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AFPFL in hindi | ए.एफ.पी.एफ.एल. Anti Fascist People’s Freedom League in hindi Myanmar (Burma)
Myanmar (Burma) AFPFL in hindi | ए.एफ.पी.एफ.एल. Anti Fascist People’s Freedom League in hindi Myanmar (Burma) ?
प्रस्तावना : 1945 से लेकर 1958 तक AFPFL नाम की बर्मा देश में मुख्य राजनैतिक पार्टी थी , जिसका पूरा नाम या फुल फॉर्म Anti Fascist People’s Freedom League था | इसके बारे में बर्मा देश के इतिहास से सम्बन्धित निम्नलिखित बातें महत्वपूर्ण है | इस पार्टी को बनाने वाले या गठन करने वाले या संचालक Thakin Soe थे जो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ बर्मा से सम्बन्ध रखते थे |
ए.एफ.पी.एफ.एल. के भीतर आन्तरिक कलह एवं तख्ता-पलट
अन्त में राज्य से स्थानीय कर्मचारियों को सता का हस्तांतरण कर के एवं सेना व सरकार को वास्तविक जनता के संगठन के रूप में परिवर्तित कर के यू नू प्रायः राज्य व्यवस्था को और अधिक लोकतांत्रिक बनाने की बात किया करते थे। परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। और उसके बाद ए.एफ.पी.एफ.एल. दल की एकता को आन्तरिक मतभेदों एवं व्यक्तिगत झगड़ों के कारण खतरा उत्पन्न हो गया था। कम्युनिस्टों के बाद ही समाजवादियों ने भी ए.एफ.पी.एफ.एल. से अलग हो जाने का निश्चय कर लिया था। सन् 1956 में आन्तरिक झगड़ों ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि दल की व्यवस्था करने हेतु यू न को प्रधान मंत्री पद से एक वर्ष के लिए हटना पड़ा।
जून सन् 1958 में दल के औपचारिक रूप से विभाजन के बाद सता का भार एक साफ-सुथरी ए.एफ.पी.एफ.एल.की सरकार ने सम्भाला जिसके प्रधान मंत्री भी यूनू ही बने। परन्तु परिस्थिति इतनी अस्थिर बनी रही कि सितम्बर 1958 में सत्ता का अस्थायी रूप से स्थानान्तरण जनरल नी विन की अध्यक्षता में एक प्रभारी सरकार को करना पड़ा। इससे स्वाधीनता के पूर्व की बर्मा की राष्ट्रीयग सेना के अनुभवी अफसर को राजनीतिक सत्ता का यथार्थ में स्वाद मिल गया । परन्तु इस बार उसने अपने वचन को निभाया और सन् 1960 में यूनू की अधीनस्त लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को सत्ता सौप दी। इस नये सुधार के बाद की पीडोन्गसू सरकार का काम भी सन्तोषप्रद नहीं था। इसके अलावा जातीय अल्पसंखकों द्वारा की जाने वाली राजनीतिक स्वायत्तता की मांग ने बहुत अधिक गंभीर राजनीतिक स्थिति एवं सुरक्षा समस्या उत्पन्न कर दी थी। इस स्थिति में आंग सान के पहले के निकट सहयोगी, समाजवादी जनरल नी विन ने 2 मार्च 1962 को अहिंसक तख्ता पलट के जरिए सत्ता पर कब्जा कर लिया। बर्मा में इस प्रकार जो सैनिक सरकार सत्ता में आयी वह अगले छब्बीस वर्ष तक निर्विघ्न रूप से शासन करती रही।
बोध प्रश्न 2
टिप्पणी: क) नीचे दिये स्थान का उपयोग अपने उत्तर हेतु कीजिये।
ख) इकाई के अन्त में दिये गये उत्तर के साथ अपने उत्तर का मिलान कीजिए।
1. स्वतंत्रता के बाद बर्मी राजनीति की अस्थिरता के प्रमुख कारणों का वर्णन कीजिए।
2. बर्मा में समाजवाद के महत्वपूर्ण लक्षणों का वर्णन कीजिये।
बोध प्रश्न 2 के उत्तर
1. क) धर्म (बौद्ध धर्म) का राजनीति में मिलाया जाना
ख) वामपंथी दुस्साहस
ग) बर्मी राष्ट्रवाद की राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा में जातीय अल्पसंख्यकों को शामिल कर पाने की विफलता
घ) राष्ट्रीय नेताओं को हटाया जाना – 1947 में शीर्षस्थ नेताओं की हत्या
ड़) छोटे जातीय समूहों का वर्गीकरण करने की नीति
च) बह-जातीय राज्य में एकात्मक प्रणाली की सरकार
छ) ए.एफ.पी.एफ.एल. में दरार
2. क) जनता की भलाई
ख) विदेशी आर्थिक हितों के चिन्हांकन को रोकने के उपाय
ग) भूमि पर राजा का स्वामित्व
घ) इजारेदार उद्यमों, विदेश व्यापार आदि का राष्ट्रीकरण
ड़) श्रमजीवी जनता का अत्यधिक शोषण से संरक्षण
जनतंत्र के लिए आन्दोलन
विमुद्रीकरण के तुरंत बाद रंगून में खूनी दंगा फसाद हो गया जिसे निर्ममता पूर्वक कुचल दिया गया और रंगून विश्वविद्यालय बंद कर दिया गया। किंतु मार्च तथा जून 1988 में पुनः असंतोष फूट पड़ा। जहां एक तरफ दंगा पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारी छात्रों को पीटा जा रहा था वहीं लून टीन ‘ने विन अर्थव्यवस्था‘ में नई जान फूंकने के लिए कुछ नीतिगत सुधारों पर. विचार कर रहा था। वह जिन उपायों पर चिंतन कर रहा था वे वही थे जिन्हें अपनाए जाने के लिए उसके संभावित विदेशी दाताओं द्वारा लम्बे समय से दबाव डाला जा रहा था, अर्थात निजी उद्यमों को अधिक सुविधाएं मुहैया कराना तथा विदेशी निजी पूंजी के लिए दरवाजे खोल देना । शायद उसकी पार्टी के भीतर, पिछले 26 वर्षों के दौरान अपनाई गई निरंकुश सत्ता की पिछली नीति में इस तरह के जबरदस्त बदलाव लाये जाने के खिलाफ, खासा विरोध मौजूद था। यही वह पृष्ठभूमि थी जिसमें 23 जुलाई 1988 को पार्टी के एक विशेष अधिवेशन में ने विन ने त्यागपत्र देने की पेशकश की और इस आशय का फैसला करने के लिए जनमत संग्रह कराये जाने का सुझाव दिया कि क्या एक दलीय शासन को जारी रखा जाना चाहिए अथवा नहीं। किन्तु उसके सुझाव को सेन ल्विन द्वारा रद्द कर दिया गया, जो कि भयानक रूढ़िवादिता के लिए विख्यात था और शासक चैकड़ी में, जिसने अब सत्ता हथिया ली थी, एक शक्तिशाली व्यक्ति था। बर्मा का अध्ययन करने वाले अनेक लोगों का मानना है कि इस मौके पर कुछ उदार छूटे तथा आर्थिक सुधारों के जरिये मध्यम वर्ग को शान्त किया जा सकता था। किन्तु जब सेन ल्विन ने सत्ता संभाली तो इससे जनता के सब्र का बाँध टूट गया, क्योंकि यही वह व्यक्ति था जो कि बी.एस.पी.पी. के पिछले 26 वर्ष के शासन के दौरान हए तमाम दमनकारी कृत्यों के लिए प्रमुख तौर पर दोषी था। घृणित लोन टीन के पीछे भी उसी का दिमाग था, जिसने पिछले समय में छात्र प्रदर्शनकारियों को निर्ममता के साथ यातनाएं दी थी और इससे उसे जल्लाद की हैसियत हासिल हुई थी। अतः उसके सत्ता में आने का तुरन्त भारी विरोध होने लगा तथा घटनाक्रम अपनी ही दिशा तय करने लगा। दवाबों के चलते सेन ल्विन ने भी यह घोषणा की कि वह निजी व्यापारियों को अधिक सुविधाएँ देने अथवा निजी विदेशी पूंजी निवेश की इजाजत देने जैसे कुछ उदार आर्थिक सुधार शुरू करेगा। किन्तु अब उसकी ईमानदारी पर जनता को भारी संदेह था क्योंकि असीमित दमन भी साथ ही साथ जारी रहा। बहुदलीय जनतंत्र की मांग में विरोध आंदोलन ने अब नया जोर पकड़ा और इसका नेतृत्व छात्रों तथा बौद्ध-भिक्षुओं के हाथों में था। इस परिस्थिति से निपटने के लिए शीघ्र ही समूचे देश में सैनिक शासन की घोषणा कर दी गई।
बी.एस.पी.पी. शासन का अंत
नई सरकार के दमनकारी उपाय जनता के विरोध को दबा नहीं सके जिसने जनतंत्र को बहाली तथा नये राष्ट्रपति के इस्तीफे की मांग की। खासतौर से 8 अगस्त 1988 को, रंगून में एक विशाल रैली हुई जो कि निश्चित रूप से पिछले 25 वर्षों के इतिहास में सबसे बड़ी रैली थी तथा जिसमें सैनिक शासन की परवाह न करते हुए करीब 100,000 लोगों ने भाग लिया। घबराये हुए अधिकारियों ने हिंसा शुरू की। किन्तु यह राज्य द्वारा बरपाई गई आतंक की मुहिम भी सरकार-विरोधी फसादों पर काबू नहीं पा सकी जिन्होंने अंततः 12 अगस्त को सेन ल्विन को इस्तीफा देने पर विवश कर दिया यानि उस शासन के मात्र 17 दिनों के पश्चात् ही, जिसे एक वास्तविक आतंक राज कहा जा सकता है।
एक सप्ताह बाद, भूतपूर्व एटोर्नी जनरल भौंग भौंग 1962 के तख्ता पलट के बाद संघ के पहले असैनिक राष्ट्रपति बने । उनके नेतृत्व में, बी.एस.पी.पी. ने तीन महीनों के भीतर एक बहुदलीय आम चुनाव कराये जाने की पेशकश की। किन्तु इस छूट से भी विपक्षी ताकतों को राजी नहीं किया जा सका, जिनमें मुख्यतः छात्र, बौद्ध-भिक्षु नागरिक सेवा के अधिकारी तथा मजदूर शामिल थे। उन्होंने अब एक अंतरिम सरकार की स्थापना किये जाने की मांग की। राजधानी रंगून तथा उसके बाहर विशाल जनतंत्र समर्थक रैलियों का आयोजन किया जाता रहा । और अब सेना तथा खासतौर से वायु-सेना से भी विद्रोह के स्वर सुनाई देने लगे। इसलिए, जनता को पुनः राहत के तौर पर भौंग भौंग ने सेना के अफसरों से पार्टी से इस्तीफा देने के लिए कहा। यह एक ऐसा कदम था जिसने उन तमाम राजनैतिक सुविधाओं से उन्हें वंचित करने का खतरा पैदा कर दिया जिनका उपभोग वे पिछले 26 वर्षों से करते आये थे। इन परिस्थितियों में, सेना के प्रमुख जनरल सौ भौंग ने 18 सितम्बर 1988 को असैनिक राष्ट्रपति से सत्ता छीन कर अपने हाथ में ली और एक 9 सदस्यीय कैबिनेट के गठन का ऐलान किया, जिसने स्वयं को स्टेट लॉ. एण्ड आर्डर रेस्टोरेशन कॉउन्सिल (एस.एल.ओ.आर.सी.) कहा। इसमें केवल एक ही असैनिक सदस्य रखा गया और उसे भी गैर-महत्वपूर्ण पद सौंपा गया । सत्ता हथियाने के तुरंत बाद, सैनिक जुण्टा ने पूरे तौर पर आतंक की मुहिम छेड़ दी और दो दिन में ही करीब 1000 लोगों की हत्या कर दी। साथ ही यह भी जाहिर हआ कि बी.एस.पी.पी. का भूतपूर्व अध्यक्ष और पुराना नेता ने विन परदे के पीछे रहकर काम कर रहा था। विरोधी छात्रों ने शुरू में प्रतिरोध करने की कोशिश की, किन्तु फिर वे भूमिगत हो गये। कुछ ने सीमा पार करके थाईलैण्ड तथा भारत में जा कर शरण ली। कुछ अन्य जातीय विद्रोहियों के पास चले गये और हथियारों का प्रशिक्षण लेने लगे। भयानक सैनिक उत्पीड़न के चलते आंदोलन अब विभिन्न दिशाओं की ओर खिंचना शुरू हो गया। बर्मा की स्थिति अब उस समय से भी बदतर हो गयी जितनी कि आन्दोलन छेड़े जाने से पूर्व हुआ करती थी। सेना के आधिपत्य वाली एकमात्र पार्टी (बी.एस.पी.पी.) द्वारा शासित होने की बजाय, अब देश पर प्रत्यक्ष सैनिक शासन लागू हो गया।
जनतंत्र-समर्थक आन्दोलन की कमजोरियां
आरंभिक चरण में, जनतंत्र के लिए आन्दोलन स्वतः स्फूर्त असंगठित तथा नेतृत्वविहीन था। क्योंकि पिछले 26 वर्षों तक चले एक दलीय शासन के दौरान तमाम संगठित विरोध को कुचल दिया गया था । लगभग अराजकता की इस स्थिति में एकमात्र संगठित शक्ति छात्र ही थे, जिन्होंने अब औपचारिक रूप से, पुनः एकजुटता के प्रतीक के तौर पर ऑल बर्मा स्टूडेण्ट यूनियन की पुर्नस्थापना की घोषणा की। यह प्रतीकात्मक कार्यवाही रंगून विश्वविद्यालय परिसर में ठीक उसी स्थान पर की गई जहां 26 वर्ष पहले जुलाई 1962 में, सेल्विन की फौजों ने 148 छात्रों को गोलियों से भून डाला था और इस तरह नव-स्थापित सैनिक-शासन के विरुद्ध पहले संगठित प्रतिरोध को कुचल दिया था। छात्रों ने अब शांतिपूर्ण तरीकों से जनतंत्र की घोषणा की और जातीय हथियारबंद विद्रोहियों अथवा बर्मा की कम्युनिस्ट पार्टी से हथियारों की मदद लेने से इंकार कर दिया । इस शांतिपूर्ण संघर्ष में वे बौद्ध भिक्षुओं, व्यावसायिक वर्गों तथा मजदूर वर्ग से ही सहायता लेते रहे जिससे आन्दोलन का शहरी मध्यम वर्गीय चरित्र उद्वघोषित हुआ। यहां तक कि अपने चरमोत्कर्ष की अवधि के दौरान भी यह मौडाले से मौलमीन तक के मध्य बर्मा के शहरी क्षेत्रों तक ही सिमटा रहा और ग्रामीण क्षेत्र लगभग इससे अप्रभावित ही रहे। स्थानीय स्तर के शहरी आन्दोलनों को उच्चतर प्रहारक शक्ति के साथ कुचल देना हमेशा आसान रहता है। और बर्मा में 1988-89 में ठीक यही सब हुआ। छात्रों ने शुरू में नौसीखियों की तरह राज्य की हिंसा का प्रतिरोध करने की कोशिश की, और फिर जंगलों में चले गये, सीमापार जातीय विद्रोहियों से जा मिले अथवा पड़ोसी देशों में चले गये।
अन्य नेता जो कि आन्दोलन के दौरान उभरे, उनमें भी समुचित ढंग से इसका नेतृत्व करने के लिए अनुभव एवं दृष्टि का अभाव था। उनमें से सबसे प्रमुख औंग ग्यी था जिसने ने विन को कुछ खुले पत्र लिखे जिनमें उसकी समाजवादी आर्थिक नीतियों की आलोचना की गई थी। अन्य नेताओं जनरल टिको, जिसे 1983 में बी.एस.पी.पी. से निकाल दिया गया था, तथा 1976 के निष्फल सैन्य विद्रोह का नायक, कैप्टिन विन थीन थे। इस समय के दौरान एक और नाम उभर कर सामने आया था और वह था राष्ट्रवादी जननायक औंग सैन की बेटी डो औंग सान स्य की का । इन नेताओं में से, शायद यू नू को छोड़कर, किसी को भी राष्ट्रव्यापी राजनैतिक आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए आवश्यक अनुभव प्राप्त नहीं था। और न ही उनमें से किसी के पास पहले से मौजूद कोई प्रभाव क्षेत्र था और इसीलिए उन्हें राजनैतिक समर्थन के लिए पूरे तौर पर छात्रों पर निर्भर रहना पड़ा। सबसे बुरी बात यह थी कि परस्पर विरोधी महत्वाकांक्षाओं ने सैन्य शासन के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा बनाने से भी उन्हें वंचित रखा। नवम्बर 1988 तक, जबर्दस्त बिखराव का प्रदर्शन करते हुए, 230 राजनैतिक दलों ने अपने नामों का पंजीकरण करवाया । इसलिए भयानक दमन के सामने आंदोलन टिक नहीं सका, हालांकि सैनिक शासन के प्रति जनता की घृणा समाप्त नहीं हुई।
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