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प्रतिमानहीनता क्या है | anomie in hindi definition in sociology प्रतिमानहीनता से दर्खाइम का क्या अभिप्राय है?

anomie in hindi definition in sociology प्रतिमानहीनता से दर्खाइम का क्या अभिप्राय है?

श्रम विभाजन के कारण
श्रम विभाजन की प्रक्रिया के लिए कौन-से तत्व जिम्मेदार हैं या इसके कारण क्या हैं? दर्खाइम ने इस प्रश्न का समाजशास्त्रीय उत्तर प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार समाज में भौतिक तथा नैतिक सघनता में वृद्धि के फलस्वरूप श्रम विभाजन अस्तित्व में आता है। भौतिक सघनता (material density) से दर्खाइम का अभिप्राय है किसी समाज में व्यक्तियों की संख्या बढ़ना अर्थात् जनसंख्या वृद्धि। नैतिक सघनता (moral density) से तात्पर्य है संख्या में वृद्धि के फलस्वरूप लोगों के परस्पर संबंधों में तीव्रता आना।

भौतिक एवं नैतिक सघनता में बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप अस्तित्व के लिए संघर्ष पैदा होता है। यांत्रिक एकात्मता वाले समाज में लोगों में यदि समानता पनपती है तो एक जैसे लाभ और स्रोत प्राप्त करने के लिए संघर्ष और प्रतियोगिता भी जन्म लेते हैं। जनसंख्या में वृद्धि और प्राकृतिक संसाधनों में कमी आने से यह होड़ और तेज हो जाएगी। किन्तु श्रम विभाजन के फलस्वरूप व्यक्ति विभिन्न क्षेत्रों और कार्यों के विशेषज्ञ बन जाते हैं। इस प्रकार वे सह-अस्तित्व से रहते हैं, तथा एक-दूसरे के पूरक बनते हैं। किन्तु यह आदर्श स्थिति क्या सदैव बनी रहती है? दर्खाइम का इस संबंध में क्या मत है, इसकी भी समीक्षा कर ली जाए।

श्रम विभाजन के असामान्य रूप
यदि-श्रम विभाजन समाज में नई तथा उच्चतर एकात्मता कायम करने में सहायता देता है तो तत्कालीन यूरोपीय समाज में अव्यवस्था क्यों थी? क्या श्रम विभाजन से समस्याएं पैदा हो रही थीं?

दर्खाइम के अनुसार, उस समय श्रम का जो विभाजन हो रहा था, वह सामान्य प्रकार का नहीं था, जिसके बारे में उसने लिखा था। समाज में असामान्य प्रकार का श्रम विभाजन हो रहा था या सामान्य श्रम विभाजन के विपरीत काम हो रहा था। संक्षेप में इनमें निम्नलिखित असामान्य रूप शामिल थे।

i) प्रतिमानहीनता (anomie)
इसका अर्थ है एक ऐसी स्थिति जिसमें सामाजिक नियम निरर्थक बन गये हैं। भौतिक जीवन में तेजी से बदलाव आता है, परन्तु नियम, रीति-रिवाज तथा मूल्य उसी गति से नहीं बदलते। ऐसा लगता है कि नियम और प्रतिमान पूरी तरह टूट गये हैं। कार्यक्षेत्र में यह स्थिति कामगारों तथा प्रबंधकों के बीच टकराव के रूप में प्रकट होती है। काम में गिरावट आती है, व्यर्थ के काम होते हैं तथा वर्ग-संघर्ष में वृद्धि होती है।

सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि लोग काम करते हैं और उत्पादन भी करते हैं, किन्तु उन्हें अपने काम की कोई सार्थकता प्रतीत नहीं होती। उदाहरण के लिए कारखाने में असेम्बली लाइन के श्रमिकों को दिनभर कील ठोंकने, पेच कसने जैसे सामान्य तथा उकता देने वाले काम करने पड़ते है। उन्हें अपने काम की कोई सार्थकता नजर नहीं आती। उन्हें यह एहसास नहीं कराया जाता कि वे कोई उपयोगी काम कर रहे हैं। उन्हें यह भी नहीं बताया जाता कि वे समाज के महत्वपूर्ण अंग है। कारखाने के काम से संबंधित नियमों और विधियों में इतना परिवर्तन नहीं किया गया कि श्रमिकों के काम को सार्थक माना जाए और उन्हें यह अनुभूति हो कि समाज में उनका भी महत्वपूर्ण स्थान है।

ii) असमानता (inequality)
दर्खाइम के अनुसार, अवसर की असमानता पर आधारित श्रम विभाजन स्थायी एकता लाने में विफल रहता है। श्रम विभाजन के इस प्रकार के असमान्य रूप से व्यक्तियों में समाज के प्रति कुंठा और नाराजगी पैदा होती है। इस प्रकार तनाव, कटुता, द्वेष तथा विरोध-भाव पनपने लगते हैं। भारतीय जाति-व्यवस्था को असमानता पर आधारित श्रम विभाजन का उदाहरण माना जा सकता है। लोगों को अपनी क्षमता नहीं बल्कि जन्म के आधार पर विशेष प्रकार के काम करने पड़ते है। यह स्थिति उन लोगों के लिए अत्यंत दुखदायी है, जो कुछ अन्य संतोषप्रद तथा लाभप्रद काम करने के इच्छुक हैं, किन्तु उचित अवसरों से वंचित है।
पपप) अपर्याप्त संगठन
इस असामान्य रूप में श्रम विभाजन का मूल उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। काम समुचित रूप से संगठित तथा समन्वित नहीं होता। कामगार प्रायः निरर्थक कामों में लगे रहते हैं। कार्य एकता का अभाव रहता है। इसलिए एकात्मता भंग हो जाती है और अव्यवस्था फैल जाती है। बहुत से दफ्तरों में आपने अनेक कर्मचारियों को खाली बैठे देखा होगा। कई लोगों को तो पता ही नहीं होता कि उनका काम क्या है। जब अधिकतर लोगों को अपने कर्तव्य की जानकारी तक न हो तब सामूहिक कार्य कठिन हो जाता है। श्रम विभाजन से उत्पादकता और एकीकरण में वृद्धि होनी चाहिये । जो उदाहरण हमने अभी बताया है, उससे विपरीत स्थिति बन जाती है अर्थात् उत्पादकता कम होती है तथा एकीकरण का ह्रास होता है (दखिए गिडन्स, 1978ः21 23)।

इस इकाई में हमने अभी तक यह देखा है कि दर्खाइम श्रम विभाजन को केवल आर्थिक ही नहीं, सामाजिक क्रिया भी मानता है। उसके अनुसार इसकी भूमिका आधुनिक औद्योगिक समाज को एकजुट बनाना है। जो भूमिका सामूहिक चेतना यांत्रिक एकात्मता के मामले में निभाती थी, वही भूमिका श्रम विभाजन सावयविक एकात्मता के लिए निभाता है। श्रम विभाजन का जन्म बढ़ती हुए भौतिक तथा नैतिक सघनता के कारण उपजी अस्तित्व की होड़ से होता है। विशेषज्ञता ऐसी स्थिति का निर्माण सकती है जिसमें विभिन्न व्यक्ति एक-साथ रह सकते हैं और परस्पर सहयोग कर सकते हैं। परन्तु समकालीन यूरोपीय समाज में श्रम-विभाजन के भिन्न और नकारात्मक परिणाम सामने आए। सामाजिक व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया।

दर्खाइम इस स्थिति को श्रम विभाजन के सामान्य रूप से पृथकता का नाम देता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, वह इसे तीन रूपों में परिभाषित करता है। ये रूप हैः (प) प्रतिमानहीनता जिसमें श्रम विभाजन से संबंधित नए नियम तथा सिद्धांत अस्तित्व में नहीं आते, (पप) असमानता, जिसके फलस्वरूप असंतोष, तनाव और संघर्ष पैदा होता है, और (पपप) अपर्याप्त संगठन, जिससे श्रम का बंटवारा निरर्थक बन जाता है और बिखराव तथा विखंडन को बल मिलता है।

आइए, अब हम अगले भाग की ओर बढ़ें तथा श्रम विभाजन के बारे में कार्ल मार्क्स के विचारों का अध्ययन करें। किन्तु उससे पूर्व बोध प्रश्न 2 को पूरा कीजिए।

बोध प्रश्न 2
प) निम्नलिखित कथनों में से सही अथवा गलत बताइए।
क) ऑगस्ट कॉम्ट ने सामाजिक एकता की व्याख्या व्यक्तिगत हितों के संदर्भ में की। सही/गलत
ख) दर्खाइम मानता था कि नैतिक सर्वसम्मति आधुनिक औद्योगिक समाज को बांधे हुए है। सही/गलत
ग) दर्खाइम के अनुसार, व्यक्तिवाद तथा सामाजिक एकीकरण एक-दूसरे के शत्रु हैं। सही/गलत
घ) दर्खाइम के अनुसार, सावयविक एकात्मता में सामूहिक चेतना और सुदृढ़ हो जाती है। सही/गलत
पप) निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर चार पंक्तियों में दीजिए।
क) दर्खाइम के अनुसार सावयविक एकात्मता यांत्रिक एकात्मता से उच्च क्यों हैं? .
ख) भौतिक तथा नैतिक सघनता श्रम विभाजन का कारण कैसे बनती है?
ग) प्रतिमानहीनता से दर्खाइम का क्या अभिप्राय है?

बोध प्रश्न 2 उत्तर
प) क) गलत
ख) गलत
ग) गलत
घ) गलत
पपप) क) यांत्रिक एकात्मता समरूपता पर आधारित है। सावयविक एकात्मता भिन्नताओं तथा भिन्नताओं की पूरकता पर आधारित है। इस प्रकार, व्यक्ति नवोन्मुखी भी हो सकते हैं और साथ ही दूसरे व्यक्तियों तथा समाज पर निर्भर भी। इस तरह, व्यक्तिवाद और सामाजिक सामंजस्य एक-साथ रह सकते हैं । अतःदर्खाइम ने सावयविक एकात्मता को उच्च स्तर की एकात्मता माना है।

ख) भौतिक तथा नैतिक सघनता समाज के लोगों को एक-दूसरे के निकट संपर्क में लाती है। अस्तित्व के लिए और कम मात्रा में उपलब्ध साधनों के लिए संघर्ष छिड़ सकता है। सह-अस्तित्व के लिए व्यक्ति अलग-अलग क्षेत्रों में विशेषज्ञता हासिल करते हैं और इस प्रकार श्रम का विभाजन होता है। इस प्रकार, दर्खाइम के अनुसार भौतिक और नैतिक सघनता के फलस्वरूप श्रम का विभाजन होता है।

ग) दर्खाइम के अनुसार, प्रतिमानहिनता (ंदवउपम) असामान्य रूप है। यह वह स्थिति है, जिसमें लगता है कि सभी नियम कानून टूट चुके हैं। उदाहरण के लिए व्यक्तियों को काम करना पड़ता है और उत्पादन जारी रखना होता है, परन्तु कोई नए नियम लागू नहीं किए जाते। उन्हें समझ नहीं आता कि उनके काम का क्या अर्थ अथवा उद्देश्य है।

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