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भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ first turk invaders who attacked india in hindi

first turk invaders who attacked india in hindi भारत पर पहला तुर्क आक्रमण किसने किया कब हुआ ?

तुर्क आक्रमण – ग्यारहवीं शताब्दी ई. के प्रारंभ में उत्तर भारत की राजनीति में एक नया मोड़ आया। उत्तर पश्चिम की ओर से तुर्क जाति के आक्रमणकारियों ने भारत के सांस्कृतिक ताने बाने नष्ट करने के लिए भीषण आक्रमण करने प्रारंभ कर दिये। वे भारत के महत्वपूर्ण आर्थिक एवं सांस्कृतिक केन्द्रों पर भीषण प्रहार करने लगे। समृद्ध स्थलों को लूटने लगे तथा मंदिरों को ध्वस्त करने गे। इस जाति का नेतृत्व महमूद गजनवी ने किया। उसने राजस्थान में नारायणपुर (जिला-अलवर) को. उस समय (1009 ई.) व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण केन्द्र था को लूटा। इस समय राजस्थान में भाटी, हिल, चौहान मिलकर संयुक्त रूप से एक मोर्चा बना सकते थे, तथा आक्रमणकारी को खदेड़ सकते थे, किन ये अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति में लगे हुए थे इसलिए तुर्क आक्रमणकारी गजनवी लूटपाट एवं करने में सफल रहा। उसको लट-पाट करने में लिखता  हुआ

उसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी भारत की समृद्धि ने उसे अंधा कर दिया। इसके साथ ही के राज्यों में परस्पर एकता के अभाव मे उसे ऐसा अवसर प्रदान किया और वह बार-बार भारत को लूटने यहाँ के धार्मिक स्थलों को ध्वस्त करने आता रहा। इसी क्रम में उसने देश के प्रसिद्ध गुजरात में ि सोमनाथ के मंदिर को लूटा तथा उसको ध्वंश किया। 1006 ई में गजनवी सिंध के रास्ते गजनी गया। गजनवी के आक्रमणों का राजस्थान राज्य पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा लेकिन गजन उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में अनेक व्यक्तियों को अपना उत्तराधिकारी बना दिया था, जो राजस्थान- सीमावर्ती क्षेत्रों मे आक्रमण करते रहते थे। इन उत्तराधिकारियों के क्रम में से बाइलिंग में नागौर को अ केन्द्र बनाया, जिसे चौहान वंशी शासक अणराज ने करारी मात देकर भगा दिया। लेकिन गजनी उत्तर-पश्चिमी सीमा में पनपती रही जो परवर्तीकाल में भारतीय स्वतंत्रता के लिए घातक सिद्ध हुआ |

तुर्क आक्रमणों का प्रतिरोध

वर्धन वंश के साम्राज्य के पतन के पश्चात् भारतीय इतिहास में राजपूत जाति का उदय एवं उनके विभिन्न क्षेत्रों में राज्यों की स्थापना एक महत्वपूर्ण घटना है।

राजपूत = राजपूत उत्पत्ति के विषय में विद्वानों के अनेक मत है इसका मुख्य कारण यह है कि ‘राजपूत’ शब्द का प्रचलन भारत में तुर्की के आगमन के समय एकाएक प्रारंभ हुआ हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् भारत में केन्द्र की शक्ति कमजोर हो गयी थी जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों में उसके प्रांतीय पदाधिकारी स्वतंत्र शासक बन बैठे। इन प्रांतीय शासकों में भी जो दुर्बल थे, उनके अधीन सामन्ती ने भी अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र शासकों की माति आचरण करना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार देश के अधिकांश भागों में अनेक छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हुई। इन नवीन राज्यों में जो शासक बने निश्चित रूप से शासक वर्ग से या शासन सम्बन्धी कार्यों से किसी न किसी प्रकार सम्बन्धित थे इसलिए वे जन सामान्य में राजपुत्र कहलाते थे अर्थात् सातवी शताब्दी ई. से भारत में राजपुत्रों के अनेक राज्य स्थापित हुए, जो तुर्कों के आगमन तक शासन कर रहे थे। तुर्की भाषा में वर्ण नहीं है. उन्होंने इसे त लिखा है इसलिए हमारे यहाँ के राजपुत्र तुर्कों के द्वारा राजपूत कहे गये हैं।

राजपूत युग =  ये राजपूत राज्य सातवी शताब्दी ई. से 12 वीं शताब्दी ई. तक भारत में सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य थे। इनका इतिहास ही देश का इतिहास है इसीलिए इस कालखण्ड 7 वीं से 12वीं शताब्दी ई) को ‘राजपूत युग कहा जाता है। राजपूतों ने इस काल में अनेक छोटे बड़े राज्यों की स्थापना की, जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण राज्य एवं राजवंश निम्नलिखित थे 1. मेवाड़ के गुहिल 2. शाकम्भरी के चाहमान 3. कनौज के गहड़वाल 4. उज्जैन (अवन्ति) के गुर्जर-प्रतिहार 5. गुजरात के चालुक्य 6. मालवा के परमार

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सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् उसके विशाल साम्राज्य को राजपूत काल का भारत छोटे-छोटे राज्यों में बंटता हुआ देखकर पश्चिम से अरबी आक्रमणकारियों ने भारत के सिंध प्रदेश आक्रमण (711-712 ई.) कर दिया। परिणाम यह हुआ कि सिंध और उसके आस-पास के भूभाग पर उनका अधिकार स्थापित हो गया अरब आक्रमण का कुछ प्रभाव राजस्थान पर भी पड़ा लेकिन राजपूतों के गुहिल, चौहान, परमार और प्रतिहार राजवंश इतने शक्ति सम्पन्न हो गये थे कि आक्रमणकारी इस क्षेत्र के राजनीतिक जीवन के संतुलन को नहीं बिगाड़ सके इन राजवंशों ने न केवल राजस्थान राज्य नर्क की सीमा को सुरक्षित बनाये रखा बल्कि उत्तर भारत में भी दीर्घकाल तक निर्भयता का वातारण बनाये रखा। लगभग आगामी तीन शताब्दियों तक विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत की ओर आँख उठा कर नहीं कि देखा। यहाँ का राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन विकास की ओर अग्रसर होता रहा। इसीलिए राजस्थान के इतिहास में यह काल सांस्कृतिक उपलब्धियों की दृष्टि से उल्लेखनीय है ।

ये राजपूत राजवंश अपने-अपने राज्यों की सुरक्षा के लिए इतने अधिक जागरूक थे कि युद्ध एवं संघर्ष की स्थिति की छाया तत्कालीन वास्तु एवं शिल्प पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है इस युग में जितने भी नगरी, राजप्रसादों, मंदिरों आदि का निर्माण हुआ उनमें सैनिक एवं सुरक्षा सम्बन्धी उपायों को प्रधानता दी गई।

दुर्ग =  इस युग में ऊँची-ऊँची पहाड़ियों पर दुर्गों का निर्माण हुआ, जिनमें चित्तौड़ का दुर्ग विशेष रूप लिए से उल्लेखनीय है। आस-पास की ऊँची भूमि पर इसको बनाया गया जिसमें सुरक्षा से सम्बन्धित सभी साधनों को जुटाया गया। इसका निर्माण इस प्रकार से किया गया है जिससे आक्रमण के समय राजा तथा प्रजा दोनों की भली-भांति सुरक्षा हो सके। इसीलिए इसमें कई जलाशय, भवन, राजप्रसाद, मंदिर, बाजार एवं कृषि हेतु खेत, आदि की भी समुचित व्यवस्था की गयी इसी प्रकार के दुर्ग आबू एवं जालौर में भी निर्मित करवाये गये।

नगर =  राजपूत युग में नगरों को पहाड़ी ढालों या दियों के तटों पर बसाया गया नागदा, जो गुहिलवंशी राजपूत शासकों की राजधानी थी, को आज पास की पहाड़ियों को घेरकर प्राचीर से सुरक्षित किया, जिसमें राजप्रासाद, देवालय एवं जलाशय बनवाये गये थे। इसी प्रकार वर्तमान उदयपुर के निकट अघाटपुर (अहाड़) नगर का नया प्राचीर बनवाया, जो चारों दिशाओं में चार गोपुरों से विभूषित था। इसी प्रकार चौहान शासक विग्रहराज चतुर्थ भी अनेक पहाड़ी स्थलों में भवनों का निर्माण करवा कर, राज्य की सुरक्षा व्यवस्था की जावर आमेर नाडोल आदि प्राचीन नगरों का भी वास्तु इसी प्रकार का है।

देवालय =  राजपूत युग में अनेकों भव्य मंदिर चाहे वे विष्णु के हो या शिव के या सूर्य के में ऐसा स्थापत्य एवं शिल्प है जो शक्ति एवं वीरभाव में शौर्यवान है तथा अभयप्रदाता है शिल्पकारों ने मंदिरों में देव-दानव युद्ध के अंकन में वातावरण को शीर्य से ओत प्रोत कर दिया है। शाक्त मत की सामाजिक क्षेत्र में प्रतिष्ठा भी इसका प्रमाण है आबू, अर्थुणा, ओसियाँ, बाड़ौती, नागदा आदि स्थानों के शिव, विष्णु, सूर्य तथा जैन मंदिरों के शिल्प में आत्मोत्थान के भाव परिलक्षित होते हैं, जो इस काल में सांस्कृतिक त्थान के उज्ज्वल प्रमाण है।

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