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कैडबरी समिति प्रतिवेदन क्या है | अध्यक्ष कौन थे कब हुई थी cadbury committee in corporate governance in hindi

cadbury committee in corporate governance in hindi कैडबरी समिति प्रतिवेदन क्या है | अध्यक्ष कौन थे कब हुई थी cadbury committee report of corporate governance was released prepared in ?

कारपोरेट (कंपनी) शासन संहिता
हाल के वर्षों में कारपोरेट शासन संबंधी अनेक प्रतिवेदन काफी प्रसिद्ध हुए हैं। यहाँ हम संक्षेप में दो प्रतिवेदनों कैडबरी समिति प्रतिवेदन, और कुमारमंगलम बिड़ला समिति प्रतिवेदन का वर्णन करेंगे।

 कैडबरी समिति प्रतिवेदन
यह समिति सर एड्रियान कैडबरी की अध्यक्षता में 1992 में गठित की गई थी। समिति की सिफारिशों में एंग्लो-सैक्सन मॉडल के अनुरूप कारपोरेट शासन के वित्तीय पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।

समिति की सिफारिशों के केन्द्र में कारपारेट शासन के मानदंडों को पूरा करने और ‘‘उद्यम की मूल भावना अक्षुण्ण बनाए रखने‘‘ के बीच सम्यक् सन्तुलन स्थापित करने के लिए तैयार किया गया ‘‘सर्वोत्तम प्रक्रिया संहिता है‘‘। किसी कंपनी को ‘‘लंदन स्टॉक एक्सचेंज‘‘ में सूचीबद्ध होने के लिए यह घोषणा करनी पड़ती है कि क्या वह संहिता का पालन करेगी अथवा नहीं। इससे निवेशकों को इस संहिता का पालन करने के संबंध में कंपनी के इरादों के बारे में जानकारी मिलती है।

यद्यपि कि कैडबरी संहिता कारपोरेट शासन से जुड़े विभिन्न मुद्दों से संबंधित है, यहाँ हम इसकी कुछ मुख्य सिफारिशों का उल्लेख करेंगे:

इस संहिता में कारपारेट सुशासन सुनिश्चित करने के लिए निदेशक मंडल के समुचित कार्यकरण पर काफी बल दिया गया है। इसमें यह सिफारिश की गई है कि मंडल (ठवंतके) में कम से कम तीन गैर-कार्यकारी निदेशक रहने चाहिए, जिनकी भूमिका कंपनी के कार्यकलापों को व्यापक नजरिया प्रदान करना है। उन्हें प्रबन्धन से स्वतंत्र तथा ‘‘किसी भी व्यावसायिक अथवा अन्य संबंधों जो उनके स्वतंत्र निर्णय लेने में मौलिक रूप से हस्तक्षेप कर सकते हैं से स्वतंत्र‘‘ होनी चाहिए। गैर कार्यकारी निदेशकों को निर्भर होकर स्वतंत्र रूप से बोर्ड के कार्यकरण की निगरानी करनी चाहिए।

इस संहिता में यह भी सिफारिश की गई है कि सिद्धान्त रूप में, चेयरमैन की भूमिका मुख्य कार्यकारी की भूमिका से अलग होनी चाहिए। चेयरमैन की भूमिका यह सुनिश्चित करना है कि सभी प्रासंगिक मसलों को कार्यसूची में रखा जाए और बोर्ड के कार्यकलापों में बोर्ड के विभिन्न सदस्यों को पूरी-पूरी भूमिका निभाने का अवसर प्रदान करे तथा प्रोत्साहित करे ताकि बोर्ड का काम-काज सुचारू रूप से चले। इस भूमिका को मुख्य कार्यकारी की भूमिका, जो फर्म के कार्य संचालन से संबंधित है से पृथक कर देना चाहिए अन्यथा अधिकारों का केन्द्रीकरण हो जाएगा।

संहिता में दूसरे जिस क्षेत्र पर अधिक बल दिया गया है वह है लेखा परीक्षा समितियों की भूमिका तथा पारदर्शी लेखा। सभी सूचीबद्ध कंपनियों को लेखा परीक्षा समितियों का गठन करना चाहिए। इसकी सदस्यता कंपनी के गैर-कार्यकारी निदेशकों तक ही सीमित होना चाहिए। लेखा परीक्षा समितियों को अपने विचारार्थ विषयों की सीमा के अंतर्गत किसी भी विषय की जाँच करने का स्पष्ट अधिकार मिलना चाहिए। इसे इसके लिए आवश्यक संसाधन दिए जाने चाहिए तथा इसकी पहुँच पूरी जानकारियों तक होनी चाहिए।

इस संहिता में वित्तीय विवरणों जो कंपनी के वित्त की ‘‘सत्य और सही स्थिति‘‘ की जानकारी प्रदान करते हैं कि आवश्यकता पर भी बल दिया गया है।

संहिता में बोर्ड के सदस्यों के पारिश्रमिक का भी उल्लेख है। बहुधा यह आरोप लगाया गया है कि निदेशक कंपनी के बहुत लाभ नहीं कमाने की स्थिति में भी अपने लिए अत्यधिक पारिश्रमिक निर्धारित कर लेते हैं। संहिता में सिफारिश की गई है कि बोर्ड को ऐसी पारिश्रमिक समितियों का गठन करना चाहिए जिसमें या तो सभी या अधिकांश गैर-कार्यकारी निदेशक शामिल हों। ‘‘कार्यकारी निदेशकों को अपने पारिश्रमिक से संबंधित निर्णयों में कोई भूमिका नहीं निभाना चाहिए।‘‘

 कुमारमंगलम बिड़ला समिति प्रतिवेदन
भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) द्वारा श्री कुमारमंगलम बिड़ला की अध्यक्षता में कारपोरेट शासन संबंधी समिति का गठन 7 मई 1999 को भारत में कारपोरेट शासन के मानकों के संवर्धन और उसे ऊपर उठाने के लिए किया गया था। समिति का प्रमुख उद्देश्य, ‘‘निवेशकों और शेयरधारकों की दृष्टि से कारपोरेट शासन को देखना‘‘ रहा है।

समिति ने नोट किया कि भारतीय कंपनियों में वित्तीय रिपोर्ट देने संबंधी मानकों और उत्तरदायित्व के बारे में चिन्ता बढ़ रही है। इसके अतिरिक्त, कुछ कंपनियों के बेईमान प्रबन्धन ने उच्च मूल्य निर्धारण करके बाजार से पूँजी उगाही की किंतु कंपनियों का, धन जुटाने के समय किए गए वित्तीय अनुमानों को छोड़ भी दें, तो भी दी गई आँकड़ों की तुलना में काफी खराब कार्यनिष्पादन रहा। समिति ने प्रवर्तकों के शेयरों के अधिमान्य आधार पर और अधिमानी मूल्य पर आबंटन के प्रचलन को भी खराब शासन माना है। इसके अतिरिक्त, शेयरों के अंतरण में विलम्ब, शेयर प्रमाण पत्रों और लाभांश वारंट के डिस्पैच में विलम्ब, और लाभांश वारंटों के नहीं प्राप्त होने जैसे निवेशकों की शिकायतों के समाधान पर कंपनियाँ पर्याप्त रूप से ध्यान नहीं देती हैं।

इस समिति की कुछ सिफारिशें सूचीबद्ध कंपनियों के लिए अनिवार्य हैं जबकि अन्य अनिवार्य नहीं हैं। इसमें गैर कार्यकारी निदेशकों में स्वतंत्र निदेशकों की भूमिका पर बल दिया गया है। स्वतंत्र निदेशक वे हैं जिनका निदेशक के लिए निर्धारित पारिश्रमिक लेने के अलावा ‘‘कंपनी, इसके प्रव्रत्तकों, इसके प्रबन्धन अथवा इसकी अनुषंगी कंपनी के साथ कोई महत्त्वपूर्ण आर्थिक संबंध अथवा कारोबार नहीं है जो कि बोर्ड के निर्णय में उनके स्वतंत्र निर्णय को प्रभावित कर सकता है।‘‘ एक बोर्ड को यदि वस्तुपरक ढंग से अपना कार्य-निष्पादन करना है तो बोर्ड में पर्याप्त संख्या में स्वतंत्र निदेशक होने चाहिए। इस प्रतिवेदन में कैडबरी प्रतिवेदन की भाँति यह भी महसूस किया गया कि चेयरमैन की भूमिका सिद्धान्त रूप में मुख्य कार्यकारी की भूमिका से भिन्न है।

भारत में, आई डी बी आई और आई सी आई सी आई जैसी वित्तीय संस्थाएँ एक महत्त्वपूर्ण शेयरधारक होने के साथ-साथ ऋणदाता भी हैं। बिड़ला समिति प्रतिवेदन में यह भी महसूस किया गया है कि उन्हें बोर्ड में स्थान नहीं माँगना चाहिए अपितु उन्हें आम सभा की बैठकों में अपने मताधिकार का उपयोग करना चाहिए। अन्यथा, उन पर परोक्ष लेन-देन (इन्साइडर ट्रेडिंग) का आरोप लगाया जा सकता है क्योंकि प्रायः उनके पास मूल्य को प्रभावित करने वाली खबरें होती हैं।

कैडबरी समिति की ही भाँति कुमारमंगलम् समिति स्वतंत्र लेखा परीक्षा समितियों के गठन की सिफारिश करती है। लेखा परीक्षा समिति में न्यूनतम तीन गैर-कार्यकारी निदेशक होना चाहिए और इसमें से अधिसंख्य स्वतंत्र होने चाहिए। अन्य अनिवार्य सिफारिश कार्यकारी निदेशकों के लिए विशेष पारिश्रमिक पैकेजों के निर्धारण के लिए पारिश्रमिक समिति के गठन से संबंधित है।

इसलिए, कैडबरी समिति और कुमारमंगलम् बिड़ला समिति के प्रतिवेदनों में बहुत कुछ समानता है।

बोध प्रश्न 4
1) कैडबरी संहिता की कुछ मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
2) कैडबरी संहिता और कुमारमंगलम बिड़ला समिति की सिफारिशों के बीच कुछ समानताएँ
बताइए।
3) कुमारमंगलम् बिड़ला समिति प्रतिवेदन में भारतीय संदर्भ में कारपोरेट शासन की कुछ विफलताओं का उल्लेख है। यह विफलताएँ कौन-सी हैं?

भारतीय संदर्भ
भारत में अच्छा कारपोरेट शासन लागू करने के प्रयास के कई संघटक हैं। पहला, फर्म के प्रचालन, आंतरिक और बाह्य विश्व दोनों के संदर्भ में, से संबंधित कुछ नियम और विनियम हैं। दूसरा, अधिग्रहण के नियमों को शिथिल करके पूँजी बाजार नियंत्रण स्थापित किया जाए। अंततः, जैसा कि हम पहले ही विस्तारपूर्वक चर्चा कर चुके हैं, कुमारमंगलम् समिति ने शासन संबंधी संहिता तैयार की है।

 नियम और विनियम

सेबी ने कंपनी शासन को सुदृढ़ बनाने के लिए विभिन्न कदम उठाए हैं। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
ऽ शेयरों के आरंभिक सार्वजनिक पेशकश के लिए प्रकटीकरण मानदंडों को सशक्त बनाया जाना।
ऽ निदेशक के रिपोर्ट में निधियों के उपयोग और निधियों के प्रक्षेपित तथा वास्तविक उपयोग में अंतर के बारे में जानकारी प्रदान करना।
ऽ त्रैमासिक परिणामों की घोषणा।
ऽ शेयर अंतरण की प्रक्रिया की निगरानी और विभिन्न नियमों तथा विनियमों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए अनुपालन अधिकारी की अनिवार्य नियुक्ति।
ऽ मूल्य को प्रभावित करने वाली जानकारी का समय पर प्रकटीकरण।
ऽ बाजार कीमतों पर अधिमान्य शेयरों के आबंटन हेतु दिशानिर्देशों को जारी करना।

भारत में अधिग्रहण
जैसा कि हमने देखा, पूँजी बाजार अधिग्रहण, के माध्यम से भ्ूाल करने वाले प्रबन्धकों को अनुशासित कर सकता है। किंतु भारत में, एकाधिकार तथा अवरोधक व्यापारिक व्यवहार अधिनियम, 1969 ने विलय, समामेलन और अधिग्रहण पर विभिन्न प्रतिबंध लगाया था।
ऽ बैंक भारतीय रिजर्व बैंक के विनियमों के तहत अधिग्रहण के लिए वित्त प्रदान नहीं कर सकते थे।
ऽ सरकारी वित्तीय संस्थाएँ जिनके नियंत्रण में अनेक कंपनियों के शेयर बड़ी संख्या में हैं के हाथ में अयोग्य प्रबन्धन को हटाने के लिए अधिग्रहण प्रयास की सफलता सुनिश्चित करने की शक्ति केन्द्रित थी। किंतु इस प्रकार का कोई भी कदम उठाने पर राजनीतिक पक्षपात का आरोप लगता, इसलिए व्यवहार में अत्यधिक खराब प्रबन्धन वाली कंपनियों में भी उन्होंने निष्क्रिय भूमिका ही निभाई।
ऽ कंपनी के बोर्ड के पास किसी विशेष खरीदार को अंतरण से इन्कार करने का अधिकार था और इससे प्रबन्धकों के विद्यमान समूह की सम्मति के बिना अधिग्रहण करना लगभग असंभव था। शेयरों का अंतरण दो आधारों पर मना किया जा सकता था: कि अंतरण कंपनी के हित अथवा सार्वजनिक हित के प्रतिकूल था।

इस प्रकार, प्रतिस्पर्धी अधिग्रहण जिसे कार्यकुशलता लाने के लिए पूँजी बाजार के साधन के रूप में देखा जा सकता है, कि गुंजाइश अत्यन्त ही सीमित प्रतीत होती थी।

सरकार ने 1991 में, एम आर टी पी (संशोधन) अधिनियम द्वारा एम आर टी पी अधिनियम से कुछ संगत धाराओं और उपबंधों को हटा दिया। एम एण्ड ए कार्यकलापों के लिए केन्द्र सरकार की पूर्वानुमति की आवश्यकता समाप्त कर दी गईं यूरो निर्गमों (यूरोप में शेयरों की बिक्री) के माध्यम से सस्ती निधियों की उपलब्धता ने वित्त की समस्या का समाधान कर दिया। वर्ष 1988 से शुरू होकर, भारत में विलयों और समामेलनों की संख्या तेज गति से बढ़ती हुई प्रतीत हो रही है। इस संदर्भ में, सेबी (सब्सटैन्शियल अक्विजीशन ऑफ शेयर्स एण्ड टेक ओवर्स) रेग्युलेशन्स, 1994 ने एक ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास किया जिसमें अधिग्रहण गतिविधियाँ भारतीय फर्मों को प्रभावी रूप से अनुशासित करने का कृत्य पूरा कर सकें।

इन विनियमों का मुख्य उद्देश्य सूचनाओं के प्रकटीकरण के माध्यम से शेयरों की खरीद तथा कंपनियों के अधिग्रहण में अधिक से अधिक पारदर्शिता लाना है। उदाहरण के लिए, कंपनी में 5 प्रतिशत से अधिक शेयर रखने वाले को कंपनी तथा उन सभी शेयर बाजारों जहाँ शेयर सूचीबद्ध है को अपनी शेयरधारिता प्रकट करना अनिवार्य है। बातचीत करके तय किए गए अधिग्रहण में अधिग्रहणकर्ता तब तक 10 प्रतिशत से अधिक शेयर नहीं अधिग्रहण कर सकता है जबतक कि वह अधिग्रहण मूल्य अथवा विगत छः महीने के औसत मूल्य पर और 20 प्रतिशत शेयर आम जनता के लिए पेशकश नहीं करता है। खुले बाजार के अधिग्रहणों में अधिग्रहणकर्ता तब तक 10 प्रतिशत से अधिक शेयर नहीं अधिग्रहण कर सकता है जब तक कि वह स्वयं द्वारा भुगतान किए गए उच्चतम खुला बाजार भाव अथवा विगत छः महीनों के औसत मूल्य पर आम जनता को शेयरों की पेशकश नहीं करता है।

भगवती समिति का गठन विनियमों की समीक्षा करने तथा परिवर्तनों की सिफारिश करने के लिए किया गया था। भगवती समिति द्वारा तैयार प्रारूप अधिग्रहण संहिता को 28 अगस्त, 1996 को जारी किया गया था। शेयरधारकों के हितों की रक्षा, उचित व्यवहार, पारदर्शिता और समता सुनिश्चित करने के स्पष्ट लक्ष्य से और अधिग्रहण की प्रक्रिया को बिना निरुत्साहित किए हुए समिति ने विनियमों की व्यवस्थित ढाँचा के निर्माण का आह्वान किया जिसमें अधिग्रहण को मूर्त रूप दिया जा सकें। भगवती समिति ने अपनी सिफारिशें प्रस्तुत करना तथा अनुभव और जनता से मिली जानकारियों के प्रकाश में अपनी सिफारिशों में संशोधन करना जारी रखा है। –

बोध प्रश्न 5
1) भारतीय संदर्भ में कारपोरेट शासन की कुछ समस्याओं जिनका सेबी नियमों के माध्यम से समाधान करने का प्रयास किया जाता है की पहचान कीजिए।
2) भारत में अधिग्रहण की प्रक्रिया में पहले क्या बाधाएँ थीं? उन बाधाओं को किस तरह से दूर किया गया है?

 

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