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आक्रामक राष्ट्रवाद क्या है ? akramak rashtravad in hindi राष्ट्रवाद के तत्व किसे कहते है ? विशेषताएं

(akramak rashtravad in hindi) आक्रामक राष्ट्रवाद क्या है ? राष्ट्रवाद के तत्व किसे कहते है ? विशेषताएं कौनसी होती है ?

इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
आक्रामक राष्ट्रवाद क्या है?
राष्ट्रवाद के तत्व
आक्रामक राष्ट्रवाद की प्रमुख विशेषताएं
आक्रामक राष्ट्रवाद और आंतकवादी क्रांतिकारी अराजकतावाद
आक्रामक राष्ट्रवाद: एक अत्यधिक भावुकतापूर्ण धार्मिक भावना
राष्ट्र का मिशन या उद्देश्य: स्वामी विवेकानन्द और स्वामी दयानंद सरस्वती
आक्रामक राष्ट्रवाद के पीछे की धार्मिक आस्था: पुरुषोचित और आग्रही धर्म
भगवद्गीता
साधन और लक्ष्य का संबंध:
इटली की प्रेरणा
राष्ट्रवाद का धर्म
बंगाल का बंटवारा
आक्रामक राष्ट्रवाद का प्रभाव और इसका समकालीन महत्ववादी विचारों की तुलना
सारांश
उपयोगी तुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
इस इकाई में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के आक्रामक राष्ट्रवादी दौर के बारे में बताया गया है। इस इकाई को पढ़ने के बाद आपको इस योग्य होना चाहिए कि आप:
ऽ आक्रामक राष्ट्रवाद की प्रमुख विशेषताओं के बारे में चर्चा कर सकें,
ऽ क्रांतिकारी अराजकतावाद और ऐसी अन्य प्रवृत्तियों के साथ इसकी तुलना कर सकें,
ऽ भारतीय राष्ट्रवादी संघर्ष के प्रसंग में इसकी उपयोगिता बता सकें।

आक्रामक राष्ट्रवाद क्या है?
इस इकाई का मुख्य उद्देश्य आपको आक्रामक राष्ट्रवाद की आम विशेषताओं की जानकारी देना है। आक्रामक राष्ट्रवादियों से पहले नरमपंथियों ने आंदोलन के जो तरीके अपनाये थे, उनसे कुछ अधिक क्रांतिकारी तरीके अपनाकर आक्रामक राष्ट्रवादियों ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक नया मोड़ दिया। राष्ट्रीय आंदोलन के इस दौर के प्रमुख नेता थे: बाल गंगाधर तिलक, अरबिंदो घोष, बिपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय। आक्रामक राष्ट्रवाद उपनिवेश विरोधी संघर्ष का एक बिल्कुल अलग दौर था। इसमें राजनीतिक आंदोलन के नये तरीकों को अपनाया गया, जन जागरण के लिए जनप्रिय प्रतीकों का इस्तेमाल किया गया और इस तरह आंदोलन को एक व्यापक आधार देने की कोशिश की गयी।

जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, आक्रामक राष्ट्रवाद भारत में राष्ट्रवाद का एक दौर था। इसमें राष्ट्रवाद की सभी विशेषताएं तो थी ही, अपनी अलग-अलग विशेषताएं भी थीं। अब हम एक-एक करके इन आम और खास विशेषताओं के बारे में जानकारी देंगे।

राष्ट्रवाद के तत्व
क्षेत्र, जनसंख्या और प्रभुसत्ता संपन्न राज्य किसी राष्ट्र के आवश्यक तत्व होते हैं‘‘‘‘ये। हैं एक समान भाषा, एक समान नस्ल, एक समान धर्म और एक समान सांस्कृतिक परंपरा। वैसे तो हर राष्ट्र में ये विशेषताएं पूरी तौर पर नहीं पायी जातीं, फिर भी काफी हद तक वे मिल जाती हैं। हो सकता है किसी राष्ट्र की एक भाषा न हो। उसमें कई भाषाएं हो सकती हैं, और फिर भी उसमें राष्ट्रीय एकता की भावना हो सकती है। यही बात नस्ल, धर्म और सांस्कृतिक परपंरा पर भी लागू होती है। इन सभी बातों को लेकर एक व्यापक रूप से एकताबद्ध समाज में अंतर हो सकते हैं। समान ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परंपराएं लोगों को बहुत मजबूत बंधन में बांध सकती हैं। राष्ट्रीयता की भावना को आम तौर पर किसी कौम के बीते समय के साथ-साथ किये गये अनुभवों की याद से बढ़ावा मिलता है। बीते समय की यह याद उस समय फिर ताजा हो उठती है, जब देश विदेशी राज और शोषण का शिकार होता है। किसी अवाम पर विदेशी राज का हमेशा प्रतिकूल असर पड़ता है। लोगों के आत्म-सम्मान को फिर से प्राप्त करना और स्वदेशी संस्कृति को फिर से जगाना उपनिवेश विरोधी आंदोलन का एक अहम पहल होता है। इतिहास इस तथ्य की पुष्टि करता है कि विदेशी शासन की अधीनता कुशासन और शोषण राष्ट्रवाद की भावना बनाने में सबसे सशक्त कारक होते हैं। इन तमाम तत्वों के बावजूद, राष्ट्रवाद एक अमूर्त स्थिति होती है। अंततः यह एक जनसमूह की मानसिक स्थिति होती है। ऊपर बताये गये कारक इसे बनाने में मदद करते हैं, लेकिन सबसे पहले यह एक मनोवैज्ञानिक स्थिति ही रहती है।
बोधपश्न 1
टिपणी: 1) अपने उत्तर नीचे दिये गये स्थान पर लिखें।
2) अपने उत्तर का मिलान इकाई के अंत में दिये उत्तर से करें।
प्रश्न: आक्रामक राष्ट्रवाद से आप क्या समझते हैं?

आक्रामक राष्ट्रवाद की प्रमुख विशेषताएं
पिछले अनुच्छेद में हम आक्रामक राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि दे चुके हैं। आइये, अब हम इसकी प्रमुख विशेषताओं के बारे में बात करें: ‘‘आक्रामक‘‘ विशेषण से यह बात साफ हो जाती है कि यह एक अलग किस्म का राष्ट्रवाद है। अपने आपमें राष्ट्रवाद एक बहुत गहरी भावना है, लेकिन आक्रामक राष्ट्रवाद उससे भी तेज, आग्रही और आक्रामक भावना है।

किसी गुलाम देश के पास आजादी पाने के दो तरीके होते हैं: एक तो यह कि वह शासकों पर यह प्रभाव जमाये कि आजादी जनता का अधिकार है और उसे यह अधिकार गरिमा क साथ दे दिया जाना चाहिए। इसमें यह मान कर चला जाता है कि विदेशी शासक समझ से काम लेगा और अवाम की ओर से जोर जबरदस्ती हुए बिना अपनी मर्जी से देश छोड़ देगा।

दूसरा तरीका यह है कि शासकों और सरकार पर प्रहार किया जाये और उनके प्रभत्व को समाप्त कर दिया जाये, क्योंकि उपनिवेशी शासकों से यह अपेक्षा करना तो बेकार होगा कि वे समझ से काम लेंगे और अपने साम्राज्य से मिलने वाले लाभों को यूं ही छोड़ देने को राजी हो जाएंगे।

पहले तरीके को उदारवादी या नरमपंथी तरीका, और दूसरे का आक्रामक तरीका कहा जा सकता है। उदारवादी या नरमपंथी हो सकता है विदेशी शासन की बुराइयों को जानते हों, लेकिन वे इसे ऐसी बुराई नहीं मानते जो पूरी हो और जिसे कम नहीं किया जा सकता। बुराइयों को दूर करने के लिए प्रतिनिधिमंडलों और आवेदनों के जरिये और विचार-विमर्श की सामान्य प्रक्रिया के जरिये शासकों को अपनी बात समझायी जा सकती है। एक आधुनिक और सभ्य सरकार के फायदों को ऐसी शिकायतों के बारे में अधीर हो कर हाथ से नहीं जाने देना चाहिए जो कुछ ही समय की हों और जिन्हें दूर करना संभव हो। नरमपंथी ब्रिटिश संपर्क को भारत के आधुनिक युग में आगे बढ़ने की दैवीय योजना का एक अंग मानते थे।

आक्रामक राष्ट्रवादियों का रवैया इस मामले में बिल्कुल भिन्न था। वे विदेशी सरकार को एक परी बराई मानते थे जो देश की राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कतिक और बर्बादी का कारण थी। जिस देश को विदेशी शासक ने जीत कर हासिल किया उसे वह ऐसी आसानी से नहीं छोड़ सकता। इसलिए उसे इस बात के लिए प्रेरित करना निरर्थक है। इसके लिए कहीं अधिक सशक्त तरीकों का इस्तेमाल जरूरी था और आक्रामक राष्ट्रवादियों की दृष्टि में नरमपंथियों में इच्छा और शीघ्रता के बोध की कमी थी। नरमपंथियों और आक्रामक राष्ट्रवादियों का अंतर, लाला लाजपत राय के अनुसार, बिल्कुल हट कर था। यह न तो रफ्तार का अंतर था, और न तरीके काए बल्कि यह मूलभूत या बुनियादी सिद्धांतों का अंतर था। लाला लाजपत राय का यह ऐलान था कि भारत ने अगर नरमपंथियों के तरीकों से काम लिया तो वह कभी स्वशासी राज्य नहीं हो पायेगा। उनका यह भी कहना था कि अगर, कांग्रेस ने अपना स्वभाव नहीं बदला और राजनीतिक कार्यवाही के सीधे-सीधे तरीकों को नहीं अपनाया तो, इस उद्देश्य को लेकर कोई और आंदोलन शुरू हो जायेगा। 1905 में कही गयी उनकी यह बात, दो वर्ष बाद हीए 1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन के तूफानी सत्र में भविष्यवाणी साबित हुई।

आक्रामक राष्ट्रवाद और आतंकवादी अराजकतावाद
हमें यह ध्यान रखना होगा कि आक्रामक राष्ट्रवाद उदारवादी राष्ट्रवाद से तो बिल्कुल हट कर था ही, यह क्रांतिकारी और आतंकवादी अराजकतावाद से भी भिन्न था। आक्रामक राष्ट्रवादी राजनीतिक हत्याओं का समर्थन नहीं करते थे, हालांकि आतंकवादियों की प्रेरणा का स्रोत उनका आक्रामक राष्ट्रवाद ही था। इन दोनों के बीच का संबंध एक अप्रत्यक्ष संबंध था। आक्रामक राष्ट्रवादी आतंकवादियों को कहीं अधिक सहानुभूति के साथ समझ सकते थे। उनका कहना था कि आतंकवादी भरमाये हुए और ऐसे लोग थे जो अपनी कायवाहियों का आगा-पीछा नहीं सोचते थे, लेकिन इसका कारण सरकार की कठोर और दमनकारी नीतियां थीं: यह संवेदनशील मन वाली यवा पीढ़ी की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। बी.सी. पाल ने तो यहां तक कह दिया कि राजनीति में अंतिम जीत अधिकार की नहीं, शक्ति की होती है और इसीलिये, जब भी आवश्यक हो व्यक्ति को शक्ति का इस्तेमाल करने से चूकना नहीं चाहिये। लेकिन तिलक और श्री अरबिंदो की तरह ही वह भी यह मानने लगे थे कि भारतीय स्थितियो में ये तरीके पुराने और अनुपयुक्त थे, विशेष तौर पर बीसवीं सदी के पहले दशक के अंतिम वर्षों की बदली हई स्थितियों में। इन तरीकों को बेअसर होना ही था क्योंकि सरकार ने आतंकवादी कार्यवाहियों को कुचलने के लिए अपनी ताकत काफी बढ़ा ली थी। लाला लाजपत राय के शब्दों में, ‘‘राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये निहत्थे लोगों द्वारा हिंसा का इस्तेमाल पागलपन है। मेरी राय में हिंसक तरीकों की बात करना भी आपराधिक मूर्खता है……….. भारत में जीवन की वर्तमान स्थितियों में हिंसा पर भरोसा करना या इसके बारे में सोचना तक पागलपन से कम नहीं है।

आक्रामक राष्ट्रवाद रू एक अत्यधिक भावुकतापूर्ण, धार्मिक भावना
आक्रामक राष्ट्रवाद में, पिछली पंक्तियों में बताया गया राष्ट्रवाद का हर कारक-क्षेत्र, जनसंख्या, धर्म, नस्ल आदि-भावनात्मक दृष्टि से और भी प्रमुख हो गया। उदाहरण के लिए, किसी राष्ट्र का क्षेत्र उसके भौगोलिक अस्तित्व से कहीं बढ़ कर होता है। यह एक पवित्र भूमि होती है। मातृभूमि को स्वर्ग से भी महान माना जाता है। यह देवत्व का भौतिव रूप होता है और इसके जीवन और धर्म के दर्शन का साकार रूप। देश के पहाड़ और उसकी नदियां भी भौतिक वस्तुएं भर नहीं होती। वे पूजा की वस्तु होती हैं। श्री अरबिंदो ने लिखा है, ‘‘दूसरे लोग तो देश को एक जड़ पिंड मानते हैं और मैदान, खेत, पहाड़ और नदियों के अर्थ में इसे जानते हैं, लेकिन मैं देश को मां समझता हैं, मैं मां के समान इसकी पूजा और श्रद्धा करता हैं।’’ रामसे मैकडोनल्ड को लिखे अपने पत्र में लाजपत राय ने इस बात को और स्पष्ट कहा है: ‘‘एक भारतवासी के लियेए भारत देवताओं की भूमि है -उसके पर्वजों की देवभमि। यह ज्ञान, आस्था परमानंद की भूमि है-प्राचीन आर्यों की ज्ञान भमि धर्म भूमि और पुण्य भूमि। यह वेदों और नायकों की भूमि है-उसके पूर्वजों की वेदमि और वीरभूमि आप इसे मूर्खतापूर्ण, अव्यावहारिक, भावुकतापूर्ण और अप्रगतिशील कह सकते हैं: लेकिन यह है-जीवन का एक अटूट सत्य, जिसे कोई विदेशी भेद नहीं सकता।’’

बोध प्रश्न 2
टिप्पणी: 1) अपना उत्तर नीचे दिये स्थान पर लिखें।
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प्रश्न: आक्रामक राष्ट्रवाद और क्रांतिकारी अराजकतावाद की तुलना करें। .

राष्ट्र का मिशन या उद्देश्य रू स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरस्वती
हरेक राष्ट्र, कम से कम छिपे तौर पर ही, यह विश्वास करता है कि वह दूसरे राष्ट्रों से अलग है और उसका एक मिशन है। आक्रामक राष्ट्रवाद और भी खुले तौर पर और जोर देकर इस पर विश्वास करता है। वह मानता है कि एक राष्ट्र की जनता को एक स्वतंत्र और प्रभत्तासंपन्न राष्ट्र होना चाहिये ताकि वह अपनी भावना और विशिष्ट प्रकृति के अनुसार जी सके और मानव जाति की प्रगति में अपना योगदान दे सके। इस दृष्टिकोण के अनुसार, पश्चिम की तुलना में, भारत और पूर्व का चरित्र ऐलानिया तौर पर धार्मिक और आध्यात्मिक है। जैसा कि श्री अरबिंदो घोष ने कहा, राष्ट्रीय स्वतंत्रता और स्वाधीनता इसलिये आवश्यक है क्योंकि भारत को सबसे पहले अपने लिये और फिर दनिया के लिये जीना है। उन्होंने लिखा, ‘‘ईश्वर ने भारत को पवित्र आध्यात्मिकता के शाश्वत स्रोत के रूप में अलग करके रखा है, और वह उस सात का सख जाना कभी सहन नहीं करेगा।’’ मानव आत्मा के गहनतर रोग में भारत उसका गुरु है। एक बार फिर वह विश्व के जीवन को नये रूप में ढालने को और मानव आत्मा की शांति बहाल करने को नियत है।’’

श्री अरबिंदो हिंदू धर्म की बात सनातन धर्म के रूप में करते थे। सनातन का अर्थ है, चिरंतन या शाश्वत और धर्म का अर्थ है, वह जो ‘‘सार्वभौमिकता’’ के अर्थ में समाज को बांधता और एकताबद्ध करता है। यह मत और धर्म से बढ़ कर है। इनके संकुचित अर्थ हैं और ये अवाम को एकता के सूत्र में बांध सकते हैं, लेकिन ये उन्हें दूसरे अवाम से अलग: भी कर सकते हैं। सनातन धर्म चिरंतन भी है और सार्वभौम भी और राष्ट्र और मत की सीमाओं में बंध कर नहीं रहता। भारत घर है और इसे बनाये रखना और इसे दुनिया तक पहुँचाना भारत का मिशन या उद्देश्य है। बी.सी. पाल ने भी इन्हीं अर्थों में सनातन धर्म की व्याख्या की: ‘‘(राष्ट्रवाद का) आदर्श ईश्वर में मानवता का, मानवता में ईश्वर का आदर्श है, सनातन धर्म का प्राचीन आदर्श है, लेकिन पहली बार राजनीति की समस्या और राष्ट्रीय पुनर्जागरण के काम में इसका व्यवहार हुआ है। इस आदर्श को चरितार्थ करना, इसे दुनिया को देना भारत का मिशन है।’’

आक्रामक राष्ट्रवाद के पीछे की धार्मिक आस्था: पुरुषोचित और आग्रही धर्म
आक्रामक राष्ट्रवादियों ने परंपरा और राष्ट्रीय चेतना के बीच घनिष्ठ संबंध कायम किया। उन्होंने भारत के अतीत की महिमा और महानता की दुहाई दी। रामकृष्ण और विवेकानंद की शिक्षा उनकी प्रेरणा का स्रोत था, जिसमें मनुष्य की सेवा बताया गया, अज्ञानता और गरीबी का उन्मूलन, स्त्रियों को समानता और स्वतंत्रता का विस्तार, एक ही लक्ष्य तक ले जाने वाले विभिन्न मार्गों के रूप में विभिन्न मार्गों की सार्वभौमिक समझ और सहिष्णुता, देश के प्रति प्रेम और मानव के प्रति प्रेम को आधुनिक भारत के निर्माण के लिए आवश्यक तत्व बताया गया। विवेकानन्द ने लोगों को एक पुंसत्वशील और पुरुषोचित धर्म का पालन करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने लोगों को यह उपदेश दिया कि वे इस दुनिया को वास्तविक मानें और इसे माया या भ्रम न समझें। उनके अनुसार, मनुष्य की मुक्ति और आत्मा की स्वतंत्रता को प्रोत्साहन धर्म का असली लक्ष्य है। उन्होंने देश के भौतिक और नैतिक पिछड़ेपन की भी तीखी निंदा की। उन्होंने कहा था, ‘‘हम चाहते हैं रक्त में स्फूर्ति, स्नायुओं में शक्ति, फौलादी मांसपेशियां और इस्पाती स्नायु।’’ ‘‘सबसे पहले युवकों को मजबूत होना चाहिए।’’ आप गीता पढ़ने की अपेक्षा फुटबाल के माध्यम से स्वर्ग के कहीं आधिक निकट होंगे।

दयानंद सरस्वती की शिक्षा का भी ऐसा ही असर हुआ। उन्होंने इस बात की वकालत की कि एक अधिक पुरुषोचित और स्फूर्त राष्ट्र के निर्माण के लिए वेदों के धर्म की ओर लौटना आवश्यक था। अगर अतीत की भावना और ऊर्जा को बहाल किया जा सके तो, देश के लिए आजादी प्राप्त करना आसान और सुनिश्चित होगा। यह ध्यान देना होगा कि देखने में तो दयानंद का संदेश अतीत के पुनर्जागरण का आह्वान था, लेकिन उस समय के प्रसंग में यह प्राचीन भावना को सकारात्मक रूप से व्यक्त करने का आहवान था। देश के लिए आजादी प्राप्त करने का एकमात्र यही मार्ग हो सकता था। जैसा कि बी.सी.पाल ने ‘‘माई लाइफ ऐंड टाइम्स‘‘ में लिखा है, ‘‘इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आर्यसमाज के रूप में संगठित, दयानंद सरस्वती के आंदोलन ने आधुनिक हिंदू में, विशेष तौर पर पंजाब में, एक नयी राष्ट्रीय चेतना का विकास करने में राजा राममोहन राय के ब्रह्मो समाज के बौद्धिक आंदोलन से कहीं अधिक योगदान किया है, यह वास्तव में भारत के हिंदुओं में उस धार्मिक और सामाजिक पुनर्जागरण का प्रारंभ था जिसके प्रति अपनी वर्तमान राष्ट्रीय चेतना के जन्म के लिए इतने ऋणी हैं।’’

भगवद्गीता
आक्रामक राष्ट्रवादियों पर भगवद्गीता का भी गहरा असर पड़ा। इसमें से उन्होंने कर्म की शिक्षा ली। कर्म के लिए आवश्यक था कि वह निःस्वार्थ और अहं से मुक्त हो। प्रेम, लगाव, नापसंद या घृणा जैसी व्यक्तिगत भावनाओं को अलग रखना आवश्यक था। हमारा कर्म ईश्वर के प्रति भेंट हो जिसमें कर्म के बदले में किसी फल या पुरस्कार की अपेक्षा न हो। कृष्ण का अर्जुन से यह आग्रह था कि वह शत्रु से युद्ध करे, शत्रु कोई भी हो। उसके तीर चाहे उसके अपनी ही संबंधियों और गरुओं को लगें या मारें, लेकिन उसे अपना कर्म करना और लड़ना ही होगा।

इस संबंध में, बाल गंगाधर तिलक की गीता की विवेचना का विशेष रूप से उल्लेख करना होगा। उन्होंने ‘सक्रियतावाद‘ का दर्शन निकाला जिसका सार यह था कि व्यक्ति समर्पण के साथ अपना कर्म करे, सुस्ती के मारे इसे त्यागे नहीं। भारत पर अंग्रेजों की प्रभुता या शासन के संदर्भ में, इसका अर्थ निकलता था विदेशी सरकार को उखाड़ फेंकने और देश के लिए आजादी की प्राप्ति का कर्म करना। आक्रामक राष्ट्रवादियों और क्रांतिकारियों, दोनों की भगवद्गीता में विशेष श्रद्धा थी। मराठी क्रांतिकारी दामोदर हरि चापेकर को जिस समय फांसी दी जाने वाली थी, उस समय भी उनके साथ गीता की एक प्रति थी। श्री अरबिंदो ने यह वर्णन किया है कि अलीपुर बम कांड के अभियुक्तों पर जब मुकदमा चलाया जा रहा था तो कैसे अदालत में वे मुकदमें की कार्यवाही और अपने आसपास के शोर-शराबे से बिल्कुल बेखबर गीता पढ़ रहे थे।

 साधन और लक्ष्य का संबंधः आक्रामक राष्ट्रवाद और गांधीवादी विचारों की तुलना
उपर्युक्त चर्चा साधन और लक्ष्य के संबंध में आक्रामक राष्ट्रवाद की अवधारणा के एक महत्वपूर्ण बिंदु को रेखांकित करती है। इस सवाल पर दो विचार या दृष्टिकोण हो सकते हैं: 1) किसी इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कोई भी साधन इस्तेमाल किया जा सकता हैः उदाहरण के लिएए देश की आजादी और 2) साधन नैतिक रूप से सही होना चाहिए, अर्थात् उतना ही अच्छा जितना कि लक्ष्य, अगर नहीं तो, लक्ष्य का महत्व जाता रहता है। पहला विचार आक्रामक राष्ट्रवादी का विचार है। और, दूसरा गांधीवादी विचार है।

आक्रामक राष्ट्रवादी लक्ष्य प्राप्त करने के सर्वोत्तम और सबसे तेज साधनों से मतलब रखता था। यह नैतिक तर्क-वितर्क में समय गंवाने को इस डर से तैयार नहीं होता था कि कहीं लक्ष्य ही न हाथ से जाता रहे। जैसा कि लाजपत राय ने कहा, ‘‘हमें वही करना चाहिये जो (विशेष) परिस्थितियों में सर्वोत्तम, व्यावहारिक और संभव हो।’’ इस दृष्टिकोण को ‘नैतिक सापेक्षवाद‘ कहा जा सकता है, जबकि दूसरा दृष्टिकोण ‘नैतिक पूंजीवाद‘ है, जिसका श्रेष्ठ उदाहरण गांधी हैं।

इटली की प्रेरणा
आक्रामक राष्ट्रवाद ने इटली के एक हो जाने के इतिहास से और आस्ट्रियाई शासन से इटली को आजाद कराने के लिए हुए आंदोलन से भी प्रेरणा ग्रहण की। बिपिन चंद्रपाल ने इस बात का वर्णन किया है कि किस तरह माजिनी के जीवन और कृतित्व पर सुरेंद्रनाथ बनर्जी के भाषण ने बंगाल के यवाओं में देशभक्ति की लौ लगा दी और उन्होंने इटली के युवाओं की मिसाल का अनुकरण किया। वह लिखते हैं, ‘‘हमने माजिनी के लेखों और युवा इटली आंदोलन के इतिहास को पढ़ना शुरू किया। इसमें हमें इटली की आजादी के लिये (बने) पहले के संगठन, विशेष तौर पर कारबोनारी के संगठन भी देखने-पढ़ने को मिले, जिनके साथ खुद माजिनी भी अपने देशभक्ति जीवन के शुरुआती दौर में जड़ा था।’’ बंगाल में जो गप्त संगठन बने उनका श्रेय इटली के कारबोनारी की प्रेरणा को जाता है। उनके तरीके हिंसक और अराजकतावादी थे। उनकी देशभक्ति और वीरता सर्वोच्च कोटि की थी लेकिन आने वाले समय ने यह साबित कर दिया कि भारत जैसे विशाल देश में, जहां की स्थितियां इनके इस्तेमाल के अनुकूल नहीं थी, वे पुराने भी थे और निरर्थक भी। वे अनावश्यक और नैतिक रूप से अस्वीकार्य भी निकले।

इस संदर्भ में लाला लाजपत राय का हवाला दिया जा सकता हैए उन्हें भी इसी तरह इटली की मिसाल से प्रेरणा मिली। उन्होंने लिखा, ‘‘पच्चीस साल पहले जब मैं युवक था तब मैं कई साल तक महान इलालवी देशभक्त माजिनी और उनके लेखों का दीवाना रहा। एक तरह से मझ पर यह जनून सवार था कि अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध माजिनी द्वारा उनके बारे में लिखी गयी हर चीज को पढूं…….माजिनी के जीवन और उनके लेखों ने मेरे दिमाग पर एक ऐसा असर छोड़ा है जिन्हें बता सकना असंभव सा है।’’ (1918)

लाला लाजपत राय ने भी उर्दू में माजिनी और गारीबाल्दी की जीवनियां लिखीं और इनका पंजाब में राष्ट्रवादी भावना जगाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा। इन लेखनों का असर इतना गहरा था कि पंजाब सरकार को चैकन्ना होना पड़ा और उसने इस मामले में कार्यवाही करने की कोशिश भी की, लेकिन कानूनी अड़चनों के कार.ा वह उस समय ऐसा नहीं कर सकी।

बोध प्रश्न 3
टिप्पणी: 1) अपना उत्तर नीचे दिये स्थान पर लिखें।
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प्रश्न: आक्रामक राष्ट्रवाद पर इतालवी क्रांतिकारियों के प्रभाव की संक्षेप में चर्चा करें।

राष्ट्रवाद का धर्म
राष्ट्रवाद पर आक्रामक राष्ट्रवादियों के अलग दृष्टिकोण की हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं। उन्होंने राष्ट्र के साथ एक विशेष भावकतापूर्ण अर्थ जोड़ दिया। उनके लिये राष्ट्र केवल एक भौगोलिक शब्द ही नहीं था, बल्कि, एक मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक अवधारणा भी थी। आक्रामक राष्ट्रवादियों की प्रेरणा का स्रोत राष्ट्र की वह छवि थी, जिसमें राष्ट्र दैवीय मां का पवित्र घर था। बंकिमचंद्र चटर्जी को एक ऋषि या द्रष्टा के रूप में देखा जाता था क्योंकि उन्होंने देश को बंदे मातरम का प्रेरणादायक पवित्र मंत्र दिया। इस मंत्र में देव-प्रेम और देश-प्रेम का मिश्रा था। खुद देश को देवत्व का रूप दे दिया गया था।

बंगाल का बंटवारा
लार्ड कर्जन ने 1905 में जो बंगाल का बंटवारा किया, उससे सारे देश में, और विशेष तौर पर बंगाल के मौलिक और विभाजित क्षेत्रों मेंए राष्ट्रवादी भावनाएं और देशभक्तिपूर्ण विरोध भड़क उठे। यह माना गया कि सरकार ने हिंदुओं और मुसलमानों में फूट डालने और देश में बढ़ती हुई राष्ट्रवादी भावना को खत्म नहीं तो, नियंत्रित करने के उद्देश्य से जानबूझ कर यह कार्यवाही की थी। 16 अक्टूबर, 1905 को-जिस दिन बंगाल का बंटवारा प्रभावी हुआ-समूचे बंगाल में शोक दिवस के रूप में मनाया गया। जैसा कि सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने कहा, ‘‘हमें लगा कि हमें अपमानित और लज्जित किया गया और छला गया था। हमें लगा कि हमारा सारा भविष्य दांव पर था, और यह प्रहारं बंगला भाषी लोगों की बढ़ती हुई एकजुटता और आत्मचेतना पर जानबूझकर किया गया था बंटवारा हमारी राजनीतिक प्रगति और उस घनिष्ठ हिंदू.मुस्लिम एकता के लिए घातक होगा जिस पर भारत की प्रगति की संभावनाएं इतनी अधिक निर्भर थीं।’’
बंटवारा 1911 में वापस तो ले लिया गया, लेकिन इसने स्थायी परिणाम छोड़े। सरकार का जो विरोध हुआ वह हिंसक और भयंकर था। यह क्रांतिकारी गतिविधियों और राजनीतिक अतिवाद के विस्फोट की भूमिका था। बमों का बनाना और इस्तेमाल, अंग्रेजों और उनका साथ देने वालों और राजनीतिक रूप से संदिग्ध व्यक्तियों की हत्या राजनीतिक विरोध के आम हथियार बन गये। यह बात नहीं कि आक्रामक राष्ट्रवाद से इनका संबंध नहीं था। फिर भी बेपरवाही और हिंसा के मामले में ये आक्रामक राष्ट्रवाद से कहीं बढ़िया थे।

अतिवादियों की देशभक्ति उन लोगों पर भी स्पष्ट थी जो उनसे सहमत नहीं थे, लेकिन उनके तरीके भयावह थे, और देखने में हत्या से भिन्न नहीं थे।

आक्रामक राष्ट्रवाद का प्रभाव और इसका समकालीन महत्व
पीछे हम आक्रामक राष्ट्रवाद की विशेषताओं और उन परिस्थितियों के बारे में बता चुके हैं, जिन्होंने इसे जन्म दिया। यहां हम संक्षेप में इन बिंदुओं पर विचार करेंगे, 1) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर आक्रामक राष्ट्रवाद का प्रभाव, और 2) समकालीन राजनीति में इसका महत्व

हमारे देश में आजादी के लिए हुए आंदोलन के इतिहास में आक्रामक राष्ट्रवाद का एक अलग ही युग था। बीसवीं सदी की शुरुआत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का चरित्र आक्रामक राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि थी। यह एक राजनीतिक आंदोलन था, जिसने उन्नीसवीं सदी के अंत के धार्मिक जागरण से प्रेरणा ग्रहण की।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर उसके शुरुआती दौर मेंए और बीसवीं सदी के शुरुआती कुछ सालों में उदारवादियों और नरमपंथियों का दबदबा रहा। अंग्रेजी हुकूमत के प्रति उनकी वफादारी और भरोसे की अभिव्यक्ति और उससे निवेदन के उनके तरीकों से नयी पीढ़ी के पढ़े.लिखे नौजवानों और नेताओं में क्षोभ व्याप्त हो गया। उन्होंने यह मांग की कि कांग्रेस खल कर शासकों का विरोध करे और अधिक निर्णयात्मक तौर पर और तेजी से कार्यवाही करे।

आक्रामक राष्ट्रवादियों के तरीके और कार्यक्रम इसी मांग का जवाब थे।। आक्रामक राष्ट्रवादी नरमपंथियों के तरीकों में बदलाव की वकालत तो करते थेए लेकिन वे हिंसा के हिमायती नहीं थे। इस बात को श्री अरबिंदो घोष ने (देशवासियों के नाम खुले पत्र) ‘ऐन ओपन लेटर टू माई कंट्रीमैन‘ में, जुलाई 1909 में, इस तरह रखा: ‘‘हमारी कठिन स्थितियां साहस किंत सावधानी के साथ चलने की मांग करती हैं‘‘‘हमें सचेत हो कर कानून का पालन करते हुए ही हरेक लाभ उठाना है, कानून जो संरक्षण देता है, उसका लाभ, और इसमें हमारे लिये अपने उद्देश्य और अपने प्रचार को आगे बढ़ाने की जो गंुजाइश है, उसका भी लाभ उनका तर्क था कि राजनीतिक अतिवाद की जिम्मेवारी सरकार पर थी। सरकार की जो गंुजाइश है, उसका भी लाभ उनका तर्क था कि राजनीतिक अतिवाद की जिम्मेवारी सरकार पार थी। सरकार की बर्बरता ने ही अतिवादियों को हिंसा और क्रूरता से काम लेने पर मजबूर किया। सरकार अपने तरीके बदल दे तो ऐसे राजनीतिक पागलपन का भी खात्मा हो जायेगा। दिसम्बर 1920 में, बोलते हए लाला लाजपत राय ने कहा था, ‘‘देश को अंशांत करने वाली हत्या की छिटपुट घटनाओं से श्हमारा कोई संबंध नहीं है, हम एक बार साफ तौर पर और दृढ़ता के साथ अपने आपको इन घटनाओं से अलग कर चुके हैं। और हमें और आगे उन पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। ये एक बदबूदार और हानिकर नीति का बदबूदार और हानिकर फल है। और जब तक उस नीति के लेखक अपनी गलतियों को ठीक नहीं करते, तब तक कोई भी इंसानी ताकत इस विष-वृक्ष को विषैला फल देने से रोक नहीं सकती‘‘‘मैं उन लोगों में से हैं जो यह विश्वास करते हैं किए मौका आने पर, हरेक राष्ट्र को एक दमनकारी, तानाशाह सरकार के खिलाफ सशस्त्र बगावत का अधिकार होता हैए लेकिन मैं इस बात में विश्वास नहीं करता कि इस समय हमारे पास इस तरह की बगावत के लिए साधनए या इच्छा तक भी है।ष् अगर शासकों के साथ हिंसक टकराव के तरीकों का इस्तेमाल उस समय किया गया होता जब सरकार तैयार और होशियार नहीं थी तो ये तरीके सफल भी हो सकते थे। इस स्थिति में पूरे देश में अगर धड़ाधड़ हमले किये गये होते तो सरकार गिर भी सकती थी। लेकिन अब सरकार का पलड़ा भारी हो चुका था और ऐसे कोई भी तरीके बेकार ही जाने थे। कानूनी तौर पर उचित और दृढ़ विरोध और स्वदेशी, स्वावलम्बन और राष्ट्रीय क्षमता के जरिये राष्ट्रीय शक्ति का विकास समय की तुरंत मांग थी। अब राष्ट्रीय विकास के एक रचनात्मक कार्यक्रम और राष्ट्रीय शिक्षा का क्रियान्वयन आवश्यक था।

आक्रामक राष्ट्रवादियों के असहयोग कार्यक्रम को कांग्रेस ने स्वीकार कर लिया था, हालांकि गांधी ने जल्दी ही, लाला लाजपत राय के शब्दों में ‘‘असहयोग के पहले अहिंसक जोड़ दिया, और इसे एक नैतिक और राजनीतिक कार्यक्रम बना दिया। आक्रामक राष्ट्रवाद की विचारधारा के हिमायती गांधी के कार्यक्रम के नैतिक पक्ष को लेकर उत्साही नहीं थे और उसे यथार्थवादी, अव्यवहारिक और राजनीतिक दृष्टि से मूर्खतापूर्ण मानते थे। वे विशद्ध राजनीतिक दृष्टिकाण से असहयोग के खिलाफ नहीं थे। विद्यमान परिस्थितियों में सरकार से टकराने, और आजादी की लड़ाई जारी रखने का यह एकमात्र उपलब्ध तरीका था। उनका विरोध इस बात को लेकर था कि गांधी ने इसे साथ ही साथ एक नैतिक कार्यक्रम भी बना दिया था। उनकी दृष्टि में यह अपेक्षा करना उचित नहीं था कि सभी राजनीतिक कायकर्ता और आम आदमी भी गांधी जी के निर्धारित नैतिक स्तर तक उठ पायेंगे। लाला लाजपत राय ने चैरी चैरा कांड को लेकर गांधी द्वारा अचानक बारदोली सत्याग्रह खत्म कर देने का फैसला करने की घोर आलोचना की। एक क्रोधी भीड़ के हाथों कुछ पुलिस वालों को जलाकर मार डालने की इस घटना से गांधी इतने क्षुब्ध हुए कि उन्होंने अचानक सत्याग्रह रोक दिया। राजनीतिक दृष्टि से यथार्थवादीय आक्रामक राष्ट्रवादी इस अप्रत्याशित घटनाक्रम से बहुत निराश हुए। उनके साथ अनेक देशवासियों को भारी निराशा हुई।

आक्रामक राष्ट्रवादियों ने धार्मिक जागरण से प्रेरणा तो ग्रहण की लेकिन वे धर्म और राजनीति को मिलाने के खिलाफ थे। वे जिस धर्म की वकालत करते थे, वह किसी धर्म या मत से अधिक व्यापक अवधारणा थी। उनका धर्म विस्तार में सार्वभौमिक था, हालांकि ऊपर से देखने पर यह हिंदू धर्म जैसा दिखता था। वे अच्छी तरह से जानते थे कि भारत कई धर्मों वाला देश है और इन धर्मों को एक दूसरे को समझना चाहिये और एक ही मंजिल पर पहुंचाने वाले अलग-अलग रास्तों की तरह साथ-साथ रहना चाहिये। आक्रामक राष्ट्रवादियों की प्रेरणा का स्रोत अगर धर्म था तो, फिर वे धर्म और राजनीति को मिलाने का विरोध क्यों करते थे क्या वे अपनी ही नीति का विरोध नहीं कर रहे थे, विशेष तौर पर क्योंकि उनमें से कुछ लोग राजनीतिक जनजागरण के लिये धार्मिक चिन्हों का आह्वान कर रहे थे?

इन सवालों का जवाब विभिन्न संप्रदायों के आपसी संबंधों की उनकी समझ और उनकी धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा में मिलता है। उनका मानना था कि विभिन्न धर्मों और विभिन्न संप्रदायों को धर्म के एकताबद्ध करने वाले प्रभाव में या जीवन और समाज के सार्वभौम नैतिक नियम के तहत एक व्यापक रूप से एकताबद्ध राष्ट्र में साथ-साथ रहना सीखना चाहिये। इस अर्थ में एक जोड़ने वाली शक्ति है, जो तमाम धर्मों और मतों से। ऊपर होते हुये भी किसी की विरोधी नहीं है। लाला लाजपत राय ने हिंदू-मुस्लिम समस्या के संदर्भ में धर्म के एकताबद्ध करने वाले प्रभाव की साफ व्याख्या की: ‘‘हिंदू-मुस्लिम एकता का जुमला केवल प्रतीकात्मक है। यह अनन्य (किसी और को न स्वीकार करने वाला) नहीं है, बल्कि समावेशी (और को भी मिलाकर रखने वाला) है। जब हम हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करते हैं तोए हम सिख, इसाई, पारसी, बौद्ध और जैन जैसे दूसरे धार्मिक समदायों को अपनी एकता की अवधारणा से या अपने राष्ट्रत्व के विचार बाहर नहीं रखते। भारतीय राष्ट्र जैसा अब है, जैसे हम उसे बनाना चाहते हैं, वह न तो
विशुद्ध रूप से हिंदू होगा, न मुस्लिम, न सिख, और न ईसाई। यह सब कुछ होगा। यह मेरा स्वराज का आदर्श है। यह मेरा राष्ट्रत्व का लक्ष्य है।’’ हिंदू नेता भले ही धर्म और मत से बढ़कर सनातन धर्म की प्रशंसा करते रहे, लेकिन दूसरे लोग इस ओर से ही संदेही रहे। उन्होंने इसे बहुसंख्यकों के धर्म के रूप में ही देखा, जिसकी मंशा दूसरे धर्म के अल्पसंख्यकों पर प्रभत्व जमाने की थी। महाराष्ट्र में गणपति पर्व जैसे धार्मिक पर्वो के राजनीतिक इस्तेमाल से विशेष तौर पर मुसलमानों में संदेह और भय पैदा होना लाजिमी था। शिवाजी पर्व तो इस मामले में और भी बढ़कर था। अल्पसंख्यकों को सांप्रदायिक धार्मिक आधार पर प्रतिनिधित्व देने की नीति से अलगाववाद की शुरुआत हुई और इसी के कारण आगे चलकर देश का बंटवारा हुआ। आक्रामक राष्ट्रवादी सांप्रदायिक मसले की गंभीरता को समझते थे, लेकिन इसके प्रति उनका दृष्टिको.ा हट कर था। उनका विचार यह था कि देश की एकता के लिये काम करते हुए धार्मिक अनेकता की रक्षा की जानी चाहिये। लेकिन वे इस बारे में बहुत दृढ़ थे कि एकता विभिन्न संप्रदायों के बीच आदान-प्रदान और समझ की भावना के जरिये आनी चाहिये। वे रियायतों और राजनीतिक सौदेबाजी की नीति के बिल्कुल खिलाफ थे। उनका सोचना था कि राजनीतिक लाभ के लिये दी गयी रियायतों से अल्पसंख्यक की ग्रंथि ही मजबूत होगी और अल्पसंख्यक समुदाय और भी महत्वाकांक्षी और आक्रामक होते जायेंगे। इस तरह से इस मसले के प्रति उनका दृष्टिकोण आदर्शवादी होने के साथ-साथ वे निडर और यथार्थवादी भी थे।

बोध प्रश्न
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प्रश्न: समकालीन राजनीति में आक्रामक राष्ट्रवाद का क्या महत्व है?

 सारांश
इस तरह, हमने देखा कि भारतीय राष्ट्रवाद में एक बुनियावे बदलाव 1905 में आया, और उसके बाद 1919 में कुछ हद तक फिर बदलाव आया। इस बदलाव के बावजूद उसमें निरंतरता के तत्व भी मिलते हैं। कुछ विद्वानों का मत इसके विपरीत है, फिर भी अतिवादियों के उदय के साथ जो एक प्रमुख बदलाव इसमें आया, वह था पूर्ण स्वाधीनता की और भी जोरदार मांग, जबकि नरमपंथियों का जोर अंग्रेजी हुकूमत के तहत एक किस्म का स्वशासन और सुधार।

इसके साथ ही अतिवादियों का जोर स्वाधीनता संग्राम में जनसाधारण और जनसंघर्ष पर था। नरमपंथियों ने तो राजनीतिक गतिविधि को पढ़े-लिखे तबके तक ही सीमित रखने की बात सोची थी, लेकिन, दूसरी ओर तिलक और बी.सी. पाल जैसे नेताओं की अट श्रद्धा जनसाधारण की सक्रियता की शक्ति और भारतीय जनता की क्षमता में थी। इसलिये उन्होंने राजनीति की कलीन अवधारणा को तोड़कर राजनीति को जनसाधारण तक पहुंचाया। नरमपंथी तो यह मान कर चलते थे कि जनवादी ब्रिटिश नागरिकों और पढ़े-लिखे भारतीयों के जनमत की शक्ति ही काफी होगी, लेकिन अतिवादी सामूहिक राजनीतिक दबाव पर निर्भर करते थे। कुछ विद्वानों का मत है कि वास्तव मेंए 1905 के बाद राष्ट्रवादी आंदोलन में नियादी रणनीति नहीं बदली, बल्कि उपनिवेशीय सरकार पर डाले जाने राजनीतिक दबाव का रूप बदला था। इस तरह, बाद के राष्ट्रवादियों ने आवेदनों और निवेदनों का रास्ता छोड़ कर जुलूसों और प्रदर्शनों आदि का वह रास्ता अपनाया जिसमें जनजागरण शामिल था। इसके साथ ही जनजागरण के लिये जनप्रिय चिन्हों का भी इस्तेमाल होने लगा, जिनमें धार्मिक चिन्हों का उचित इस्तेमाल शामिल था।

जैसा कि ऊपर की बातों से देखा जा सकता है, राजनीतिक आंदोलन के तरीकों का बदलता रूप आक्रामक राष्ट्रवाद के तरकों के बदलते रूप का संकेत था। अब क्रांतिकारी जन के वर्ग तेजी से राष्ट्रीय आंदोलन के स्थायी भागीदार बन रहे थेए कलीन वर्ग नहीं। वास्तव में, आक्रामक राष्ट्रवादियों के आने से जो बदलाव आया, उसका सार यही है।

फिर भी, इन बदलावों के बावजूद, हम यह कह सकते हैं कि आक्रामक राष्ट्रवाद के साथ पहले राष्ट्रवाद की निरंतरता बनी रही। यह निरंतरता इस तथ्य में स्पष्ट थी कि आक्रामक राष्ट्रवादी, राजनीतिक कार्यवाही के स्वरूपों के प्रति अपने दृष्टिकोण और नीतियों के अर्थ में, अपने पहले के राष्ट्रवादियों द्वारा निर्धारित सीमाओं को लांघ नहीं पाये। नरमपंथियों ने यह निर्धारित कर दिया कि आजादी की लड़ाई शांतिपूर्ण और रक्तहीन होगी। राजनीतिक प्रगति का आधार व्यवस्था होगी। विपिन चंद्र पाल के अनुसार, कुछ नेता सिद्धांत में इस नीति से कुछ हटे, भी, लेकिन व्यवहार में उन्होंने भी इसी ढांचे के अंदर काम किया। गांधी के पहले के आक्रामक राष्ट्रवादियों ने जरूर संघर्ष के स्वरूपों में भारी फेरबदल की थी। उन्होंने संघर्ष के स्वरूपों की एक कहीं ऊंची अवधारणा का विकास किया, लेकिन वे भी ऐसे किसी राजनीतिक ढांचे की बात नहीं कर सके जो मात्र आंदोलन की सीमाओं को लांघता हो, जबकि वे नरमपंथियों पर इसी पाप का दोष मढ़ते थे।

उपयोगी पुस्तकें
दि एक्स्ट्रीमिस्ट चैलेंज, अमलेश त्रिपाठी, ओरियंट लांगमैन।
हिस्ट्री ऑफ द फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया, खंड 3-ताराचंद, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार।
लाइफ ऐंड वर्क ऑफ लाल, बाल एंड पाल।
पालिटिक्स ऐंड सोसायटी, जी.एन.ा् शर्मा और मुईन शकीर-परिमल प्रकाशन, औरंगाबाद।
अध्याय 3
बिपिन चंद्र पाल ऐंड इंडियाज स्ट्रगल फॉर स्वराज, हरिदास और उमा मुकर्जी, कलकत्ता।
इंडियाज फाइट्स फॉर फ्रीडम, हरिदास और उमा मुकर्जी, कलकत्ता।
बिपिन चंद्र, नेशनलिज्म एंड कॉलोनियलिज्म।

हिंसात्मक राष्ट्रवाद

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