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बीसलदेव रासो के रचनाकार कौन है | बीसलदेव रासो के लेखक bisal raso in hindi की नायिका का क्या नाम है
bisal raso in hindi बीसलदेव रासो के रचनाकार कौन है | बीसलदेव रासो के लेखक की नायिका का क्या नाम है मुख्य महिला पात्र कौन थी ?
प्रश्न: राजस्थान ‘रासो साहित्य‘ के ग्रंथों का उल्लेख करते हुए एक लेख लिखिए।
उत्तर: ‘रास‘ साहित्य के समानान्तर राज्याश्रय में ‘रासो‘ साहित्य लिखा गया जिसके द्वारा तत्कालीन, ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों के मूल्यांकन की आधारभूत पृष्ठभूमि ही निर्मित नहीं हुई, अपितु नये क्षितिज के द्वार भी उन्मुक्त हुए। वीरतापरक काव्यों को रासो की संज्ञा दी गई है। ‘रासो साहित्य‘ राजस्थान की ही देन है। ‘रासो‘ शब्द की व्युत्पति विद्धानों ने भिन्न-भिन्न शब्दों से मानी है जैसे राजसूय, रहस्य, रसायण, राजादेश, राजायज्ञ, राजवंश आदि।
पृथ्वीराज रासो, चन्दबरदाई: यह रासो ग्रंथ पृथ्वीराज चैहान के दरबारी कवि चन्दरबरदाई द्वारा पिगंल (ब्रज हिन्दी) म लिखा गया है, जिसे उसके पुत्र जल्हण ने पूरा किया। इसमें चार राजपत वंशों यथा गर्जर-प्रतिहार, परमार, सोलका (चालुक्य) एवं चैहानों की उत्पत्ति गुरु वशिष्ठ के आबू पर्वत के अग्निकण्ड से बताई गई है। यह ग्रंथ चैहानों विशेषकर पृथ्वीराज चैहान के इतिहास पर विस्तृत प्रकाश डालता है। इसमें संयोगिता हरण एवं तराइन युद्ध का विशद वर्णन किया गया है। चार बांस बत्तीस गज अंगल अष्ठ प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चके चैहाणा यह विशक्ति बड़ा प्रचलित है। चन्दरबरदाई राजस्थानी के शीर्षस्थ कवि एवं हिन्दी के आदि कवि के रूप में प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं।
छत्रपति रासो, काशी छंगाणी: कवि काशी छंगाणी कत छत्रपति रासो बीकानेर के इतिहास की जानकारी देता है। यह रचना 1682 ई. के लगभग लिखी गई। छत्रपति रासो में बीकानेर के संस्थापक राव बीका, लूणकरण, कल्याणमल, रायसिंह, सूरसिंह व कर्णसिंह के राज्यारोहण व उपलब्धियों का वर्णन है।
बीसलदेव रासो, नरपति नाल्ह: 16वीं सदी के कवि लेखक नरपति नाल्ह द्वारा राजस्थानी में रचित ग्रंथ जिसमें अजमेर के बीसलदेव चैहान तथा परमार राजा भोज की पुत्री राजमती की प्रेम कथा का वर्णन है। यह ग्रंथ क्रिया एवं संज्ञा के रूप में अपभ्रंश पर आधारित है। इसकी भाषा में राजस्थानी एवं गजराती भाषाओं का सम्मिश्रण है। इसमें बीसलदेव के विवाह, उसकी उडीसा यात्रा तथा उसकी रानी के विरह का रोमांचक वर्णन है। यह एक नीतिकाव्य है।
रतन रासो, कुंभकरण: कवि कुम्भकर्ण ने इस ग्रंथ की रचना 1673 से 1685 ई. के मध्य में की। इस ग्रंथ में जोधपुर एवं जालौर के राठौड़ वंश की तत्कालीन राजनीतिक घटनाओं के अतिरिक्त, सांस्कृतिक, साहित्यिक, धार्मिक और शैक्षणिक परिस्थितियों का वर्णन है। साथ ही मुगल बादशाह शाहजहाँ के विद्रोही पुत्रों की आपसी लड़ाई का वर्णन है।
शत्रुसाल रासो, कवि डूंगरसी: कवि डूंगरसी द्वारा राजस्थानी भाषा में रचित शत्रुसाल रासो में बूंदी के राव राजा शत्रुसाल (1621-1658 ई.) के राज्य वैभव और युद्ध अभियानों का विस्तृत विवरण मिलता है। बँदी के इतिहास की जानकारी क लिए यह ग्रंथ उपयोगी है।
प्रताप रासो, जाचीक जीवन: प्रताप रासो में अलवर की स्थापना (1770 ई.) करने वाले राव राजा प्रतापसिंह के जीवन इस ग्रंथ का लेखन कार्य जाचीक जीवण ने (1780-1792 ई.) किया। इसमें राव राजा प्रतापसिंह का उसके समकालीन शासकों से सम्बन्धों का ज्ञान प्राप्त होता है।
मानचित्र रासो. कवि नरोत्तम: मानचित्र रासो की रचना कवि नरोत्तम ने की, जो आमेर के शासक मानसिंह प्रथम का समकालीन था। यह राजा मानसिंह प्रथम (1589-1614 ई.) के जीवन व कायों पर प्रकाश डालता है।
महाराणा सजाणसिंहजी रो रासो, जोगीदास: जोगीदास रचित इस रासो ग्रन्थ में बीकानेर के महाराजा सुजानसिंह (1700-1735 ई.) के जीवन एवं कार्यों पर प्रकाश डाला गया है।
राणो रासो, दयाल (दयाराम): दयालदास द्वारा रचित यह रासो ग्रंथ मुगल- मेवाड़ संघर्ष की घटनाओं की जानकारी देता है।
लछिमनगढ़ रासा, खुशाल कवि: खुशाल कवि विरचित श्लछिपनगढ़ रासाश् में अलवर के शासक राव प्रतापसिंह और मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय के सेनापति नजफ खाँ के मध्य 1778 ई. हुए युद्ध का वर्णन मिलता है।
प्रश्न: मारवाड़ी की भाषागत विशेषताओं को बताते हुए इस पर लेख लिखिए।
उत्तर: पश्चिमी राजस्थानी की प्रधान बोली मारवाड़ी का प्रचार एवं प्रसार की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्व है। ‘मरुभाषा‘ नाम में प्रचलित इस बोली का क्षेत्र पश्चिसी राजस्थान के जोधपुर, सीकर, नागौर, मेवाड़, बीकानेर, सिरोही, जैसलमेर आदि जिला तक विस्तृत है। इसकी अनेक उपबोलियाँ हैं। साहित्यिक मारवाड़ी को ‘डिंगल‘ कहा जाता है। इसी वजन पर पूर्वी राजस्थानी के साहित्यिक रूप को ‘पिंगल‘ कहा जाता है। मारवाड़ी की ढटकी, थाली, बीकानेरी, बागड़ी, शेखावाटी, परतावा मेवाड़ी, खैराड़ी, सिरोही, गोड़वाड़ी, नागौरी, देवड़ावाड़ी आदि उल्लेखनीय उपबोलियाँ हैं। इनमें भी मेवाडी, बागडा एवं रवा शेखावाटी साहित्यिक दृष्टि से अधिक विकसित हैं।
विशुद्ध ‘मारवाड़ी‘ जोधपुर क्षेत्र में बोली जाती है। सन् 1961 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार मारवाडी वक्ताओं की संख्या 6.24.2.449 मानी गई। मारवाडी का साहित्य अत्यन्त समद्ध है। ओज, भक्ति, वीर नीति एवं लोक साहित्य विषयक साहित्य का अपार एवं अथाह भण्डार है। जैन साहित्य तो सारा ही इसकी धरोहर है। ‘वीर सतसई‘ एवं ‘वेलि‘ वीर और श्रृंगारपरक साहित्य के अनूठे उदाहरण हैं। इसमें प्रचुर मात्रा में संत साहित्य भी प्राप्त होता है। मारवाड़ी की निम्नांकित भाषा वैज्ञानिक विशेषताएँ हैं –
1. संबंध कारक में रो, रा, री प्रत्यय का प्रयोग।
2. उत्तम एवं मध्यम पुरुष वाचक सर्वनामों के लिए म्हारो थारो एवं बहुवचनान्त रूपों के लिए ‘म्हे‘ ‘म्हाँ‘ का प्रयोग।
3. वर्तमानकाल के लिए है, छै, भूतकाल के लिए हो तथा भविष्यत् काल के लिए ‘स्यु‘ आदि रूपों का प्रयोग।
4. सम्प्रदान के लिए ‘नै‘, अपादान के लिए ‘ट‘, ‘ऊँ‘ रूप प्रचलित हैं।
5. ‘न‘ का ‘ण‘ तथा ‘ल‘ का ‘ल‘ ध्वनि रूपों का प्रयोग।
6. सामान्यतः देवनागरी लिपि का प्रयोग किया जाता है, किन्तु बहीखातों में महाजनी लिपि का प्रयोग आज तक होता है।
प्रश्न: अहीरवाटी की भाषागत विशिष्टताओं पर प्रकाश डालते हुए परिचय दीजिए।
उत्तर: पूर्वोत्तरी राजस्थानी वर्ग की दूसरी महत्त्वपूर्ण बोली अहीरवाटी है। वस्तुतः अहीरवाटी, बांगरु (हरियाणवी) एवं मेवाती के मध्य संधिस्थल की बोली कही जा सकती है। इसके वक्ताओं की संख्या 448945 है। इसका क्षेत्र राजस्थान में जिला अलवर की तहसील बहरोड़, मुण्डावर तथा किशनगढ़ का पश्चिमी भाग, हरियाणा में जिला गुडगाँव की तहसील रेवाडी महेन्द्रगढ़ की तहसील नारनौल, जिला जयपुर की तहसील कोटपूतली का उत्तरी भाग तथा दिल्ली के दक्षिणी भाग तक विस्तृत है। नीमराणा के राजा चन्द्रभानसिंह चैहान के दरबारी कवि जोधराज ने हम्मीर रासो महाकाव्य की रचना इसी बोली में की थी। इस दरबार के अन्य अनेक कवियों ने भी साहित्य सृजन में योगदान दिया था, किन्तु वह अभी प्रकाश में नहीं आया है। कवि शंकर राव ने श्भीम विलासश् नामक सुन्दर ऐतिहासिक काव्य की रचना की थी। लोकमंचीय रवि राव अलीबख्श (मुण्डावर), पं. रामानंद (गौखा), पं. मंगतराम भारद्वाज (माजरा-कान्हावास) आदि ने भी इस बोली को गौरव प्रदान किया है। चूँकि इस क्षेत्र में शिक्षा-दीक्षा की भाषा हिन्दी रही है, इसलिए यहाँ लिखा गया अधिकांश साहित्य हिन्दी साहित्य की सम्पदा में सम्मिलित हो गया है।
प्राचीनकाल में ‘आभीर‘ जाति की एक पट्टी इस क्षेत्र में आबाद हो जाने से यह क्षेत्र अहीरवाटी या हीरवाल कहा जाने लगा है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस बोली-क्षेत्र को ‘राठ‘ एवं यहाँ की बोली को ‘राठी‘ भी कहा जाता है। इस बोली की कुछ भाषा वैज्ञानिक विशेषताएं निम्न प्रकार हैं –
1. पश्चिमी राजस्थानी के प्रभाव से ‘न‘ को ‘ण‘ बोला जाता है!
2. वर्तमान में सहायक क्रिया के सूँ, सां, सै, भूतकाल में थो, था, थी एवं भविष्यत् काल में गो, गा, गी रूप प्रयुक्त होते हैं।
3. असामयिका क्रिया के लिए ‘कै‘ रूप का प्रयोग होता है। जैसे जाकै-जाकर के, खाकै-खाकर के आदि।
‘वाला‘ अर्थ-द्योतन के लिए ‘णों‘ प्रत्यय का प्रयोग होता है।
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