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तपस्या की परिभाषा क्या है | तप या तपस्या किसे कहते है अर्थ मतलब बताइए Asceticism in hindi meaning

Asceticism in hindi meaning and definition तपस्या की परिभाषा क्या है | तप या तपस्या किसे कहते है अर्थ मतलब बताइए ?

तप या तपस्या (Asceticism) : अत्यधिक स्वयं नियंत्रण या त्याग या एकांकी जीवन चर्या । अर्थात जब इन्सान खुद पर नियंत्रण करके अकेले जीवन यापन करता है तो उसे तप अथवा तपस्या कहते है | वह अपना सब कुछ छोड़ देता है अर्थात सामाजिक या संसार के मोह माया से ऊपर उठ जाता है |

हिंदू धर्म एवं विकास (Hinduism and Development)
जैसे कि आप जानते हैं इस इकाई में हम धर्म और आर्थिक प्रणाली के विभिन्न पहलुओं से आपका परिचय करवा रहे हैं । अनुभाग 10.4 में कार्ल मार्क्स और मैक्स वेबर के विचार आपके सामने रखे गए हैं। कार्ल मार्क्स ने धर्म को अलगाव से जोड़ा जबकि वेबर ने कहा कि प्रोटेस्टैंट पंथी के विचारों ने पूँजीवाद को पनपने का अवसर दिया । भारत और हिंदू धर्म के विषय में दोनों विद्वानों की रुचि रही । मार्क्स के अनुसार हिंदू धर्म एक ठहरे हुए सामाजिक संगठन का परिणाम था, जबकि वेबर के अनुसार अन्य पूर्वी धर्मों की तरह धर्म में उपयुक्त आर्थिक मनोवृत्ति नहीं थी, जिससे पूँजीवाद पनप सके । इस भाग में हम उनके विचारों पर ध्यान देंगे, और कुछ प्रतिक्रियाओं के विषय में भी पढ़ेंगे।

 हिन्दू धर्म पर मार्क्स के विचार (Marx on Hinduism)
मार्क्स को भारत के विषय में बहुत ही सीमित जानकारी उपलब्ध थी । यह जानकारी उसे ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा लिखित प्रवासवर्णनों, डायरियों, रिपोर्टों द्वारा मिली । इसके आधार पर उसने हिन्दू धर्म को प्रकृति की उपासना और भारत को छोटे आत्मनिर्भर समुदायों के संगठन के रूप में देखा। मार्क्स इस बात से आकृष्ट था कि एक और हिन्दू धर्म अत्यंत विषयी था और दूसरी और अत्यंत तापसिक। मार्क्स के अनुसार यह अतिवाद एक ठहरी हुई सामाजिक व्यवस्था, जिसमें भूमि पर ग्रामीण गणतंत्र का स्वामित्व था, का नैसर्गिक परिणाम है। भारत की सामाजिक व्यवस्था व्यक्ति को बाह्य शक्तियों का शिकार बनाती है, जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति की आराधना/पूजा की जाती है। मार्क्स मानता था कि (ग्रामीण गणतंत्रों ने भारतवासियों को अंधविश्वास का शिकार बनाया है। उसके अनुसार उपनिवेशवाद के उदय से ग्रामीण गणतंत्रों के साथ-साथ हिंदू धर्म का पतन भी हो सकता है।

आप इस बात से भी परिचित हो चुके हैं कि मार्क्स की जानकारी एकतरफी और सीमित थी। इस विषय पर काफी अध्ययन हो चुका है, जिससे पता चलता है कि भारतीय समाज ठहरा हुआ नहीं था, और न ही ‘‘छोटे समुदाय‘‘ की भांति था। ग्राम कभी आत्मनिर्भर नहीं थे, और ग्रामवासियों को अनेक कार्यों के लिये ग्राम से बाहर जाना पड़ता था, जैसे कि विवाह संबंध, बाजार संबंधित कार्य, तीर्थयात्राएँ। रिश्तेदारी, व्यवसाय और धर्म के संबंध ग्राम की सीमाओं को पार करते थे। मार्क्स की भविष्यवाणी इस बात से भी गलत साबित होती है कि हिंदू धर्म सदियों से इस महाद्वीप पर जीवित रहा है हालांकि कुछ विद्वानों के अनुसार इसका रूप निरंतर बदलता जा रहा है। यह भी कहा गया है कि मार्क्स ने हिन्दू धर्म को शोषण और नियंत्रण के माध्यम के रूप में नहीं देखा, जैसे उसने पश्चात्य धर्मों को देखा।

‘‘हिन्दू धर्म एवं पूंजीवाद‘‘ पर वेबर के विचार (Weber on ‘Hindusim and Capitalism)
उप-अनुभाग 10.4.2 में हमने बताया था कि किस प्रकार वेबर ने तपस्वी प्रोटेस्टैंटवाद द्वारा दिये गये विचारों को पूँजीवाद के उदय और विकास से जोड़ा है । इस बात को आगे बढ़ाते हुए वेबर ने कहा कि पूर्वी धर्मों में जिनमें हिंदू धर्म एक है, पूँजीवाद को प्रोत्साहित करने वाली विचारधारा का अभाव है । हिंदू धर्म संबंधित वेबर के विचार भारतीय समाज में प्रचलित ‘‘सत्ता व्यवस्था‘‘ और ‘जाति व्यवस्था‘ एवं ‘कर्म अवधारणा‘ से उत्पन्न आर्थिक मनोवृत्ति पर आधारित हैं।

बॉक्स 10.02
वेबर मानता था कि भारतीय समाज की सत्ता व्यवस्था में ब्राह्मणों का आधिपत्य था। केवल ब्राह्मण ही जिन का सामाजिक स्थान सबसे ऊँचा था, वेद पढ़ सकते थे। समाज के वर्गों में इसी वर्ग का सबसे ऊँचा स्थान था। समाज धर्म एवं व्यवसाय पर आधारित वर्गों में विभाजित था, वर्गों की प्रतिष्ठा ब्राह्मण वर्ग से उनकी निकटता अथवा दूरी पर आधारित थी। धर्म ने ब्राह्मण वर्ग को समाज पर आधिपत्य प्रदान किया था, इसलिए हिन्दू धर्म के व्यावहारिक पक्ष पर इस वर्ग का प्रभाव रहा । ब्राह्मणों द्वारा प्रभावित व्यवहार में रहस्यवादी और जादुई तत्व शामिल थे। इनमें प्रमुख जादुई विचार ‘‘शुद्धता‘‘ और अशुद्धता के थे। रहस्यवाद ने धर्म को मोक्ष एवं तपस्या की ओर झुकाया। रहस्यवाद और जादू-टोने की मदद से ब्राह्मणों ने आम जनता को अपने वश में किया।

‘‘कर्म‘‘ एवं ‘जाति व्यवस्था‘ ने इस सत्ता व्यवस्था को और अधिक मजबूत बनाया । जाति व्यवस्था असंगत थी, अतः भारत में पूँजीवाद पनप न सका । जैसे सबसे पहले, जाति व्यवस्था के कारण लाखों श्रमिक अपने उच्च जाति के स्वामियों के सेवक बने रहे। दूसरे जाति व्यवस्था के अन्तर्गत किसी एक वर्ग को ऊँचा स्थान मिलता था, जबकि अन्य वर्गों पर तरह-तरह की असुविधाएँ लादी जाती थी । तीसरे, समाज के इस व्यावसायिक वर्गीकरण के पीछे धार्मिक छूट थी, जिससे जाति व्यवस्था और अधिक शक्तिशाली बन गई। चैथे, जाति व्यवस्था जन्म पर आधारित थी, अतः व्यवसाय भी जन्म से जुड़े हुए थे। जब कुछ वर्ग विशिष्ट व्यवसायों पर एकाधिकार प्राप्त करते हैं तब व्यावसायिक विभाजन स्थिर होता है । वेबर के अनुसार कर्म सिद्धांत का अभिप्राय यह है कि इस जीवन में किये गए कर्म व्यक्ति के अगले जीवन को प्रभावित करते हैं । इस जन्म में अपना कर्म करने का परिणाम यह होगा कि अगले जन्म में व्यक्ति की सामाजिक परिस्थिति बेहतर होगी। यदि व्यक्ति अपना जाति धर्म ईमानदारी से निभाये तो अगले जन्म में वह उससे ऊँची जाति में पैदा होगा। कर्म-सिद्धांत का सामाजिक असर यह होता है कि व्यक्ति इस जन्म में बेहतर व्यवसाय के लिए प्रयास नहीं करता है। वह अपने जाति धर्म को निभाने में व्यस्त रहता है।

इस प्रकार भारत की सत्ता व्यवस्था, जाति व्यवस्था और कर्म सिद्धांत एक ऐसी मनोवृत्ति तैयार करते हैं जिससे पूँजीवाद का पनपना कठिन हो जाता है।

कार्यकलाप 2
आप अपने नगर/ शहर में यह पता करने का प्रयास करें कि किस धार्मिक समुदाय या जाति समुदाय का वाणिज्य/व्यापार पर अत्यधिक प्रभाव है। यह भी बताए कि उनका किस व्यापार पर कैसा, कितना प्रभाव या कब्जा है?

 वेबर के विचारों का मूल्यांकन (An Evaluation of Weber)
हिंदू धर्म के विषय में वेबर के विचारों का अनेक विद्वानों ने खंडन किया है। राव (1969) वेबर के विश्लेषण में अनेक कमियों की ओर इशारा करता हैः पहले, उसकी अध्ययन की इकाई गलत थी। जिस प्रकार उसने प्रोटेस्टैंट पंथों का अध्ययन किया, उसी प्रकार उसे किसी विशिष्ट हिंदू पंथ पर ध्यान देकर तुलना करनी चाहिये थी। दूसरे वेबर का यह मानना गलत था कि हिंदू धर्म और ब्राह्मणवाद एक हैं, तीसरे कर्म सिद्धांत के विषय में वेबर के विचार अधूरे हैं, क्योंकि उसने अन्य विचारधाराओं की अपेक्षा सिर्फ एक ही विचारधारा पर ध्यान किया। चैथे, धार्मिक ग्रंथों मात्र पर ध्यान देने से यह आभास होता है कि विचार स्थिर और अपरिवर्तनीय है, जोकि गलत है।

स्वाधीन भारत के 40 साल की विकास यात्रा वेबर के कई विचारों को गलत साबित करती है। विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि संयुक्त परिवार और जाति प्रथा जैसी पारंपरिक व्यवस्थाओं ने अपने आप को विकास के अनुकूल बनाया है। जाति संस्थाओं का शिक्षा क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पश्चिम भारत में कपड़ा उद्योग के विकास में भी जाति संस्थाओं का हाथ रहा है। मद्रास में संयुक्त परिवार ने अपने आप को नये औद्योगिक क्षेत्र के अनुकूल बनाया है (सिंगर 1972)। 1950 और 1960 के दशकों में किये गये अध्ययन से पता चलता है कि भारत के किसान कृषि के नये तरीकों का खासतौर पर ‘‘हरित क्रांति‘‘ का स्वागत करते है। वेबर ने गलत कहा कि हिंदू धर्म समरूप अखंड धर्म है। इस गलती के परिणामस्वरूप उसने एक व्यापक हिंदू विचारधारा की बात की, जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। हिंदू धर्म में विविधता हैं, इसमें अनेक विचारधाराएँ और संस्कृतियाँ शामिल हैं। हिंदू धर्म से ही अनेक पंथ पैदा हुए हैं जिनकी तुलना प्रोटेस्टैंटवाद से की जा सकती है। 12वीं शताब्दी में कर्नाटक का ‘‘वीर शैव‘‘ या ‘‘लिंगायत” पंथ छुआछूत की प्रथा के विरूद्ध था, श्रम को स्वर्ग मानता था और ठेकेदारी/उद्योग में सक्रीय है।

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