JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

हिंदी माध्यम नोट्स

Categories: Uncategorized

केन्द्रीयकरण की परिभाषा क्या है | केन्द्रीयकरण किसे कहते है अर्थ मतलब हिंदी में centralisation in hindi

centralisation in hindi meaning definition केन्द्रीयकरण की परिभाषा क्या है | केन्द्रीयकरण किसे कहते है अर्थ मतलब हिंदी में ?

 केन्द्रीयकरण
केन्द्र में केन्द्रीयकरण के लिए मुख्य औचित्य यह दिया गया कि विभाजन हो जाने के कारण देश की एकता एवं अखण्डता को बनाए रखने के लिए एक मजबूत केन्द्र अपरिहार्य था। नए स्वतंत्र देश के संतुलित तथा योजनाबद्ध विकास के लिए भी केन्द्रीयकृत प्रयासों की आवश्यकता थी। परन्तु व्यवहार में केन्द्रीयकरण के दो लक्ष्य थे, प्रथम जितने भी राज्यों में संभव हो उनमें प्रमुख दल को सत्ता में बनाए रखना और दूसरे दल के अन्दर नेतृत्व की सत्ता को सुदृढ़ करना। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए राज्यपालों के पदों तथा आपातकालीन व्यवस्थाओं सहित संवैधानिक एवं अतिरिक्त संवैधानिक तरीकों का इस्तेमाल किया गया। दल के मुख्यमंत्रियों के माध्यम से राज्यों को नियंत्रित एवं संचालित करने के लिए केन्द्र ने एक पैतृक की भूमिका को विकसित किया। दल की आंतरिक समस्याओं को हल करने के लिए कभी-कभी धारा 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लागू करने जैसी असाधारण शक्तियों का भी इस्तेमाल किया गया। एक दल के शासन के दौरान केन्द्र-राज्यों के संबंध कांग्रेस दल की राज्य शाखाओं तथा केन्द्रीय नेतृत्व के बीच के रिश्तों की अभिव्यक्ति मात्र थे। न तो कभी संघीय ढाँचे को सक्रिय होने का अवसर प्राप्त हुआ और न ही राज्यों ने अपनी संवैधानिक स्वायत्तता का सुख भोगा।

कुल मिलाकर ऐसे स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि जो स्वयं में एक एकीकृत ताकत था, विभाजन की त्रासदी, एकदलीय प्रभुत्व, मजबूत करिश्माई नेतृत्व, राष्ट्रीय योजना एवं राष्ट्रीय राजनीतिक प्रबुद्ध वर्ग की अवधारणा जैसी परिस्थितियों में संविधान का निर्माण केन्द्रीकृत शक्ति के रूप में हुआ। इसको लगभग एक एकीकृत रूप में लागू किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि सभी क्षेत्रों में केन्द्र की सर्वोच्चता स्थापित हो गई। राज्यों की परियोजनाओं को अनुमति प्रदान करने में यह पूर्णरूपेण स्वतंत्र था। यह राज्यों की कानून-व्यवस्था का निर्देशन करता। इसने राज्यों के विधायकों को कानून बनाने से रोकना प्रारंभ कर दिया। अपनी इच्छानुसार ही राज्यों को अनुदान प्रदान करता। यहाँ तक कि यह मुख्यमंत्रियों को थोंपने लगा। कई टीकाकारों का मानना था कि संघीय प्रणाली के प्रभाव को एकात्मक सरकार में परिवर्तित किया गया और राज्य केंद्रीय सरकार सहायक एजेन्सी के रूप में कार्य करने लगे।

परिवर्तित परिस्थिति
केन्द्र के प्रभुत्व की प्राथमिकता की व्याख्या एवं केन्द्रीयकरण की प्रक्रिया तब तक किसी मुश्किल या विरोध के बगैर कार्य करते रहे जब तक केन्द्र एवं लगभग सभी राज्यों में एक दल का शासन कायम रहा। इसका कारण यह था कि कांग्रेस पर ऐसे नेताओं था नियंत्रण का जिनका स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण राष्ट्रीय नेताओं के रूप में सम्मान किया जाता था। जनमानस के बीच यह अभिलाषा भी थी कि उनके विकास की आशाएँ पूरी की जाएँगी। किन्तु 1960 के दशक के मध्य से स्थिति में परिवर्तन होना प्रारंभ हुआ। करिश्माई नेतागण राजनीतिक परिदृश्य से विलुप्त होने लगे। जनता की अभिलाषाओं को पूरा करने वाली विकास योजना की असफलता स्पष्ट होने लगी। विभिन्न राजनीतिक अभिलाषाओं तथा परस्पर-विरोधी आर्थिक हितों के साथ एक शक्तिशाली मध्यम वर्ग का उद्भव हुआ। लोकतंत्र तथा कुछ सीमा तक भूमि सुधार लागू तथा कृषि का विकास होने के परिणामस्वरूप एक ऐसे धनी कृषक वर्ग का भी उद्भव हुआ जो राज्य के स्तर पर अपने हितों को सुरक्षित रखने का इच्छुक था। इस सभी की परिणति दलीय व्यवस्था के परिवर्तन के रूप में हुई। कांग्रेस ने एक राष्ट्रीय आंदोलन की अपनी पहचान को खोना प्रारंभ कर दिया। इसके अतिरिक्त तथाकथित राष्ट्रीय दलों में गुटबाजी उभरने लगी जिसके कारण क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उद्भव हुआ। 1967 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी की स्थिति न केवल केन्द्र में कमजोर पड़ी बल्कि उसको मात्र आठ राज्यों में बहुमत प्राप्त हुआ। इस राजनीतिक स्थिति ने केन्द्र-राज्यों के रिश्तों में एक नई बहस को जन्म दिया। राज्यों की गैर-कांग्रेस सरकारें केन्द्र के निर्देशों को आँखें बन्दकर अनुसरण करने को तैयार न थीं। केरल, पश्चिम बंगाल तथा तमिलनाडू जैसे प्रदेशों की सरकारों ने राज्य स्वायत्तता के सिद्धांत को जीवित बनाए रखने पर बल दिया। कई प्रदेशों में गैर-कांग्रेस दलों की विजय ने कांग्रेस के अन्दर गुटबाजी को और तीव्र कर दिया और इसलिए केन्द्रीय नेतृत्व के विरुद्ध प्रश्नात्मक चिह्न लगाए जाने लगे।

प्रारंभ में केन्द्र-राज्यों के रिश्तों पर बहस सीमित थी। 1972 तक कांग्रेस दल तथा केन्द्रीय सरकार ने पुनः अपनी सर्वोच्चता को स्थापित कर लिया। हालाँकि फिर भी स्थिति 1967 से पूर्व की न बन सकी। अब केन्द्रीयकरण की प्रक्रिया और कठोर हो गई। केन्द्र सरकार के राज्यों में हस्तक्षेप करने के व्यवहार में वृद्धि हुई अपितु व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिला। 1979 के बाद से सत्ता में आने वाले दलों में परिवर्तन तथा केन्द्र स्तर पर संयुक्त सरकार के सत्ता में आने से केन्द्र-राज्य संबंधों पर नई बहस एवं प्रक्रियाओं का प्रारंभ हुआ। लेकिन सामान्यतः चुनौतियों एवं नवीन परिवर्तनों के बावजूद केन्द्रीय सरकारों ने केन्द्र की प्रधानता के विचार, राज्यों के मामलों में अपने हस्तक्षेप के अधिकार, राज्यपालों के कार्यालयों के दुरुपयोग तथा राष्ट्रपति शासन को थोपने को जारी रखा।

इस प्रकार राज्य के अधिकार क्षेत्र में केन्द्र द्वारा हस्तक्षेप करने की एक सामान्य प्रवृत्ति बनी रही। केन्द्रीयकरण एवं केन्द्र सरकार के हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति ने केन्द्र-राज्य रिश्तों के क्षेत्र में गंभीर तनाव को जन्म दिया। ये महत्त्वपूर्ण है:
1) राज्यपाल की भूमिका
2) राष्ट्रपति शासन को लागू करना
3) राष्ट्रपति के विचार हेतु अधिनियम को सुरक्षित रखना
4) वित्तीय शक्तियों का बँटवारा
5) इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का इस्तेमाल

 संघवाद और केन्द्रीयकरण
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जिस राजनीतिक प्रबुद्ध वर्ग ने सत्ता को प्राप्त किया वह शक्तिशाली केन्द्र का पक्षधर था क्योंकि वह न केवल केन्द्रीय नीतियों को लागू करना चाहता था अपितु यह राष्ट्रीय प्रबुद्ध वर्ग अपनी सुनिश्चित सर्वोच्चता को भी बनाए रखना चाहता था। इसलिए संविधान द्वारा उपलब्ध कराए गए केन्द्रीकृत संघ को इस वर्ग ने अपर्याप्त माना या पाया और केन्द्र के शासकों ने उचित या अनुचित साधनों का इस्तेमाल करते हुए केन्द्र की शक्तियों में और वृद्धि की । केन्द्र और लगभग सभी राज्यों में एक दल की सरकार होने के कारण की शक्ति में वृद्धि करने में और मदद की।

 प्रस्तावना
आप पहले से ही इकाई 4 में पढ़ चुके हैं कि भारतीय संघीय व्यवस्था का विवरण एक “सहयोगीय संघवाद‘‘ के रूप में किया गया है। वास्तव में यह एक मजबूत संघ तथा महत्त्वपूर्ण एकात्मक प्रवृत्तियों वाला संघ था। इसकी संरचना इस प्रकार से की गई कि केन्द्रीय सरकार की सर्वोच्चता की स्थापना के साथ कुछ निश्चित क्षेत्रों में राज्यों को भी स्वायत्तता उपलब्ध हो । संविधान की सातवीं सूची के अंतर्गत वैधानिक प्रशासनिक एवं वित्तीय क्षेत्रों में शक्तियों के वितरण की योजना को इस प्रकार से प्रभावकारी बनाया गया था जिससे कि केन्द्रीय सरकार राज्यों से अधिक शक्तिशाली बन सके। इसके अतिरिक्त अवशिष्ट शक्तियाँ भी केन्द्रीय सरकार का प्रदान की गईं।

आपातकालीन व्यवस्थाओं के नाम पर केन्द्र को विधायी एवं कार्यवाही शक्तियों का भरपूर प्रयोग करने के लिए अथाह शक्तियाँ प्रदान की गई जिससे कि वास्तव में संघीय व्यवस्था एक एकात्मक व्यवस्था में परिवर्तित हो जाए। संविधान निर्माण के समय (राष्ट्रीय एकता तथा विकास के हित में) शक्तियों के केन्द्रीयकरण को आवश्यक समझा गया। कुछ समय पश्चात् विशेषकर 1960 के दशक में भारतीय संघवाद की प्रकृति के विषय में सवालिया निशान लगने लगे। हम इस इकाई में इन सभी विषयों का उनकी पृष्ठभूमि, आशय तथा भविष्य की प्रवृत्तियों के संदर्भ में उल्लेख करेंगे।

भारतीय संघवाद में टकरावं एवं सहयोग के मुद्दे
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
संघवाद और केन्द्रीयकरण
केन्द्रीयकरण
परिवर्तित परिस्थिति
राज्यपाल की भूमिका
राज्यपाल की नियुक्ति
राज्यपाल की विवेकाधिकार शक्तियाँ
राष्ट्रपति के विचार हेतु विधेयक को सुरक्षित रखना
आपातकालीन शक्तियों का प्रयोग
धारा 356 के अंतर्गत आपातकालीन शक्तियाँ
राष्ट्रपति शासन पर विवाद
वित्तीय संबंध
कर लगाने की शक्तियाँ
अनुदान विषय
आर्थिक योजना
इलेक्ट्रोनिक मीडिया का इस्तेमाल
स्वायत्तता तथा सहयोग की माँग
स्वायत्तता की माँग
सहयोग की दिशा में किए गए कार्य
सरकारिया आयोग
अन्तर-राज्य कौंसिल
सारांश
शब्दावली
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई में तनाव तथा सहयोग के उन क्षेत्रों का विवरण किया गया है जिनकी भारत में उत्पत्ति संवैधानिक व्यवस्थाओं और पचास वर्ष से अधिक संघीय व्यवस्था के कार्य करने के कारण हुई है। इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप जान सकेंगे:

ऽ उन कारणों तथा परिस्थिति की जिससे केन्द्र-राज्य रिश्तों में टकराव-सहयोग उत्पन्न हुआ है,
ऽ केन्द्र-राज्यों के बीच के तनावों, उनकी प्रकृति तथा आशयों के क्षेत्रों की पहचान के विषय में,
ऽ सुधार के लिए दिए सुझाव एवं अनुमोदनों या केन्द्र-राज्यों के बीच टकराव व तनाव को कम करने के लिए होने वाले परिवर्तनों के बारे में, तथा
ऽ भारतीय संघवाद की कार्य पद्धति में उत्पन्न होने वाले रुझानों के आकलन के विषय में ।

Sbistudy

Recent Posts

मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi

malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…

4 weeks ago

कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए

राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…

4 weeks ago

हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained

hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…

4 weeks ago

तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second

Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…

4 weeks ago

चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi

chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…

1 month ago

भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi

first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…

1 month ago
All Rights ReservedView Non-AMP Version
X

Headline

You can control the ways in which we improve and personalize your experience. Please choose whether you wish to allow the following:

Privacy Settings
JOIN us on
WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now