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नीतिशास्त्र के मूल सिद्धांत क्या है | basic concepts of ethics in hindi fundamental concept
basic concepts of ethics in hindi fundamental concept नीतिशास्त्र के मूल सिद्धांत क्या है ?
अरस्तु का सद्गुण सिद्धान्त (Aristotelian Concept of Virtue)
अरस्तु (384-322 ई.पू.) भी प्लेटो के समान एक महान ग्रीक दार्शनिक था। पाश्चात्य विश्व का वह प्रथम व्यक्ति था जिसने नीतिशास्त्र पर एक पुस्तक की रचना की थी। अरस्तु के अनुसार मानव स्वभाव के अन्तर्गत बौद्धिक तत्व, क्षुधा तत्व और जीव तत्व-ये तीनों अंग सम्मिलित हैं। परन्तु इससे नैतिक चरित्र का निर्माण नहीं होता है क्योंकि इन तीन तत्वों में से बौद्धिक तत्व प्रमुख है। अतः मानव जीवन का ध्येय प्रमुख रूप से बौद्धिक है। नैतिक जीवन बुद्धि के द्वारा भावनाओं एवं क्षुधाओं के नियंत्रण में निहित है। वासनाओं और भावनाओं का पूर्ण रूपेण दमन करना नैतिक दृष्टि से न तो आवश्यक है और न ही संभव है। वासनाओं और भावनाओं का कितना नियमन बुद्धि के द्वारा किया जाए, यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। मनुष्य एक विचारशील (बौद्धिक) प्राणी है। अतः जहां तक वह बुद्धि के नियमानुसार कर्म करता है, उसे सद्गुणी पुरुष कहा जाता है।
अरस्तु के अनुसार सद्गुण सम्यक बौद्धिक कर्म करने की आदत है। सद्गुणी जीवन निरन्तर सम्यक बौद्धिक अवस्था के अभ्यास से ही संभव है। अरस्तु ने सद्गुणों का वर्गीकरण दो रूपों में किया है- बौद्धिक सद्गुण तथा नैतिक सद्गुण। बौद्धिक सद्गुण ही मानव के लिए परम शुभ है। चूंकि मानव स्वभावतः एक बौद्धिक प्राणी है, इसलिए बौद्धिक सद्गुण दार्शनिक एवं वैचारिक जीवन में निहित है। मानव जीवन का आदर्श विशुद्ध रूप से वैचारिक जीवन में निहित है। किन्तु अरस्तु के अनुसार बुद्धि के द्वारा वासनाओं और भावनाओं का नियम ही श्रेष्ठ है। इसे ही नैतिक सद्गुण कहा जाता है।
अरस्तु की न्याय संबंधी अवधारणा प्लेटो के द्वारा स्थापित न्याय सिद्धान्त से भिन्न है। अरस्तु ने न्याय की अवधारणा विधिसम्मत दृष्टि से की है। वह न्याय के दो रूपों में भेद करता है-
ऽ वितरणात्मक न्याय (Distributive Justice)
ऽ सुधारात्मक न्याय (Remedial Justice)
वितरणात्मक न्याय द्वारा विभिन्न नागरिकों को उनकी योग्यता और क्षमता के अनुसार पद, सम्मान, वेतनमान, पुरस्कार आदि प्रदान करने का विधान है। सुधारात्मक न्याय के अन्तर्गत अनुचित कर्मों के लिए नागरिकों को दंडित करने का विधान है। अनुचित ढंग से सुविधा लेने वाले व्यक्ति को दंडित करना चाहिए। उसकी सुविधा को निरस्त करके उसे उसी मात्रा में असुविधा (दण्ड) प्रदान करना चाहिए।
अरस्तु के अनुसार सद्गुणों से युक्त बौद्धिक जीवन ही आनंदप्रद और कल्याणकारी होता है। अरस्तु ने सद्गुणों का निर्धारण करने के लिए ‘स्वर्णिम माध्यम के सिद्धान्त‘ (Theory of Golden Mean) का प्रतिपादन किया है। यह दो अतियों (Extremes) के बीच का मार्ग है। वैराग्यवादी वासनाओं एवं भावनाओं की उपेक्षा करके नैतिक सद्गुण के द्रव्य को नष्ट कर देते हैं। इसके विपरीत सुखवादी मनुष्य के बौद्धिक पक्ष की उपेक्षा करके पाश्विक सुख को ही श्रेष्ठ मान लेते हैं। अरस्तु के अनुसार सद्गुण का अर्थ वासनाओं का आत्यन्तिक दमन या उत्पीड़न नहीं है, बल्कि उनका बुद्धि के द्वारा युक्तिपूर्व नियमन करना है। इससे सिद्ध होता है कि सद्गुण इन दो अतियों से बचने का मार्ग है। अरस्तु मध्यम मार्ग को ही सर्वश्रेष्ठ नैतिक जीवन मानते है। इसे सद्गुण आचरण के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। जैसे आत्मनियंत्रण एक सद्गुण है और यह इच्छाओं के दमन तथा अत्यंत वासनापूर्ण जीवन के बीच का मार्ग है। इसी तरह साहस आत्यधिक निष्ठुरता तथा डरपोकपन के बीच का मार्ग है। अतः साहस एक सद्गुण है। अतः सद्गुण एक मध्यम मार्ग है जिसे विकसित करना एक सरल कार्य नहीं है। सद्गुण का अर्थ है सही समय पर उचित उद्देश्य व प्रेरणा के साथ तथा उचित सीमा तक उचित व्यक्ति के साथ उचित व्यवहार करना ही सद्गुण है। उदाहरण के लिए, उदारतापूर्ण कार्य का अर्थ है सही उद्देश्य के साथ उचित सीमा तक और सही समय पर किसी उचित व्यक्ति के प्रति उदारता प्रदर्शित करना।
नैतिक सापेक्षवाद (Ethical/Moral Relativism)
नैतिक सापेक्षवाद के अनुसार कोई नैतिक नियम सीमित समुदाय या व्यक्तियों के लिए ही सत्य होता है। नैतिक नियम सर्वव्यापक नहीं होते। इसे वे इन तर्कों द्वारा सिद्ध करने की कोशिश करते हैं- नैतिक मापदंड समय-समय पर परिवर्तित होते रहते हैं। अलग-अलग समाज में अलग नैतिक नियम हैं। इन तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि नैतिक नियम सर्वव्यापक नहीं होते। नैतिक सापेक्षवादी का मत है कि कोई भी निरपेक्ष संभव नहीं है और नैतिकता किसी न किसी संस्कृति विशेष, समूह या व्यक्ति के सापेक्ष होता है। समसामयिक अध्ययनों ने भी सिद्ध कर दिया है कि संस्कृतियां भिन्न हुआ करती हैं। उनमें कुछ समानताएं भी होती हैं। परन्तु कोई भी कर्म एक समाज द्वारा अगर उचित ठहराया जाए तो हो सकता है कि किसी दूसरे समाज की नैतिक मान्यताओं के आधार पर वह अनुचित माना जाए। अतः सापेक्षवादियों के अनुसार कोई भी एक नैतिक नियम सार्वभौम नहीं माना जा सकता।
नैतिक सापेक्षवाद तथा नियामक नीतिशास्त्र में संबंध
(Relation of Ethical Relativism to Normative Ethics)
नैतिक सापेक्षवादी के अनुसार नैतिक सिद्धान्त सार्वभौम नहीं हो सकते। नैतिक सिद्धान्तों को किसी भी तरह से वस्तुनिष्ठ नहीं माना जा सकता। सभी नैतिक निर्णय व्यक्ति के अपने विचार/मत पर आधारित होते हैं।
पुनः नैतिक सापेक्षवाद का यह भी मानना है कि किसी संस्कृति विशेष के नैतिक प्रतिमान उस संस्कृति के लोग उन्हीं नैतिक मान्यताओं को अपनाते हैं। नैतिक सापेक्षवाद का यही मत इसे नियामक नीतिशास्त्र से जोड़ता है क्योंकि नियामक नीतिशास्त्र भी स्वयं इसी तथ्य को मानकर चलता है। वैश्विक स्तर पर भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृतियां मौजूद हैं और अगर यह प्रश्न किया जाए कि इनमें से किस संस्कृति से जुड़े नैतिक मूल्य उचित हैं अथवा सभी के लिए स्वीकार्य हैं तो नैतिक सापेक्षवाद का उत्तर यह होगा कि इनमें से किसी भी संस्कृति से जुड़ी नैतिकता को सही या गलत नहीं ठहराया जा सकता। सही और गलत, उचित और अनुचित- ये सापेक्ष अवधारणाएं हैं। नियामक नीतिशास्त्र यह तय करता है कि ‘‘एक व्यक्ति को क्या करना चाहिए और क्या नहीं‘‘। अर्थात् किसी कर्म के औचित्य-अनौचित्य का निर्धारण नियामक नीतिशास्त्र द्वारा ही किया जाता है।
नैतिकता के नियामकीय उपागम के वास्तविक प्रणेता प्रसिद्ध सांस्कृतिक नृविज्ञानी रूथ बेनेडिक्ट माने जाते हैं जिन्होंने सर्वप्रथम सामान्य सांस्कृतिक व्यवहार का विश्लेषण शुरू किया। बेनेडिक्ट के अनुसार – ‘‘जो स्वाभाविक है वही नैतिक है‘‘।
नैतिकता का निरपेक्षवादी सिद्धान्त (Ethical/Moral Objectivism)
नैतिकता के निरपेक्षवादी सिद्धान्त के अनुसार सर्वोच्च नैतिक मूल्य एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में भिन्न नहीं होते। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि सभी संस्कृतियों के नैतिक नियम और मापदंड एक समान होते हैं, क्योंकि ऐसा मानना एक आनुभविक तथ्य की अवहेलना करना होगा। इसका आशय मात्र इतना है कि सभी विभिन्नताओं के उपरान्त भी, सभी संस्कृतियों में सर्वोच्च नैतिक सिद्धान्त समान होते हैं। इस सिद्धान्त के मुताबिक किसी नैतिक निर्णय के सही और गलत की पहचान किसी व्यक्ति या फिर व्यक्ति-समूह/समूहों के विश्वासों व मान्यताओं पर निर्भर नहीं करता। नैतिक निरपेक्षवादियों का यह मानना है कि नैतिक वाक्य ठीक वैसे ही होते हैं जैसे भौतिकी, जीव विज्ञान अथवा इतिहास के वाक्य। अर्थात् नैतिक वाक्य हो या फिर इन विषयों की विषय-वस्तु इन्हें किसी विचार या संस्कृति विशेष पर आधारित नहीं माना जा सकता। ये विचारों से स्वतंत्र होते हैं। इनकी सत्यता/असत्यता पर किसी के विचार, विश्वास, भावना, आशा अथवा इच्छा का कोई असर नहीं होता।
नीतिशास्त्र का सम्पूर्णतावादी सिद्धान्त (Ethical/Moral Absolutism)
नैतिक सम्पूर्णतावाद के अनुसार कुछ नैतिक सिद्धान्त सार्वभौम होते हैं और इनका खंडन नहीं किया जा सकता। ये सभी परिस्थितियों के लिए उचित और मान्य होते हैं।
इस नीतिशास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार कुछ नैतिक नियम ऐसे हैं जो हमेशा सत्य होते हैं, इन नियमों की खोज की जा सकती है और ये नियम सभी पर समान रूप से लागू होते हैं। अनैतिक कर्म अर्थात् वैसे कर्म जिनसे नैतिक नियमों का उल्लंघन होता है अपने-आप में अनुचित व असत्य होते हैं। इन नियमों पर उन परिस्थितियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता जिनमें ऐसे कर्म किए जाते हैं। अर्थात् ये हर परिस्थितियों में गलत माने जाते हैं।
नीतिशास्त्र का वस्तुवादी सिद्धान्त (Ethical/Moral Realism)
नैतिक वस्तुवाद इस विचार पर आधारित है कि इस ब्रह्मांड में कुछ वस्तुनिष्ठ नैतिक तथ्य अथवा सत्य का अस्तित्व है। इन तथ्यों के बारे में जानकारी नैतिक वाक्यों से ही मिलती है अर्थात् नैतिक वाक्यों के माध्यम से हम नैतिकता से जुड़े तथ्यों को जान सकते हैं।
नीतिशास्त्र का आत्मनिष्ठ सिद्धान्त (Ethical/Moral Subjectivism)
नीतिशास्त्र में आत्मनिष्ठ सिद्धान्त नैतिक सापेक्षवाद का ही एक रूप है। ‘आत्मनिष्ठ‘ शब्द का भिन्न अर्थों में प्रयोग किया गया है। एक अर्थ में सभी अभिवृत्ति सिद्धान्त या सभी सापेक्षवादी सिद्धान्त आत्मनिष्ठ है। आत्मनिष्ठ सिद्धान्त इस विचार को स्वीकार करते हैं कि किसी कर्म के औचित्य का प्रमाण व्यक्ति की मानसिक स्थिति है। यदि मैंने किसी कर्म को उचित कहा तो उसका अर्थ है कि वह कर्म मेरे लिए उचित ही है। प्रत्येक व्यक्ति की या एक व्यक्ति की भिन्न समयों में एक-सी मानसिक स्थिति नहीं रहती, इसलिए एक ही समय में कोई कर्म उचित और अनुचित हो सकता हैं।
नीतिशास्त्र में संवेगात्मक भाषा (Ethical/Moral Emotivism)
इस सिद्धान्त के अनुसार, नैतिक भाषा का एकमात्र काम है भावनाओं को व्यक्त करना। कुछ लोगों ने आज्ञा को व्यक्तीकरण नैतिक भाषा का काम बतलाया है। नैतिक शब्द संवेगात्मक होते हैं जिसमें व्यक्ति की अपनी भावना भी व्यक्त रहती है। परन्तु उस वस्तु या व्यक्ति के बारे में वक्ता के विचार या उसकी भावना का पता नहीं चलता है। नैतिक भाषा से सिर्फ अनुमोदन या अननुमोदन का पता चलता है।
नीतिशास्त्र में आज्ञार्थक भाषा (Ethical/Moral Presciptivism)
इस सिद्धान्त के अनुसार नैतिक वाक्य निर्देश या अनुशंसा मात्र होते हैं। मनुष्य का क्या कत्र्तव्य है? मुझे क्या करना चाहिए? नीतिशास्त्र में इन्हीं प्रश्नों का उत्तर दिया जाता है। यह स्पष्ट है कि इन प्रश्नों का उत्तर आज्ञार्थक भाषा में ही होगा। अगर मैं कहूं कि अमुक व्यक्ति/वस्तु अच्छा है तो इसका अर्थ है कि मैं उसके पक्ष में कुछ निर्देश मात्र दे रहा हूं। अगर मैं कहूं कि अमुक काम अच्छा नहीं है तो इसका अर्थ यह है कि मैं उस काम को करने से मना कर रहा हूँ।
नीतिशास्त्र में अलौकिकतावाद
(Ethical/Moral Supernaturalism)
नैतिक अलौकिकवाद में नैतिकता तथा धर्म को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इस विचार के अनुसार, नैतिकता का एकमात्र स्रोत है ईश्वर। अगर कुछ अच्छा है तो इसलिए कि ईश्वर का ही ऐसा आदेश है। उत्कृष्ट जीवन जीने का अर्थ है वैसा करो जैसी ईश्वर की आज्ञा हो। यह सिद्धान्त मौलिक रूप से नैतिकता में अतिप्राकृतिक सत्ता की भूमिका को ही सर्वोच्च मानता है।
नीतिशास्त्र में अन्तःअण्नुभूतिवाद
(Ethical/Moral Intuitionism)
किसी भी कर्म को साधारणतः इसलिए उचित या अनुचित कहा जाता है जिस उद्देश्य से वह कर्म किया गया है, वह उचित है या अनुचित है। अन्र्तअनुभूतिवाद के अनुसार नैतिक गुण अर्थात् औचित्य-अनौचित्य कर्मों में ही अन्तर्भूत होते हैं। कोई कर्म स्वतः अपने स्वभाव के अनुसार उचित या अनुचित होता है। उनका नैतिक गुण उनके फल या जिन उद्देश्यों से कर्म किये जाते हैं, उन पर निर्भर नहीं है। नैतिक गुण अव्युत्पन्न होता है। यह किसी अन्य बात से निकाला नहीं जाता। ऐसा मानना है कि हम अपनी बुद्धि या विवेक से इसे निकालते हैं, भ्रांतिमूलक है। कोई भी बुद्धि उचित को अनुचित या अनुचित को उचित नहीं बना सकती।
इस सिद्धान्त के अनुसार, अच्छाई या बुराई सिर्फ वयस्कों द्वारा पहचाना जा सकता है। मानव में
अन्तःअनुभूति की क्षमता होती है। अतः वे वास्तविक नैतिक सत्यों को पहचान लेते हैं। एक व्यक्ति ऐसा तभी कर पाता है जब वह नैतिक मुद्दों पर विचार करे। परन्तु नैतिक सत्यों को बौद्धिक तर्क द्वारा उत्पन्न नहीं किया जा सकता।
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