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वास्तुकला किसे कहते हैं , वास्तुकला की परिभाषा क्या होती है architecture in hindi meaning definition
architecture in hindi meaning definition वास्तुकला किसे कहते हैं , वास्तुकला की परिभाषा क्या होती है ?
परिभाषा : किसी विशेष समय अंतराल में निर्मित कोई निर्मित बिल्डिंग आदि के बनने की प्रक्रिया आदि को वास्तुकला कहा जाता है |
परिचय
‘वास्तुकला‘ यानी आर्किटेक्चर शब्द, लैटिन शब्द ‘टैक्टन‘ से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ निर्माता (बिल्डर) होता है। अतः, जब से आदिकालीन मनुष्यों ने अपने लिए आश्रय का निर्माण करना प्रारंभ किया वहीं से वास्तुकला विज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ। वहीं, दूसरी ओर मूर्तिकला (स्कल्प्चर) शब्द प्रोटो-इंडो-यूरोपीय (पी.आई.ई.) मूल ‘केल‘ से लिया गया है, जिसका अर्थ ‘काटना‘ या ‘फाड़ना‘ होता है। मूर्तियां, कला की लघु रचनाएं होती हैं। ये या तो हस्तनिर्मित होती हैं या उपकरणों से बनाई जाती हैं और अभियांत्रिकी व मापन की तुलना में सौंदर्यशास्त्र से अधिक संबंध रखती हैं।
वास्तुकला और मूर्तिकला के बीच अंतर
अंतर बिंदु वास्तुकला मूर्तिकला
आकार व
विस्तार वास्तुकला भवनों के डिजाइन और निर्माण को संदर्भित करती है। मूर्तियां कला की अपेक्षाकृत लघु त्रि-आयामी रचनाएं होती हैं।
प्रयुक्त
सामग्री वास्तुकला में सामान्यतः पत्थर, लकड़ी, कांच, धातु, रेत आदि जैसी विभिन्न प्रकार की सामग्रियों के मिश्रण का उपयोग किया जाता है जबकि एक प्रकार की मूर्तियां सामान्यतः एक प्रकार की सामग्री से ही बनी होती हैं।
सिद्धांत वास्तुकला में अभियांत्रिकी और अभियांत्रिकी गणित के अध्ययन का समावेश होता है। इसके लिए विस्तृत और सटीक मापन की आवश्यकता होती है। मूर्तिकला में रचनात्मकता और कल्पना का समावेश होता है और यह सटीक मापन पर बहुत अधिक निर्भर नहीं होती है।
उदाहरणः ताजमहल, लाल किला आदि। नटराज, नर्तकी की कांस्य मूर्ति आदि।
भारतीय वास्तुकला
भारतीय कला और वास्तुकला की कहानी विकास की कहानी है। प्राचीन हड़प्पा घाटी सभ्यता से लेकर ब्रिटिश शासन तक, भवनों और मूर्तियों की अपनी स्वयं की एक कहानी है। महान साम्राज्यों का उद्भव और पतन, विदेशी ‘शासकों का आक्रमण, जो धीरे-धीरे देशी बन गए, विभिन्न संस्कृतियों और ‘शैलियों का संगम आदि भारतीय वास्तुकला और मूर्तिकला के विकास में परिलक्षित होते हैं।
भारतीय वास्तुकला का वर्गीकरण
प्राचीन भारत
हड़प्पाई कला मौर्यकालीन कला मौर्योत्तर कला गुप्तकालीन कला दक्षिण भारतीय कला
मध्यकालीन भारत आधुनिक भारत
दिल्ली सल्तनत मुगल काल इंडो-गॉथिक शैली नव-रोमन शैली
हड़प्पाई कला और वास्तुकला
ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दी के द्वितीय अर्द्धाश में सिंधु नदी के तट पर एक समृद्ध सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ जो आगे चलकर पश्चिम भारत के विशाल भाग में फैल गयी। जिसे हडप्पा सभ्यता या सिंधु घाटी सभ्यता के रूप में जाना जाता है। जीवंत कल्पना और कलात्मक संवेदनशीलता इस प्राचीन सभ्यता की विशिष्टता थी जो उत्खनन स्थलों पर पायी गई अनेकानेक मूर्तियों, मोहरों, मृद्भाण्डों, आभूषणों से प्रकट होती है। इस सभ्यता के दो प्रमुख स्थल- हडप्पा और मोहनजोदड़ो, नगरीय-नगर नियोजन के आरंभिक और सर्वोत्तम उदाहरणों में से एक हैं। सड़कों का नियोजित नेटवर्क, घर और जल निकास प्रणाली इस युग के दौरान विकसित नियोजन और अभियांत्रिकी कौशल का प्रमाण है।
सिंधु घाटी सभ्यता के कुछ महत्वपूर्ण स्थल और उनकी पुरातात्विक प्राप्तियां:
ऽ वर्तमान पाकिस्तान में हड़प्पा- विशाल चबूतरों वाले छह अन्नागारों की 2 कतारें, लिंग और योनि के पाषाण प्रतीक, मातृदेवी की मूर्ति, लकड़ी की ओखली में गेहूं और जौ, पासा, ताम्र तुला और दर्पण। इसके अतिरिक्त, कांस्य धातु की बनी हिरण का पीछा करते हुए कुत्ते की मूर्ति, पाषाण की नग्न नृत्यांगना और लाल बालुआ पत्थर से बना पुरुष धड़ खुदाई में प्राप्त किए गए हैं।
ऽ वर्तमान पाकिस्तान में मोहनजोदड़ो- वृहत् स्नानागार, वृहत् अन्नागार, दाह संस्कार पश्चात शवाधान, दाढ़ी वाले पुजारी की मूर्ति।
ऽ गुजरात में धौलावीरा – विशाल जलाशय, अद्वितीय जलदोहन प्रणाली, स्टेडियम, बांध और तटबंध, विज्ञापन पट्टिका की भांति 10 बड़े आकार के संकेताक्षरों वाला अभिलेख।
ऽ गुजरात में लोथल (सिंधु घाटी सभ्यता का मैनचेस्टर) – गोदी, दोहरा शवाधान, धान की भूसी, अग्नि वेदिकाएं, चित्रित भाण्ड, आधुनिक शतरंज, घोड़े और जहाज की टेराकोटा आकृति, 45, 90 और 180 डिग्री कोण मापने वाले उपकरण।
ऽ हरियाणा में राखीगढ़ी।
ऽ पंजाब में रोपड़, – अंडाकार गड्ढे में मानव शवाधान के साथ दफन कुत्ता।
ऽ राजस्थान में बालाथल और कालीबंगा – चूड़ी कारखाना, खिलौना गाड़ियां, ऊंट की हड्डियां, अलंकृत ईंटें, गढ़ी और निचला नगर।
ऽ गुजरात में सुरकोटदा – घोड़े की हड्डियों का पहला वास्तविक अवशेष।
ऽ हरियाणा में बनावली – खिलौना हल, जौ, अंडाकार आकार की बस्ती, अरीय गलियों, एकमात्र नगरा
प्रदेश में आलमगीरपुर, नांद (ट्रो) पर कपड़े की छाप ।
हड़प्पा सभ्यता की वास्तुकला
हडप्पा और मोहनजोदड़ो के अवशेष नगर नियोजन की उल्लेखनीय समझ प्रकट करते हैं। नगर आयताकार ग्रिड पैटर्न पर आधारित थे। सड़कें उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम दिशा में जाती थीं और एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। विशाल सड़कें नगर को अनेक खण्डों में विभाजित करती थीं जबकि छोटी सड़कों का उपयोग अलग-अलग घरों और (अपार्टमेंटों) बहुमंजिला इमारतों को जोड़ने के लिए किया गया था।
उत्खनन स्थलों से मुख्य रूप से तीन प्रकार के भवन पाए गए हैं – निवास गृह, सार्वजनिक भवन और सार्वजनिक स्नानागार। निर्माण के लिए हड़प्पाई लोग मानकीकृत आयामों वाली मिट्टी की पक्की ईंटों का उपयोग करते थे। भली-भांति पकी हुई ईंटों की कई परतें बिछायी जाती थीं और इसे जिप्सम के गारे का उपयोग करके एक साथ जोड़ा जाता था।
नगर दो भागों में विभाजित था-गढ़ तथा निचला नगर। पश्चिमी भाग में ऊंचाई पर स्थित गढ़ी का उपयोग विशाल आयामों वाले भवनों, जैसे-अन्नागार, प्रशासनिक भवन, स्तम्भों वाला हॉल और आंगन आदि के लिए किया जाता था। गढ़ी में स्थित कुछ भवन संभवतः ‘शासकों और अभिजात वर्गों के आवास थे। अन्नागार बुद्धिमत्ता के साथ सामरिक वायुसंचार वाहिकाओं और ऊंचे चबूतरों के साथ डिजाइन किए गए थे। इससे अनाज के भंडारण में मदद के साथ ही कीटों से उनकी रक्षा करने में भी सहायता मिलती थी।
हड़प्पाई नगरों की एक प्रमुख विशेषता सार्वजनिक स्नानागारों का प्रचलन था। इससे उनकी संस्कृति में कर्मकांडीय पवित्रता के महत्व का संकेत मिलता है। इन स्नानागारों के चारों ओर दीर्घाओं और कक्षों का समूह था। सार्वजनिक स्नानागारों का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण मोहनजोदड़ो के उत्खनित अवशेषों में ‘वृहत स्नानागार‘ है। इस ‘वृहत् स्नानागार‘ में कोई दरार या रिसाव नहीं है। यह हड़प्पा सभ्यता की अभियांत्रिकी कुशाग्रता का परिचायक है।
नगर के निचले भाग में, एक-कक्षीय छोटे भवन पाए गए हैं। इनका उपयोग संभवतः श्रमिक वर्ग के लोगों द्वारा आवास रूप में किया जाता था। कुछ घरों में सीढ़ियां भी थीं जिससे संकेत मिलता है कि ये संभवतः दो मंजिला भवन थे। अधिकांश भवनों में निजी कुएं और स्नानगृह थे और वायुसंचार की उचित व्यवस्था थी।
हड़प्पा सभ्यता की सबसे प्रमुख विशेषता उन्नत जल निकास व्यवस्था थी। प्रत्येक घर से निकलने वाली छोटी नालियां मुख्य सड़क के साथ-साथ चलने वाली बड़ी नालियों से जुड़ी थीं। नियमित साफ-सफाई और रखरखाव के लिए नालिया को शिथिल रूप से ढंका गया था। नियमित दूरियों पर मलकुण्ड (सिसपिट) बनाएं गए थे। व्यक्तिगत और सार्वजनिक दोनों प्रकार की स्वच्छता पर दिया गया बल काफी प्रभावशाली है।
लोथल में गोदी (पोतगाह) के अवशेष मिले हैं।
हड़प्पाई सभ्यता की मूर्तियां
हड़प्पाई मूर्तिकार त्रि-आयामी कृतियों से व्यवहार करने में बहुत कुशल थे। सबसे अधिक मोहरें, कांस्य मूर्तियां और मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं।
मोहरेः
पुरातत्वविदों को सभी उत्खनन स्थलों से अलग-अलग आकार व प्रकार की कई मुहरें मिली हैं। जहां अधिकांश मुहरें वर्गाकार हैं, त्रिकोणीय, कहीं आयताकार हैं और वृत्ताकार मोहरों के भी उपयोग के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। यद्यपि मोहरें बनाने के लिए नदी तल में पाए जाने वाले मुलायम पत्थर स्टेटाइट का सर्वाधिक उपयोग किया जाता था, हालांकि अगेट, चर्ट, तांबा, काचाभ (फायंस) और टेराकोटा की भी मोहरें मिली हैं। तांबे, सोने और हाथी दांत की मोहरों के भी कुछ उदाहरण मिले हैं।
अधिकांश मोहरों पर चित्राक्षर लिपि (पिक्टोग्राफिक स्क्रिप्ट) में मुद्रालेख भी है। इन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। मुद्रालेख दाईं से बाईं ओर लिखे गए हैं। इन पर पशुओं की सामान्यतः पांच आकृतियां भी हैं। इन्हें सतहों पर उत्कीर्णित किया गया है। समान्य पशु रूपांकन, कूबड़दार बैल, गैंडा, बाघ, हाथी, भैंस, बायसन, बकरी आदि के हैं। हालांकि, किसी भी मुहर पर गाय का कोई साक्ष्य नहीं मिला है। सामान्यतः, मोहरों पर एक ओर पशु या मानव
आकृति है और दूसरी ओर मुद्रालेख है या दोनों ओर मुद्रालेख है। साथ ही कुछ मोहरों पर तीसरी ओर भी मुद्रालेख हैं।
मोहरों का मुख्य रूप से वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया जाता था। एक छेद वाली कुछ मोहरें शवों पर भी पायी गयी हैं। इससे पता चलता है कि संभवतः इनका प्रयोग ताबीज के रूप में किया जाता था। संभवतः इनके धारण द्वारा पहचान के रूप में इनका प्रयोग किया जाता रहा होगा। कुछ मोहरों पर गणितीय आकृतियां भी मिली हैं, संभवतः इनका उपयोग शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए भी किया जाता होगा।
उदाहरणः पशुपति की मोहर, यूनीकॉर्न वाली मोहर।
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