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बाल विवाह निषेध अधिनियम कब पारित हुआ , कब लागू हुआ किसने बनाया child marriage prohibition act was passed in which year
child marriage prohibition act was passed in which year in hindi बाल विवाह निषेध अधिनियम कब पारित हुआ , कब लागू हुआ किसने बनाया ?
बाल-विवाह निषेध
सन् 1860 में एक अधिनियम पास करके विवाह-योग्य आयु 10 वर्ष निर्धारित कर दी गई। बहरम मालाबारी, स्वयं कोई हिन्दू नहीं, (एक पारसी) ने शताब्दी के अंत में इस अधिनियम के समर्थन में . एक अभियान शुरू किया। वह काफी संख्या में वकीलों, डॉक्टरों, अध्यापकों और जन-सेवकों को राजी करने में सफल रहे। वे मानते थे, जो कि जैसोर इण्डियन एसोसिएशन के एक वक्तव्य में प्रतिध्वनित हुआ, कि ‘‘अल्पायु विवाह किसी देश की शारीरिक शक्ति को कमजोर करता हैय यह उसकी पूर्ण वृद्धि व विकास को रोकता हैय यह व्यक्तियों के साहस और ऊर्जा को प्रभावित करता है और शक्ति और दृढ़ निश्चय में कमजोर लोगों की प्रजाति को जन्म देता है।‘‘ 1891 में, तिलक ने इस अधिनियम के खिलाफ एक आंदोलन चलाया और टैगोर जैसे एक आधुनिक दृष्टा ने कथनी और करनी में विरोध किया!
सुधार आंदोलन बम्बई-पूना सांस्कृतिक क्षेत्र में सशक्त थे कि कुछ तो हिन्दूवाद के यथार्थवाद ब्राह्मणवाद पर प्रश्न करने का साहस भी रखते थे। उदाहरण के लिए, जी. एच. देशमुख, एक समाज-धर्म सुधारक, ने 1840 के दशक में तर्क प्रस्तुत किया कि ‘‘ब्राह्मणों को अपनी मूर्खतापूर्ण धारणाओं को त्याग देना चाहिए और उनको यह स्वीकार करना चाहिए कि सभी मनुष्य समान हैं और यह कि सभी को ज्ञानार्जन का अधिकार है‘‘। लेकिन 1871 में, उन्होंने जातिच्युत किए जाने की धमकी के आगे हार मान ली। परिणामतः, वे नरम पड़ गए।
बोध प्रश्न 3
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
1) कुछ महिला आतंकवादियों की गतिविधियों के विषय में आप क्या जानते हैं? लिखें।
2) महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के लिए मद्यपान को क्यों एक मुख्य कारण माना जाता है, स्पष्ट करें।
3) महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के पीछे आप क्या मूल कारण समझते हैं?
बोध प्रश्न 3 उत्तर
1) ब्रिटिश अधिकारियों को मारकर तथा औपनिवेशिक व्यवस्था के विरुद्ध छात्रों, अध्यापकों व जनता का आह्वान कर उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया।
2) मद्यपान पूरे परिवार पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। देश के अनेक भागों, खासकर, आंध्रप्रदेश व उत्तरांचल, में ताड़ी-विरुद्ध आंदोलनों को शुरू कर महिलाओं ने इसके विरुद्ध क्रांति की।
3) महिलाओं के विरुद्ध हिंसा बलात्कार, दहेज-मृत्यु, घरेलू हिंसा, इत्यादि के रूप में व्यक्त हुई। इसके लिए मुख्य कारण उनकी नाजुक सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक प्रतिबंधों, तथा लोगों के मूल्यों में निहित हैं।
साहित्य, रंगमंच व अन्य अभिव्यक्ति-विधाओं के माध्यम से संचलन
उप-भाग 24.3.1 ने स्वतंत्रतापूर्व समाज-सुधार व राजनीतिक आंदोलन काल में साहित्य के माध्यम से अपने खुद के आंदोलन में महिलाओं के योगदान के बारे में एक संक्षिप्त विचार प्रस्तुत किया। स्वतंत्रता के पश्चात् शुरू के कुछ दशकों में कुछ सन्नाटा छाया रहा। हो सकता है महिलाओं ने यह अनुभव करने में कुछ देर की कि 1947 उनके लिए कोई स्वाधीनता नहीं लाया। तदोपरांत, समानता के लिए महिला-आंदोलन में बढ़ती शक्ति के साथ, महिलाओं द्वारा व महिलाओं पर लेखों, फिल्मों और नाटकों की एक लहर चली है। अरुंधती रॉय जैसी सशक्त लेखिकाएँ केवल ‘नारी‘ क्षेत्र को ध्यान से देख रही हैं और मानववाद अथवा सार्वभौमिक मानवाधिकारों के सिद्धांत पर पुरुषों से कहीं अहसास करा रही हैं कि उनका भला महिलाओं के भले में ही निहित है और कि महिलाओं का भला संपूर्ण मानवता की भलाई में निहित है।
पर्यावरण और जीवंतता
जैसा कि एन्जेल्स ने स्पष्ट किया है, भूमि व उत्पादन के साधनों का स्वामित्व ही मानव संबंधों की सभी श्रेणियों को संचालित करता है और यह, इसीलिए, पितृतंत्र का आधार है। उच्च रूप से उन्नत विज्ञान व प्रौद्योगिकी के युग में भी खाद्य व वह सब जो एक इंसान की जरूरत है, प्रकृति व पर्यावरण से ही आता है। हम यह भी जानते हैं कि मानव अस्तित्व के पहले ही दिन से, स्त्रियाँ खाद्य एकत्रक व खाद्य प्रदायक रही हैंय और इसीलिए स्त्रियाँ ही पर्यावरणीय निम्नीकरण व प्रकृति की अंधाधुंध लूट के परिणामस्वरूप सर्वाधिक दुष्प्रभावित हैं। यही कारण है, महिला-आंदोलन उनके व उनके परिवार की आजीविका तथा प्रकृति-संरक्षण के संबंध में सर्वाधिक प्रबल रहा है। यह स्वतंत्रतापूर्व भारत में वन-कानूनों को तोड़ने वाली महिलाओं के साथ शुरू हुआ। इस संबंध में ‘चिपको‘ और ‘नर्मदा बचाओ‘ आंदोलन अच्छे उदाहरण हैं। ‘स्व-नियोजित महिला-परिषद् (सेवा-ैम्ॅ।) भारत व दक्षिण एशिया में प्रथम विख्यात संगठन है, जिसने असंगठित व गृह-आधारित क्षेत्रों में महिला कर्मियों को संगठित किया। जब से यह, महिला कोष‘ या महिला-सरकारी बैंक से गहनता से जुड़ा है, शायद सर्वाधिक सफल और पोषित महिला-आंदोलन रहा है। उसने बंगलादेश, नेपाल व दक्षिण एशिया में अन्यत्र भी इसी प्रकार के अनेक आंदोलनों को प्रेरणा दी है। दक्षिण अफ्रीका के स्व-नियोजित महिला-संघ ने इस आदर्श का पूरी तरह से अनुकरण किया है और ये दोनों, एक साथ, अंतर्राष्ट्रीय क्षय संगठन (आई.एल.ओ.) पर इस बात के लिए प्रभाव डाल सके हैं कि गृह-आधारित कर्मियों को पहचान व संरक्षण देने वाले अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का अधिनियम किया जाए (इन कर्मियों में अधिकांश महिलाएँ किसी अर्थव्यवस्था के सर्वाधिक वंचित वर्गों से हैं)। बंगलादेश का ‘ग्रामीण बैंक‘ महिलाओं की आर्थिक स्वाधीनता हेतु एक जन्म व्यापक रूप से स्वीकृत आदर्श बन चुका है।
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