हिंदी माध्यम नोट्स
पुनर्जागरण और प्रबोधन में अंतर क्या है , difference between age of enlightenment and renaissance in hindi
difference between age of enlightenment and renaissance in hindi
प्रश्न: प्रबोधनयुगीन चिंतन एवं पुनर्जागरण में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: प्रबोधनयुगीन चिंतन एवं पुनर्जागरण में निम्नलिखित अंतर निहित थे
(1) पुनर्जागरणकालीन मध्यमवर्ग अभी आत्मविश्वास से युक्त नहीं था, अतः वह इस बात पर बल देता था कि अतीत से प्राप्त ज्ञान ही श्रेष्ठ है और बुद्धि की बात करते हुए उदाहरण के रूप में ग्रीक एवं लैटिन साहित्य पर बल देता था। जबकि प्रबोधनकालीन मध्यवर्ग में शक्ति और आत्मविश्वास आ चुका था। इस कारण उसने राजतंत्र की निरंकुशता एवं चर्च के आंडबर के खिलाफ आवाज उठाई और तर्क के माध्यम से अपनी बात व्यक्त की।
(2) पुनर्जागरण का बल ज्ञान के सैद्धांतिक पक्ष पर अधिक था जबकि प्रबोधन चिंतन का मानना था कि ज्ञान वही है जिसका परीक्षण किया जा सके और जो व्यावहारिक जीवन में उपयोग में लाया जा सके। इस तरह प्रबोधकालीन चिंतन का बल व्यावहारिक ज्ञान पर था।
(3) पुनर्जागरणकालीन वैज्ञानिक अन्वेषण निजी प्रयास का प्रतिफल था। दूसरी तरफ प्रबोधनकालीन वैज्ञानिक अन्वेषण तथा वैज्ञानिक क्रांति सामूहिक प्रयास का नतीजा था।
प्रश्न: यूरोप के बाहर प्रबोधन के प्रसार की विवेचना कीजिए।
उत्तर: अठारहवीं शताब्दी को ‘प्रबोधन की शताब्दी‘ की संज्ञा दी गई है। यूरोपीय प्रबोधन के विचार, मूल्य एवं अन्तर्निहित भावनाओं का प्रसार यूरोप के बाहर अन्य देशों में भी हुआ।
अमेरिका में बौद्धिक चेतना के विकास में शिक्षा, पत्रकारिता एवं विचारकों ने विशेष योगदान दिया। पेनसिल्वेनिया के बौद्धिक विकास पर मुख्यतः दो प्रभावशाली व्यक्तियों की छाप थी- जेम्स लोगन तथा बैंजामिन फ्रैंकलिन। लोगन उपनिवेश का सचिव था और उसी के समृद्ध पुस्तकालय में युवक फ्रैंकलिन को नवीनतम ग्रंथ मिले। फ्रैंकलिन ने फिलाडेल्फिया के बौद्धिक विकास में योगदान दिया। उसने ‘जुण्टो‘ नामक एक क्लब संगठित किया, जिससे ‘अमेरिकन फिलॉसाफिकल सोसाइटी‘ का जन्म हुआ। उसी के प्रयत्नों से एक सार्वजनिक अकादमी की स्थापना हुई, जो आगे चलकर पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुई। चन्दे से पुस्तकालय के विचार का वही मूलं प्रस्तावक था।
उपनिवेशों में ज्ञान की पिपासा सुव्यवस्थित समुदायों की सीमा तक ही नहीं रूकी। सीमान्त प्रदेश में बसे स्कॉट-आयरिश के दृढ़ पुजारी थे और उन्होंने अपनी बस्तियों में विद्वानों को आकृर्षित करने का विशेष प्रयत्न किया।
अठारहवीं शताब्दी में अमेरिका की बौद्धिक चेतना के विकास में टॉमस पैन, जेम्स ओटिस, पैट्रिक हेनरी, सैम्यअल एडम्स आदि उल्लेखीय रहे। इस सब में अत्यन्त लोकप्रिय विचारक टॉमस पेन था। वह यद्यपि अंग्रेज था परन्तु स्वाधीनता के यद के समय अमेरिका में था और उसने अमेरिकावासियों की मदद की थी। इंग्लैण्ड लौटने पर उसने फ्रांस की राज्य क्रांति की पैरवी में ‘द राइट्स ऑफ मैन‘ (मनुष्य के अधिकार) नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उसने राजशाही पर हमला किया और लोकतंत्र की हिमायत की। पेरिस के जेलखाने में उसने ‘ए एज ऑफ रीजन‘ (तर्क का युग) लिखी। इसमें से मजहबी नजरिए की बुराई की।
अंग्रेज और फ्रांसीसी लेखकों की विचारधाराओं ने अमेरिका में एक विशेष प्रकार का अवबोध पैदा कर दिया था और ओटिस ने अंग्रेजी नीतियों पर प्रहार करते हुए कहा था, ‘‘इतिहास में शुरू से लेकर आज तक सभी राजा दमनकारी होते आए हैं. परन्तु इससे दमन करने का अधिकार तो नहीं बन जाता।‘‘ 1761 ई. में ओटिस ने राजा को एक अदालती मुकदमें में हराया, जो कि तलाशी लेने तथा तस्करी के सामान की जब्ती से संबंधित अंग्रेजी सेना के के विरुद्ध था।
फ्रांसीसी समाज में अमेरिकी लेखक-दार्शनिक, फ्रैंकलिन का विशेष प्रभाव था। उसकी लेखनी ने फ्रांस प्रभावित किया और फ्रांसीसी क्रांति में योगदान दिया।
एशिया के देशों के विद्वानों द्वारा पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के सम्पर्क में आने से तथा इन देशों के विद्यार्थी पाश्चात्य देशों में अध्ययन कर लौट आने से भी प्रबोधन का विस्तार सम्भव हुआ। परन्तु इसका अर्थ बिलकुल नहीं है कि यूरोपीय प्रबोधन ने ही इन देशों की पृच्छा एवं विवेक क्षमता को बढ़ाया।
चीन में प्रबोधन का विकास आहिस्ता-आहिस्ता हुआ। यंग विंग पहला चीनी था, जो उन्नीसवीं शताब्दी में अमेरिका पढने गया। 1871 ई. में चीन की सरकार ने यह निश्चय किया कि चीनी यवकों को अमेरिका भेजकर प्राविधिक शिक्षा दिलवाई जाए। अतः युंग विंग की अध्यक्षता में एक योजना बनाई गई। योजना के अनुसार 1872 ई. में तीस चीनी विद्यार्थियों का जत्था अमेरिका भेजा गया। इस प्रकार चीन शेष दुनिया के सम्पर्क में आया।
चीनी बुद्धिवादियों में जो प्रतिभा उभरकर सबसे ऊपर आई वह है- लु शुन। उसे अक्सर जॉर्ज बनार्ड शॉ और मैक्सिम गोकी का सम्मिलित रूप कहा जाता है। उसकी ‘पागल की डायरी‘ और ‘आइ क्यू की कहानी‘ विश्व कथा साहित्य में अद्वितीय और अमर कृतियां हैं।
लु शुन की परम्परा में माओ तुन (1896-1981) हुआ, जिसने अपनी लेखनी में विदेशी आक्रमण, जमींदारी प्रथा, आर्थिक विपन्नता और राष्ट्रीय अव्यवस्था को समाहित किया।
जापान में मेइजी काल में 33 बुद्धिजीवियों ने 1 फरवरी, 1874 को सभ्यता और प्रबुद्धता को बढ़ावा देने के लिए एक संस्था ‘मेरोकुशा‘ का गठन किया। इस संस्था में दो तरह के बुद्धिजीवी थे। एक वर्ग का विश्वास था कि पश्चिम की सफलता की कुंजी नैतिकता में थी। इनमें निशीमुरा शिगेकी प्रमुख था। मेरोकुशा संस्था का सदस्य फुजुजावा युकिची अन्य सदस्यों के समान सरकार में शामिल नहीं हुआ। वह स्वतंत्र बुद्धिजीवी के रूप में काम करता रहा। उसने के विश्वविद्यालय स्थापित करने में सहयोग किया। उसका तर्क था कि लोगों द्वारा अपने भीतर स्वाधीनता का बोध हुए बिना तानाशाही जारी रहेगा।
उस युग में सभ्यता और प्रबुद्धता (बुनमे काईका) सार्वभौमिक सत्यों की खोज और विज्ञान तथा बौद्धिकता के प्रसार के पश्चिमी आदर्शों से प्रेरित थी। इस दौर में पश्चिम के तमाम उदारवादी विचारों को लाया गया और यह काम उसकी एमौरी और नकाए चोमिन, जैसे जनाधिकार समर्थक बुद्धिजीवियों ने किया। उनके विचारों का आधार मनुष्यों की समानता थीं। फुकुजावा ने अपने ग्रंथ ‘डिसएडवांसमेंट ऑफ लर्निंग‘ की शुरुआत इन शब्दों से की, ‘‘ईश्वर ने मनुष्य को मनुष्य के ऊपर नहीं बनाया, न ही मनुष्यों को मनुष्यों के ऊपर रखा।‘‘ ‘बुनमें काईका‘ के बुद्धिजीवी एक ऐसे मुक्त समाज के पक्ष में थे, जहां प्रतिभा को उचित प्रतिदान मिले और जहां अंतर्राष्ट्रीयता का सिद्धांत व्याप्त हो।
पुनरुत्थान युग में पाश्चात्य साहित्य के साथ जापान के बुद्धिजीवियों और लेखकों का सम्पर्क हुआ। प्रारंभ में अंग्रेजी तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं के साहित्य का अनुवाद बड़े पैमाने पर हुआ।
एशिया में प्रबोधन की अभिव्यक्ति सबसे पहले भारत में हुई। आर्थिक लूट और राजनीतिक दमन के बावजूद एशिया के देशों का आधुनिक विज्ञान तथा तकनीक से परिचय हुआ और धीरे-धीरे एक शिक्षित वर्ग का उदय हुआ, जो अपनी भाषा के अलावा अंग्रेजी जानता था। इसी नव-शिक्षित वर्ग के नेतृत्व में भारत सहित अन्य एशियाई देशों में उन्नीसवीं सदी के अंत तथा बीसवीं सदी के प्रारम्भ में नई सांस्कृतिक चेतना फैली, जिसे प्रबोधन अथवा आधुनिक पुनर्जागरण कहा जाता है। भारतीय प्रबोधन के विकास में अमेरिका के स्वातंत्र्य युद्ध, फ्रांसीसी क्रांति, इटली का एकीकरण और गैरीबाल्डी के योगदान से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है। बाद में, भारत के प्रबोधन पर मार्क्स का भी प्रभाव पड़ा।
राजा राममोहन राय (1772-1833 ई.) आधुनिक भारत में जागरण के प्रमुख व्यक्ति थे। बुद्धिवादी तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण को तथा मानव की गरिमा तथा सामाजिक समानता के सिद्धांतों को आधार बनाकर सामाजिक सुधार करने वाले वे प्रथम व्यक्ति थे इसीलिए उन्हें ‘आधुनिक भारत का जनक‘, ‘प्रबोधन का प्रणेता‘ आदि कहा जाता है।
इसी समय बंगाल में हेनरी डेराजियो (1809-31 ई.) ने बंगाली नवयुवक बौद्धिकों की टोली द्वारा विद्यार्थियों में आलोचनात्मक दृष्टिकोण को प्रोत्साहित किया। वह पाश्चात्य प्रबोधन से काफी प्रभावित था। उसने पतनशील रीतियों एवं परम्पराओं पर प्रहार किया। डेराजियो प्रत्येक तथ्य की परीक्षा विवेक की कसौटी पर करता था।
भारतीय बौद्धिक परिदृश्य पर उन्नीसवीं शताब्दी में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द आदि से विचारक एवं सधारक उभरे, जिन्होंने अधिकाधिक बुद्धि के प्रयोग पर बल दिया तथा तत्कालीन भारतीय सामाजिक समस्याओं पर न केवल अपना अभिमत व्यक्त किया अपितु उनका समाधान करने का भी प्रयास किया।
प्रबोधन की सशक्त अभिव्यक्ति महादेव रानाडे के शब्दों में प्रकट है, ‘‘जिस प्रकार के विकास के लिए हम लालायित अथवा पयासशील हैं, वह एक परिवर्तन की प्रक्रिया है, बंधनों से मुक्ति की ओर, भोलेपन से आस्था की ओर, पद-प्रतिष्ठा से अनुबंध, अधिकारिक दंभ से विवेकचेतना, कट्टरता से सहिष्णुता की ओर तथा अंध नियतिवाद से मानवीय गरिमा के स्रोतों की दिशा में।‘‘
प्रश्न: प्रबोधन युग की क्या सीमाएँ थी ? विवेचना कीजिए।
उत्तर: प्रबोधन युग की निम्नलिखित सीमाएं थी –
ऽ प्रबोधनकालीन प्रमुख चिंतक मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी थे। यह चिंतन बुर्जुवा विश्वदृष्टि को अभिव्यक्त करता है। अतः वे मध्यवर्ग के हितों से परिचालित थे।
ऽ ये बुद्धिजीवी कानून के शासन तथा विधि निर्माण पर बल देते थे परन्तु विधि निर्माण में मध्यवर्ग का ही वर्चस्व स्थापित करना चाहते थे।
ऽ इन चिंतकों की दृष्टि कुछ हद तक ‘यूटोपियन‘ प्रतीत होती हैं क्योंकि ये भविष्य के प्रति अतिरिक्त आशावादी दिखाई देते थे।
ऽ प्रबोधन चिंतकों ने विज्ञान के संबंध में यह मत व्यक्त किया कि विज्ञान बेहतर दुनिया बना सकता है जिसमें व्यक्ति स्वतंत्रता और खशी का आनंद उठा सकता है और विज्ञान का उपयोग मानव हित में किया जा सकता है। विज्ञान के प्रति उस विश्वास को 20वीं सदी के उत्तर्राद्ध में चुनौती मिली. जब विज्ञान ने और तकनीकी विकास ने हिंसा और असमानता को बढ़ावा दिया।
Recent Posts
मालकाना का युद्ध malkhana ka yudh kab hua tha in hindi
malkhana ka yudh kab hua tha in hindi मालकाना का युद्ध ? मालकाना के युद्ध…
कान्हड़देव तथा अलाउद्दीन खिलजी के संबंधों पर प्रकाश डालिए
राणा रतन सिंह चित्तौड़ ( 1302 ई. - 1303 ) राजस्थान के इतिहास में गुहिलवंशी…
हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ? hammir dev chauhan history in hindi explained
hammir dev chauhan history in hindi explained हम्मीर देव चौहान का इतिहास क्या है ?…
तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच हुआ द्वितीय युद्ध Tarain battle in hindi first and second
Tarain battle in hindi first and second तराइन का प्रथम युद्ध कब और किसके बीच…
चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी ? chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi
chahamana dynasty ki utpatti kahan se hui in hindi चौहानों की उत्पत्ति कैसे हुई थी…
भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi
first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया…