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Categories: इतिहास

ऐहोल प्रशस्ति के रचयिता कौन है aihole in hindi ऐहोल अभिलेख के लेखक क्या हैं ? पुलकेशिन द्वितीय अभिलेख

ऐहोल अभिलेख के लेखक क्या हैं ? पुलकेशिन द्वितीय अभिलेख aihole in hindi ऐहोल प्रशस्ति के रचयिता कौन है

प्रश्न: ऐहोल
उत्तर: कर्नाटक राज्य के बीजापुर जिले में यह स्थान है। यहाँ से चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय का लेख मिलता है जो प्रशस्ति के रूप में है।
इसकी स्थिति 634 ई. है। इसकी रचना रविकीर्ति ने की थी। इसकी रचना कालिदास तथा भारवि की शैली पर की गयी है। इसमें पुलकेशिन् द्वितीय की उपलब्धियों का वर्णन मिलता है। हर्ष-पुलकेशियन् युद्ध का भी उल्लेख इस लेख में हुआ हैं।
चालुक्य युग में ऐहोल कला और स्थापत्य का प्रमुख केन्द्र बन गया था। इसे मन्दिरों का नगर” कहा गया है। यहाँ से 70 मन्दिरों के अवशेष प्राप्त होते हैं। अधिकांश मन्दिर विष्णु तथा शिव के हैं। हिन्दु गुहा-मन्दिरों में सबसे सुन्दर सूर्य का एक मन्दिर है जिसे लाढ़ खाँ कहा जाता है। यह वर्गाकार है यह वर्गाकार है तथा इसकी छत स्तम्भों पर टिकी हुई है। मन्दिर के एक किनारे पर मण्डप तथा दूसरे किनारे पर गर्भगृह बना है। इससे सर्वथा भिन्न दुर्गा का मन्दिर है। जिसमें । नटराज शिव की मूर्ति है। मन्दिर का निर्माण एक ऊँचे चबूतरे पर किया गया है। गर्भगृह के ऊपर एक शिखर तथा बरामदें में प्रदक्षिणापथ बनाया गया है। ऐहोल में ही रविकीर्ति ने जिनेन्द्र का मन्दिर बनवाया था जिसे मेगुती मन्दिर कहा जाता है। यहाँ की कुछ गुफाओं में जैन तीर्थकरों की मूतियाँ भी मिलती हैं। ऐहोल के मन्दिरों का निर्माण गुहाचैत्यों के अनुकरण पर किया गया था। केवल धातुगर्भ के स्थान पर इनमें पूर्ति स्थान बनाया गया है। यहाँ के मन्दिर भारत के प्राचीनतम् मन्दिरों की कोटि में आते हैं।
प्रश्न: कन्हेरी
उत्तर: महाराष्ट्र प्रान्त के उत्तरी कोंकण क्षेत्र में स्थित कृष्णगिरि पहाड़ी एक भाग कन्हेरी है। कन्हेरी कृष्णगिरि का अपभ्रंश प्रतीत होता है। शक-सतवाहन युग में यह कला का एक प्रमुख केन्द्र था जहाँ पर्वत गुफाओं को काटकर चैत्य एवं विहार बनाये गये थे। यहाँ कर चैत्यगृह उल्लेखनीय है। इसकी गुफा के बाहर बुद्ध की अनेक मूर्तियाँ बनी हुई हैं। चैत्यगृह के भीतर भी महायान बौद्धधर्म से संबंधित अनेक मूतियाँ बनी हैं। गुफा की दीवारों पर अजन्ता के समान ही चित्रकारियाँ बनी थीं जो अब नष्ट हो गयी हैं।
प्रश्न: काञ्ची
उत्तर: वर्तमान तमिलनाड का कंजीवरम् नामक जनपद ही प्राचीन काल में काञ्ची अथवा काञ्चीपुरम् नाम से विख्यात् था। यह दक्षिणी भारत का
एक प्रमुख तीर्थस्थल था जिसकी गणना सात पवित्र एवं मोक्षदायिका नगरयों में की जाती थी – अयोध्या मधुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः ॥
काञ्ची का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से भारतीय इतिहास में अत्यधिक महत्व था। सुदूर दक्षिण में शासन ने वाले पल्लव राजवंश की यहाँ राजधानी थी। समुद्रगुप्त के प्रयाग लेख में काञ्ची के राजा विष्णुगोप का उल्लेख हआ है जिसे उसने पराजित किया था। पल्लव राजाओं के काल में काजी की महती उन्नति हुई। यहाँ अनेक चैडी सडकें. विद्यालय, मन्दिर एवं विहार बने हुए थे। यहाँ का संस्कृत महाविद्यालय पूरे देश में प्रसिद्ध था यहाँ अध्ययन करने के लिये दर-दूर से लोग पहुँचते थे। इसके समीप एक मण्डल में महाभारत का नियमित पाठ होता था। कम्दबनरेश मयरशर्मा ने यहीं शिक्षा प्राप्त की थी तथा नालन्दा के कुलपति धर्मपाल ने भी यहीं रहकर शिक्षा प्राप्त की थी। चीनी यात्री हएनसांग ने भी काञ्जी की यात्रा की तथा वहाँ कुछ समय तक निवास किया था। वह लिखता है कि यहाँ सौ से अधिक बौद्ध विहार थे जिनमें दस हजार भिक्षु निवास करते थे। नगर की परिधि छः मील थी। काजी का संबंध भारवि तथा दण्डी जैसे महाकवियों से भी था। सोलहवीं शताब्दी में विजयनगर के शासकों ने काजी में अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया था। उनके द्वारा बनवाये गये मन्दिर आज भी इस नगर की शोभा बढ़ाते हैं।
प्रश्न: कार्ले
उत्तर: यह महाराष्ट्र के पुणे (पूना) जिले में स्थित है। यहाँ पहाड़ को काट कर चैत्य बनाया गया है जो भारत के सभी खोर चैत्य गृहों में सबसे विशाल एवं सुन्दर है। यह 124 फीट तीन इंच लम्बा 45 फीट 5 इंच चैड़ा तथा 46 फीट ’पुर गुफा के प्रवेशद्वार पर एक विशाल स्तम्भ बना हुआ है जिसके ऊपर चार सिंह विराजमान है। मण्डप के भीतर जाने लिये तीन प्रवेशद्वार हैं। द्वारों के सामने का भाग स्त्री-पुरुषों की आकृतियों से अलंकृत किया गया है। चैत्य गह के पर उत्कृष्ट नक्काशी भी मिलती है। इसका भव्य परिणाम एवं सुन्दर नक्काशी दर्शकों का मन विशेष आकष्ट कमीष् कार्ले चैत्य का निर्माण सातवाहन युग (ई. पू. प्रथम शती के लगभग) में हुआ था। इसके विषय में यहाँ एक लेखन हुआ है जिसके अनुसारं वैजयन्ती के भूतपाल नामक श्रेष्ठि (व्यापारी) ने इसका निर्माण करवाया था।
प्रश्न: खजुराहो
उत्तर: मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में यह स्थान स्थित है। प्राचीन काल में यह बुन्देलखण्ड का एक प्रमुख नगर था। चन्देल राजपूत शासकों ने इस नगर को विशाल तथा भव्य मन्दिरों से सुसज्जित करवाया था। उनके द्वारा बनवाये गये तीस मन्ति आज भी यहाँ विद्यमान हैं। इनका समय सामान्यतः दसवीं-ग्यारहवीं शती का है। कुछ मन्दिर इससे पूर्व के हैं। मन्दिर और तथा हिन्दू दोनों ही धर्मों से संबंधित हैं। जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ का मन्दिर सर्वप्रसिद्ध एवं बड़ा है। यह 62श् ग 31श् के आकार का है। मन्दिर की बाहरी दीवारों पर जैन मूर्तियों की तीन पंक्तियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं। खजुराहों का सबसे श्रेष्ठ मन्दिर‘श्कन्दारिया महादेव मन्दिरश् है। यह 109श् ग 60श् Û 116श् के आकार में बना हुआ है। मन्दिर वास्तुकला का उत्कष्ट उदाहरण है। इसका प्रत्येक भाग सुन्दर मूर्तियों से उत्खचित है। कनिंघम की गणना के अनुसार यहाँ केवल दो या तीन फट ऊँचाई वाली मूर्तियों की संख्या 872 हैं। मन्दिर पर उत्तुंग शिखर हैं। मन्दिर के शिल्पकला की प्रशंसा सभी विद्वानों ने की है। कन्दारिया महादेव मन्दिर अपनी विशालता, सुदृढ़ता एवं भव्यता के लिए पूरे देश में प्रसिद्ध मन्दिर चैंसठ योगिनियों का है जिसका निर्माण संभवतः सातवीं शती में हुआ था। खजुराहो के मन्दिर पर उत्कीर्ण कुछ मूर्तियाँ अत्यन्त अश्लील हो गयी है। इनके ऊपर संभवतः तांत्रिकों का प्रभाव लगता है। कलात्मक दृष्टि से ये उच्चकोटि की हैं। समग्ररूप से खजुराहों की वास्तु तथा मूर्ति दोनों ही कलायें अत्यन्त सराहनीय हैं तथा दर्शकों का मन सहज ही अपनी ओर आकर्षित करती हैं। खजुराहों के मन्दिरों की दीवारों से चन्देल वंश के शासकों गण्ड तथा यशोवर्मा के लेख भी प्राप्त हैं।
प्रश्न: गंगैकोण्डचोलपुरम्
उत्तर: तमिलनाडु प्रान्त के त्रिचनापल्ली जिले में स्थित गंगैकोण्डचोलपुरम् प्राचीनकाल में चोल वंश के शक्तिशाली राजा राजेन्द्र प्रथम (1101-1114 ई.) की राजधानी थी। इसकी स्थापना उसने अपने गंगाघाटी के अभियान की सफलता के उपलक्ष में करवाई थी तथा स्वयं श्गंगैकोण्डश् की उपाधि धारण की थी। यहाँ उसने एक भव्य मन्दिर का भी निर्माण करवाया था। यह 340श्ग10श् के आकार में बना है। इसका आठ मंजिला विमान.100 वर्ग फीट के आधार पर बना है तथा 186 फीट ऊंचा है। मन्दिर के भीतर एक विशाल मण्डप है। मन्दिर की दीवारों पर अलंकृत चित्रकारियाँ तथा भव्य मूर्तियाँ मिलती हैं। मन्दिर के समीप सिंहतीर्थ नामक कूप है। गंगैकोण्डचोलपुरम् का नगर चोल युग में अत्यन्त विकसित एवं समृद्धशाली था।
प्रश्न: गन्धार
उत्तर: पाकिस्तान के पेशावर तथा रावलपिण्डी जिलों की भूमि में प्राचीन गन्धार राज्य बसा हुआ था। इसका उल्लेख प्राचार साहित्य में मिलता है। ऋग्वेद में यहाँ के निवासियों को श्गान्धारीश् कहा गया है तथा इस प्रदेश के भेड़ों की प्रशंसा की ऽ गयी है। रामायण तथा महाभारत में भी इसका उल्लेख है। महात्मा बुद्ध के कुछ पूर्व हम गन्धार का उल्लेख एक महाजनपद के रूप में अंगुत्तर निकाय में पाते है। ईसा पूर्व छठी शताब्दी के मध्य यहाँ पुक्कुसाति अथवा पुष्करसारित नामक राजा राज्य करता था। उसने अवन्तिराज प्रद्योत पर आक्रमण कर उसे पराजित किया था। कुषाणकाल में गन्धार प्रद में कला की एक विशेष शैली का जन्म हुआ जिसे श्गन्धार कलाश् कहा जाता है। इसमें बुद्ध की मूर्तियाँ प्रथम बार पा में बनाई गयीं तथा भारतीय विषयों को यूनानी ढंग से व्यक्त किया गया। गन्धार राज्य की राजधानी तक्षशिला थी। शिक्षा एवं साहित्य का एक प्रमुख केन्द्र थी।
प्रश्न: तंजौर
उत्तर: तमिलनाडु के त्रिचनापल्ली जिले में स्थित तन्जौर नामक नगर प्राचीन समय में सुप्रसिद्ध चोल शासकों की राजधानी यह नगर कावेरी नदी के दक्षिण की ओर बसा है। चोल राजाओं के काल में इसकी महती उन्नति हुई। प्रसिद्ध शासक राजराज ने 1000 ई. के लगभग यहाँ के बृहदीश्वर (राजराजेश्वर) मन्दिर का निर्माण करवाया था। यह 500श् के आकार वाले विशाल प्रांगण में स्थित है। इसमें मध्यकालीन वास्तुकला के सभी लक्षण मिलते हैं। मा गर्भगृह, मण्डप तथा विमान सभी आकर्षक हैं। विमान 190 फीट ऊँचा है। मन्दिर की तीन बाहरी दीवारों पर देवी-देवताओं की कलात्मक प्रतिमायें बनी हुई हैं। गर्भगृह को भी अनेक सुन्दर मूर्तियों तथा चित्रों से अलंकृत कि यह 500श्ग 500श् है। मन्दिर के दावारों पर विभिन्न अलकृत किया गया है।
यह मन्दिर दक्षिणी भारत का सर्वश्रेष्ठ हिन्द मन्दिर माना जाता है। प्रो. नीलकण्ठ शास्त्री के शब्दों में ष्भारत के मन्दिरों में सबसे बड़ा तथा लम्बा यह मन्दिर एक उत्कष्ट कलाकति है जो दक्षिण भारतीय स्थापत्य के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करता है। द्रविड़ शैली का यह सर्वोत्तम नमूना है।ष् बृहदीश्वर (शिव) के मन्दिर के अतिरिक्त तन्जौर से कई अन्य मन्दिरों के भी उदाहरण मिलते हैं। इनमें सुब्रह्मण्यम् मन्दिर । तथा रामानाथस्वामी का मन्दिर उल्लेखनीय है। कुल मिलाकर यहाँ 75 से भी अधिक छोटे-बड़े मन्दिर विद्यमान हैं।

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