिलवस्तु के लुम्बिनी में जन्मे सिद्धार्थ के पिता राजा थे। इनका विवाह हुआ और पुत्र राहुल का जन्म हुआ। किंत, ध्यानमग्न एवं चिंतनशील गौतम के लिए गृहस्थ जीवन आकर्षक नहीं था। बीमारी, बुढ़ापा, मृत्यु जैसे सांसारिक दुःखों से प्रेरित होकर वास्तविक आनंद एवं ज्ञान की खोज में उन्होंने 29 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग दिया। ज्ञान प्राप्ति तक वे भटकते रहे। कई आचार्यों ने शिक्षा भी दी। आलारकलाम ने योग की विधि बताई। राजगृह के
रामपुत्र ने उपदेश दिया। निरंजना नदी के किनारे उरूवेला नामक स्थान पर 6 वर्षों तक तप भी किया, किंतु ज्ञान प्राप्त न हुआ। कहते हैं कि एक बार कुछ नर्तकियां उस जंगल से गाती हुई गुजरीं। वे गा रहीं थीं कि अपनी वीणा के तार को इतना ढीला न करो कि सुर ही न निकले और इतना कसो भी नहीं कि तार टूट जाए। गौतम ने इसे सुना और शिक्षा प्राप्त की। अंततः बोधगया में पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और सिद्धार्थ गौतम ‘बुद्ध’ हो गए। बुद्ध ने सर्वप्रथम सारनाथ (बनारस) में उपदेश दिया। यहीं से ‘धर्म चक्र
प्रवर्तन’ प्रारंभ हुआ। उन्होंने बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद 45 वर्षों तक घूम-घूम कर अपने ज्ञान का प्रकाश फैलाया। कुशीनगर में ई.पू. 483 में उनका देहांत हो गया। इसे ‘महापरिनिर्वाण’ कहा गया।
बुद्ध का ज्ञान दर्शन इस प्रकार है दुःख है, दुःख का हेतु और दुखः का विशेष है तथा दुःख निरोध का माग्र है। इन्हें ‘चत्वारि आर्य सत्यानि’ कहा जाता है। महाश्रमण का ऐसा मत है ‘‘ये धर्माः हेतु प्रभवा; हेतुस्तेषां तथा गतोह्यवदत्। तेषां च यो निरोध एवं वादी महाश्रमणः।’’ दुःख निरोध के लिए आर्य अष्टांगिक माग्र हैं सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्म, सम्यक आजीविका, सम्यक उद्योग, सम्यक विचार और सम्यक समाधि। बुद्ध का बनारस में यही प्रथम धर्मोपदेश था। ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ ही उनके उपदेश का सार है और आत्मसंयम उसका आधार है।
बुद्ध ने वस्तु को ही नहीं, वरन् आत्मा, परमात्मा को भी नित्य मानने से इंकार कर दिया। उनके अनुसार यह सृष्टि एक सतत प्रक्रिया मात्र है और आत्मा तथा जगत अनित्य है। वे परिमाणात्मक स्थिति को ही सत्य मानते हैं। उनका लक्ष्य था कि प्रत्येक को निर्वाण प्राप्त करने में सहायता की जाए। निर्वाण का अर्थ है ‘बुझना’। विच्छिन्न प्रवाह रूप से उत्पन्न विज्ञान एवं भौतिक तत्व तृष्णा के गारे से मिलकर जिस जीवन प्रवाह का रूप धारण कर प्रवाहित हो रहे हैं, उस प्रवाह का अत्यंत विच्छेद ही निर्वाण है। ‘निव्वाणं परमं सुखम्’। उन्होंने मध्यम प्रतिपदा (मध्यम माग्र) का अनुसरण किया। आर्याष्टांगिक माग्र के अतिरिक्त उन्होंने नैतिक आचरण को उन्नत करने के अभिप्राय से ‘दशशील’ को विशेष महत्व दिया अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, नृत्यगान आदि का त्याग, सुगंधित वस्तुओं का त्याग, असामयिक भोजन का त्याग, कोमल शय्या का परित्याग और कामिनी-कांचन का त्याग। भिक्षुओं के लिए समस्त शीलों का पालन अनिवार्य था, परंतु गृहस्थों के लिए प्रथम पांच शीलों का।
बुद्ध ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे। उनके अनुसार सृष्टि का कर्ता ईश्वर धर्म एवं दर्शन नहीं वरन् कार्य-कारण के अनुसार इसकी उत्पत्ति हुई। स्थायी आत्माओं में भी उनका विश्वास नहीं था। उनकी धारणा थी कि विभिन्न तत्वों के अलग-अलग हो जागे के बाद आत्मा नहीं रह जाती। वे संसार को क्षणिक मानते थे और इसके समस्त तत्वों को भी। मानव अपने अल्पज्ञान तथा प्रमाद से उन्हें स्थायी समझ लेता है, किंतु वस्तुतः बात ऐसी नहीं है। क्षणिकवाद ही बौद्ध धर्म और दर्शन का प्रतीक है।
बुद्ध के अनुयायी दो भागों में विभक्त थे भिक्षुक और उपासक। बुद्ध ने धर्म प्रचार के लिए संघ बनाया था। प्रारंभ में स्त्रियों को इसमें स्थान नहीं मिला, बाद में उन्हें भी सम्मिलित होने का अधिकार प्राप्त हुआ। संघ के तीन प्रमुख अंग थे बुद्ध, धम्म और संघ।
बुद्ध की मृत्यु के बाद चार बौद्ध संगीति हुईं राजगृह में, वैशाली में, पाटलिपुत्र में और कश्मीर में। इनका उद्देश्य था बुद्ध के वचनों का संग्रह करना। इन्हें तीन पिटकों में संग्रहित किया गया विनय पिटक, धर्मसूत्र पिटक और अभिधम्म पिटक। जिन भिक्षुओं ने विनयपिटक के नियमों को न माना, वे थेरवादी कहलाए और जिन्होंने संशोधन करने की इच्छा प्रकट की, वे महासंधिक कहलाए। कनिष्क के समय चैथी बौद्ध संगीति (कश्मीर) में आपसी मतभेद बढ़ गए और परिणामस्वरूप बौद्ध धर्मावलम्बी दो मुख्य समुदायों में बंट गए महायान और हीनयान। बाद में चलकर बौद्ध धर्म में तीसरा संप्रदाय उद्भूत हुआ, जो वज्रयान के नाम से प्रसिद्ध है। इन्होंने बुद्ध को ऐसा आदर्श पुरुष बताया, जिन्हें अलौकिक सिद्धियां प्राप्त थीं। इस ‘यान’ में मंत्र, हठयोग और तांत्रिक आचारों की प्रधानता हुई और बाद में इसी से हठयोग संप्रदाय, वाममाग्र सम्प्रदाय, नाथपंथ आदि का प्रचलन हुआ।
बौद्ध धर्म ने भारतीय चित्रकला, स्थापत्यकला और मूर्तिकला की अभिवृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। चैत्य, स्तूप और गुफा कलाओं का विकास भी बौद्धकाल की ही देन है। अजंता की चित्रकारी, कार्ले के गुहामंदिर, सांची, अमरावती और भरहुत के स्तूप बौद्धकला के कुछ अन्यतम नमूने हैं। इतिहासकार हैवेल के अनुसार भारत को एक राष्ट्र के सूत्र में संगठित करने का श्रेय बौद्ध धर्म को उसी प्रकार है, जिस प्रकार सेक्सनी के छोटे-छोटे राज्यों को संगठित करने का श्रेय ईसाई धर्म को है।
कालक्रम में बौद्ध धर्म में भी आडम्बर पैदा हुए। मठों में धन संग्रह होने लगा। बौद्ध साधुओं का चरित्र संदेहास्पद होने लगा। ‘गुह्यसमाज तंत्र’ में शराब, स्त्री-संभोग आदि को स्थान दे दिया गया। मंत्रायन की पुस्तकें ‘मंजूश्री मूलकल्प’ और वज्रयान की पुस्तक ‘गुह्यसमाजतंत्र’ में धर्म के नाम पर घृणित आचरणों का समर्थन किया गया। सुखवाद और महासुखवाद की कल्पना की गई। नालंदा
और विक्रमशिला के अध्ययन केंद्र ध्वस्त हो गए। बौद्ध धर्म अपनी जन्मभूमि से ही लुप्त होने लगा।
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