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पाहेबा का युद्ध कहाँ हुआ | पहोबा का युद्ध कब हुआ साहेबा का युद्ध क्या है ? battle of pahoba in hindi
battle of pahoba in hindi paheba saheba पाहेबा का युद्ध कहाँ हुआ | पहोबा का युद्ध कब हुआ साहेबा का युद्ध क्या है ?
प्रश्न : पहोबा / साहेबा का युद्ध के बारे में जानकारी बताइए ?
उत्तर : मारवाड़ के मालदेव ने 1542 ईस्वी के आसपास राज्य विस्तार की इच्छा से कूंपा की अध्यक्षता में एक बड़ी सेना बीकानेर की तरफ भेजी। राव जैतसी मुकाबला करने के लिए साहेबा के मैदान में पहुँचा। मालदेव की शक्तिशाली सेना के सामने वह न टिक सका तथा वह अनेक योद्धाओं के साथ खेत रहा। मालदेव ने जांगल देश पर अधिकार स्थापित कर लिया। इस आक्रमण से बचने के लिए जैतसी ने शेरशाह की सहायता माँगी जो समय पर न मिल सकी।
प्रश्न : राणा प्रताप और राव चन्द्रसेन दोनों में अद्भुत समानता देखने को मिलती है , विवेचना कीजिये ?
उत्तर : राव चन्द्रसेन मारवाड़ का और राणा प्रताप मेवाड़ का शासक था। दोनों में समानता के अनेक बिन्दु दिखाई देते है जो निम्नलिखित है –
- दोनों को अपने बन्धु बाँधवों का विरोध झेलना पड़ा जो मुग़ल दरबार के सदस्य बन गए थे। राणा प्रताप के भाई जगमाल और समर और राव चंद्रसेन के भाई राम और उदयसिंह अकबर के दरबारी हो गए थे।
- दोनों ने ही अपनी स्वतंत्रता के लिए मुग़ल अधीनता स्वीकार नहीं की।
- दोनों के ही राज्यों के अधिकांश भागों पर मुगलों का अधिकार हो गया था तथा थोड़ी सी भूमि के बल पर मुगलों से संघर्ष करना पड़ा।
- दोनों को ही अपने राज्य से बाहर शरण लेनी पड़ी प्रताप को छप्पन के मैदान में और चन्द्रसेन को बाँसवाड़ा में।
- राणा प्रताप ने कभी भी अपने राज्य/जनता को नहीं लूटा परन्तु चंद्रसेन अपनी ही जनता को लूटता रहा , जिससे वह अलोकप्रिय हो गया।
- चन्द्रसेन ने मुग़ल विरोध नागौर दरबार (अकबार का दरबार 1570 ईस्वी) में असफल होने के बाद आरम्भ किया जबकि प्रताप का संघर्ष प्रारंभ से ही एक सुदृढ योजना पर आधारित था।
- राणा प्रताप ने हल्दीघाटी में अपने साहस , शौर्य और रणकौशल का परिचय दिया तथा स्वतंत्रता प्रेमियों की प्रेरणा बन गया जबकि चन्द्रसेन भागता रहा परन्तु खुलकर मुगलों से युद्ध न कर सका।
- पहाड़ों में विचरण करने के साथ साथ प्रताप ने जन जागरण द्वारा जनता में नवजीवन संचारित किया और चावंड में नयी राजधानी बनायीं जबकि चन्द्रसेन ऐसा न कर सका।
- चंद्रसेन का मुग़ल विरोध उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गया। बाद में वीर दुर्गादास ने मारवाड़ में इस परम्परा को निभाया जबकि प्रताप का विरोध उसके बाद भी मुग़ल मेवाड़ संघर्ष के रूप में अनवरत चलता रहा।
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