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चंदेल शैली किसे कहते हैं ? खजुराहो वास्तुकला शैली की विशेषता क्या है chandela style of temple in hindi

chandela style of temple in hindi चंदेल शैली किसे कहते हैं ? खजुराहो वास्तुकला शैली की विशेषता क्या है ?

चंदेल शैली : खजुराहो

बुंदेलखंड के चंदेल नरेशों के शासनकाल में 10वीं ई. और 11वीं ई. के दौरान वास्तुकला की एक महानशैली विकसित हुई। खजुराहो मंदिर समूह के रूप में उत्तर भारतीय नागर शैली अपने शीर्ष बिंदु को प्राप्त हुई। खजुराहो के मंदिर स्थापत्य सौंदर्य की दृष्टि से अद्वितीय हैं। गुप्तकाल में तराशे हुए पाषाण खण्डों से चुनाई विधि द्वारा मंदिर निर्माण की जिस परम्परा का श्रीगणेश हुआ था, खजुराहो पहुंचकर वह अपने चरमोत्कर्ष बिंदु को प्राप्त हुई। चंदेल राजाओं ने खजुराहो में 84 मंदिरों का निर्माण कराया था, परंतु वर्तमान में केवल 30 मंदिर ही बचे हैं। इन मंदिरों में हिंदू धर्म के सभी मतों शैव, वैष्णव,शाक्त एवं जैन आदि से संबंधित मंदिर हैं परंतु उनमें शैलीगत कोई विशेष अंतर नहीं है। खजुराहो मंदिरों के निर्माता चंदेल शासकों की राजधानी संयोगवश मुस्लिम आक्रमणकारियों से बची रही, इसलिए यहां के अनेक मंदिर भी बच गए। इन मंदिरों का काल प्रायः दसवीं से तेरहवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। खजुराहो मंदिरों को परम्परागत रूप से एक परकोटे द्वारा घिरा हुआ न बनाकर ऊंची ‘आधार पीठिकाओं’ पर बनाया गया है। पृथक् पीठिकाओं पर निर्मित प्रत्येक मंदिर अपने आप में एक संपूर्ण संयोजन है। इस शैली की प्रमुख निर्माण उपलब्धि मध्यप्रदेश के खजुराहो में बने सुंदर मंदिरों का समूह है। सबसे कलापूर्ण है एक शैव मंदिर, जिसे ‘कंदरिया महादेव’ के नाम से जागा जाता है। इसका निर्माण काल 1000 ई. है। अन्य मंदिर विष्णु और जैन धर्मगुरुओं को समर्पित हैं। ये मंदिर ऊंची वेदिकाओं पर बने हैं। खजुराहो के मंदिर में एक गर्भगृह,एक सभागार और एक मंडप होता है। इन सबको उनकी समग्रता में पूर्ण माना जाता था, जबकि ओडिशा के मंदिरों में उन्हें अलग-अलग अभिकल्पित कर बाद में गलियारों से जोड़ दिया जाता था। शिखर अपनी पूरी लम्बाई में वक्रता लिए होता है और मध्य शिखर से लघु शिखर निकलते हैं। इन प्रक्षेपों की शीर्ष चक्रिकाएं, जो ऊध्र्व गति को अवरु) करती दिखती हैं, इस कला की अद्वितीय विशेषता है। समानता के बावजूद पूरे मंदिर का सर्वांग प्रभाव एक व्यवस्थित नैसग्रिक अभिवृद्धि का है। मंदिर के कक्ष और द्वार मंडप भी लघुतर लाटों से मंडित हैं, जिनसे ऊपर उठती हुई दृष्टि मुख्य शिखर तक जाती है और इससे किसी पर्वतमाला जैसा आभास होता है। अलंकृत नक्काशीदार प्रस्तर भवनों की एकरसता भंग होती है। ओडिशा के मंदिरों के विपरीत खजुराहो के मंदिर में अंदर और बाहर दोनों स्थानों पर मूर्ति सज्जाएं हैं और अत्यंत सुंदर ढंग से बनाई गई कलश वाली छतें भी हैं। विश्वनाथ के शिव मंदिर और चतुर्भिया के विष्णु मंदिर में पंचायतन व्यवस्था को दर्शाया गया है इसमें चारों कोनों में चार अतिरिक्त मंदिर बने हुए हैं।

ओडिशा के मंदिर

सातवीं शताब्दी के प्रारंभ से लेकर तेरहवीं शताब्दी के मध्य तक ओडिशा में नागर शैली के अंतग्रत एक विशिष्ट मंदिर शैली का विकास हुआ, जिसे भारतीय स्थापत्य के इतिहास में ओडिशा शैली के नाम से जागा जाता है।
ओडिशा शैली के अधिकांश मंदिर प्राचीन भुवनेश्वर में केंद्रित हैं। परंतु दो अन्य अति प्रमुख मंदिर, ‘सूर्य मंदिर’ कोणार्क तथा जगन्नाथ मंदिर, पुरी, यहां से कुछ किलोमीटर के अंतर पर स्थित हैं। ओडिशा समूह के प्राचीनतम, मुखलिंगम मंदिरों का निर्माण सातवीं शताब्दी में तथा अंतिम ‘कोणार्क मंदिर’ का निर्माण तेरहवीं शताब्दी के मध्य में हुआ।
ओडिशा मंदिरों को विकासक्रम तथा शैली के अनुसार चार समूहों (i) मुखलिंगम समूह; (ii) प्रारंभिक समूह; (iii) मध्ययुगीन समूह; तथा (iv) अंतिम समूह में विभाजित किया जाता है।
मुखलिंगम समूह के मंदिर, निकटवर्ती दन्तपुर से राज्य करने वाले पूर्वीगंग राजाओं द्वारा बनवाए गए। इसमें कुल तीन मंदिर सोमेश्वर, मुखलिंगेश्वर तथा भीमेश्वर आते हैं।
प्रारम्भिक समूह के अतं गर्त कलु सात मंिदर हंै परशुरामेश्वर, वैताल द्याले, उत्तरेश्वर, ईश्वरेशवर, सुत्रुगनेश्वर, भरतेश्वर तथा लक्षमणेश्वर। इन सात में से अंतिम तीन आकार में छोटे थे, जो अब खण्डहर हो चुके हैं।
मध्यवर्ती काल में निमिर्त पाचं प्रमुख मंंिदर हंै मुक्तश्ेवर, लिगं राज, ब्रह्मेश्वर, रामेश्वर तथा जगन्नाथ मंदिर। इन सभी मंदिरों का निर्माण 900 से 1100 ई. के मध्य हुआ। ये मंदिर अपने पूर्ववर्ती काल के मंदिरों से अधिक विकसित एवं उन्नत हैं।
अंतिम समूह में लगभागएक दर्जन मंदिरों का निर्माण हुआ, जिनमें अनंत वासुदेव, सिद्धेश्वर, केदारेश्वर, जागेश्वर, राजा रानी तथा कोणार्क इत्यादि प्रमुख हैं। ये सभी आकार में छोटे हैं तथा केवल कोणार्क मंदिर को छोड़कर सभी भुवनेश्वर नगर में स्थित हैं।
भुवनेश्वर में एक अपेक्षाकृत छोटा किंतु अत्यंत सुंदर मुक्तेश्वर मंदिर है। इसे प्रायः ओडिशा की वास्तुकला का ‘रत्न’ कहा जाता है। इस मंदिर का महत्व केवल इसके सौंदर्य और वास्तुकला की सर्वांग संपूर्णता में ही निहित नहीं है, वरन यह ओडिया वास्तुकला के विकासक्रम में ‘आरंभिक’ और ‘परवर्ती’ निर्माण शैलियों का महत्वपूर्ण संक्रमण बिंदु भी है।
पुरी के निकट स्थित कोणार्क के ‘सूर्य मंदिर’ को ‘ब्लैक पगोडा’ भी कहा जाता है। यह उत्तर भारत के विशाल हिंदू मंदिरों में सबसे प्रमुख और अंतिम है। इसे ओडिया मूर्तिकारों द्वारा वास्तुकला के सर्वांग विधानों के साथ अलंकृत मूर्तिकला के सामंजस्य प्रयासों के भव्य और गौरवशाली चरमोत्कर्ष के रूप में देखा जा सकता है। सम्राट नरसिंह देव (1238-64 ई.) द्वारा बनवाया गया यह मंदिर सुसज्जित अश्वों द्वारा खींचे जागे वाले और विशाल पहियों वाले सूर्यदेव के आकाशरथ की परिकल्पना पर आधारित है। पीठिका मंच और प्रमुख कक्ष के अग्रभाग उत्कीर्णित चित्रवल्लरियों से सुसज्जित हैं, जिनमें पृथ्वी पर जीवन के आनंद और सूर्य की ऊर्जाप्रदायी शक्ति-अर्क-को प्रतिबिम्बित किया गया है। कोणार्क में उत्कीर्णित दृश्यों में प्रेमरत युगल या मिथुन हैं। हालांकि इन असंख्य दृश्यों को अज्ञात शिल्पियों ने बनाया है, ये नक्काशियां भारतीय कला के सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों में गिनी जा सकती हैं और इनसे साफ पता चलता है कि उस समय भारत में तकनीकी प्रदर्शन और कलात्मक उत्प्रेरण का कितना उच्च स्तर रहा होगा। दुर्भाग्यवश, यह मंदिर पूरा न हो सका और इस समय वह खंडहर की स्थिति में पड़ा है।
लिंगराज मंदिर ओडिशा की मध्यकालीन शैली का विशालतम एवं सर्वप्रमुख मंदिर है। ओडिशा शैली के अन्य मंदिरों की भांति लिंगराज मंदिर की बाहरी सतह को अत्यंत अलंकारपूर्ण बनाया गया है। गुलाबी बलु, पत्थर से निर्मित मंदिर की भित्तियों में कभी-कभी क्लोराइट शीस्ट पत्थर की मूर्तियां अलग से बनाकर देवगेष्ठों के बीच सज्जित की गई हैं। इसमें संदेह नहीं कि लिंगराज का पर्वताकार मंदिर, अपनी संपूर्ण भव्यता, उच्च परिकल्पना, उन्नत तकनीकी क्षमता तथा सौंदर्य बोध के कारण, भारतीय स्थापत्य के इतिहास का अनुपम रत्न है।
पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर देश के चार धामों अथवा सबसे महत्वपूर्ण तीर्थों में से एक है। लम्बाई एवं चैड़ाई में यह लिंगराज मंदिर से बड़ा है तथा इसे एक ऊंचे स्थान पर बनाया गया है। लिंगराज मंदिर की भांति इस मंदिर में भी, श्रीमंदिर, जगमोहन, नाट मंदिर तथा भोग मण्डप को एक ही अक्ष-रेखा में बनाया गया है। इनमें से अंतिम दोनों कक्षों को चैदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दियों में जोड़ा गया है। इसके उपरांत अठारहवीं शताब्दी में इस मंदिर की व्यापक मरम्मत की गई जिसमें सीमेंट का खुलकर प्रयोग करने के कारण इसकी मौलिक सुंदरता भी प्रभावित हुई। पुरी मंदिर के विभिन्न अंगों के आपसी अनुपात लिंगराज मंदिर से अधिक सुंदर हैं। मंदिर के ठीक सामने ‘एकाश्म गरुड़ स्तम्भ’ सूर्य मंदिर कोणार्क से लाकर यहां गाड़ा गया है।
पुरी का जगन्नाथ मंदिर तथा राजा-रानी का मंदिर ओडिशा वास्तुशैली के उत्कृष्ट नमूने हैं।
सामान्यतः ओडिशा के मंदिरों में स्तंभ नहीं होता और उनकी छतों को आंशिक रूप से लोहे के गार्डरों पर टिकाया जाता था यह एक महत्वपूर्ण तकनीकी नवीनता थी। इन मंदिरों का बाह्य भाग तो बड़ी भव्यता से सजाया गया है, लेकिन आंतरिक भाग को असज्जित ही छोड़ दिया गया (केवल मुक्तेश्वर मंदिर इसका अपवाद है)।

खजुराहो और ओडिशा मंदिर शैलियों की तुलना

प्रायः खजुराहो मंदिरों की तुलना ओडिशा शैली के मंदिरों से की जाती है। यह स्वाभाविक ही है क्योंकि दोनों शैलियों के बीच अनेक समानताएं तथा असमानताएं हैं। शिखरों का आकार, गर्भगृह तथा अन्य मण्डप (जिनमें मात्र नामों का ही अंतर है) प्रायः बहुत मिलते-जुलते हैं। इसके विपरीत ओडिशा मंदिर समूह जहां एक लम्बी वास्तु परम्परा का परिणाम है, वहीं खजुराहो के मंदिर मात्र सौ वर्ष
के अंतराल (950 ई. से 1050 ई. के मध्य) ही निर्मित हुए। ओडिशा की तुलना में खजुराहो के शिखर पिरामिडिय आकार के न होकर ‘गुम्बजाकार’ हैं तथा उनके कोमल वक्र ओडिशा मंदिरों से अधिक अनुप्रेरक हैं। खजुराहो मंदिरों का ‘वास्तु-शिल्प’ एवं रूपाकार ओडिशा मंदिरों की अपेक्षा अधिक परिष्कृत एवं सुरुचिपूर्ण हैं। दोनों शैलियों के बीच एक और विशेष अंतर यह है कि खजुराहो मंदिरों के आंतरिक भाग मूर्तिशिल्प एवं अनेक कलापूर्ण अलंकरणों से सज्जित हैं, जबकि ओडिशा के मंदिरों के आंतरिक भाग पूर्णतया सादे हैं। खजुराहो मंदिर पन्ना की खानों से प्राप्त हल्के बादामी रंग के बलु, पत्थरों से निर्मित हैं। इसके विपरीत ओडिशा के मंदिर, ग्रेनाइट तथा लेटराइट आदि पत्थरों के माध्यम से बना, गए हैं। ओडिशा मंदिरों का पत्थर खजुराहो मंदिरों से अधिक कठोर था एवं उसमें बेहद बारीक और कोमल नक्कासी संभव नहीं थी। खजुराहो के पत्थर देखने में सुदर्शन तथा पोत (टेक्सचर) की दृष्टि से भी मोहक हैं। खजुराहो समूह के मंदिरों का निर्माण एक ऊंचे चबूतरे पर किया गया है जबकि ओडिशा समूह के सभी मंदिर ‘परकोटे’ के अंदर हैं जो उनकी मुख्य वास्तुगत विशेषता है।

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