WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

complementary genes in hindi , सम्पूरक जीन अभिक्रिया किसे कहते हैं संदमनकारी या निरोधी जीन अभिक्रिया (Inhibitory Gene action)

जाने complementary genes in hindi , सम्पूरक जीन अभिक्रिया किसे कहते हैं संदमनकारी या निरोधी जीन अभिक्रिया (Inhibitory Gene action) ?

सम्पूरक जीन अभिक्रिया (Complementary Genes)

इस अभिक्रिया में दो या दो से अधिक पृथक् एवं स्वतन्त्र जीन, परस्पर सहयोग द्वारा एक ही लक्षण को विकसित करते हैं, परन्तु इन दोनों में से कोई भी जीन अकेले उस लक्षण विशेष की अभिव्यक्ति नहीं कर पाता तो ऐसे दोनों जीन्स सम्पूरक जीन्स (Complementary genes) कहलाते हैं । यही नहीं, प्रभावी लक्षण की अभिव्यक्ति हेतु इन दोनों में से प्रत्येक जीन का एक प्रभावी युग्मविकल्पी अवस्था में होना भी आवश्यक है। दो जीनों के बीच सम्पूरक अन्तर्किया जीनों की पारस्परिक क्रिया का एक उपयुक्त उदाहरण है।

सम्पूरक जीन अभिक्रिया को मीठी मटर (Sweet pea or Lathyrus odoratus) में पुष्पों के रंग की वंशागति के अध्ययन के द्वारा भी समझाया जा सकता है। बेटसन एवं पुन्नेट के अनुसार जब सफेद पुष्प वाली मीठी मटर की दो किस्मों (Varieties) के पौधों के बीच क्रॉस करवाया गया ता पीढ़ी के सभी पौधे रंगीन (लाल) पुष्पों वाले थे। जब F, पीढ़ी के पौधे में स्वनिषेचन करवाया गया तो F, पीढ़ी में प्राप्त रंगीन एवं सफेद पुष्प वाले पौधों का लक्षण प्ररूपों अनुपात क्रमश: 9 : 7 था । इनके अनुसार यह लक्षण प्ररूपों अनुपात 9 : 7 भी मेण्डल के सामान्य लक्षण प्ररूपों द्विसंकर अनुपात 9:33 : 1 का ही संशोधित प्रारूप है, जिसमें पुष्प के एक प्रकार के रंग वाले लक्षण से दो प्रकार के विपर्यासी लक्षणों वाले पुष्प F2 पीढ़ी में प्राप्त होते हैं जैसा कि अग्रांकित क्रॉस से स्पष्ट है।

उपरोक्त क्रॉस में इस प्रकार के द्विसंकर रूपान्तरण का कारण यह है कि मीठी मटर (Sweet pea) में पुष्प का रंगीन होना एक विशेष वर्णक (Pigment) ऐन्थोसाइनिन के कारण होता है। इस वर्णक का निर्माण एक अन्य पूर्ववर्ती पदार्थ (Precursor) क्रोमोजन के द्वारा होता है। जीन ‘C’ के द्वारा क्रोमोजन है, यह एन्जाइम क्रोमोजन को एन्थोसाइनिन वर्णक में परिवर्तित करने के लिए उत्प्रेरक की भूमिका का निर्माण नियन्त्रित होता है, जब ‘P’ जीन के द्वारा एक विशेष एन्जाइम का निर्माण नियन्त्रित होता निभाता है उपरोक्त तथ्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जब ये दोनों आवश्यक पदार्थ क्रोमोजन एन्जाइम आवश्यक मात्रा में उपस्थित होंगे तभी ऐन्थो साइनिन वर्णक का संश्लेषण होगा एवं कालान्तर में जब ऐन्थोसाइनिन वर्णक पर्याप्त मात्रा में बनेगा तभी पुष्प रंगीन · अर्थात् लाल रंग के होंगे। इस प्रकार पुष्प में लाल रंग के लक्षण के लिए ‘C’ (जो क्रोमोजन के निर्माण को संचालित करता हैं) एवं ‘P’ (जो क्रोमोजन से ऐन्थोसाइनिन संश्लेषण उत्प्रेरित करने वाले एन्जाइम के निर्माण को नियन्त्रित करता है।) जीन एक दूसरे के सम्पूरक का कार्य करते हैं । परस्पर एक दूसरे की गतिविधियों में सहयोगी होते है, अत: मटर के रंगीन पुष्प के लिए पौधे के जीन प्ररूप में (Genotype) में इन दोनों का कम से कम एक प्रभावी युग्मविकल्पी या एलील होना आवश्यक है। इन दोनों प्रभावी जीन्स में से किसी एक की अनुपस्थिति में पुष्प रंगीन न होकर सफेद होगा ।

उपरोक्त उदाहरण के अनुसार एक सफेद पुष्प वाले मटर के पौधे का जीन प्ररूप “CCpp” है, उसमें क्रोमोजन कारक पाया जाता है। जबकि दूसरे मटर के सफेद फूल वाले पौधे में जिसका जीन प्ररूप (Genotype) “ccPP” है, उसमें एन्जाइम कारक उपस्थित होता है। अतः इस प्रकार के दोनों पौधों के क्रॉस के परिणामस्वरूप रंगीन पुष्प वाले “CcPp” पौधे F, पीढ़ी में उत्पन्न होते हैं । इनका स्वनिषेचन करवाने पर चार प्रकार के युग्मक क्रमशः “CP”, Cp”, cP” एवं “cp” बनते है, और F, पीढ़ी में रंगीन व सफेद पुष्प वाले पौधों का लक्षण प्ररूपी (Phenotype ) अनुपात 9: 7 होता है जो कि सामान्य द्विसंकर अनुपात (Dihybrid ratio) का ही संशोधित प्रारूप है।

सम्पूरक जीन के एक और अन्य उदाहरण के रूप में कद्दू (Cucurbita pepo) में फलों की आकृति की वंशागति का उल्लेख किया जा सकता है। इस पौधे में कुछ इस प्रकार के सम्पूरक जीन (Complementry genes) पाये जाते हैं, जिनकी अभिव्यक्ति एकल रूप में या अकेले ही आने वाली पीढ़ी में हो सकती है। यहाँ उदाहरण के तौर पर कद्दू (Cucurbita pepo) में फलों की आकृति जीन्स के दो युग्मों (Two pairs of genes) द्वारा नियन्त्रित होती है। ये जीन निम्न प्रकार की फलों में आकृतियों को नियंत्रित करते हैं :

फल की आकृति                                जीन की प्रकृति

गोलाकार (Rounded)  = AAbb

चक्रिकाकार ( Discoid) = AaBb

सुदीर्घित (Elongated) = aabb

यहाँ किये गये प्रयोग गोलाकार कद्दू के दो पौधों के बीच क्रास करवाया गया, AAbb व aaBB थी। इस क्रास के परिणामस्वरूप F, पीढ़ी में चक्रिकाकार कद्दू के फलों वाले पौधे जिनकी जीनोटाइप उत्पन्न (Discoid type AaBa) जिनकी जीनोटाइप AaBb थी। F पीढ़ी के पौधों का स्वनिषेचन करवाने पर प्राप्त F2 पीढ़ी में प्राप्त पौधों का अनुपात अग्र प्रकार से था (चित्र 8.4)-

(5) द्विक जीन अभिक्रिया (Duplicate gene action)

जब किसी सजीव के एक लक्षण विशेष को दो या दो से अधिक युग्मविकल्पी स्वतन्त्र रूप से नियन्त्रित या अभिव्यक्त करने वाले दोनों जीनों को द्विकजीन्स (Duplicate genes) कहते हैं ।

द्विकजीन्स (Duplicate genes) की पारस्परिक क्रिया (Interaction) को केप्सैला बरसा- पेस्टोरिस (Capsella bursa-pastoris, Shephard’s purse) नामक पौधे में फलों की आकृति (Fruit shape) की वंशागति के अध्ययन के द्वारा समझाया जा सकता है।

इस पौधे में फलों की आकृति दो प्रकार की पाई जाती है – (1) त्रिभुजाकार (Triangular) (2) लट्टूनुमा (Top Shaped) प्रसिद्ध आनुवांशिकी विज्ञान एच.जी. शल (H.G. Shull, 1937) द्वारा किये गये अध्ययन के आधार पर फल की त्रिभुजाकार आकृति वाला लक्षण, फल की लटूनुमा आकृति पर प्रभाव होता है। उसने जब त्रिभुजाकार आकृति के फल वाले केप्सैला पौधे (AABB) का क्रॉस लट्टूनुमा (Top shaped) फल वाले पौधे (aabb) से करवाया तो F, पीढ़ी में प्राप्त सभी पौधे त्रिभुजाकार आकृति के फल (AaBb) वाले थे ।

F, पीढ़ी (AaBb) के पौधों का स्वनिषेचन करवाने पर F2 पीढ़ी में प्राप्त त्रिभुजाकार एवं लट्टूनुमा फल वाले पौधों का अनुपात क्रमश: 15 : 1 था। इसे निम्न प्रकार से निरूपित किया जा सकता

इस क्रॉस के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि त्रिभुजाकार फलों के लक्षण की अभिव्यक्ति हेतु केप्सैला में जीन ‘A’ या ‘B’ में से किसी एक का प्रभावी युग्मविकल्पी एकल रूप में होना पर्याप्त है। जबकि लट्टूनुमा फल वाले लक्षण की अभिव्यक्ति तभी होगी जब ये दोनें जीन अप्रभावी समयुग्मजी (aabb) में उपस्थित हो। इस प्रकार ये दोनों जीन ‘A’ व ‘B’ एक दूसरे के द्विक (Duplicate) के रूप में कार्य करते हैं । एवं एक ही लक्षण को प्रकट करने के लिए उत्तरदायी होते हैं ।

(F) संदमनकारी या निरोधी जीन अभिक्रिया (Inhibitory Gene action)

इस प्रकार की जीन अभिक्रिया अथवा पारस्परिक क्रिया में दो जीनों में से एक जीन तो प्रभावी रूप मैं किसी लक्षण विशेष को प्रकट करने के लिए उत्तरदायी होता है, जबकि दूसरी जीन किसी लक्षण को प्रकट नहीं करती, अपितु जब प्रभावी प्ररूप में मौजूद होती है तो पहली वाली जीन द्वारा लक्षण की अभिव्यक्ति का निरोध या संदमन करती है, अर्थात् पहली जीन के प्रभावी लक्षण की अभिव्यक्ति को रोकती है।

इस प्रकार की जीन अन्तर्क्रिया ( Gene Interaction) को चावल में पत्तियों के रंग की वंशागत के उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है । प्रायः यह देखा गया है कि चावल में पत्तियों का रंग हरा होता है, परन्तु इसकी कुछ किस्मों में बैंगनी रंग (Purple Colour) की पत्तियाँ भी पाई जाती हैं। पत्ती के बैंगनी रंग के लिए जीन ‘P’ का प्रभावी युग्मविकल्पी प्रारूप उत्तरदायी होता है, परन्तु इसका दूसरा ऐलील या वैकल्पिक प्रारूप ‘P’ हरे रंग की अभिव्यक्ति करता है। इसके साथ एक और जीन ‘I’ भी पायी जाती है, जो स्वयं तो किसी लक्षण को अभिव्यक्त नहीं करती, परन्तु जब प्रभावी प्ररूप (I) में इसका एलील मौजूद होता है तो यह बैंगनी रंग की अभिव्यक्ति को रोक देती है, अर्थात् ‘P’ जीन की प्रभावी अभिव्यक्ति अवरुद्ध (Inhibit) हो जाती है, एवं चावल की पत्ती का रंग हरा होता ।

जब चावल की हरी पत्तियों वाले पौधे (IIpp) का क्रॉस बैंगनी रंग की पत्तियों वाले पौधे (iiPP) से करवाया जाता है तो F, पीढ़ी में प्राप्त सभी पौधे हरी पत्तियों वाले (liPp) होते हैं | F, पीढ़ी के पौधों का स्वनिषेचन करवाने पर F, पीढ़ी से प्राप्त हरी एवं बैंगनी पत्तियों वाले चावल के पौधों का अनुपात 13: 3 होता है, जैसा कि निम्न क्रॉस से स्पष्ट है-

(A) रूपान्तरित लक्षण प्ररूपी अनुपात – 13:3

जीन की पारस्परिक क्रियाओं की महत्ता (Significance of Gene Interactions)

वैसे तो अनेक प्रकार की आनुवंशिक प्रक्रियाओं में जीन पारस्परिक क्रियाएँ या अन्तरक्रियाएँ (Gene Interactions) सक्रिय होती हैं, फिर भी इनकी विशिष्ट महत्ता (Significance) निम्न प्रकार से है-

(1) संकरण (Hybridization) के अन्तर्गत जीनों की पारस्परिक क्रियाओं (Interactions) के द्वारा नए सजीव प्ररूप बनते हैं जिनमें अनेक गुणों का सम्मिश्रण होता है।

(2) एक ही प्रजाति के सजीव में सम्भावित विविधताओं (Probable Diversities) का पाया जाना जीन्स की पारस्परिक क्रियाओं के द्वारा सम्भव होता है।

विभिन्न प्रकार की जीन पारस्परिक क्रियाओं के उदाहरणों को संक्षिप्त रूप से निम्न प्रकार निरूपित किया जा सकता है-

इसी के क्रम में जीन्स की विभिन्न पारस्परिक क्रियाओं (Gene Interactions) में विभिन्न लक्षण जीन्स की क्रिया एवं संयोजन, विभिन्न प्रकार के लक्षण प्ररूप एवं भिन्नताओं को निम्न परूपी अनुपात, प्रकार से निरूपित किया जा सकता है-

अभी तक आनुवंशिकी एवं वंशागति के अध्ययन के अन्तर्गत हमने ऐसे उदाहरणों के बारे में पढ़ा है, जिनमें एक जीन विशेष के लिए विषमयुग्मजी ( Ileterozygous) एवं प्रभावी समयुग्मजी (Dominant homozygous) दाना का एक ही लक्षण प्ररूपी प्रभाव (Phenotypic effect) होता था । इसके बाद हमने ऐसी परिस्थितियों का अध्ययन भी किया जिनमें विषमयुग्मजी । अपने दोनों जनकों के मध्यवर्ती लक्षण को प्रकट करता है। पूर्व में इस प्रकार के उदाहरणों की व्याख्या सम्मिश्रण वंशागति (blending inheritance) के अन्तर्गत की गई थी, लेकिन उपरोक्त उदाहरणों को अब अपूर्ण प्रभाविता (incomplete dominance) के आधार पर समझाया जा सकता है। इस तथ्य की अब पूर्ण जानकारी मिल चुकी है कि अनेक मात्रात्मक लक्षणों (quantitative traits) के लिए निश्चित वर्ग सुगमता से स्थापित नहीं किये जा सकते हैं। इसके लिए अनेक कारण हो सकते हैं, जैसे- (1) विषमयुग्मजी के लक्षण प्ररूप प्रभावी समयुग्मजी एवं अप्रभावी समयुग्मजी के लक्षण प्ररूपों के बीच मध्यवर्ती (intermediate) होते हैं। (2) एक विशेष मात्रात्मक लक्षण की वंशागति अनेक जीनों के द्वारा नियंत्रित होने के कारण जटिल होती है । (3) ऐसे लक्षण पर्यावरण द्वारा अत्यधिक प्रभावी होते हैं ।

मेन्डल के आनुवंशिकी के नियमों की 1900 ई. में पुनः खोज के पश्चात् अनेक वैज्ञानिकों ने मात्रात्मक लक्षणों (quantitative characters) का फिर से अध्ययन किया। इसके परिणामस्वरूप नीलसन एहले (Nilsson Ehle, 1908) तथा ई. एम. ईस्ट (E.M. East, 1910) ने यह बतलाया कि, ” जीनों का संचयी प्रभावी ( Cumulative effect) में आवश्यक रूप से होता है।” उन्होंने यह भी बताया कि एक ही लक्षण को नियंत्रित करने वाले एक से अधिक जीनों के आधार पर इस सम्मिश्र वंशागति (blending inheritance) की व्याख्या भी की जा सकती है।” इस प्रकार वे अनेक जीन जो संचयी या समग्र रूप से मिलकर किसी एक मात्रात्मक लक्षण की वंशागति अवस्था को निरूपित करते हैं बहुलक कारक (Multiple alleles or Multiple factors) कहलाते हैं । इस प्रकार के जीनों को बहुजीनी तन्त्र (polygenic system) भी कहा जाता है तथा इन जीनों से नियंत्रित वंशागत की व्याख्या बहुलक परिकल्पना (multiple factor hypothesis) के रूप में की गई। इस प्रक्रिया को विभिन्न उदाहरणों के आधार पर समझाया जा सकता है । कुछ प्रमुख उदाहरण यहाँ दिये गये हैं-

(1 ) गेहूँ में दाने का या अष्टि रंग (Kernel colour in Wheat)—

गेहूँ में अष्टि रंग (Kernel colour) में मात्रात्मक लक्षण का अध्ययन सर्वप्रथम नीलसन एहले (Nilsson Ehle) द्वारा 1908 ई. में किया गया था । गेहूँ के दानों का या अष्टि (kernel) का रंग लाल, हल्का लाल व सफेद हो सकता है। यहाँ जीन्स के संचयी प्रभाव की धारणा के आधार पर यह तर्क दिया जा सकता है कि यदि एक जीन की कल्पना की जावे अर्थात् जनक पीढ़ी के दोनों पौधों में केवल एक जीन की ही भिन्नता हो F, संकर पादप में गेहूँ के दानों (kernel colour) का रंग मध्यवर्ती (Intermediate) या हल्का लाल होगा तथा इनकी F, पीढ़ी में लाल व सफेद रंग के दानों (kernels) का अनुपात हालांकि 3 : 1 होगा परन्तु तीन चौथाई ( 3/4 ) लाल रंग के दानों में से (1/3) गहरे लाल रंग के होंगे अर्थात् इनका रंग जनक (P) पीढ़ी के समान ही लाल (red) होगा, शेष दो तिहाई (2/3) दानं या अष्टियाँ (kernels), F, पीढ़ी के समान हल्के लाल रंग (light red) के होंगे। गेहूँ के पौधों पर किये गये पादप प्रजनन प्रयोगों से प्राप्त परिणामों के आधार पर भी इस अवधारणा की पुष्टि होती है तो दोनों जनकों के जीन प्रारूप क्रमश: RR तथा II से प्रदर्शित किये जा सकते हैं। यदि इन दोनों का क्रास करवाये जाने पर । संतति का जीन प्ररूप Rr होगा तथा इसमें अष्टि रंग मध्यम लाल (intermediate) प्रकार का होगा। इसी प्रकार F पीढ़ी में लाल, मध्यवर्ती लाल एवं सफेद अष्टि रंग वाले पौधों का अनुपात क्रमश: । (RR) 2 ( Rr): 1 (IT) होगा। यदि इसी अवस्था में दो जीन, अष्टि के रंग निर्धारण हेतु भाग लेंगे तो परिस्थिति इस प्रकार से होगी (चेकर बोर्ड 1) (चित्र 8.5)-

वस्तुत: गेहूँ के दानों (kernels) का रंग तीन जीनों के नियंत्रण में होता है। स्पष्ट रूप से यदि दोनों जनक पौधों में तीन जीनों की भिन्नता हो तो F2 पीढ़ी में 63 : 1 या 1 : 6 : 15 : 20 : 15 : 5: 1 का अनुपात हमें प्राप्त होगा । द्विपद समीकरण (binomial equation) की सहायता से (C/2 + 1/2 )n के विस्तार द्वारा) इसी प्रकार अन्य अनुपात भी आसानी से प्राप्त किये जा सकते हैं। उपरोक्त समीकरण में n = प्रभावी युग्मविकल्पियों की संख्या से हमारा तात्पर्य है, अतः दो जीनों की अवस्था n = 4 तथा तीन जीनों की अवस्था में यह n = 6 होगा ।

नील्सन-एहले (Nilson-Ehle) गेहूँ में अष्टि रंग की वंशागति के अपने अध्ययन द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे, यहाँ युग्मविकल्पी आगामी पीढ़ी में अष्टि के रंग को संचयी या समग्र रूप (cumulative or collective effect) से प्रभावित करते हैं ।

(2) तम्बाकू में दलपुंज की लम्बाई (Corolla length in Tobacco)—

तम्बाकू (Nicotiana) में यह लक्षण एक मात्रात्मक लक्षण है जिसमें जीनों का संचयी प्रभाव (cumulative effect) प्रदर्शित होता है। इसका अध्ययन ई. एम. ईस्ट (E.M. East ) द्वारा सन् 1916 में किया गया। ईस्ट ने तम्बाकू की एक जाति निकोशिआना लोंगिफ्लोरा (Nicotiana longiflora ) में पुष्प की लम्बाई (लक्षण) पर प्रयोग किया। उन्होंने इस प्रयोग में दो समयुग्मजी शुद्ध वंशक्रमों का उपयोग किया, जिनमें पुष्प की लम्बाई में स्पष्ट अन्तर था । एक में पुष्प के दलपुंज की औसत लम्बाई 41 सेमी. व दूसरे में दलपुंज की औसत लम्बाई 91 सेमी. थी । एक प्रभेद के सदस्यों में पुष्प की लम्बाई में बहुत कम अन्तर का कारण पर्यावरणीय कारक थे । किन्तु दोनों प्रभेदों में पुष्प की लम्बाई में अधिक अन्तर का कारण स्पष्ट रूप से आनुवंशिक था । ईस्ट ने दोनों प्रभेदों (शुद्ध वंश क्रमों) में क्रा करवाकर F, संतति प्राप्त की। जिसमें सभी पादपों में दोनों जनक में पुष्प की लम्बाई से मध्यवर्ती (Intermediate) लम्बाई के पुष्प उत्पन्न हुए । अनुमानत: F, संतति के सभी पादप आनुवंशिक रूप से एक समान थे । उनमें मामूली भिन्नताओं का कारण पर्यावरण था। जब F, संतति पादपों में स्वपरागण कर F2 संतति प्राप्त की गयी तो उसके सदस्यों में समलक्षणी विभिन्नताएँ ( Phenotypic variations) देखी गयीं। इसी प्रकार F, संतति पादपों में स्वपरागण द्वारा F, संतति प्राप्त की गयी । F, संतति पादपों को दलपुंज लम्बाई के आधार पर विभिन्न समूहों में वर्गीकृत किया गया। प्रत्येक समूह में दलपुंज की औसत (Mean) लम्बाई F, जनक के समान थी । इससे ज्ञात होता है कि संतति के विभिन्न समूहों के मध्य दलपुंज लम्बाई में अन्तर का कारण आनुवंशिक था तथा एक ही समूह के सदस्यों में दलपुंज लम्बाई में अन्तर का कारण पर्यावरण था ।

यह ज्ञात करने हेतु कि इस प्रकार के क्रास में कितने जीन्स हिस्सा लेते हैं, जनक समान उत्पन्न होने वाले समजीनियों का अनुपात ज्ञात किया गया।

यदि इस प्रकार के क्रास में 1 जीन युग्म (1 pair of genes) हिस्सा लेता है तो संतति में जनक समान समलक्षणी (phenotypes) का अनुपात 1/4 होगा। यदि दो जीन युग्म (2 pairs of genes) हिस्सा लें तो 1/16 तथा 3 जीन युग्म (3 pairs of genes) भाग लें तो 1/64 व 4 जीन युग्म (4 pairs of genes) भाग लें तो यह 1/256 होगा (चित्र 8.6 ) । किन्तु ईस्ट ने अपने प्रयोग में 444 F, पादपों की एक समष्टि (population) में एक भी पादप पुष्प लम्बाई में जनक पादप के समान प्राप्त नहीं किया । इसीलिए ऐसा माना गया कि तम्बाकू की इस प्रजाति में दलपुंज लम्बाई की वंशागति को 4 से भी अधिक जीन युग्म नियंत्रित करते हैं तथा ये जीन समान संचयी प्रभाव उत्पन्न कर दलपुंज लम्बाई को नियंत्रित करते हैं। अतः यह लक्षण बहुजीनी लक्षण हैं जिसमें सभी जीन मिलकर इस लक्षण का निर्धारण करते हैं।

उपरोक्त तथ्य के आधार पर उन्होंने अपनी बहुलकारक परिकल्पना ( Multiple factor or multiple genes hypothesis) की व्याख्या की, जिसके अनुसार ” पौधों में किसी एक मात्रात्मक लक्षण (quantitative character) को नियंत्रित करने के लिए अनेक जीन उत्तरदायी होते हैं, ये जीन अपने विसंयोजन के लिए स्वतंत्र होते हैं लेकिन संतति पौधे के लक्षण-प्ररूप पर संचयी प्रभाव रखते हैं ।”

अभ्यास-प्रश्न

अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न (Very short questions ) :

  1. जीन को परिभाषित कीजिए ।
  2. मेण्डल के पूर्ववर्ती वैज्ञानिकों की असफलता के कारण लिखिए ।
  3. मेण्डल के प्रयोगों को लम्बे समय तक मान्यता प्राप्त नहीं हो सकी? इसके क्या कारण थे।
  4. व्युत्क्रम क्रॉस क्या होता है ? समझाइये |
  5. घातक जीन क्या होते हैं ?
  6. युग्मन एवं प्रतिकर्षण को परिभाषित कीजिये
  7. युग्मविकल्पी या ऐलीलोमोर्फ को समझाइये |
  8. संकर को परिभाषित कीजिए ।
  9. कारक किसे कहते हैं ? व्याख्या कीजिए ।
  10. सहलग्नता कितने प्रकार की होती है ?
  11. सहलग्न जीनों की व्यवस्था के बारे में लिखिए ।
  12. प्रभाविता को परिभाषित कीजिए ।
  13. मेण्डल द्वारा अपने प्रयोगों के लिए मटर के पौधे में कितने जोड़ी एवं कौन-से विपर्यासी लक्षणों का प्रयोग किया गया ?
  14. कुक्कुटों में पाई जाने वाली कलंगी संरचना व आकृति के लिए कितने जीन उत्तरदायी होते हैं?
  15. सहप्रभाविता का उदाहरण लिखिए ।
  16. प्रभावी प्रबलता से आप क्या समझते हैं ?
  17. सम्पूर्ण जीन अभिक्रिया का लक्षण प्ररूपी अनुपात क्या है ?

लघूत्तरात्मक प्रश्न

  1. अनुलोम क्रॉस एवं परीक्षण क्रॉस का विवरण दीजिए ।
  2. अपूर्ण प्रभाविता को समझाइए ।
  3. लीथल जीन का वर्णन कीजिए ।
  4. समयुग्मजी एवं विषमयुग्मजी को समझाए ।
  5. अपूर्ण प्रभाविता एवं सहप्रभाविता में तुलना कीजिए ।
  6. लक्षण प्ररूप एवं जीन प्ररूप क्या होते हैं? उदाहरण सहित समझाइए ।
  7. जीन की पारस्परिक क्रियाओं की महत्ता लिखिए ।

निबन्धात्मक प्रश्न

  1. गेण्डल के वंशागति के नियम क्या है ? स्वतन्त्र अपव्यूहन एवं पृथक्करण के नियम का विस्तार से वर्णन कीजिए ।
  2. मेण्डल की सफलता के क्या कारण थे? उसके द्वारा प्रयुक्त मटर के पौधों के चयन का क्या औचित्य था? उसके द्वारा किये गये प्रयोगों की एक संक्षिप्त रूपरेखा दीजिए ।
  3. मेण्डल के संकर क्रॉस को समझाइए | इसके आधार पर कौन-कौन से नियमों की व्याख्या की जाती है ?
  4. जीन अर्न्तक्रिया या पारस्परिक क्रिया से आप क्या समझते है ? कुछ प्रमुख उदाहरण सहित समझाइये |
  5. द्विसंकर अनुपात का रूपान्तरण कौन से कारणों से हो जाता है ? उदाहरण सहित समझाइये।
  6. पूरक जीन, द्विक जीन एवं प्रबलता का विस्तृत वर्णन कीजिए ।