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binary compound in hindi in chemistry , द्विअंगी यौगिक क्या है समझाइए किसे कहते है परिभाषा

द्विअंगी यौगिक क्या है समझाइए किसे कहते है परिभाषा  binary compound in hindi in chemistry ?

द्विअंगी यौगिक (Binary Compounds )

द्विअंगी पद से स्पष्ट है कि इस श्रेणी के यौगिक दो तत्वों से निर्मित होते हैं अर्थात् द्विअंगी यौगिक संक्रमण तत्वों के वे यौगिक हैं जिनमें संक्रमण तत्व के अतिरिक्त केवल एक तत्व और होता है जो सामान्यतः अधातु होता है। सामान्य द्विअंगी यौगिक हाइड्राइड, बोराइड, कार्बाइड, नाइट्राइट, ऑक्साइड तथा हैलाइड हैं। हाइड्राइड, बोराइड, कार्बाइड अन्य द्विअंगी यौगिकों से इस दृष्टि से भिन्न होते हैं कि इनमें संयोजकता के सामान्य नियमों का पालन नहीं होता है । अतः इनके आण्विक सूत्रों में दोनों परमाणुओं की संख्या का अनुपात पूर्णांक नहीं होता, अर्थात् इन यौगिकों में स्टाईकियोमिति नहीं पाई जाती है | TiH18 VH1.6, Cr2B, Fe3 C इत्यादि इस प्रकार के उदाहरण हैं। ऐसे यौगिकों को अन्तराकाशी यौगिक भी कहा जाता है क्योंकि यह माना जाता रहा है कि अधातु परमाणु धातु जालकों में धातु परमाणुओं के मध्य अन्तराकाशों (interstices) में प्रवेश कर जाते हैं । कुछ अन्तराकाशी यौगिकों, विशेष रूप से अन्तराकाशी हाइड्राइडों को ठोस विलयन माना जा सकता है जिनमें अधातु की विभिन्न मात्राएँ धातु में विलेय हो जाती हैं। यदि इनकी संरचना का अध्ययन किया जाये तो हम पाते हैं कि धातु परमाणुओं के घनत्व संकुल से उत्पन्न चतुष्फलकीय तथा अष्टफलकीय आदि छिद्रों को अधातुओं द्वारा ग्रहण किये जाने के कारण इन पदार्थों का निर्माण होता है। इसके अतिरिक्त कुल कार्बाइड व बोराइडों की परत जैसे लगातार तथा जटिल संरचनायें पाई जाती हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि प्रारम्भिक अधातुओं (H, B, C आदि) के नानस्टॉईकियोमितीय यौगिकों की संरचना, समन्वय संख्या तथा धातु की ऑक्सीकरण अवस्था का विवेचन काफी जटिल है एवं इस अध्ययन का सामान्यीकरण अत्यधिक कठिन है। अतः ऑक्सीकरण, ज्यामिती आदि के अध्ययन की दृष्टि से यहां ऑक्साइड तथा हैलाइडों का विवेचन किया गया है।

(i) ऑक्साइड – हम जानते हैं कि परिवर्ती ऑक्सीकरण अवस्था संक्रमण धातुओं का विशिष्ट गुण है – स्कैन्डियम के अतिरिक्त सभी संक्रमण तत्व परिवर्ती ऑक्सीकरण अवस्था का प्रदर्शन करते हैं। अतः स्कैन्डियम केवल एक ऑक्साइड Sc2  O3  तथा प्रथम संक्रमण श्रृंखला के अन्य तत्व एक से अधिक ऑक्साइडों का निर्माण करते हैं। इन ऑक्साइडों के अवलोकन से स्पष्ट है कि इनमें धातुओं की अधिकांशतः सर्वाधिक स्थाई ऑक्सीकरण अवस्थाएँ होती हैं। प्रथम संक्रमण श्रृंखला के तत्वों के ऑक्साइड सारणी 1.6 में दिये गये हैं :

नोट : उपर्युक्त सारणी में स्थाई ऑक्साइडों को गहरे काले अक्षरों में दिखाया गया है।

आपेक्षिक स्थायित्व- सारणी 1.6 से स्पष्ट है कि श्रृंखला के आरम्भ में वर्ग ऑक्सीकरण अवस्था ही सर्वाधिक स्थायी ऑक्सीकरण अवस्था है तथा अन्तिम तत्वों के लिए +2 अवस्था का स्थायित्व अधिक होता है। जैसा कि पूर्व में बताया गया है, यह स्थिति बढ़ते परमाणु संख्या के साथ 3d कक्षकों की ऊर्जा में कमी कारण है। आरम्भ में 3d कक्षक 4s कक्षक की तरह परमाणु की सतह पर होते हैं जिससे सभी d तथा s इलेक्ट्रॉन बंधन में भाग लेते हैं लेकिन श्रृंखला के अन्त में 3d इलेक्ट्रॉन लगभग परमाणु क्रोड का भाग बन जाते हैं तथा 4s इलेक्ट्रॉन ही मुख्यतः बन्धन में भाग लेते हैं। इन ऑक्सीकरण अवस्थाओं के आपेक्षिक स्थायित्व का ऊष्मागतिक विवेचन आगे हैलाइडों के लिए अधिक विस्तार से किया गया है।

संरचना- इन संक्रमण धातु ऑक्साइडों की संरचना विकृत होती है। ऑक्सीजन परमाणुओं की सामान्यतः षटकोणीय या घनीय घनतम संकुलित व्यवस्था (HCP या CCP) होती है तथा धातु परमाणु अष्टफलकीय छिद्रों में स्थित माने जा सकते हैं। इस प्रकार, TiO2  तथा MnO2 में O परमाणुओं की षटकोणीय घनतम संकुलित व्यवस्था होती है तथा धातु अष्टफलकीय रूप से घिरे होते हैं ।

V2O5  में विकृत त्रिभुजीय द्विपिरेमिडों VO5  के मध्य दो ऑक्सीजन परमाणुओं से निर्मित छोर सहभाजित होता है। Cr2 O3 में भी ऑक्सीजन परमाणुओं की षटकोणीय घनतम संकुलित (HCP) जालक होती है तथा धातु परमाणु दो-तिहाई अष्टफलकीय छिद्रों को घेरे रहते हैं। Fe2O3 के रूप में a की HCP तथा y-रूप में CCP व्यवस्था होती है जबकि Fe परमाणु अष्टफलकीय तथा चतुष्फलकीय दोनों छिद्रों में पाये जाते हैं। CoO में भी O की CCP जालक तथा Co परमाणु चतुष्फलकीय छिद्र ग्रहण किये हुए होते हैं जबकि NiO की HCP जैसी संरचना होती है अर्थात् प्रत्येक परमाणु अष्टफलकीय रूप से घिरा रहता है।

समन्वय संख्या- त्रिज्या अनुपात (Rr) नियम के अनुसार एक संक्रमण श्रृंखला में बांयी से दांयी ओर चलने पर धातु आयन की समन्वय संख्या घटनी चाहिए क्योंकि इस दिशा में धातु आयन की त्रिज्या घटती जाती है जिससे Rr का मान भी घटता जाता है। लेकिन इनकी संरचनाओं से स्पष्ट है कि संरचना तथा समन्वय संख्या के सम्बन्ध में कोई नियमितता नहीं पाई जाती है। यह अवश्य देखा जा सकता है. कि श्रृंखला के अधिकांश धातु आयन ऑक्साइडों से अष्टफलकीय रूप से घिरे होते हैं तथा अन्त में आने वाले धातु आयनों की चतुष्फलकीय छिद्रों को ग्रहण करने की प्रवृत्ति भी पाई जाती है।

उपर्युक्त सारणी में X का मतलब है कि धातु के फ्लुओराइड, क्लोराइड, ब्रोमाइड व आयोडाइड चारों हैलाइड ज्ञात हैं। यहां स्थाई हैलाइडों को गहरे काले अक्षरों से चारों हैलाइडों में से यदि केवल फ्लुओराइड स्थाई है तो उसे लाइन से तथा अन्य स्थाई हेलाइडों को इंगित करने के हेतु बिन्दु रेखा (……….) का उपयोग किया गया है।

इस सारणी की सारणी 1.6 से तुलना करने पर हम पाते हैं कि स्थाई ऑक्सीकरण अवस्था से धातु दोनों प्रकार के द्विअंगी यौगिक, ऑक्साइड तथा चारों ओर हेलाइड बनाता है। परन्तु ऑक्सीकारक अवस्था (उच्चतम अवस्था) में फ्लुओराइड सर्वाधिक स्थाई होते हैं तथा निम्नतम ऑक्सीकरण अवस्था से अधिक स्थाई आयोडाइड बनते हैं।

ऑक्सीकरण अवस्थाओं का आपेक्षिक स्थायित्व – ‘स्थाई’ पद का भिन्न-भिन्न प्रकार से उपयोग किया जाता है। सामान्य रूप से किसी यौगिक का स्थाई कहने से हमारा तात्पर्य यह होता है कि कक्षीय तापक्रम पर यह रासायनिक रूप से स्थाई है, कि यह वायु द्वारा ऑक्सीकृत नहीं होता है तथा यह जल वाष्प द्वारा न तो जल अपघटित होता है और न ही ऑक्सीकृत या अपचयित ।

ऑक्साइडों की भांति हेलाइडों में ऑक्सीकरण अवस्थाओं के आपेक्षिक स्थायित्व के सम्बन्ध में यह पाया गया है कि बायीं ओर की धातुओं के लिए +2 अवस्था की अपेक्षा +3 अवस्था अधिक स्थाई है तथा दायीं ओर के सदस्यों, विशेष रूप से Ni व Cu (तथा Zn भी) के लिए +2 अवस्था अपेक्षाकृत अधिक स्थाई है। मध्यवर्ती तत्वों की +3 अवस्था के स्थायित्व के सम्बन्ध में मध्यवर्ती तत्वों का अनियमित क्रम पाया जाता है : Mn < Fe > Co, अर्थात् +2 की अपेक्षाकृत कम स्थाई है। स्थायित्व का उपर्युक्त क्रम X = क्लोराइड, ब्रोमाइड तथा आयोडाइड के लिए पाया जाता है। अपघटन अभिक्रिया को निम्न प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है-

यहां M प्रथम संक्रमण श्रृंखला का तत्व है। अभिक्रिया के लिए मुक्त ऊर्जा का मान ऐन्थॉल्पी परिवर्तन पर निर्भर करता है। अभिक्रिया के विवेचन हेतु हम इसे बॉर्न – हाबर चक्र के आधार पर निम्न बहुत से पदों में विभाजित कर लेते हैं :

U3  = MX3(s) की जालक ऊर्जा

U2  = MX2 (s) की जालक ऊर्जा

I3  = धातु की तृतीय आयनन ऊर्जा E.A. = हैलोजन की इलेक्ट्रॉन बन्धुकता D = D / 2 वियोजन ऊर्जा

यदि उपर्युक्त अपघट्य अभिक्रिया का मुक्त ऊर्जा परिवर्तन G T तापक्रम पर एन्ट्रॉपी परिवर्तन S तथा ऐन्थॉल्पी परिवर्तन AH है तो हम जानते हैं कि

G = H – TS

उपर्युक्त चक्र

H = U3  +EA-I3-U2—1/2 D

G=U3  +E.A. -I3-U2,–1/2 D-TS

चूंकि क्लोराइड, ब्रोमाइड तथा आयोडाइड में एक से परिवर्तन होते हैं, विवेचन को सरल बनाने के लिए हम पूरी संक्रमण श्रृंखला के एक ही प्रकार के हैलाइड, माना क्लोराइड, के अपघटन पर विचार करते हैं। चूंकि EA तथा D हैलोजन से सम्बन्धित हैं, श्रृंखला के क्लोराइडों के लिए E. A. ½ D का मान स्थिर रहेगा ।

अतः सम्पूर्ण श्रृंखला के लिए G के मान में परिवर्तन (U2 – U3) तथा I3 के मानों पर निर्भर करेगा क्योंकि TS के मानों में भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं आता है। एक श्रृंखला में (U2-U3) तथा I3 के मानों में परिवर्तन से G के मान में परिवर्तन चित्र 1.5 में दिखाया गया है।

प्रथम संक्रमण श्रृंखला के लिए U2 का मान 2340 से 2720 kJ mol1 के मध्य, U3  का मान 5270 से 5860kJmol1 के मध्य तथा I3 का मान 2340 से 3850kJmol1 के मध्य पाया जाता है। यह देखा जा सकता है कि पूरी श्रृंखला में U2 – U3  लगभग स्थिर रहता है। इस प्रकार, स्पष्ट है कि G को प्रभावित करने वाला मुख्य पद धातु की तृतीय आयनन ऊर्जा है जो ऊष्माक्षेपी (exothermic ) है। इसे निम्न प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है-

M3+ (g) + e   M2+ (g) +I3

प्रथम संक्रमण श्रृंखला के आरम्भिक तत्वों के ट्राइहेलाइडों MCI3 (ठोस) की पूर्वोक्त प्रकार से MCL2  (ठोस) में अपघटन के लिए मुक्त ऊर्जा में परिवर्तन धनीय है (O) जो श्रृंखला के अन्त में दायीं ओर पहुंचने पर ऋणात्मक हो जाता है। इसका मतलब यह है कि श्रृंखला के बायीं ओर के तत्वों के ट्राइक्लोराइड, ट्राईब्रोमाइड तथा ट्राइआयोडाइड ऊष्मीय अपघटन के प्रति स्थाई है तथा बायीं ओर के तत्वों के इन ट्राइ लाइडों की डाईहेलाइडों में अपघटन की प्रवृत्ति पाई जायेगी।

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