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खूनी रविवार की घटना क्या थी रूस में इसके प्रमुख कारण क्या थे , नेतृत्व कौन कर रहे थे bloody sunday in hindi
bloody sunday in hindi russia incident खूनी रविवार की घटना क्या थी रूस में इसके प्रमुख कारण क्या थे , नेतृत्व कौन कर रहे थे ?
ब्लडी सन्डे (खूनी रविवार)
22 जनवरी, 1905 को पादरी गेपन के नेतृत्व में मजदूरों के शान्तिपूर्ण जुलूस पर जार के सैनिकों द्वारा की गयी गोलाबारी में सैकड़ों मजदूर, त्री, बच्चे, वृद्ध मारे गये। इसी दिन से 1905 ई. की क्रान्ति की शुरूआत हुई। यह दिन इतिहास में खूनी रविवार या काले रविवार के नाम से प्रसिद्ध है।
शीत-युद्ध (Cold War)
शीतयुद्ध नामक शब्द का प्रयोग श्बर्नाड बरुचश् ने किया, जिसे वोल्टर लिपमैन ने लोकप्रिय बनाया। यह दो महाशक्तियों के (सोवियत संघ एवं संयक्त राज्य अमेरिका) के मध्य शक्ति संघर्ष था। यह पूंजीवाद एवं साम्यवादी विचारधाराओं के मध्य संघर्ष था। पूंजीवाद का समर्थक अमेरिका तथा साम्यवाद का समर्थक सोवियत संघ था।
महायुद्ध के समाप्त होने के कुछ ही दिनों बाद, विश्व की दोनों महाशक्तियों अर्थात् संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और रूस के बीच विभिन्न समस्याओं के संबंध में तीव्र मतभेद उभरने लगे। शीघ्र ही इन मतभेदों ने इतना तनाव और वैमनस्य उत्पन्न कर दिया कि सशस्त्र संघर्ष के न होते हुए भी दोनों के बीच आरोपों, प्रत्यारोपों एवं परस्पर-विरोधी राजनैतिक प्रचार का श्तुमुल युद्धश् आरम्भ हो गया जो अनेक वर्षों तक चलता रहा। यही श्शीतयुद्धश् कहलाता है। विश्व के अधिकांश राष्ट्र इस श्शीतयुद्धश् की चपेट में आ गए, जिससे संसार पुनः दो परस्पर विरोधी खेमों में विभाजित हो गया।
शीतयुद्ध प्रगति की के कारण
पश्चिमी राष्ट्र, सोवियत संघ के पूँजीवाद के उन्मूलन के निश्चय एवं विश्व क्रांति के प्रयत्नों तथा 1939 में हिटलर के साथ किए गए अनाक्रमण-समझौते को नहीं भूले थे और सोवियत नेता भी पश्चिमी राष्ट्रों के, बोलशेविक क्रांति द्वारा स्थापित व्यवस्था को समाप्त करने के प्रयत्नों को नहीं भूल सकते थे। पश्चिमी राष्ट्रों के नेता, साम्यवादी व्यवस्था को उतने ही अविश्वास एवं घृणा से देखते थे, जितना कि बोलशेविक नेता पश्चिमी पूँजीवादी व्यवस्था को। एक आधुनिक लेखक केनेथ इनग्राम ने अपने ग्रंथ श्हिस्ट्री ऑफ द कोल्ड वारश् में इसी मनोवैज्ञानिक कारण को ही, दोनों पक्षों की शत्रुता का एक प्रमुख कारण माना है। 1942 से ही स्टालिन, अमेरिका और ब्रिटेन से, हिटलर के विरुद्ध पश्चिमी यूरोप में ष्दूसरा मोचीष् खोलने का आग्रह करता रहा। कुछ महिनों तक तो चर्चिल और रूजवेल्ट इस प्रकार की योजना को कार्यान्वित करने में अपनी असमर्थता जताते रहे। उसके बाद भी चर्चिल, फ्रांस में द्वितीय मोर्चा खोलने के पक्ष में नहीं था और उसके बदले में, बाल्कन क्षेत्र में यूरोप के उत्तरी भाग में आगे बढ़ने की योजना पर बल देता रहा। यद्यपि उसे अन्त में अमेरिका के दबाव के कारण फ्रांस में ष्द्वितीय मोर्चाष् खोलने के लिए तैयार होना पड़ा, किन्तु उसमें विलम्ब होने के कारण स्टालिन को अपने मित्रों की नेकनियती पर शक होने लगा। सोवियत नेता यह सोचने लगे कि चर्चिल एवं रूजवेल्ट ने जानबूझकर यह देरी की थी, जिससे कि जर्मनी, रूस की शक्ति को अधिक से अधिक क्षीण कर सके।
1944 के अंतिम चरण में जब रूस की सेनाएं तीव्रगति से पोलैण्ड, हंगरी और रूमानिया में आगे बढ़ने लगी, उस समय ब्रिटेन ने पूर्वी यूरोप में साम्यवादी प्रभाव को रोकने के लिए यूनान में राजतंत्रवादी पक्ष को सहायता दी और इटली में वामपंथियों के विरुद्ध दक्षिणपंथी अनुदार दल की सरकार का समर्थन किया। दूसरी ओर सोवियत सेनाओं द्वारा मुक्त कराये गए क्षेत्रों में, रूस ने वहां के साम्यवादी दलों को प्रोत्साहन दिया और विरोधी तत्वों को समाप्त करने का प्रयास किया, जिससे पश्चिमी राष्ट्र चिंतित हो गए। रूस ने पोलैण्ड पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया और यूगोस्लाविया में मार्शल टीटो को पूरी सहायता देता रहा। प्रोफेसर डी.एफ.फ्लेमिग के मतानुसार यपूर्वी यूरोप पर रूस के नियंत्रण ने ही पश्चिमी राष्ट्रों को भयभीत कर दिया और शीत-युद्ध का सूत्रपात किया।
6 अगस्त, 1945 को अमेरिका द्वारा, हिरोशिमा पर अणुबम गिराये जाने की भी रूस में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। यद्यपि अमेरिका के ट्रमैन ने 24 जुलाई को स्टालिन को यह सूचना गोलमाल रूप में दी थी, परन्तु अणुबम के अनुसंधान और उसकी भयंकर विस्फोटक शक्ति के रहस्य को जानबूझकर गुप्त रखा। ‘फ्लेमिंग के शब्दों में ष्हिरोशिमा में अणुबम का विस्फोट सोवियत संघ और पश्चिमी राष्ट्रों की युद्धकालीन मित्रता के अंत और युद्धोत्तरकालीन शक्ति-संघर्ष के आरम्भ का सूचक था।
उपर्युक्त कारणों से युद्ध समाप्त होने तक दोनों पक्षों में गहरे मतभेद उत्पन्न हो गए और युद्ध समाप्ति के बाद की घटनाओं के कारण उनकी उग्रता बढ़ती गयी। पोलैण्ड की व्यवस्था, जर्मनी, यूनान एवं अन्य मामलों के संबंध में रूस और पश्चिमी राष्ट्रों के दृष्टिकोण में सामंजस्य स्थापित करने के सभी प्रयास विफल हो गए। विदेश-नीति संबंधी वक्तव्यों एवं विदेश मंत्री सम्मेलनों में दोनों पक्षों के मतभेद खुलकर प्रकट होने लगे। 20 अगस्त, 1945 को ष्ब्रिटिश विदेश मंत्री बेविनष् ने, एक भाषण में कहा था कि, बलगेरिया, रूमानिया और हंगरी में जो सरकारें स्थापित की गयी हैं. वे वहां की बहुमत का प्रतिनिधित्व नहीं करती और उससे ऐसा आभास होता है कि वहां एक प्रकार के सर्वाधिकारवाद के स्थान पर, दूसरे प्रकार का सर्वाधिकारवाद स्थापित किया जा रहा है। सोवियत संघ में इस भाषण की बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। इसके पश्चात् लंदन की विदेश मंत्री-परिषद के बीच किसी भी प्रश्न के संबंध में मतैक्य नहीं हो सका और वह बैठक बिना किसी निर्णय के समाप्त हो गयी।
ईरान में सोवियत सेनाओं की उपस्थिति : युद्धकाल में रूसी सेनाओं ने, ब्रिटेन की सहमति से ईरान के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया था। युद्ध की समाप्ति के बाद आंग्ल-अमेरिकी सेनाएं ईरान के दक्षिणी क्षेत्र से हुआ ली गयी, परन्तु सोवियत सेनाएं पूर्ववत उत्तरी क्षेत्र में बनी रही। अतः जनवरी, 1946 में ईरान के प्रतिनिधि ने, संयुक्त राष्ट्रसंघ के समक्ष शिकायत की, जिस पर काफी वाद-विवाद हुआ। अन्त में अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण रूस को अपनी सेनाएं हुआनी पड़ी जिससे दोनों खेमों में तनाव बढ़ गया।
यूनान में साम्यवादी हस्तक्षेप : 1944-45 में ब्रिटेन ने, यूनान में साम्यवादी तत्वों को दबाकर राजतत्रीय सत्ता स्थापित की पर कम्युनिस्ट गुरिल्ले (छापामार) पुनः सक्रिय हो उठे। पड़ोसी कम्युनिस्ट राष्ट्रों अर्थात् अल्बानिया, यूगोस्लाविया और बलगेरिया से काफी सहायता मिलने के कारण उनके उपद्रव बढ़ते जा रहे थे। उस समय ब्रिटेन ने यूनान की सहायता करने में असमर्थता व्यक्त की, अतः अमेरिका ने ही साम्यवादी संकट से बचाने की व्यवस्था की।
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