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व्यवहारिक भू-आकारिकी के महत्व को समझाइए , की प्रकृति का वर्णन करें , आपदा में अनुप्रयोग APPLIED GEOMORPHOLOGY
APPLIED GEOMORPHOLOGY in hindi व्यवहारिक भू-आकारिकी के महत्व को समझाइए , की प्रकृति का वर्णन करें , आपदा में अनुप्रयोग ?
व्यवहारिक भू-आकारिकी
(APPLIED GEOMORPHOLOGY)
भू-आकति विज्ञान पृथ्वी पर के विभिन्न भू-आकृतियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तत करता है। ये भू-आकृतियाँ इतनी विविध और व्यापक है कि यदि सूक्ष्म दृष्टि से इनका अध्ययन किया जाये, तो मनुष्य के तमाम रचनात्मक कार्यों पर इनका प्रभाव स्पष्ट हो जायेगा। थार्नबरी कहते हैं। ‘‘इंजीनियरिंग के विविध पहलुओं और भूगर्भिक कार्यों में संलग्न किसी भी व्यक्ति का भूआकृतियों से सामना होना एक सामान्य बात है।” यद्यपि कुछ लोग इस बात से इन्कार करते हैं, और भूगर्भिक अध्ययन को विशेष महत्व देते हैं। यह शायद इसलिए कि कभी-कभी किसी प्रमुख समस्या के समाधान भूआकृति सिद्धान्तों का प्रयोग असफल हो जाता है। लेकिन मात्र असफलता के आधार पर सम्पूर्ण भू-आकृति सिद्धान्तों को तर्कहीन कहना बहुत बड़ी गलती होगी। क्योंकि असफलता का एकमात्र कारण भू-आकति सिद्धान्तों की अव्यावहारिकता ही नहीं हो सकती। बल्कि ज्यादा गुंजाइश इस बात की है कि इन समस्या विशेष भू-आकृति सिद्धान्तों का प्रयोग करने वाले लोग उसके सिद्धान्तों को ठीक तरह से समझ ही न पाए हो।
अतः भू-आकृति विज्ञान के व्यावहारिक पक्ष पर बात करते समय यह ध्यान में रखना ही होगा कि भूआकृतिक सिद्धान्तों का प्रतिफल तभी मिल सकता है जब विभिन्न भू-आकृतियों का सम्यक ज्ञान हो। इस दृष्टि से भू-आकृति विज्ञान को भूगर्भशास्त्र से अलग करके नहीं देखा जा सकता है और साथ ही उन विभिन्न विज्ञानों का अर्तसंबंध भी नहीं भुलाया जा सकता, जिनके तहत किसी भू-आकृति का क्रमिक विकास होता है।
सामान्यतया प्रत्येक विज्ञान के अध्ययन के दो पक्ष होते हैं –
(i) क्रमबद्ध एवं सैद्धान्तिक पक्ष (Systematic and theoretical aspects) तथा (ii) व्यावहारिक पक्ष। इस दृष्टिकोण से भू-आकृति विज्ञान का पर्याप्त महत्व क्योंकि यह विज्ञान धरातलीय आकृतियों की उत्पत्ति एवं विकास का अध्ययन करता है। वर्तमान समय में मानव समुदाय के सामने अधिकांश समस्यायें स्थानीय स्तर से लेकर प्रादेशिक एवं भूमण्डलीय स्तर पर पर्यावरण अवनयन से सम्बन्धित हैं। ये समस्यायें, वास्तव में तीव्र रफ्तार से बढ़ती जनसंख्या के फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों के मनुष्य द्वारा अन्धाधंध विवेकहीन विटोहन एवं उपयोग के कारण उत्पन्न होती है। इस तरह की समस्याओं के समझने एवं उन्हें हल करने में भू-आकृति विज्ञान से प्राप्त ज्ञान बड़ी सीमा तक सहायक हो सकता है। डी.के. सी. जोन्स (1980) के अनुसार, भूमि, उपयोग, संसाधन विदोहन, पर्यावरण प्रबन्धन एवं नियोजन से सम्बन्धित समस्याओं के समझने एवं निदान हेतु भूआकृतिक ज्ञान के उपयोग को व्यावहारिक भू-आकृति विज्ञान कहते हैं। सविन्द्र सिहं एवं यस.एस.ओझा (1996) के अनुसार, ‘संसाधन मूल्याकंन, सामाजिक-आर्थिक विकास एवं प्राकृतिक प्रकोप एवं आपदा के निवारण हेतु भूआकृतिक तकनीकों एवं भूआकृतिक शोध से प्राप्त परिणामों का उपयोग व्यावहारिक भूआकृतिक शोध से प्राप्त परिणामों का उपयोग व्यावहारिक भूआकृति विज्ञान का प्रमुख पक्ष है जिस पर भूआकृति विज्ञानियों को ध्यान देना होगा। व्यावहारिक भूआकारिकी के अन्तर्गत निम्न विषयों को सम्मिलत किया जाता है –
1. मानव के आर्थिक कार्यों द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण तंत्र एवं भू-आकृतिक तथा पर्यावरणीय प्रक्रमों में परिवर्तन सम्बन्धी अनुसंधान:
2. भूआकृतिक/पर्यावरणीय प्रक्रमों के मानव समदाय के विभिन्न पक्षों पर पड़ने वाले प्रभावों एवं उनके परिणामों का अध्ययनः
3. मनुष्य के आर्थिक कार्यों द्वारा पर्यावरण तंत्र, स्थलाकृतिक विशेषताओं एवं स्थलरूप प्रक्रमों में होने वाले परिवर्तनों की लगातार निगरानी करना आदि
आर.जे. चोर्लें (1985) के अनुसार भूआकारिको का प्रयोग दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैः
1. भूआकृतिक प्रक्रमों एवं स्थलरूपों में पर मनुष्य के अनिच्छित एवं सुनियोजित प्रभावों के सन्दर्भ में भूआकृतिक प्रक्रम के रूप में मनुष्य की भूमिका।
2. संसाधन मूल्यांकन, इंजीनियरी निर्माण एवं नियोजन के लिए सहायक रूप में भूआकारिकी की भूमिका।
व्यावहारिक भूआकृति विज्ञान: भारतीय परिवेश
भारत के विभिन्न भागों, खासकर काजरी (CAZRI, Central AridZ one Research Institute) जोधपुर में भू-आकृति विज्ञानियों का ध्यान भू-आकृति विज्ञान के व्यावहारिक पक्ष की ओर आकर्षित हुआ। भू-आकृति विज्ञान एवं अधिवास के मध्य सम्बन्ध तथा ग्रामीण अधिवास पर भूआकृतिक नियंत्रण के अध्ययन का सिलसिला बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में आर.एल. सिंह द्वारा 1960-70 दशक में प्रारम्भ किया गया। बाद में पी.सी. वत्स आदि (1976), पी.सी.वत्स एवं सुरेन्द्र सिंह (1980, पश्चिमी राजस्थान की नागौर तहसील), आर.के.राय (1982, मेघालय), सविन्द्र सिंह एवं ओ.पी.सिंह (1976, पलामू उच्चभाग, बिहार) ने कार्य किए।
भूमि उपयोग एवं कृषि नियोजन पर भूआकृतिक विशेषताओं के प्रभाव एवं नियंत्रण तथा इस क्षेत्र में भूआकृतिक तकनीकों के प्रयोग के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण शोध कार्य हुए हैं। ए.के. सेन एवं सुरेन्द्र सिंह (1977, राजस्थान के बीकानेर में भूमि उपयोग नियोजन एवं विकास पर भूआकृतिक कारकों का प्रभाव). बी. एल. भार एवं यम.एन.झा (1977, वानिकी में भूआकारिकी का प्रयोग)के. एस. भाटिया एवं आर.एस.सिंह (1976), भूमि संरक्षण के लिए वर्षा गहनता एवं अपरदन सूचकांक मान का मूल्यांकन, के.एस. भाटिया एवं एच.पी. चैधरी (1977, उत्तरप्रदेश के पहाड़ी ढालों एवं जलोढ़ मिट्टियों से वाही जल (runoff) एवं अपरदन तथा फसल उत्पादन) एच.एस.शर्मा (1979. निचली चम्बल घाटी की भूआकृतियाँ एवं कृषि विकास), अनिताकर एवं अमलकर (1981, कृषि नियोजन में भूआकारिकी की सार्थकता), आर. के. पाण्डेय 1. उत्तराखण्ड के अलमोढ़ा जनपद की गगास बेसिन में भूमि उपयोग पर भूआकारिकी का प्रभाव) बी.एल. शर्मा (1982, कृषि वर्गीकरण -(agricultural taxonomy पर भूआकृतिक नियंत्रण) आर.के. पाण्डेय (1988 लघु हिमालय में भूमि उपयोग एवं ढाल अस्थिरता), आदि। मध्य भारत में बांध के नींव पर ग्रेनाइट अपक्षय का अभाव भारतीय रेगिस्तान में जल संसाधन की खोज तथा नियोजन में भूआकारिकी की सार्थकता; संसाधन आकलन तथा प्रादेशिक एवं स्थानिक नियोजन में भूआकारिकी का महत्व राजस्थान की मध्यवर्ती लून बेसिन में समन्वित प्राकृतिक संसाधन सर्वेक्षण में फोटो-भूआकृतिक तकनीक की भूमिका जोधपुर में शुष्क पर्यावरण के स्थानिक नियोजन में भूआकारिकी का महत्व प्राकृतिक संसाधनों के आकलन में भूआकारिकी आदि ऐसे क्षेत्र है जिनमें भारतीय भूआकारिकी विज्ञानियों ने महत्वपूर्ण योगदान किया है।
उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जनपद के ट्रान्स-यमुना प्रदेश की पर्यावरणीय भूआकारिकी, तटीय स्तूपों का पर्यावरणीय भूआकारिकी, तटीय स्तूपों का पर्यावरण प्रबन्धन लहुल हिमालय की ऊपरी चन्द्रा बेसिन में पर्यावरणीय परिवर्तन, मध्यप्रदेश के भाण्डेर पठार के आकारजनक प्रदेश, स्थलरूप एवं पर्यावरण प्रबन्धन, पूर्वी उत्तर प्रदेश की गोमती बेसिन में बाढ़ प्रकोप एवं पर्यावरण अवनयन 1983), भरतपुर में अपवाह तंत्र बाढ़ प्रकोप, रेत संचलन एवं वायूढ़ प्रकोप का नियंत्रण, भूमि अवनयन एवं प्राकृतिक प्रकोपों के आकलन हेतु भारतीय मरूस्थल में वर्तमान भूआकृतिक प्रक्रमों का मल्यांकन, सुन्दरवन मडफ्लेट में आकृतिक विषमतायें पश्चिमी बंगाल में आर्द्र तटीय पारिस्थितिक तंत्र आदि ऐसे पर्यावरण भूआकृति विज्ञान के क्षेत्र है जिनमें भारतीय भूआकृति विज्ञानियों ने योगटान किया है। इस तरह स्पष्ट है कि भारतीय भूआकृति विज्ञनियों ने निम्न क्षेत्रों में भूआकृतिक ज्ञान एवं तकनीकों का प्रयोग किया है –
भू-आकृति विज्ञान का व्यवहारिक जीवन में उपयोग
प्ण् व भू-आकृतिक विज्ञान (Geomorphology – Mineral resources)- किसी भी क्षेत्र के भू आकृतिक इतिहास और स्थलाकृति लक्षण उस क्षेत्र विशेष की खनिज संसाधनों की संभाव्यता की जानकारी दे सकते हैं। हालांकि भूगर्भवेत्ता इस बात को मानने से या तो एकदम इन्कार करते है, या फिर हिचकिचाहट की मुद्रा अपनाते है। लेकिन फिर भी यह एक मान्यता है कि भूआकृतिक सिद्धान्तों की जानकारी खनिज संसाधनों के खोज में अतिरिक्त सहायता प्रदान करती है। मैक्किस्ट्री ने 1948 में भूआकृतिक विचारों और सिद्धान्तों की महत्ता स्वीकार करते हुए इस बात पर जोर दिया था कि भूआकृतिक सिद्धान्त खनिजों के खोज में निश्चय ही सहायक सिद्ध हो सकते हैं। ये सिद्धान्त और तथ्य खनिजों की खोज में तीन तरह से सहायक सिद्ध हो सकते हैं – क्योंकि,
(अ) कुछ खनिज-निक्षेप अपनी एक विशिष्ट स्थलाकृति अभिव्यक्ति रखते हैं।
(ब) किसी क्षेत्र विशेष में खनिजों के निर्माण में सहायक भूगर्भिक संरचना का अता-पता उस क्षेत्र की स्थलाकृतियाँ बहुत आसानी से दे सकती हैं।
(स) और अन्ततः उस क्षेत्र विशेष का भूआकृतिक इतिहास उन भौतिक अवस्थाओं की जानकारी में सहायक हो सकता है, जिनके अन्तर्गत कोई खनिज निर्मित और विकसित हुआ हो।
कुछ प्रमुख धातुओं की पहचान –
खनिज निक्षेप अपनी एक विशिष्ट स्थलाकृतिक अभिव्यक्ति रखते हैं। यानी कुछ खनिज निक्षेपों की जानकारी स्थलकृतियों के स्वरूप द्वारा मिल सकती है। अलबत्ता, इसके लिए विभिन्न प्रकार के खनिजों की उत्पत्ति एवं उनके विविध एकत्रित निक्षेप के रूपों का पूर्व ज्ञान आवश्यक है। संक्षेप में, यहाँ इनता बता दे कि विभिन्न प्रकार के खनिज विविध रूपों में मिलते हैं। जैसे कुछ खनिज मिट्टी के साथ घुले-मिले कणों या ढ़ोको के रूप में, कुछ खनिज विभिन्न प्रकार की मोटाई के परतों में सतह के ऊपर, कुछ खनिज नदी-घाटियों या तलहटियों में कंकड़ों के क्षोभ-निक्षेप कुछ विभिन्न चट्टानों की रन्ध्रों में शिराओं के रूप् में बिखरे हुए मिलते है।
जहाँ तक खनिजों का प्रश्न है। बैटमैन ने खनिजों की उत्पत्ति को निम्न पाँच भागों में बाँटा है-
अ- अवसादन विधि ब- उष्णजलीय धोल विधि
स- सम्पर्क-खण्डीय निक्षेप द- मैग्मीय या मैग्नेटिक वियोजन विधि
विधि मीय या मैग्नेटिक वियोजन विा
इ- अपक्षरण अवशिष्ट विधि
खनिज निक्षपों के स्वरूप और उत्पत्ति की प्रक्रिया के आधार पर भूआकृतिक सिद्धान्तों की जानकारी खनिज निक्षेपों की संभाव्यता का पता लगाने के विशेष रूप से सहायक होती है। विश्व में खनिज निक्षेपों के अनेको भण्डार ऐसे है, जिनकी अपनी स्थलाकृतिक अभिव्यक्ति है। इसी प्रकार सन्ता बारबारा में क्वार्ट्ज के शिराओं के जमाव आश्चर्य-जनक रूप से खड़े हैं क्योंकि आस-पास के सिलिका रहित जमाव की अपेक्षा ये अपरदन के लिए अधिक सख्त और प्रतिरोधी है। इस क्षेत्र में क्वाटर््ज के ये निक्षेप कटक जैसी आकृति में खड़े हैं, हालांकि कहीं-कहीं मुख्य नदियों ने इन्हें काट डाला है।
स्थलाकृतियों का लौह धातुओं की खोज में महत्व (Importance of Topography in searching for iron ore) – खनिजों की तरह स्थलाकृतियों की सहायता से लोह धातुओं की खोज करने में विशेष सुविधा रहती है। थार्नबरी कहते है।, ‘‘लौह धातुओं की खोज में स्थलाकृति सहायक हो सकती है। हालांकि लौह धातु के एकत्रीकरण के लिये बिल्कुल ठीक प्रकार की स्थलाकृति का चयन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि हो सकता है, एक खास निक्षेप के लिए एक निश्चित स्थलाकृतिक अभिव्युक्त हो। उदाहरण के लिए सुपीरियर झील क्षे का लौह धातु निक्षेप वहाँ पहाड़ियों एवं कटकों से इस हद तक जुड़ा हुआ है भौगोलिक साहित्य में इन पहाड़ियों और कटकों के स्थान पर विद्वानों ने लौह-श्रेणी का प्रयोग किया है। दूसरी तरफ सेरो वालिवर की उच्च-श्रेणी वाली लौह धातु की संचित राशि का पता भूगर्भ-वेत्ताओं ने हवाई जहाज से लिए गये चित्रों पर अंकित दो छोटे पर्वतों के आधार पर लगाया था।
इसी प्रकार हरीसन (Harrison, 1910), ऐडम्स (Adams -1927), सिन्गवेल्ड (Sing wald – 1938) और मोहर (Mohr-1944) ने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अध्ययन करके यह प्रमाणित किया, कि बॉक्साइट निक्षेप भूआकृति चक्र के दौरान हुए अपक्षय का परिणाम है, इसीलिए अधिक धातु-सम्पन्नता वाले बॉक्साइट का निक्षेप उष्ण एवं उपोष्ण कटिबन्धों में मिलता है, जहाँ विशेष रूप से क्ले-युक्त चूना पत्थर के रासायनिक अपक्षय और विलयन प्रक्रियाओं के कारण बॉक्साइट निक्षेप में भरपूर सहायता मिलती है। शायद इसी कारण भारत के आर्कियन और पूर्व-कैम्ब्रियन चट्टानी जमाव में भी, जहाँ अपक्षय क्रिया सक्रिय रही है, क्ले मिलती है। और शायद इसी कारण मालावार तट, पूर्वी घाट और कोचीन जैसे प्राचीन कालिक चट्टानी जमाव वाले भागों में बॉक्साइट क्ले के जमाव मिलते है।
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