हिंदी माध्यम नोट्स
एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल की स्थापना किसने की थी कब हुई क्यों की गयी asiatic society of bengal in hindi
asiatic society of bengal in hindi was founded by एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल की स्थापना किसने की थी कब हुई क्यों की गयी ?
प्रश्न: प्राच्यवादी या प्राचीन भारतीय इतिहास की भारत शास्त्रीय पुनर्स्थापना में यूरोपीयन साहित्यकारों के योगदान की विवेचना कीजिए।
उत्तर: भारत के खोए हुए इतिहास को पुनर्निमित करने के इस लक्ष्य के प्रति ही प्राच्यवादियों (Orientalist) या भारतशास्त्रियों (Indologist) ने स्वयं को समर्पित किया।
भारत शास्त्रीय अन्वेषण को प्रभावित करने वाले कारक: आधुनिक भारतीय इतिहास-लेखन इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विद्वान प्रशासकों के लेखन से आरंभ हुआ। ‘डेविड कॉफ‘ ने गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय देते हुए यह दर्शाया है कि कंपनी के सेवकों में से अधिक अभिजात्य लोग अठारहवीं शताब्दी में यूरोपीय नवजागरण के बौद्धिक-सांस्कृतिक परिवेश से आते थे। यह एक ऐसा तथ्य है जो ‘हिंदू क्लासिकीय काल के अभूतपूर्व प्राच्यवादी पुनरान्वेषण‘ को पूरी तरह स्पष्ट कर देता है। वस्तुतः वॉल्टेयर का यह विश्वास था कि प्राचीन काल में मेसोपोटामिया में अवश्य ही एक व्यापक रूप से विस्तृत सभ्यता रही होगी और लगभग अधिकांश कलाओं के यूरोप में आविर्भाव से पहले भारत तथा चीन उनका अन्वेषण कर चुके थे।
इन आरंभिक ब्रिटिश प्राच्यवादियों ने अत्यधिक दिलचस्प कृतियां लिखी। उनमें से एक ‘‘फ्रांसिस ग्लैडविन‘‘ ने ‘‘इंस्टीट्यूट्स ऑफ दी एंपरेर अकबर‘‘ प्रकाशित की जो अबुल फजल की प्रसिद्ध रचना आइन-ए-अकबरी का संक्षिप्त रूप था। 1776 में ‘‘नैथेनियल हैलहेड‘‘ ने तेईस वर्ष की उम्र में प्रसिद्ध ‘‘जेंटू लॉज‘‘ (Gentoo Laws) नामक पुस्तक लिखी। इसके दो वर्ष बाद ‘‘द ग्रामर ऑफ द बंगाल लैंग्वेजिज‘‘ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। चार्ल्स विल्किंस जो 1770 में भारत आए, संस्कृत के प्रति गहरा रूझान रखते थे। उन्होंने इस भाषा में महारत हासिल की जिस कारण वे वारेन हेस्टिंग्स के विशेष कृपापात्र बन गए। जोनाथन डंकन जो भारत में 1772 से 1811 तक रहे, एक जिज्ञासु प्रकृति वाले विद्वान तथा उतने ही योग्य प्रशासक थे।
विलियम जोंस (1746-1794): प्राच्यवादी आंदोलन से संबद्ध महानतम व्यक्तित्व सर विलियम जोंस थे।
बंगाल एशियाटिक सोसायटी: जनवरी, 1784 में वारेन हेस्टिंग्स की सहायता से जोंस ने बंगाल एशियाटिक सोसायटी (एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल) की स्थापना की। सोसायटी के कठोर परिश्रम का पहला परिणाम संस्कृत साहित्य से महत्वपूर्ण अनुवादों के रूप में सामने आया। 1784 में विल्किंसन ने संस्कृत से अंग्रेजी में ने अंग्रेजी में पहले प्रत्यक्ष अनुवाद के रूप में ‘‘भागवदगीता‘‘ पर अपना काम पूरा किया। 1787 में विल्किंसन ने ‘हितोपदेश‘ का अपना अनुवाद प्रस्तुत किया। स्वंय जोंस ने अद्वितीय समर्पण भाव के साथ ‘‘पंडित रामलोचन‘‘ के शिष्यत्व में संस्कृत की पढ़ाई की। उनकी अनुवाद कला की पहली अभिव्यक्ति ‘शकुंतला‘ (1789) के रूप में हुई जिसे अभूतपूर्व ख्याति मिली। उत्साही विद्वान जोंस से शकुंतला के शीघ्र बाद ‘‘गीत गोविंद‘‘ का अनुवाद पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया। जोंस द्वारा किया गया ‘‘मनुस्मृति‘‘ का अनुवाद ‘दी इंस्टीट्यूटस ऑफ हिंदू लॉ‘ उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुआ।
महान खोजें
भारोपीय भाषाएं: फिर भी सर विलियम जोंस ने जो अनुवाद किए उनके कारण नहीं, बल्कि जिस प्रकार पूरे विश्व का ध्यान भारत के प्राचीन इतिहास की ओर आकृष्ट किया उसके कारण उन्हें प्राच्यवादी आंदोलन के एक अग्रदूत के रूप में प्रसिद्धि मिली। 1786 के विमर्श में जोंस ने भारतीय इतिहास के क्षेत्र में अपनी पहली विशिष्ट उपलब्धि की घोषणा की जिसे भारतीय और यूरोपीय भाषाओं के एकसमान उद्भव अर्थात् भारोपीय (Indo European) भाषा परिवार के नाम से जाना गया। तदनंतर उन्होंने यह कहकर विद्वजनों के संसार को चकित-स्तब्ध कर दिया कि संस्कृत और प्राचीन फारसी, ग्रीक, लैटिन तथा यूरोप की आधुनिक भाषाओं का उद्भव एक ही स्रोत से हुआ है।
आर्य नस्ल: भाषाओं के ‘भारोपीय परिवार‘ के रूप में विदित भाषा परिवार के लिए एक सामान्य भाषाशास्त्रीय उत्पत्ति के सिद्धांत के बाद जोन्स ने। उसे बोलने वाले लोग निश्चित रूप से एक ही नाभिकीय प्रजाति से उत्पन्न हुए होंगे जिसे हम आर्य (वाइरोस, भारोपीय) के नाम से जानते हैं।
प्राचीन ग्रंथों और दस्तावेजों का अध्ययनः कोलब्रूक और मैक्समूलर: एशियाटिक सोसायटी व्यस्थित शोध-अनुसंधान का केंद्र बन गई और इसकी शोध पत्रिका में भारत के प्राचीन इतिहास पर सैकड़ों लेख प्रकाशित हुए। भारतीय इतिहास तथा संस्कृति पर महत्वपूर्ण ग्रंथों के अनुवाद और आलोचनात्मक संस्करण ‘बिब्लियोथेका इंडिका‘ शृंखला में प्रकाशित किए गए।
महत्व की दृष्टि से विलियम जोंस के बाद जिस भारतविद ने सर्वाधिक ख्याति अर्जित की वे एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने प्राच्यशास्त्रियों के संस्कृत उन्माद का उपहास किया था और उनकी आरंभिक कृतियों को ‘बेवकूफी का भंडार‘ कहा था। गणितज्ञ हेनरी टी. कोलब्रूक अठारह वर्ष की उम्र में भारत आए। 1794 तक कोलक के कार्य को इतनी व्यापक पहचान मिल गई थी कि उन्हें जोन्स का स्वाभाविक उत्तराधिकारी चुन लिया गया। 1800 में गवर्नर-जनरल वेलेस्ली ने उन्हें फोट विलियम कॉलेज में संस्कृत के प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया। यहीं पर ‘कोलबूक‘ ने अपना प्रसिद्ध ‘‘एस्से ऑन दी वेदाज ऑर दी सैक्रेड राइटिंग्स ऑफ दी हिंदूज‘‘ (1805) लिखा। उनकी कृतियों में प्राच्य निरंकशता की बजाय जनजातीय गणतंत्रों की झलक दिखी। लगभग उसी समय जब कोलब्रूक ने विश्व के समक्ष भारतीय साहित्य की प्राचीनतम रचना ऋग्वेद को उद्घाटित किया।
फ्रांसीसी: भारत की यात्रा कर रहे फ्रांसीसी विद्वान एक्वेटिल ड्यूपेरों ने दारा शिकोह द्वारा फारसी में अनूदित उपनिषदों का अनुवाद किया (1801-02)। जिसके माध्यम से शिलर और शॉपेनहावर हिंदू दर्शन की उस कृति से अवगत हुए। शॉपेनहावर ने टिप्पणी की कि ‘यह सबसे गहन दर्शन है जिसे उन्होंने पढ़ा है।‘ फ्रांसीसी प्राच्यवादी ‘यूजीन बर्नाउफ‘ ने ऋग्वेद और जेंद अवेस्ता (प्राचीन फारसी भाषा में रचित पारसी धर्म के पवित्र ग्रंथ) की भाषाओं के मध्य संबंध पर प्रकाश डाला।
जर्मन: तीन जर्मन विद्वानों-बॉय, ग्रिम और हम्बोल्ट ने सभी आर्य भाषाओं के मध्य गहरे संबंध स्थापित किए और यह दर्शाया कि इनका सबसे पुरातन रूप ऋग्वेद की भाषा में संरक्षित है। ऑक्सफोर्ड में बसे जर्मन प्राच्यवादी और भाषाशास्त्र के विद्वान “मैक्समूलर‘‘ (1823-1900) ने बिना किसी शिक्षक की सहायता से संस्कृत में महारत हासिल की। उनकी पुस्तक ‘‘हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर‘‘ (1859) ने कालक्रम के अनुसार उस समय तक ज्ञात सभी संस्कृत ग्रंथों की व्यापक रूपरेखा प्रस्तुत की। पुराणों में उनकी रुचि, जिस पर उन्होंने उत्कृष्ट लेख लिखे, उनकी रचना ‘‘द सैक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट‘‘ प्रकाशित हुई (1879-1904)।
‘यूजीन बर्नाउफ‘ की कृति ‘‘एस्साइ सुर ले पालि‘‘ (1826) अर्थात् बौद्ध दस्तावेजों की भाषा ने पहली बार एक चिंतन प्रणाली के रूप में बौद्ध धर्म से पश्चिमी संसार को अवगत कराया। फॉसबोल और जैकोबी ने बौद्ध और जैन ग्रंथों के प्रति वही दृष्टिकोण अपनाया जो ब्राह्मण ग्रंथों के प्रति बौद्ध धर्म ने अपनाया था। ओल्डेनबर्ग का लेख कई वर्षों तक इस क्षेत्र में चर्चा के केंद्र में रहा। राइस डेविड्स ने अपना पूरा जीवन बौद्ध साहित्य की व्याख्या में बिता दिया और पालि ग्रंथ ‘सैक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट‘ के दृष्टांतों से बहुत कुछ सीखा।
पुराने अभिलेखों, स्मारकों और सिक्कों की खोज तथा अध्ययन: प्रिंसेप और कनिंघम: फ्रांस के शैंपोलियों ने 1822 में प्रतीकाक्षरों (Hieroglyphics) को पढ़ने की कला विकसित की, रोसेट्टा प्रस्तराभिलेख का अध्ययन किया, मिस्रविद्या या ‘इजिप्टोलॉजी‘ का सूत्रपात कियाय ‘अंग्रेज रॉलिंसन‘ ने 1851 में कीलाक्षर (Cuneiform) पढ़ा; ‘जर्मन श्लीमेन‘ और अंग्रेज लेखक ‘आर्थर इवान्स‘ ने क्रमशः ट्रॉय और मिनोवा में खुदाई की और ‘जेम्स प्रिंसेप‘ ने जिस मनोयोग से ब्राह्मी लिपि को पढ़ा तथा ‘कनिंघम‘ ने भारतीय पुरातात्विक स्थलों का उत्खनन किया वह उन्नीसवीं सदी के इसी वैज्ञानिक और ऐतिहासिक तेवर का एक और जीवंत दृष्टांत था।
जेम्स प्रिंसेप (1799-1840): 1781 में चार्ल्स विल्किंसन ने बंगाल के पालों के इतिहास का पुनर्निर्माण करने के लिए अभिलेखों का प्रयोग आरंभ किया। 1785 में उन्होंने गया के कुछ अभिलेखों के गुप्त ब्राह्मी अक्षरों की पहचान की जिनसे मौखरियों के इतिहास का पता चला जिन्होंने ईसा के बाद छठी शताब्दी के दौरान गया पर शासन किया। किंतु जिन अभिलेखों ने विद्वानों के लिए सबसे अधिक उलझन पैदा की वे प्राचीन ब्राह्मी में लिखे गए अशोक के अभिलेख थे। इन अभिलेखों पर अनुमानों का सिलसिला लगभग पचास वर्षों तक जारी रहा जब अशोक की ब्राह्मी को जेम्स प्रिंसेप के रूप में इसका शैंपेलियो मिला। प्रिंसेप की मेहनत 1834 में रंग लाई जब अशोक के अभिलेखों की प्राचीन ब्राह्मी वर्णमाझी वर्णमाला के रहस्य की कुंजी अकस्मात उनके मस्तिष्क में उत्पन्न हो गई। न केवल किवंदतियों में जीवित बौद्ध सम्राट एतिहासिक अशोक बन गया बल्कि भारत में बौद्ध धर्म का इतिहास, जो पालि साहित्य में छुपा हुआ था, ऐतिहासिक शोध और पड़ताल हेतु प्रकाश में आ गया। अपने उदाहरण से प्रिंसेप ने अनुसंधान की जो प्रणाली विकसित की वह ‘इंडियन एटाक्विजटीज‘ (1858) में देखी जा सकती है जो उनके ऐतिहासिक, पुरालेखीय और मौद्रिक निबंधों का संकलन है, जो उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ।
अलेक्जेंडर कनिंघम (1814-1893): महान पथप्रदर्शक के देहावसान के बाद उनके द्वारा आरंभ किए गए कार्य को पूरा करने का दायित्व अलेक्जेंडर कनिंघम के कंधों पर आ गया जिन्हें ‘भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का जनक‘ कहना उपयुक्त प्रतीत होता है। 1837 में कनिंघम ने सारनाथ में उत्खनन आरंभ किया जहां बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था आर जहां एक विश्वव्यापी ऐतिहासिक शक्ति के रूप में बौद्ध धर्म ने मूर्त रूप ग्रहण करना आरंभ किया था। 185 उन्हान सांची की खुदाई की, जो प्राचीन भारत के कुछ सर्वाधिक प्राचीन भवनों का स्थल था। 1870 से 1885 के मध्य कानघम ने तक्षशिला सहित अनेक स्थलों पर भग्नावशेषों का पुरातत्वीय उत्खनन किया। कई वर्षों की मेहनत के बाद कनिंघम ने भारतीय मुद्राओं का बडे पैमाने पर संग्रह किया। इनमें से चुनिंदा मुद्राएं ब्रिटिश संग्रहालय को विक्रय कर दी गई। 1870 में कनिंघम को पुरातत्व विभाग का निदेशक नियुक्त किया गया। 1901 में लॉर्ड कर्जन द्वारा रूचि दर्शाए जाने के कारण इस विभाग की गतिविधियों में बहुत तेजी आई।
भारतीय पुरातत्व के संस्थापक ने इस विषय पर अनेक पुस्तकें लिखी। इनमें ‘‘कॉप्स इंस्क्रिप्शनम इंडीकेरम‘‘, ‘‘इंस्क्रिप्शंस ऑफ अशोक‘‘, ‘‘कॉयन्स ऑफ इंडिया‘‘, ‘‘बुक ऑफ इंडियन एराज‘‘, ‘‘एशिएंट ज्यॉग्राफी ऑफ इंडिया‘‘, ‘‘भिलसा टोप्स‘‘, ‘‘स्तूप ऑफ भारहुत एण्ड लद्दाख‘‘ पर एक रचना शामिल हैं। कनिंघम ने अपने विस्तृत दौरों के आधार पर मूल्यवान पुरातात्विक सर्वेक्षण रिपोर्ट भी तैयार की। इन्हीं में से एक रिपोर्ट में पहली बार हड़प्पा से प्राप्त एक महर से संबंधित विवरण प्रकाशित किया गया। एक जोसीले व जिज्ञासु संकलनकर्ता ‘मैकेंजी‘ ने केवल दक्षिण भारत से 8000 अभिलेखों का संग्रह किया।
Recent Posts
मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi
malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…
कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए
राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…
हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained
hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…
तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second
Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…
चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi
chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…
भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi
first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…