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आनन्द कुमारस्वामी या आनन्‍द केंटिश कुमार स्‍वामी Ananda Coomaraswamy in hindi information

Ananda Coomaraswamy in hindi information आनन्द कुमारस्वामी या आनन्‍द केंटिश कुमार स्‍वामी ?

आनन्द कुमारस्वामी
आनन्द कुमारस्वामी (जिनका जिक्र हमने पहले किया है) भारत के एक आरंभिक सामाजिक विचारक थे जिनका भारतीय समाजशास्त्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा। वे एक आदर्शवादी विचारक थे अर्थात् एक ऐसा व्यक्ति जिसे ईश्वर, अच्छाई के महत्व आदि जैसे जीवन के भाववाची मूल्यों में विश्वास हो। इस संबंध में वे बिनय कुमार सरकार के बिल्कुल विपरीत थे जो भारतीय समाज के भौतिक आधार को खोजना चाहते थे। इस शताब्दी के आरंभिक दो या तीन दशकों को पुनर्जागरण (renaissance) का काल कहा जा सकता है। विवेकानंद, श्री अरविन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि जैसे गणमान्य व्यक्ति भी भारत की एक आदर्शवादी छवि प्रस्तुत करना चाहते थे। इन लोगों की मान्यता थी कि भारत की महानता उसकी आध्यात्मिकता में है। इस आध्यात्मिक आत्मा को पुनर्जीवित कर भारत न केवल अपनी दरिद्रता और पिछड़ेपन पर विजय प्राप्त कर सकता है बल्कि, भौतिक लोभ और युद्ध तथा हिंसा से उत्पीड़ित पश्चिमी जगत को राहत पहुंचा सकता है।

आनन्द कुमारस्वामी ने भारत में कला विशेषकर स्थापत्य कला और वास्तुकला के विकास पर व्यापक रूप से शोध किया। उनके लिए भारतीय कला अपने असंख्य रूपों में न केवल सजावट और सौन्दर्य की वस्तु थी बल्कि उस के द्वारा भारत की उस मानसिकता को समझा जा सकता है जिस में सृष्टि की एकात्मकता या विविधता में एकता का संदेश हो। यह महान सभ्यता और संस्कृति के लिए स्थायी प्रमाण-पत्र था।

भारतीय कला ने मानवजाति के आदर्शों और मूल्यों को साकार किया। हमारे देश में जहां पर अधिकांश लोग अशिक्षित हैं, कला ने शिक्षा के दृश्य (visual) माध्यम का काम किया। इसने जनसाधारण के लिए महाकाव्यों, पुराणों और दन्तकथाओं को शिलाओं, मिट्टी, और संगमरमर पर चित्रित किया। इतना ही नहीं कला ने भारत के धार्मिक मूल्यों को संजोए रखा और सभी प्रकार की अभिव्यक्तियों में भारत की एकरूपता को प्रस्तुत किया। इस तरह देखा जाए तो कठोर तथा कोमल, भयानक तथा मोहक, तर्कसंगत तथा सार्थक आदि विभिन्न पहलू भारतीय कलात्मक अनुभव के अटूट हिस्से रहे हैं।

कुमारस्वामी ने भारतीय कला के दर्शन की व्याख्या करते हुए कई किताबें लिखीं। मुख्य रूप से पश्चिम के देशों में, पुराने समय में, भारत अपनी संस्कृत की रचनाओं द्वारा जाना जाता था। भारत की कला जो कि लगभग चार सहस्त्राब्दियों में विकसित हुई थी, उसके विषय में पश्चिम में एक बहुत ही धुंधली-सी अस्पष्ट धारणा बनी हुई थी। कुमारस्वामी का मानना था कि भारतीय मूर्तिकला केवल मानवरूपी ही नहीं थी अपितु यह भारतीय आदर्शों का वास्तविक खजाना भी थी।

शिवनटराज की मूर्ति मात्र मूर्तिकला की एक चरम उपलब्धि ही नहीं है, बल्कि वह मुक्ति (स्वच्छंदता) का प्रतीक भी है। शिव का नृत्य नश्वरता के बंधनों के साथ ही मनुष्य की आत्मा को सांसारिक बंधनों से भी मुक्त करता है। कुमारस्वामी का यह मानना था कि भारतीय और यूरोपीय गोथिक कला में बहुत साम्य है। यद्यपि डब्ल्यू. बी. हैवल, पर्सी ब्राउन आदि लोगों ने भारतीय कला की तरह-तरह से व्याख्या की थी लेकिन कुमारस्वामी ने पहली बार भारतीय कला का विस्तृत दर्शन प्रस्तुत किया।

कुमारस्वामी ने परंपरा और आधुनिकता के बीच अंतर स्पष्ट किया। परंपरा के युग में सामूहिक जीवन और गुणात्मक उपलब्धियों का महत्व था। यह विशेषता पूर्व, मध्यपूर्व और पश्चिम के सभी देशों में पाई जाती थी। विश्वव्यापी औद्योगिक क्रांति ने परंपरा के इस युग को बदल दिया। इस नए युग में प्रतिस्पर्धा ने मनुष्य को भौतिकवादी और स्वार्थी बना दिया। कुमारस्वामी ने विज्ञान और तकनीकी का विरोध तो नहीं किया लेकिन उन्हें इस बात का दुख था कि आधुनिक युग में इनका दुरुपयोग हुआ। इस नई स्थिति ने मनुष्य को आक्रामक और स्वार्थी बना दिया और विभिन्न राष्ट्र युद्ध और हिंसा के द्वारा एक दूसरे को दबाने का प्रयास करने लगे।

पूर्व और पश्चिम की तुलना करते हुए उन्होंने भारत के आध्यात्म और मूल्यों को दूसरों से श्रेष्ठ दिखाने की कोशिश नहीं की। उन्होंने योरोपीय, चीनी और अरबी ग्रंथों में पाए जाने वाले रहस्यवाद की साम्यता पर विस्तार से लिखा । उनकी यह मान्यता थी कि पश्चिमी देशों की भौतिक उपलब्धियों ने पारंपरिक आध्यात्मिकता और रहस्यवाद को दबा दिया था। इसलिए पश्चिम में पुनः आध्यात्मिकता को नवजीवन प्रदान करने में भारत प्रेरक साबित हो सकता था। विशिष्ट रूप से भारत पूरे एशिया का प्रतिनिधित्व करता था। हालांकि चीनी सभ्यता भी महान थी। उसे बौद्ध धर्म ने महान स्वरूप प्रदान किया था। जापान, थाइलैंड, श्रीलंका, और कंबोदिया जैसे एशियाई देशों का मार्गदर्शन भारतीय संस्कृति ने ही किया था। अंततरू महत्वपूर्ण मुद्दा उन मूल्यों को प्रोत्साहित करना था जो मानवजाति की विरासत थीं।

उन्होंने लिखा कि भविष्य के चुने हुए लोग किसी एक राष्ट्र या जाति के नहीं होंगे बल्कि वे पूरे विश्व के अभिजात वर्ग के होंगे। उनमें यूरोपीय क्रियात्मक ताकत और एशिया की वैचारिक स्वच्छता का मेल होगा। इसी संदर्भ में वे यह चाहते थे कि स्वाधीनता के लिये संघर्षरत भारतीय राष्ट्रवादी एक व्यापक दृष्टि अपनाएं। वे यह भी चाहते थे कि भारत के नवयुवक न केवल स्वतंत्र भारत की बल्कि एक बेहतर विश्व की भी कामना करें, जो तनाव और संघर्ष से मुक्त हो। विकास के नाम पर पश्चिमी देशों की नकल करने वाले इन उभरते हुए नये राष्ट्रों को कोई विशेष लाभ नहीं होगा। भारतीय महिला को भारतीय संस्कृति के आधार पर ही अपना स्थान फिर से परिभाषित करना चाहिए। यदि वे पुरुषों के साथ प्रतिस्पर्धा करती हुई आधारभूत मूल्यों को त्याग दें तो वे अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकेंगी।

कुल मिलाकर उन्होंने पश्चिम को पूर्व या प्राच्च (oriental) बना लेने की सलाह नहीं दी। वे दोनों का एकीकरण भी नहीं करना चाहते थे। वे यह चाहते थे कि उन प्राथमिक सिद्धांतों (first principles) या नैतिक मूल्यों को वे फिर से स्थापित करें जो मानवजीवन के आधार हैं। कुमारस्वामी की महत्वपूर्ण कृतियां हैं, द डांस ऑफ शिव और क्रिस्चियन एण्ड ओरियंटल फिलॉसॉफी ऑफ आर्ट, (1974)।

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