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आहड़ सभ्यता की प्रमुख विशेषता , स्थल उत्खनन किसने किया कहाँ स्थित है ahar civilization in hindi

ahar civilization in hindi आहड़ सभ्यता की प्रमुख विशेषता , स्थल उत्खनन किसने किया कहाँ स्थित है ?

आहड़

जिस समय हरियाणा, पंजाब, सिंघ, गुजरात, उत्तरी राजस्थान तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हड़प्पा संस्कृति के निवासी रह रहे थे, उसी समय या उसके कुछ ही समय पश्चात् दक्षिण-पूर्वी राजस्थान जिस संस्कृति का उदय हुआ. वह ‘आहड़ संस्कृति’ या ‘बनास संस्कृति के नाम से जानी जाती है। इ संस्कृति का सर्व प्रथम ज्ञान उदयपुर नगर के पूर्व में स्थित आहड़ नामक ग्राम से लगा, इसीलिए इसे ‘आहड़ संस्कृति’ कहा गया है। इसी प्रकार इस संस्कृति के अनेक पुरास्थल बनास नदी के तटवर्ती क्षेत्रों में मिले हैं, जिसके कारण इसे ‘बनास संस्कृति’ के नाम से भी जाना जाता है। बनास नदी घाटी में अ तक लगभग 50 पुरास्थल खोजे जा चुके हैं, जिनमें अहाड़, गिलूण्ड, बालाथल और ओजियाना का उत्खनन किया जा चुका है। इस संस्कृति की दो प्रमुख विशेषताएँ हैं प्रथम ये लोग ताम्र धातु कभी थे, द्वितीय ये काले एवं लाल रंग के मृदयाओं का उपयोगकर्ता थे।

इस संस्कृति के प्रमुख स्थल अहाड़ को रत्नचन्द्र अग्रवाल ने 1954 ई. में खोजा। तत्पश्चात् अन्य पुरास्थलों के प्रकाश में आने के पश्चात् यह स्पष्ट हुआ कि यह संस्कृति उदयपुर, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा और डूंगरपुर जिलों में विस्तृत थी।

सामाजिक जीवन – यह ग्रामीण संस्कृति थी यहाँ के निवासी अपनी आवश्यकता की वस्तुओं का निर्माण यहीं कर लेते थे और इन वस्तुओं के निर्माण के लिए कच्चा माल आस पास के क्षेत्रों से लाया करते थे। उत्खनन से यह स्पष्ट हुआ है कि 2000 ई. पू. के लगभग ये लोग इस स्थान पर आगे और पू स्थानीय तौर पर उपलब्ध प्रस्तरादि से नींव डाल कर आवासों का निर्माण किया। इनकी दीवारें ईंटों की बनायी गयी थी. कुछ दीवारें बांस की चटाइयों के दोनों ओर मिट्टी का लेप करके भी बनायी गयी थी। फर्श काली चिकनी मिट्टी को कूट-कूट कर बनायी जाती थी। आवासों की छत धारा फूस, बांस बल्लियों की सहायता से हल्के वजन की बनायी जाती थी। वर्तमान कालीन आवासों की तरह यह छत दोनों ओर से ढलवाँ बनायी जाती थी आवास पर्याप्त लम्बे होते थे जिन्हें बीच में दीवारें खड़ी करके अनेक खण्डों में बांट लिया जाता था। एक ओर के खण्ड को रसोई के रूप में प्रयोग किया जाता था। एक रसोई में एक साथ छः चूल्हे प्राप्त हुए हैं तथा इनमें से एक पर मानव हथेली की छाप भी प्राप्त हुई है।

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आहड़ संस्कृति के निवासी गेहूँ, ज्वार एवं चावल का खाद्यानों के रूप में उपयोग करते थे इनके भवनों में मछली, कछुआ, भेड़, बकरी, भैंसा, मुर्गी, हिरण, सुअर आदि जानवरों की हड्डियाँ आप्त हुई हैं। इस प्रकार इन्हें शाकाहार के साथ-साथ मांसाहारी प्रिय था।

आभूषणों में यहाँ के निवासी मणकों से निर्मित लड़ियों वाले हार, मालाएँ तथा मिट्टी एवं ताम्र से निर्मित कर्णाभूषण एवं चूड़ियाँ धारण करते थे।

धार्मिक जीवन =  उत्खनित सामग्री से आहड़ संस्कृति के निवासियों के धार्मिक जीवन पर कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता उत्खनन में दीपों की उपस्थिति से यह संकेत मिलता है कि पूजा का मुख्य अनुष्ठान मानव आकृति, आहद दीपक जलाना रहा होगा। मातृदेवी एवं बैल की मृण्मूर्ति की प्राप्ति से उनका भी विशिष्ट महत्व स्थापित होता है। एक पाषाण खण्ड पर नारी के दोनों पैर उकेरे गये हैं, जिनका भी संभवतः धार्मिक महत्व था। आर्थिक जीवन आहड़ निवासियों के आर्थिक जीवन में कृषि, पशुपालन, ताम्रकला, मृदपात्र कला, व्यापार एवं वाणिज्य आदि सभी साधनों का महत्व था।

आहड़ संस्कृति के निवासी कृषि में गेहूँ, ज्वार एवं चावल की खेती करते थे तथा कृषि उपकरणों में ताम्बे की कुल्हाड़ियाँ उपलब्ध हुई हैं। पशुओं में गाय, भैंस, बैल, भेड़, बकरी पाली जाती थी ये लोग हाथी एवं घोड़े से भी परिचित थे। इनके आर्थिक जीवन में ताम्र उद्योग एवं मृदभाण्ड उद्योग का विशेष महत्व रहा होगा, लेकिन ये उद्योग-धंधे इनके समुदाय के लिए ही थे।

मृदभाण्ड उद्योग प्राचीन काल में धातुओं की अनुपस्थिति में दैनिक जीवन में उपयोग हेतु मिट्टी के बर्तनों का बहुतायत से उपयोग होता था ये मृदपात्र इनकी कला प्रवृत्तियों के भी आधार थे। इनके प्रमुख प्रकार के पात्र काले और लाल रंग के होते थे। इनका निचला भाग तो लाल होता था किन्तु कंधे से ऊपर का एवं भीतर का सम्पूर्ण भाग काला होता था। ये उल्टी तपाई विधि से पकाये जाने के परिणामस्वरूप इस प्रकार के रंग के बन जाते थे इस विधि को विज्ञान की भाषा में क्रमशः ‘अपचयन की स्थिति में ज्वलन और “आक्सीकरण की स्थिति में  छोटी-छोटी बिन्दुओं द्वारा त्रिभुज, चतुष्कोण, वृत्त, रेखाएँ, जालियाँ, घासनुमा आकृति का अंकन किया। जाता था। इन मृदपात्रों के साथ गहरे लाल रंग के मृदभाण्ड भी उपलब्ध हुए हैं। इन पर

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विधि ऊपर चिपकाई गई विधि तथा तराश का अलंकरण किया जाता था। ये पात्र आकार में बड़े थे। संभवतः इनमें अन्नादि संग्रह किया जाता था।

ताम्र उद्योग  : आहड़ के निकटवर्ती क्षेत्र 40 खदानें ऐसी प्राप्त हुई है, जहाँ प्राचीन काल में खनिज निकाला गया है। आहड़ के उत्खनन में ताम्र निर्मित छल्ले सुरमे की सलाइयाँ तथा कुल्हाडियाँ प्राप्त हुई हैं। यही नहीं एक गड्डे में खनिज तथा एक ताम्बे का पत्तर भी मिला है। ये ताम्बे का निष्कर्षण करते थे। विद्वानों का अनुमान है कि ये लोग इस क्षेत्र में ताम्र खनिज उपलब्धता के कारण ही आकर बसे थे। इस संस्कृति के लोग एक सामाजिक ढांचे में व्यवस्थित थे, जिनसे यह आशा नहीं की जा सकती इनके आर्थिक जीवन में व्यापार एवं वाणिज्य की कोई भूमिका थी। फिर यदि अन्य स्थलों से इन लोगों का कोई सम्बन्ध सम्पर्क था तो उसका ए मात्र कारण ताम्र ही रहा होगा।

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“अतः यह स्पष्ट है कि ये लोग अन्यत्र से आये थे अर्थात् आहड़ पुरैतिहासिक काल का एक ऐ केन्द्र था, जिसे बाहर से आये लोगों ने स्थापित किया। प्राकृतिक आकर्षणों ने लोगों को यहाँ खींचा उनसे संस्कृति के नये चरणों का आरंभ दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में कराया। उदयपुर का यह भाग तीन से पर्वतों से घिरा है, जिसमें आवागमन के लिए कुछ घाट बने हैं। उत्तर-पूर्व का यह खुला भाग च और यमुना घाटी की ओर है। इसलिए अतीत में लगभग 2000 ई. पू. में इसी भाग से लोग यहाँ आ ‘इन लोगों ने इस प्रदेश की खोज कैसे की ? यह विषय अज्ञात है। हो सकता है, पर्याप्त मात्रा शिकार के लिए घना जंगल तथा सिंचाई व पीने के लिए पर्याप्त पानी, घर बनाने के लिए आसान से उपलब्ध शिस्ट प्रसार कृषि के लिए उर्वर भूमि, तथा उपकरण एवं अस्त्र-शस्त्रों के लिए सुगमता  का पूरा लाभ उठाया और लगभग 700-800 वर्षों तक रहते रहे।

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