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सत्ताधिकार का अर्थ क्या है | सत्ता अधिकार किसे कहते है परिभाषा का पर्यायवाची शब्द Authority in hindi
Authority in hindi सत्ताधिकार का अर्थ क्या है | सत्ता अधिकार किसे कहते है परिभाषा का पर्यायवाची शब्द ?
सत्ताधिकार
सामाजिक स्तरीकरण का तीसरा संयोजी सिद्धांत सत्ताधिकार है। सामाजिक-स्थिति और संपदा को हम समाज में श्रेणी-निर्धारण के आधार समूह विशेषताओं से स्पष्ट रूप से जोड़ सकते हैं। लेकिन इन दोनों संयोजी सिद्धांतों के विपरीत सत्ताधिकार का सिद्धांत अपेक्षतया एक विसारित या बिखरा हुआ गुण है। इसकी वजह यह है कि इसकी प्रकृति अनठी नहीं है। समाज में उच्च स्थिति वाला समूह या फिर ऐसा समूह जिसके पास संपदा अधिक हो उसके लिए समाज में सत्ताधिकार का प्रयोग करना हमेशा संभव रहता है। फिर भी हम इसे विशेषाधिकारों के सिद्धांत से अलग करके देख सकते हैं क्योंकि विशेषाधिकार का सिद्धांत सामाजिक समूह की इस सामर्थ्य पर आधारित है कि वह किस तरह अन्य समूहों को उन कार्यो, मूल्यों और विश्वासों को मानने के लिए बाध्य करता है, जिन्हें तय भी वही करता है। सामाजिक स्तरीकरण की अपनी व्याख्या में जैसा कि मैक्स वेबर कहते हैं सत्ताधिकार की अवधारणा इस तथ्य पर आधारित है कि यह उन व्यक्तियों या समूहों को जायज बल प्रयोग करके अपनी इच्छा अन्य समूहों पर थोपने की शक्ति प्रदान करता है। इस अर्थ में राज्य हमारे सामने एक ऐसी संस्था का उत्तम उदाहरण है, जो सर्वाधिक शक्ति या सत्ताधिकार रखता है। राज्य को समाज के नागरिकों पर अपनी इच्छा थोपने का परम अधिकार रहता है। शक्ति या सत्ताधिकार प्रयोग की वैधता को समह व्यापक स्तर पर स्वीकार कर लेते हैं, या यूं कहें कि जब यह समाज में संस्थागत बन जाता है तो शक्ति प्रभुत्व में तब्दील हो जाती है। प्रभुत्व को हम वैध शक्ति के रूप में परिभाषित कर सकते हैं। यह शक्ति या सत्ताधिकार का सिद्धांत सामाजिक स्तरीकरण की धारणा में भी प्रवेश कर लेता है जब इसके कार्य या सामाजिक फलितार्थों को समाज में चल रही राजनीतिक प्रक्रियाएं प्रभावित करने लगती हैं या फिर राज्य सामाजिक स्तरीकरण को प्रभावित करने में अधिक सक्रिय या प्रत्यक्ष भूमिका अपना लेता है। इसका एक प्रासंगिक उदाहरण हमें सकारात्मक भेदभाव या आरक्षण नीति में मिलता है । इस नीति के तहत भारतीय राज्य ने अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों, राजनीतिक पदों और शिक्षा संस्थानों में आरक्षण दिया है। सामाजिक स्तरीकरण में एक तत्व के रूप में सत्ताधिकार की व्याख्या में मैक्स वेबर ने पार्टियों और सत्ताधिकार तक अपनी पहुंच को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने में राजनीति, राजनीतिक दलों और उनकी भूमिका को सही आंका है।
अभ्यास 1
अपने अध्ययन केन्द्र में अन्य सहपाठियों के साथ सामाजिक स्थिति, संपदा और सत्ताधिकार पर चर्चा कीजिए। ये तीनों किस प्रकार एक-दूसरे से जुड़े हैं? अपनी चर्चा के परिणामों को अपनी नोटबुक में दर्ज कीजिए।
भारत में जाति और वर्ग
अभी तक हमने सामाजिक स्थिति, संपदा और सत्ताधिकार के संयोजी सिद्धांतों की चर्चा की है ये समाज में समूहों के सापेक्षिक क्रम में श्रेणीकरण के मुख्य निर्धारक हैं जो सामाजिक स्तरीकरण की नींव रखते हैं। इसी प्रकार जाति और वर्ग भी सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धांत हैं जो समाज में समूहों के श्रेणी निर्धारण में सामाजिक स्थिति और संपदा की भूमिका को दर्शाते हैं। सामाजिक स्थिति समूह का एक प्रमुख उदाहरण जाति है। दूसरी ओर वर्ग इस सिद्धांत पर आधारित है जिसमें समूहों को संपदा तक उनकी पहुंच या समाज के संपदा संसाधनों पर अपना नियंत्रण रखने की सापेक्षिक क्षमता पर उनको श्रेणियों में रखा जाता है। सामाजशास्त्रियों में उन प्रक्रियाओं को लेकर काफी सहमति है जिनसे सामाजिक-स्थिति समूहों की रचना होती है और ये समूह सामाजिक स्तरीकरण में श्रेणी-क्रम बनाते हैं । मगर समाजशास्त्रियों में इस प्रकार की सहमति उन प्रक्रियाओं को लेकर नहीं है, जो वर्गों को संपदा के स्वामित्व की विभेदक क्षमता से उनके उदय में सहायक होती हैं।
निस्संदेह संपदा के सिद्धांत के बारे में माना जाता है कि इससे समाज का स्तरीकरण होता है। मगर वर्ग के बारे में मतभेद हैं। उदाहरण के लिए मार्क्स वेबर मानते हैं कि वर्ग ‘बाजार की स्थिति‘ की उपज है जबकि कार्ल मार्क्स इसे ‘उत्पादन की विधियोंश् से जोड़ते हैं। कार्ल मार्क्स के अनुसार उत्पादन की विधियां‘ ही संपदा तक पहंच या उस पर नियंत्रण रखने की क्षमता और समाज में समहों की श्रेणी दोनों को तय करती हैं। बेशक दोनों ही सिद्धांतों में सामाजिक स्तरीकरण के निर्धारण में संपदा की केन्द्रीय भूमिका अंतर्निहित है। जैसा कि मार्क्स कहते हैं, उत्पादन विधि पूंजी के बदलते स्वरूप के साथ बदलती रहती हैं (पूंजी का अर्थ वस्तुओं के उत्पादन में निवेश की जाने वाली संपदा है)। इसी प्रकार बाजार की स्थिति वस्तुओं की आपूर्ति और मांग, श्रम और रोजगार की स्थितियों से निर्धारित होती है। ये सभी कारक समाज में उपलब्ध पूंजी या संपदा संसाधनों के सांचे के भीतर ही काम करते हैं। सामाजिक स्तरीकरण इस प्रक्रिया में तब आ जुड़ता है जब समाज में एक वर्ग के अधिकार में अन्य लोगों की तुलना में अधिक संपत्ति या पूंजी हो जाती है। या फिर सामाजिक स्तरीकरण की भूमिका तब शुरू होती है जब बाजार को लोगों के ऐसे समहों से भी व्यवहार करना पड़ता है जिनके पास अपनी कोई पंजी या संपत्ति नहीं होती और जो जीवित रहने के लिए सिर्फ अपनी शारीरिक शक्ति या श्रम पर ही निर्भर रहते हैं। मार्क्स ने इन वर्गों को सर्वहारा या मजदूर कहा है। इन मुद्दों पर समाजशास्त्रियों में बहस सामाजिक स्तरीकरण के विभिन्न सिद्धांतों से जुड़ी है। इन सिद्धांतों पर हम आगे चर्चा करेंगे।
जाति और सामाजिक स्तरीकरण
प्राचीन भारतीय समाज की संरचना मुख्यतः जाति स्तरीकरण पर आधारित थी। यह स्तरीकरण कुछ इस प्रकार था कि जीवन के सभी पहलुओं जैसे अर्थव्यवस्था, राज्य व्यवस्था और संस्कृति में जाति मुख्य सिद्धांत के रूप में काम करती थी। इसे समझने के लिए पहले हमें वर्ण और जाति में भेद जानना होगा। वर्ण वर्गीकरण के लिए एक संदर्भ आधार या मॉडल है और जाति सामाजिक स्थिति के क्रम में श्रेणीबद्ध विशिष्ट जाति समूहों का संबोधन है। भारतीय समाज चार वर्षों में बंटा था। ये थेः ब्राह्मण (पुरोहित), क्षत्रिय (योद्धा), वैश्य (व्यापारी) और शूद्र (श्रमिक वर्ग)। कालांतर में पांचवा वर्ण पंचमा भी बना, जिसमें वे लोग शामिल थे जिन्हें समाज ने अपने बुनियादी नियमों के उल्लंघन के चलते बहिष्कृत कर दिया था। पंचमा को समाज ने अछूत घोषित कर दिया। यह समाज में किसी भी समूह पर थोपा गया सबसे उग्र किस्म का भेदभाव था। वर्ण व्यवस्था की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार थीः जन्मजात सदस्यता, आनुवंशिक या पुश्तैनी पेशा, वर्ग क्रम परंपरा में विभिन्न जातियों को प्रदत्त अपवित्रता और पवित्रता, अंतर्विवाह और परस्पर घृणा या अलगाव।
जाति का जनसंख्यात्मक विश्लेषण
भारत में वर्ण या जाति की जनसांख्यिकी हजारों वर्षों से बेहद विविध रही है। अध्ययनों से पता चलता है कि 20 मील से लेकर 200 मील की परिधि में एक जाति को सामाजिक समूह के रूप में नहीं माना जाता है, बल्कि इसे वर्ण मॉडल के संदर्भ में ही मान्यता दी जाती है। इसीलिए वर्ण व्यवस्था समाजशास्त्रीय संदर्भ के आधार के रूप में महत्वपूर्ण है। इसी प्रकार जातियां भी क्षेत्रीय या उपक्षेत्रीय समूहों के रूप में हजारों की संख्या में हमेशा मौजूद रही हैं। भारतीय नृवैज्ञानिक सर्वेक्षण (एंथ्रोपॉलिजिकल सर्वे ऑफ इंडिया) के एक नवीनतम अध्ययन से पता चला है कि भारत में 4, 635 समुदाय या जाति जैसे समूह विद्यमान हैं। इस सर्वेक्षण से यह भी पता चलता है कि लगभग सभी धार्मिक समूह अलग-अलग समुदायों में बंटे हैं, जिनमें जाति-विशेषताएं हैं। जातियां स्थानीय और क्षेत्रीय सांस्कृतिक चिन्हक भी धारण किए रहती हैं, जो पारिस्थितिक, स्थानीय इतिहास या पौराणिक कथाओं पर आधारित होते हैं। पांरपरिक रूप से गांव और शहर दोनों जगह जातियां लेन-देन के व्यवस्थागत संबंध या कार्य और आर्थिक विनिमय या सेवाओं के विनिमय में बंधी रहती थीं। इस अर्थ में वर्ण व्यवस्था पारस्परिक सहयोग और परस्पर निर्भरता के आधार पर काम करती थी। इसने एक जैविक-तंत्र का निर्माण किया था। गांव और शहर दोनों जगह जातियों की अपनी पंचायतें थीं। हालांकि गांव और शहर में इनके अपने केन्द्र थे. ऐसी पंचायतों या (शहरी) संघों के पास शहर या गांव से बाहर भी संगठनों का एक नेटवर्क था. यदि किसी कारणवश अंतरजातीय संघर्ष उठ खड़ा होता था जिससे जाति के लेन-देन के नियमों उल्लंघन हो रहा हो और अगर ऐसा विवाद ग्रामसभा या नगरसभा (जिसमें विभिन्न जातियों के बुजुर्ग और प्रतिष्ठित व्यक्ति सदस्य होते थे) में नहीं सुलझ पा रहा हो तो ऐसी स्थिति में मामले को जाति-पंचायतों में उठाया जाता था। इस तरह यह जाति के अधिकारों और विशेषाधिकारों की रक्षा करने वाली संस्था के रूप में काम करने के साथ-साथ संघर्षों या झगड़ों के निपटारा करने वाली प्रणाली के रूप में भी काम करती थी।
बोध प्रश्न 1
1) जाति और सामाजिक स्तरीकरण पर एक नोट लिखिए। अपना उत्तर पांच पंक्तियों में दीजिए।
2) नीचे दी गई सची में कौन-सी अवधारणा शेष से मेल नहीं खातीः
प) हैसियत
पप) संपत्ति
पपप) सामंती
अ) नगरीकरण
बोध प्रश्न 1 उत्तर
1) पारंपरिक भारतीय समाज मुख्यतः जाति के आधार पर गठित था। जाति सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं में मुख्य सिद्धांत के रूप में काम करती थी जैसे अर्थव्यवस्था, राज्य-व्यवस्था और संस्कृति। इस योजना में वर्ण वर्गीकरण के संदर्भ का ढांचा है जबकि जाति क्रम में श्रेणीबद्ध विशिष्ट जाति समूह है।
2) पपप)
अ)
सामाजिक स्तरीकरण की एक व्यवस्था के रूप में वर्ण के स्थायित्व का आधार अर्थव्यवस्था थी जो लंबे समय तक कृषि-व्यापार ही रही। इसके साथ-साथ अधिक मृत्यु दर के कारण जनसंख्या भी स्थिर थी जो कई सदी तक एक करोड़ के आस-पास ही बनी रही। स्थिर जनसंख्या का यह दौर औद्योगिक क्रांति के बाद टूटा जिसके चलते महामारियों और प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली भारी मृत्यु दर को नियंत्रित करने के लिए उन्नत जीवन-रक्षक साधन और उपचार सुलभ हो पाए थे। इसके फलस्वरूप जैसा कि जनगणना के आंकड़े बताते हैं वर्ष 1931 से भारत की जनसंख्या बढ़ती गई। ब्रिटेन की औपनिवेशिक नीति ने भारत को एक पराश्रित अर्थ-व्यवस्था बनाया और उसकी परंपरागत विनिर्माण अर्थ-व्यवस्था और व्यापार को नींव से नष्ट कर दिया।
इसके फलस्वरूप जहां एक और विनगरीकरण और वि-औद्योगीकरण हुआ वहीं दूसरी ओर गांवों में भूमि पर दबाव भी बढ़ गया। इसका परिणाम यह रहा कि जो आर्थिक और सामाजिक संरचना का पारंपरिक संतुलन ग्रामीण और नगर केन्द्रों तथा कृषि और निर्माण और व्यापार के बीच विद्यमान था वह टूट गया। सिर्फ यही नहीं, अंग्रेजों की नीति अपनी सामाजिक और राजनीतिक नीतियों के कार्यान्वयन में जाति और धर्म को ही संदर्भ का आधार बना कर चलने की थी। अंग्रेज शासकों ने जब जातीय आधार पर जनगणना की तो इसने देश के जन साधारण को पहली बार राजनीतिक हकीकत के रूप में जाति के प्रति जागरूक बनाया। इसके फलस्वरूप जो जातियां जाति-क्रम में निम्न श्रेणी में थीं उनकी ओर से अपने को उच्च जातियों की श्रेणी में रखने की मांग उठी। इसने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को जन्म दिया जिसका अर्थ यह है कि निम्न जातियों ने उच्च जातियों की जीवन शैली, खान-पान की आदतें, पहनावा, पूजा-पाठ की विधियां-रीतियां अपनाना शुरू कर दिया। ये जातियां आगे चलकर उच्च जाति का दर्जा दिए जाने की मांग करने लगीं। यही नहीं, एम.एन. श्रीनिवास के अनुसार इसने पाश्चात्यकरण की प्रक्रिया में भी योगदान दिया, जिसके चलते भारतीय भी पश्चिमी वेशभूषा, जीवन शैली और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के तौर-तरीके इत्यादि अपनाने लगे।
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