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अश्वेत महिला किसे कहते हैं | अश्वेत महिलाओं के आन्दोलन का अर्थ क्या है मतलब परिभाषा black women’s movement in hindi
black women’s movement in hindi अश्वेत महिला किसे कहते हैं | अश्वेत महिलाओं के आन्दोलन का अर्थ क्या है मतलब परिभाषा |
परिभाषा : वे महिला या पुरुष जो रंग में तुलनात्मक रूप से सांवले अथवा काले रंग के होते है उन्हें अश्वेत कहा जाता है , आजादी से पूर्व अंग्रेज भारतीयों को अश्वेत कहा करते थे क्योंकि उनकी तुलना में भारतीयों का रंग सांवला अथवा काला होता था | इस आधार पर वे भारतीयों के साथ भेदभाव करते थे जिसके विरुद्ध भारतीयों ने कई आन्दोलन भी किये |
अश्वेत महिलाओं के आंदोलन – एक दुविधा
इस प्रकार की विशिष्ट व समक्षणिक शोषण की महिलाओं की स्थिति आंदोलन की राजनीति के लिए जो विरोधाभास उत्पन्न करती है उसे अश्वेत स्त्रियों के सम्बन्ध में बेहतर समझा जा सकता है। बैल हुक्स (ठमसस भ्ववो) इस विरोधाभास का हवाला देती है। उसका कहना है कि एक लम्बे समय तक जातिवाद व पितृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण अश्वेत महिलाएँ उत्पीड़न का दोहरा शिकार होती रही हैं। आरंभ में वे अश्वेत लोगों के आंदोलन में भागीदार हुई और ‘नारीत्व‘ को अपने अभिज्ञान के महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में नहीं जान सकी। उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि लिंगवाद भी जातिवाद की भांति उत्पीड़नकारक है अतः उन्होंने यह आशा की कि सामाजिक उत्पीड़न से मुक्ति उन्हें लिंगीय उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने में समर्थ होगा। धीरे-धीरे उन्हें अश्वेत पुरुषों के लिंगवाद का ज्ञान होने लगा। जब इन स्त्रियों ने लिंग भेद को उत्पीड़न के आधार के रूप में जान भी लिया और विश्व महिला आंदोलन का हिस्सा बनी तब भी उन्हें श्वेत महिलाओं के जातिभेद का सामना करना पड़ा। उनकी दुविधा यह थी कि एक ओर तो वे श्वेत महिलाओं के नेतृत्व में जातिविभेदवादी महिला आंदोलन तो दूसरी ओर पुरुषों के नेतृत्व अश्वेतों के आंदोलन में फंस गई। केवल महिला आंदोलन के समर्थन का तात्पर्य था श्वेत महिलाओं के जातिवाद को स्वीकारना तो दूसरी ओर अश्वेतों के आंदोलन का समर्थन पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था को स्वीकार करना था। उनकी समस्या ‘अश्वेत पुरुष प्रधानों के हितों की पूर्ति करने वाले अश्वेत आंदोलन और जातिवाद श्वेत महिलाओं के हितों की पूर्ति करने वाले स्त्री आंदोलन के मध्य चयन की थीं, अतः बहुत सी अश्वेत महिलाओं ने अश्वेत आंदोलन स्वीकार किया तो कुछ स्त्री आंदोलन में शामिल हो गई। कुछ अश्वेत स्त्रियाँ असमंजस में पड़ गई तो कुछ अन्य ने अश्वेत स्त्रीवादी संगठनों की स्थापना की। (हुक्स, पृ. 49)
अश्वेत महिलाओं का यह आंदोलन संपूर्ण विश्व में स्त्रियों के सम्मुख प्रस्तुत विरोधाभास को दर्शाता है जो किसी एक श्रेणी, मूल या लिंग को स्त्रियों के शोषण को आधार मान लेती हैं। काफी समय से अब यह ज्ञात हो गया है कि शोषण के स्थल और विरोध के स्थल एक नहीं अनेक हैं। आवश्यकता है शोषण के इन विभिन्न स्रोतों के मध्य संबंध को समझना और सामूहिक विरोध को जानना। अश्वेत महिलाओं के सम्बन्ध में यह विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि जाति मूलक या लिंग मूलक शोषण को दो पृथक मुद्दों के रूप में देखा नहीं जा सकता। दोनों परस्पर गुंथ है फलतः जातिभेद व लिंगवाद के विरुद्ध संघर्ष को भी परस्पर जोड़ कर देखना होगा।
बोध प्रश्न 4
नोटः क) अपने उत्तरों के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से अपने उत्तर मिलाइए।
1) महिला आन्दोलनों में विविधता की प्रकृति कैसी है?
2) अश्वेत महिला आन्दोलनों को किस विरोधाभास का सामना करना होता है?
महिला आंदोलनों की रणनीति
अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए स्त्री समूह बहुत प्रकार के तौर तरीके प्रयोग करते हैं। शक्ति की संरचनाओं के प्रति विरोधी नीतियों के साथ साथ वे सत्ता के विभिन्न स्तरों तक पहुँच के अवसरों का लाभ भी उठाती हैं ताकि स्त्रियों की बेहतरी हो। वे स्त्रियों के हितों के पक्ष में सरकार व संस्थाओं से वार्ता भी करती हैं।
इन तौर तरीकों की बहुलता के संदर्भ में राज्य के प्रति दृष्टिकोण में भी विविधता देखने को मिलती । है। एक ओर राज्य की पितृसत्तावादी प्रकृति के प्रति आलोचनात्मक और संशयवादी भाव हैं तो दूसरी ओर राज्य पर निर्भरता का भी दृष्टिकोण है।
महिला आंदोलन राज्य के प्रति संशयात्मक दृष्टिकोण अपनाते हैं। यह संशय राज्य की नीतियों में उपस्थित लिंग पक्षपात के कारण होता है। पितृसत्तात्मक संरचनाओं के संभरण और विकास के लिए राज्य को एक अभिकर्ता के रूप में देखा जाता है। स्त्रियों के प्रजनन की भूमिका पर राज्य की नियंत्रणकारी शक्तियों के कारण भी महिलाएँ राज्य को आलोचना का पात्र बनाती हैं।
साथ-साथ, दुनिया भर के महिला, संगठन राज्य की सरकारी संस्थाओं से नये कानूनों, प्रशासनिक कार्यवाहियों तथा न्यायिक निर्णयों के माध्यम से हस्तक्षेप की आशा भी रखते हैं। महिलाओं द्वारा समान अधिकारों, प्रजनन नियंत्रण, मातृत्व कल्याण, समान कार्य के लिए समान वेतन आदि के सम्बन्ध में उठाए गए मुद्दे राज्य को ही प्रेषित होते हैं।
राज्य के प्रति इस प्रकार के संशयात्मक व साथ ही निर्भरता के दृष्टिकोण को श्सामरिक दुविधाश् का नाम दिया गया है। राज्य के हस्तक्षेप की माँग की जाती है, जब कानूनों या कल्याणकारी नीतियों के माध्यम से परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव की जाए परन्तु साथ ही यह भी ज्ञात है कि महिलाओं की शक्तिहीनता तथा लिंग भेद की समस्याओं के निदान में राज्य सीमित भूमिका ही निभा सकता है।
फिर भी कुछ क्षेत्रों में स्त्रीवाद व राज्य के बीच सुगम संबंध दृष्टिगत होता है। थैलफॉल (ज्ीतमसंिसस) का मानना है कि स्पेन में महिला आंदोलन संस्थागत हो चुके हैं जिस कारण राज्य संस्थाएँ लिंग संवेदनशील हुई है। उसके विचार से स्पेन की स्त्रियाँ राज्य संस्थाओं के माध्यम से अपनी आवाज बुलन्द कर पाई हैं। विशेषरूप से स्पेन की नौकरशाही ने महिला समूहों, द्वारा उठाए मुद्दों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया है। (थैलफॉल, पृ. 145) परन्तु राज्य संस्थाओं और स्त्री आंदोलनों के बीच यह सरल सम्बन्ध अन्य कई देशों में दिखाई नहीं पड़ता। वास्तव में विकास और आधुनिकीकरण के सम्बन्ध में कई क्षेत्रों में राज्य व स्त्री आंदोलनों में तनाव स्पष्ट नजर आता है।
अर्थव्यवस्था, विकास, लोकतंत्र और महिला आंदोलन
अर्थव्यवस्था और विकास
विशेष रूप से दक्षिणी देशों के तत्कालीन महिला आंदोलनों की चिंता का विषय भूमण्डलीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था और विकासवादी नीतियों का महिलाओं पर प्रभाव है। यहाँ मुद्रा स्फीति, विस्थापन, वनविनाश, बेरोजगारी, निर्धनता जैसे मुद्दे स्त्री संगठनों द्वारा उठाए गए हैं क्योंकि इन सभी का स्त्रियों पर प्रभाव पड़ता है। यह मुद्दे आर्थिक आधुनिकीकरण बढ़ते हुए मशीनीकरण, उदारवादीकरण और भूमण्डलीयकरण का परिणाम हैं। नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का उद्देश्य एकीकृत विश्व बाजार की स्थापना है जहाँ व्यापार पर कोई बंधन नहीं। इसने दक्षिण के देशों को संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम (ेजतनबजनतंस ंकरनेजउमदज चतवहतंउउम) अपनाने के लिए विवश किया है जो निजीकरण, व्यापार उदारीकरण और आर्थिक सहायता में कटौती पर जोर देते हैं। महिलाओं पर इसके दूरगामी परिणाम हुए हैं। वे लघु उद्योगों में अपने परम्परागत रोजगार से अलग हो गई हैं क्योंकि इन उद्योगों को सुसंगठित उद्योगों से प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है फलतः स्त्रियों को शोषणकारी दशाओं में काम करने के लिए विवश होना पड़ा। साथ ही उन्हें वन विनाश, विस्थापन, बेरोजगारी व निर्धनता की समस्याओं का भी सामना करना पड़ा है।
कुछ समय से इन विकासवादी नीतियों व प्रौद्योगिकी में निहित लिंग पक्षपात के विरोध में स्त्री संगठन अपनी आवाज उठाने लगे हैं। अतः वे समानता व समता के आधार पर दीर्घकालीन (ेनेजंपदंइसम) विकास की माँग कर रहे हैं। उन्होंने जीवन रक्षा, आजीविका, के अधिकारों की माँग की है। सामूहिक संपत्ति साधन (बवउउवद चतवचमतजल तमेवनतबमे) और पर्यावरण के सरंक्षण, से तथा विकास की प्रक्रिया से उत्पन्न विस्थापितों की समस्या आदि के मुद्दे भी उठाए हैं। दुनिया भर के स्त्री संगठनों द्वारा उठाई गई माँगों के कारण आज स्त्रियों को विकास कार्यक्रमों के लाभार्थी मात्र होने की बन्स्पित विकास प्रक्रिया के प्रमुख पात्र माना जा रहा है। महिला आंदोलनों के साथ साथ जन आंदोलन ‘विकास‘ को पुनर्भाषित कर रहे हैं और विकल्प सुझा रहे हैं। वर्तमान कालीन विकास के रूपों को जन विरोधी व नारी विरोधी मान कर, महिला संगठन विकास का ऐसा प्रतिमान प्रस्तुत कर रहे हैं जो समानता पर आधारित व प्रकृति से संबंधित है। महिलाओं के प्रकृति के प्रति यही दृष्टिकोण आंदोलन को नया आयाम दे रहा है जिसे ‘पारिस्थितिक स्त्रीवाद‘ या मबवमिउपदपेउ कहा जाता है। कगार पर के अभावग्रस्त लोगों, विशेषकर महिलाओं की चिंता को व्यक्त करते हुए पारिस्थितिक स्त्रीवाद महिलाओं को पर्यावरण के विनाश के विरुद्ध कार्य करने को प्रेरित करता है इसकी मान्यता यह है कि यदि प्रकृति का अंसतुलन होगा तो सर्वाधिक कुप्रभाव स्त्रियों पर पड़ेगा। पारिस्थितिक स्त्रीवाद, अतः, महिला आंदोलन का वह रूप है जो मनुष्यों और प्रकृति तथा पुरुष और स्त्री के मध्य असमानता के प्रश्न उठाता है। यह न केवल विकास के परिप्रेक्ष्य पर ऊँगली उठाते है, वरन् उस प्रचलित विचार को भी चुनौती देता है जिसके अनुसार विज्ञान और प्रौद्योगिकी प्रगति के मापक हैं। अतः यह वैकल्पिक ज्ञान व्यवस्था पर बल देता है।
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