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Categories: sociology

बिरहोर जनजाति क्या है | बिरहोर जनजाति के लोग किसे कहते है कहाँ पायी जाती है birhor tribe in hindi

birhor tribe in hindi or birhors live in which of the following states बिरहोर जनजाति क्या है | बिरहोर जनजाति के लोग किसे कहते है कहाँ पायी जाती है ?

जनजातीय धर्म: सरलता की अवस्था में (Tribal Religion in a State of Simplicity)
बिरहोर (राय 1925, 198) एक खानाबदोश, शिकार करने व संग्रह करने वाली जनजाति है। संख्या की दृष्टि से यह एक छोटी सी आबादी है जोकि मुख्यतः छोटानागपुर के पठार (दक्षिण बिहार) में बसी हुई है और उड़ीसा, पश्चिम बंगाल तथा मध्य प्रदेश में भी ये थोड़ी बहुत संख्या में छितरे हुए हैं। ये छोटे-छोटे समूहों में बंदरों को पकड़ते हैं, खरगोश, हिरण अथवा अन्य जानवरों का पीछा करते हैं, तथा रस्सी के टुकड़ों, शहद तथा मधुमक्खियों के मोम आदि को एकत्र करते हुए यहाँ-वहाँ घूमते रहते हैं। बरसात के मौसम में वे कुम्बा नामक छोटी पत्ती की झोपड़ियों में रहते हैं और लकड़ी के बर्तन तथा रस्सियों को बुनकर शिकार के लिए जाल आदि बनाते रहते हैं। उनके निवास स्थान, जिन्हें टाण्डा कहा जाता है, खुली जगह पर पहाड़ियों की चोटियों व ढलानों पर अथवा जंगल के किनारों पर स्थित होते हैं। अधिकांश बिरहोर बस्तियों के किनारे एक “पवित्र खाँचा‘‘ रहता है जिसे जयार अथवा जीलू-जयार कहा जाता है। इसमें एक या अधिक पेड़ तथा कुछ पत्थरों के ढेर बना कर रखे गए होते हैं। यह सेन्द्र-बोंगा का निवास माना जाता है, जो कि शिकार का निर्देशन करने वाले प्रेत हैं।

बिरहोर का शब्दिक अर्थ है – ‘‘जंगल (बिर) वासी (होर)। इनकी दो प्रमुख श्रेणियां हैं – प) उठालूस अथवा भूली, जो कि घुम्मकड़ लोग हैं, तथा पप) जाधी अथवा थनिया, जो कि बस्तियां बनाकर रहते हैं। उठालूस छोटे समूहों में अपने परिवारों के साथ तथा अपने मामूली से सामान को साथ लिए जंगल-जंगल घूमते रहते हैं। देवी-देवताओं की मिट्टी की मूर्तियों, पत्थर के टुकड़ों तथा लकड़ी के प्यालों को एक अथवा दो युवा अविवाहितों द्वारा एक टोकरी में लेकर चला जाता है। ये लोग समूह के आगे-आगे चलते हैं। जाधी लोग जंगल के बाहरी किनारों पर अपेक्षाकृत लम्बे समय तक वास करते हैं। किन्तु किसी एक स्थान पर लम्बे समय तक नहीं रहते।

कर्मकाण्डी जीवन पद्धति (Ritual Way of Life)
प्रत्येक बिरहोर टांडा का एक मुखिया होता है जिसे नाया कहते हैं, जो मूलतः समूह का पुजारी होता है, उसका चुनाव अलौकिक ढंग से होता है। किसी नाया की मृत्यु हो जाने पर उसके उत्तराधिकारी का चुनाव आत्माओं द्वारा निम्नलिखित विधि से किया जाता है-एक मती यानि आत्माओं का चिकित्सक, इस अवसर पर बुलाया जाता है। वह अपने सिर को इधर-उधर हिलाते हुए झूमने लगता है और पूरी तरह मग्न हो जाता है, वह आत्माओं से सवाल करता हैः

‘‘तुम किसे अपना नाया बनाना पसन्द करोगे ?
इसके जवाब में आत्माएं मती के मुंह से, यह ऐलान करती हैं-
‘‘हम उस व्यक्ति को चाहते हैं, जो देखने में इस-इस तरह का है, जिसके इतने बच्चे हैं, हम उसकी आज्ञा का पालन करेंगे।‘‘

इस तरह से चुना गया नव नाया पहले किसी झरने अथवा सोता में स्नान करता है और फिर जिलु-ज्यार में ले जाया जाता है। जहां पर एक ढेर पर शिकार करने के जाल रखे होते हैं। वहाँ वह आत्माओं पर चावल चढ़ाता है। संक्षिप्त कर्मकाण्ड का पालन करने के बाद, टाण्डा के पुरुष चुनाव के सही होने की परीक्षा करने के लिए बाहर शिकार करने जाते हैं। यदि शिकार में सफलता मिल जाए तो लोग खुशियां मनाने लगते हैं, और यदि उसमें असफलता मिले तो नाया को स्पष्टीकरण देने के लिए बुलाया जाता है। मती को पुनः बैठाया जाता है और वह यह पता लगाता है कि किस आत्मा की वजह से असफलता मिली है। उसके द्वारा उस आत्मा का नाम बताये जाने तथा उसके लिए आवश्यक बलि देने के बाद नाया गैर-मित्रतापूर्ण आत्मा को मनाने के लिए आगे बढ़ता है। इस तरह वह स्वयं को मनुष्य एवं आत्मा दोनों के अनुकूल बना लेता है।

नाया का कर्तव्य है-बलि चढ़ाना । वह शिकार करने, बलि चढ़ाने तथा उनके लिए जरूरी इन्तजाम करने हेतु एक आदमी को कोटवार अथवा दिक्चार के रूप में नियुक्त करता है। मती की हैसियत नाया तथा कोटवार दोनों से भिन्न होती है। जिसका न तो चुनाव किया जाता है और न ही नियुक्ति की जाती है। वह ऐसा व्यक्ति होता है, जिसके बारे में यह माना जाता है कि उसे अलौलिक दृष्टि प्राप्त है। आमतौर पर, कोई व्यक्ति जो इस व्यवसाय में रुचि महसूस करता है, वह अन्य मती के पास प्रशिक्षण लेने जाता है। वह कुछ कड़े नियमों का पालन करता है जो कि खानपान एवं पूजा से संबंधित होते हैं। प्रशिक्षण पूरा कर लेने के बाद उसे मती के तौर पर मान्यता मिल जाती है। मती का काम उन गैर-मैत्रीपूर्ण आत्माओं का पता लगाना है जो कि समुदाय में बीमारियों अथवा अन्य दुर्भाग्यों का कारण बनी हुई हों तथा उन्हें शान्त करने के लिए वह आवश्यक बलि चढ़ाता है। जब टाण्डा में कोई नया बच्चा जन्म लेता है, तो कुछ पहाड़ियों पर, जो कि प्रदूषण से मुक्त नहीं हैं, शिकारी-दलों का तब तक जाना मना होता है जब तक कि जन्म के सातवें दिन पवित्रता संबंधी संस्कार संपन्न नहीं हो जाता । मती का काम उन पहाड़ियों का पता लगाना व उनके नाम बताना है, जो कि इस तरह के संपर्क का विरोध करने वाली हों।

एक खाना बदोश तथा आहार का संग्रह करने वाले के रूप में, बिरहोर सामाजिक संगठन तथा धार्मिक विश्वास आवश्यक तौर पर आहार प्राप्त करने के मामले में सफलता अथवा भाग्य पर भरोसा करते हैं। दुर्भाग्य का कोई मामला जो कि आहार, स्वास्थ्य अथवा जीवन के किसी अन्य मसले के बारे में समुदाय पर आ पड़ा हो, समुदाय के किसी सदस्य द्वारा किसी रूढ़ि का उल्लंघन किए जाने का परिणाम माना जाता है और जिसके चलते किसी आत्मा का प्रकोप हुआ माना जाता है। इस बिन्दु को चित्रित करने के लिए आइए, बंदर के शिकार से जुड़े कर्मकाण्डों एवं विश्वासों का जायजा लिया जाये। उसे कारी-सैण्ड्रा कहा जाता है जो कि बिरहोरों की भोजन जुटाने की चारित्रिक विशेषता है।

बंदर के शिकार के लिए तय किए गए दिन की सुबह, नाया झरने अथवा सोता पर स्नान करता है, एक बर्तन में पानी भरता है और उसे घर ले आता है। वह अपने शेर की खाल के कपडे को बदलता है और एक या दो बुजर्गों को साथ लेकर अरूआ चावल तथा पानी के बर्तन के साथ जिला-जयार की तरफ जाता है, जिसे उसकी पत्नी ने पहले से ही मिट्टी तथा गोबर से लीप-पोतकर साफ रखा होता है। कोटवार ने वहां सभी शिकार पर जाने वाले शिकारियों के जाल रख छोड़े होते हैं। जालों के इस ढेर के सामने, नाया अपने दायें पैर की एड़ी (चित्र देखें) को बायी टाँग के घुटने पर रखकर बाँयी टाँग पर खड़ा हो जाता है।

जनजातीय समारोह उसका मुंह पूरब दिशा में होता है और भुजाएँ आगे फैली रहती हैं। वहीं जमीन पर वह तीन बार थोड़ा-थोड़ा जल चढ़ाता है। सभी आत्माओं को नाम लेकर-घुकारता है और शिकार की सफलता की कामना करता है:

“यहां मैं तुम्हारे नाम से एक युक्ति दे रहा हूँ
काश! खून का खेल इस तरह से हो” ।

फिर वह जालों के सामने बैठ जाता है और जमीन पर तीन सिंदूरी निशान लगाता है। उन पर वह थोड़ा सा अरूआ चावल छिड़क कर आत्माओं को संबोधित करता हैः
“आज मैं तुम सब को यह चावल चढ़ा रहा हूँ,
मेरी कामना है कि हमें तेजी से सफलता मिले।
मेरी कामना है कि शिकार हमारे जाल में फंसे
जैसे ही हम जंगल में प्रवेश करें।‘‘ ।

वहाँ पर जमा हुए सभी लोग इसके बाद जालों को वहीं छोड़कर घर लौट आते हैं। नाश्ता करने के बाद शिकार पर जाने वाले सभी शिकारी जुल्लू-जयार से अपना-अपना जाल, कोड़े, बाँस के डंडे आदि ले लेते हैं और चुने हुए जंगल की ओर चल देते हैं।

टाण्डा को छोड़ते समय इस बात की सावधानी बरती जाती है कि दल का कोई भी सदस्य किसी व्यक्ति द्वारा ले जाए जा रहे खाली बर्तन अथवा आराम कर रहे किसी व्यक्ति को न देखने पाये। इस तरह के दृश्यों को खराब मुहूर्त माना जाता है। जब दल चुने हुए जंगल में पहुँच जाता है, तो सभी कुछ समय के लिए जमीन पर बैठ जाते हैं। कोटवार प्रत्येक जाल का स्पर्श करता है और उसे बाना-साना नामक कर्मकाण्ड के लिए नाया के सुपुर्द करता है जिसके बारे में यह माना जाता है कि इससे बुरी नजर के हानिकारक प्रभावों को उदासीन बना दिया गया है जो कि दल के खिलाफ निर्देशित किए गए हों। वह धीमी आवाज में फुसफुसाकर कहता है –
‘‘आज मैं उनकी (औरतों) के नाम पर बाना-साना कर रहा हूँ जिनकी हमें बाहर भेजते हुए हम पर बुरी नजर बुरी है,
मैं शिकार में अपनी सफलता की कामना करता हूँ, जैसे हम जंगल में दाखिल हों, जो लोग हम पर बुरी नजर रखते हों
उनकी आँखों व गुदा में भेल्वा का तेल या कोयला पड़े‘‘

दलों को फिर बंदर पकड़ने के लिए विभिन्न दिशाओं में जाने के लिए कहा जाता है। शिकार मिल जाने पर दल जंगल छोड़ देता है। जब वे किसी झरने के पास पहुँचते हैं, तो वे आग जला लेते हैं और बंदर को उसमें भून लेते हैं। भूना हुआ गोश्त दल के सदस्यों में बांट दिया जाता है। किन्तु उसके पहले नाया उसे संयुक्त रूप से सभी आत्माओं को भेंट चढ़ाता है और यदि वे हमेशा इस तरह का शिकार उनके लिए लायें तो ऐसी ही भेंट भविष्य में भी चढ़ाने का आश्वासन देता है। जब शिकारी दल घर वापस लौटता है, तो प्रत्येक शिकारी की पत्नी पहले पानी से उसके पैर धोती है और पैर की तेल से मालिश करती है। यदि दल असफल होकर लौटता है, तो नाया कोटवार से प्रत्येक परिवार के शिकारी जाल को टाण्डा में ले आने के लिए कहता है। वह प्रत्येक जाल से एक-एक धागा निकाल कर धागे के गुच्छे को जमीन में गाड़ देता है। उसके बराबर में जमीन पर बैठकर वह मंत्र बुदबुदाता है और फिर चिल्लाता है:

ये वह गुच्छ है जिसे इन आत्माओं ने अपवित्र का दिया था
इसलिए कोई शिकार नहीं मिला
अब चूंकि मैने इस बाधा को निकाल दिया है
अब शिकार में कोई परेशानी नहीं होगी
फिर आत्माओं को संबोधित करते हुए वह कहता है:
“मैं तुम्हारे लिए मुर्गों की बलि चढ़ाऊँगा
अब कभी बाधा पैदा मत करना,
आज के बाद मैं कामना करता हूँ कि हमारे जालों
में बहुत सा शिकार फँसे।
यह कहकर वह चाकू से मुर्गे की गर्दन काट कर उसकी बलि चढ़ाता है। .

कार्यकलाप 1
अभी आपने बिरहोर आदिवासियों की “कर्मकाण्डी जीवन शैली” पर आधारित भाग का अध्ययन किया। क्या कुछ ऐसे कर्मकाण्ड हैं जिन्हें आप अपने परिवार तथा समुदाय में करते हैं, और जो इनसे मिलते-जुलते हैं। ऐसे किसी एक कर्मकाण्ड के बारे में दो पृष्ठों में विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत कीजिए। यदि संभव हो तो अपने उत्तर की तुलना अपने अध्ययन केंद्र के अन्य विद्यार्थियों के उत्तरों से कीजिए।

आपने यह देखा कि किस तरह से बिरहोरों का समूचा जीवन- जैविक, आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक- उनके धर्म से बंधा हुआ है। बिरहोर धर्म आत्माओं की पवित्र मौजूदगी के विश्वासों से मिलकर बना है, जिनके साथ जनजातीय लोग रोजमर्रा की भाषा में तथा अनेक रिवाजों, बलियों, मंत्रों के जरिये प्रतिदिन अन्योन्यक्रिया करते हैं और दैनिक जीवन में उन्हें परिभाषित करते हैं।

बंदर के शिकार के दौरान किया जाने वाला कर्मकाण्ड, जैसे कि शिकार की सफलता के लिए सभी आत्माओं को नाम लेकर पुकारते हुए बिरहोर पुजारी द्वारा शिकारियों के जाल के सामने तीन बार जल छिड़कने का कर्मकाण्ड, मानव विज्ञानियों द्वारा संवेदनात्मक जादू कहा गया है। दूसरे शब्दों में, चाह से चाह पैदा होती है। मोटे तौर पर, कारण एवं प्रभाव की निरंतरता के बारे में यह मनुष्य की आरंभिक सोच का प्रतीक है। यदि आत्मा कारण है, तो वांछित प्रभाव, जैसे- शिकार में सफलता, कृत्य की नकल करते रहने से ही आएगी।

प्रश्न : बिरहोर कौन लोग हैं ? अपना उत्तर लगभग आठ पंक्तियों में दीजिए।

उत्तर : बिरहोर एक खानाबदोश शिकार करने वाली तथा भोजन इकट्ठा करने वाली जनजाति है जो कि संख्या में बहुत कम तथा छोटा नागपुर के पठार (दक्षिण बिहार) में ही अधिकांशतः बसे हुए हैं। वे उड़ीसा, पश्चिम बंगाल तथा मध्य प्रदेश में भी पाए जाते हैं। बिरहोर शब्द का शाब्दिक अर्थ है- जंगलवासी- बिर (जंगल) तथा होर (वासी) उनके दो प्रमुख विभाजन हैं- (प) उठालुस या भूली लोग, जो कि घुमक्कड़ हैं तथा जांघी अथवा थानियां जो कि बस्ती बसा कर रहते हैं।

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