पापनाथ मंदिर कहा है , papanatha temple built by in hindi , किसने बनवाया था कब बनाया

पढ़िए पापनाथ मंदिर कहा है , papanatha temple built by in hindi , किसने बनवाया था कब बनाया ?

पट्टडकल (15.94° उत्तर, 75.81° पूर्व)
पट्टडकल, अब कर्नाटक में, एहोल तथा बदामी के मध्य में स्थित है तथा टॉलमी द्वारा पेट्रीगल नाम से संबोधित किया गया है। पट्टडकल को कालांतर में भिन्न नामों से जाना गया जैसे कि रक्तपुरा (लाल नगर) तथा पट्टडकल किसुवोलई। यहां से पुरातात्विक उत्खनन में महापाषाण काल के साक्ष्य मिले हैं।
अब एक विश्व धरोहर केंद्र, पट्टडकल सातवीं शताब्दी में चालुक्यों की नगरी थी। इसमें दस बड़े मंदिर प्रारंभिक चालुक्य वास्तुकला को दर्शाते हैं। यहां का सबसे बड़ा मंदिर वीरूपक्ष को समर्पित है। बड़े प्रांगण में बंद तथा चारों ओर से छोटे कक्षों से घिरे इस मंदिर में विशालकाय प्रवेशद्वार तथा कई अभिलेख हैं। रामायण तथा महाभारत के दृश्यों के साथ-साथ यहां पर एक तरफ हाथी तथा दूसरी तरफ भैंस के आकार जैसी सुंदर एवं आश्चर्यजनक नक्काशी की गई है। मंदिर के अग्रभाग में हरे पत्थर में 2.6 मी. ऊंचा, भव्य नंदी बनाया गया है। पापनाथ मंदिर के अंतःकक्ष की रक्षा नंदी तथा वीरभद्र द्वारा की गई है। यहां मुख्य कक्ष में 16 स्तम्भ हैं जिनमें सुंदर नक्काशी की गई है।
यहां के मंदिरों में विरूपाक्ष मंदिर, संगमेश्वर मंदिर तथा पापनाथ का मंदिर सबसे उल्लेखनीय है। इनमें भी विरूपाक्ष मंदिर सबसे आकर्षक एवं सुंदर है। इस मंदिर का निर्माण 740 ई. में विक्रमादित्य द्वितीय के समय हुआ था। मंदिर की बाहरी दीवारों पर बने स्थानों में शिव, पार्वती, नाग इत्यादि की मूर्तियां रखी हुई हैं एवं रामायण के विभिन्न दृश्यों को सुंदरता से चित्रित किया गया है।
पट्टडकल के मंदिर नागर एवं द्रविड़ शैली के बीच की शैली यानि बेसर शैली के ज्यादा निकट प्रतीत होते हैं।
यहां जैन मंदिर भी है, जो राष्ट्रकूट काल में निर्मित हुआ था। इस मंदिर से प्राप्त अभिलेख से तत्कालीन समय की सामाजिक दशा की महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

पटना (25.6° उत्तर, 85.1° पूर्व)
आधुनिक बिहार राज्य की राजधानी पटना को प्राचीन काल में कई नामों से जाना जाता था, यथा-कुसुमपुर, पुष्पपुर, पाटलिपुत्र एवं अजीमाबाद। पटना भारत के कई प्राचीन साम्राज्यों के उत्थान एवं पतन का साक्षी है। छठी शताब्दी ईसा पूर्व से छठी शताब्दी ईस्वी तक इसका वैभव बरकरार रहा। मगध के द्वितीय शासक अजातशत्रु ने गंगा एवं सोन नदी के संगम पर स्थित पाटलिग्राम नामक स्थान पर एक छोटा दुर्ग बनवाया। यही ग्राम आगे चलकर प्रसिद्ध पाटलिपुत्र बना तथा यहीं मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य एवं अशोक ने शासन किया। पटना या पाटलिपुत्र में गुप्त एवं पाल वंश के शासकों ने भी शासन किया।
मध्यकाल में, राजधानी दिल्ली स्थानांतरित हो जाने के कारण पाटलिपुत्र का महत्व समाप्त हो गया। फिर यह दिल्ली सल्तनत का एक हिस्सा बन गया। 16वीं शताब्दी में, इस पर अफगान शासक शेरशाह सूरी ने अधिकार कर लिया।
यहां सिखों का पवित्रतम धार्मिक स्थल हरमंदिर साहिब है, जिसका निर्माण पंजाब के शासक महाराजा रणजीत सिंह द्वारा कराया गया था। यहां सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह का जन्म हुआ था।
औरंगजेब के पौत्र अजीम-उस-शान ने पटना का नाम बदलकर अजीमाबाद कर दिया था।
मुगल साम्राज्य के पतन के साथ ही पटना बंगाल के नवाब के नियंत्रण में आ गया। अंग्रेजों ने बंगाल के नवाब मीर कासिम को पराजित कर दिया तथा पटना पर अधिकार कर लिया।
अगम कुंआ, गोल घर, जालान म्यूजियम एवं खुदाबख्श ओरिएंटल लाइब्रेरी इत्यादि यहां के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। इनके अतिरिक्त यहां सदाकत आश्रम भी है, जिसके संग्रहालय में भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की निजी उपयोग की वस्तुओं रखी हुई हैं।
कुम्हरार एवं बुलंदी बाग के पुरातात्विक उत्खननों से यहां 600 ईसा पूर्व से 600 ईस्वी काल के पांच पुरातात्विक चरण प्राप्त हुए हैं।

पावापुरी (25°05‘ उत्तर, 85°32‘ पूर्व)
पावापुरी या अपापुरी बिहार में पटना से 90 किमी. की दूरी पर स्थित है। पावापुरी जैन धर्म के अनुयायियों का एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर ने यहीं महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था तथा उन्हें यहीं दफनाया गया था। यहां झील के मध्य में सफेद संगमरमर से एक सुंदर मंदिर बनाया गया है, जिसे श्जल मंदिरश् कहा जाता है। यह जैन धर्मावलंबियों के आकर्षण का एक प्रमुख केंद्र है। इस मंदिर में महावीर के चरण-चिन्ह हैं, जो काले रंग के हैं तथा इनका आकार 18 सेमी. है। ऐसी मान्यता है कि महावीर ने अपना पहला उपदेश यहीं दिया था।
यहां समवासर्ण का एक नया एवं सुंदर मंदिर भी बनाया गया है। प्रत्येक वर्ष दीपावली के दिन भक्तों का एक मेला यहां आयोजित होता है।
जैन साहित्यों में धार्मिक पावापुरी नगर को ‘मध्यम पावा‘ के नाम से जाना जाता है। इसका कारण है कि यहां पावा नाम के तीन नगर हैं। वर्तमान समय में पावापुरी नामक इस प्राचीन नगर को पावा एवं पुरी नामक दो ग्रामों में विभाजित कर दिया गया है।

पेनुकोंडा (14.08° उत्तर, 77.59° पूर्व)
पेनुकोंडा एक छोटा शहर है, जो पुट्टापर्ती के दक्षिण पूर्व में आंध्र प्रदेश राज्य में स्थित है। यह 14वीं से 16वीं शताब्दी तक विजयनगर शासकों का एक महत्वपूर्ण एवं दुर्गीकृत स्थल था। विजयनगर साम्राज्य के पतनोपरांत यह अरविदु शासकों का भी मुख्यालय रहा। 17वीं शताब्दी में इस नगर पर कुतुबशाही वंश के शासकों ने अधिकार कर लिया। फिर यह मुगलों एवं अंत में मराठों के हाथों में चला गया।
विजयनगर शासकों द्वारा बनवाया गया पेनुकोंडा का किला अत्यंत प्रसिद्ध है। यह किला आकार में लगभग त्रिकोणीय था। इसके प्रवेश द्वार, रक्षा मीनारें एवं जीर्ण-शीर्ण सभाकक्ष तत्कालीन समय की सुंदर वास्तुकला की झलक देते हैं।
पेनुकोंडा में ‘पाश्र्वनाथ मंदिरश्‘भी है, जो होयसल काल (12-13वीं शताब्दी) में निर्मित किया गया था। इस मंदिर में जैन वास्तुकला के कई दृश्य हैं। इनमें एक सर्प के सम्मुख नग्नावस्था में खड़ा एक जैन संत का चित्र सबसे सुंदर है। इसके समीप ही भगवान राम एवं भगवान शिव के जुड़वा मंदिर हैं। पाश्र्वनाथ मंदिर के समीप ही सीरसा नामक मस्जिद भी है, जिसका निर्माण कुतुबशाही शासकों के काल में हुआ था। हैदरअली एवं टीपू सुल्तान द्वारा संरक्षित श्बबइया की दरगाहश् भी पेनुकोंडा में है। पेनुकोंडा की ये सभी धार्मिक इमारतें विजयनगर शासकों एवं उनके उत्तराधिकारियों के धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण को निर्दिष्ट करते हैं।
यहां अरविदु शासकों के समय निर्मित श्गंगामहलश् भी है। यह वह समय था, जब पेनुकोंडा राजधानी नगर था।

पेशावर (34°01‘ उत्तर, 71°35‘ पूर्व)
पेशावर अब पाकिस्तान में है। पेशावर एक अत्यंत प्राचीन शहर है। यह इतना प्राचीन है कि इसके उद्भव का समय भी ठीक से ज्ञात नहीं है। इसकी स्थापना संभवतः गंधार के कुषाण शासकों द्वारा लगभग 2000 वर्ष पहले की गई थी। इसके उतने ही नाम प्राप्त होते हैं, जितने इसके शासक। यह कनिष्क की प्रथम राजधानी थी, जहां उसने एक मठ तथा एक विशाल स्तूप स्मारक मीनार का निर्माण कराया था, जो कि आने वाले यात्रियों के लिए एक आश्चर्यजनक वस्तु थी। पेशावर बौद्ध-गांधारी सभ्यता का एक महत्वपूर्ण केंद्र तथा एक प्रमुख तीर्थ स्थल था। जैसे ही विश्व मानचित्र पर बौद्ध धर्म का पतन हुआ, वैसे ही पेशावर का महत्व भी कम हो गया।
9वीं शताब्दी ईस्वी में यह हिंदू शाही वंश के अधीन था। बाद में महमूद गजनवी के प्रभावाधीन हो गया। कम होते महत्व के पश्चात भी 16वीं शताब्दी के अंत तक पेशावर एक महत्वपूर्ण नगर बना रहा।
पेशावर का यह नाम संस्कृत शब्द ‘पुष्पपुर‘ से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है- ‘फूलों का शहर‘। यहां तक कि कुषाण काल में भी इसे ‘कमल भूमि‘ एवं ‘अनाज की भूमि‘ के नाम से जाना जाता था। बाबर के कई विवरणों में पेशावर के पुष्पों का उल्लेख प्राप्त होता है। जब बाबर पेशावर आया तो उसने यहां ‘बेग्राम‘ नामक एक नगर की स्थापना की तथा 1530 में यहां के किले को पुनः निर्मित करवाया। उसके पौत्र अकबर ने आधिकारिक तौर पर इस नगर का नाम पेशावर रख दिया, जिसका अर्थ है-सीमावर्ती स्थान। इसके साथ ही पेशावर एक प्रमुख सीमावर्ती नगर एवं प्रमुख व्यापारिक पड़ाव के रूप में विकसित हुआ।
वर्तमान समय में पेशावर पाकिस्तान का एक प्रमुख औद्योगिक नगर है तथा पठानों के आतिथ्य-सत्कार के लिए जाना जाता है।

पिकलिहाल (15°57‘ उत्तर, 76°26‘ पूर्व)
कर्नाटक के रायचूर जिले में स्थित पिकलिहाल प्रागैतिहासिक काल से संबंद्ध शैल कला का एक महत्वपूर्ण स्थल है। पिकलिहाल में प्राप्त चित्रों में जानवर जैसे कि सांड, हथियार लिए हुए मानव आकृतियां, सफेद पृष्ठभूमि पर लाल रंग से चित्रित शिकार से संबंधित चित्रकारी आदि हैं। इसके अतिरिक्त यहां नक्काशी भी की गई है। शैल चित्रों में पशुओं के चित्रण की बहलुता से प्रतीत होता है कि ये कृतियां नवपाषाण काल से संबंधित होंगी।

पिपरहवा (27.44° उत्तर, 83.12° पूर्व)
पिपरहवा एक गांव है, जो उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिले में स्थित है। इसकी पहचान कपिलवस्तु के रूप में की जाती है, जो शाक्यों की राजधानी थी। गौतम बुद्ध इसी कुल से संबंधित थे। बुद्ध ने यहीं अपना बचपन व्यतीत किया था, तथा यहीं किशोरावस्था में उन्हें मानवीय दुखों का भान हुआ, जिसके कारण उन्हें सांसारिक जीवन से विरक्ति हो गई तथा उन्होंने भिक्षु जीवन अपना लिया। यह प्राचीन शहर, जहां से बौद्ध धर्म प्रारंभ हुआ, अब नष्ट हो चुका है। किंतु अभी भी यहां कई स्तूपों के ध्वंशावशेष विद्यमान हैं। यहां के मुख्य स्तूप से एक प्रस्तर की मंजूषा प्राप्त हुई है, जिसमें कुछ वस्तुएं रखी हैं। ऐसा विश्वास है कि ये वस्तुएं भगवान बुद्ध की ही हैं।
1897-98 में यहां से एक अस्थि-पात्र भी प्राप्त हुआ था। 1971 में किए गए उत्खनन में यहां से कई अन्य ऐसी वस्तुएं प्राप्त हुईं, जिनसे पूर्णरूपेण यह सिद्ध हो गया कि यह स्थान ही प्राचीन काल का कपिलवस्तु था। यहां से तत्कालीन समय के कुछ सिक्के भी प्राप्त हुए हैं।
ऐसा अनुमान है कि कपिलवस्तु पिपरहवा पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी-चैथी शताब्दी तक अस्तित्वमान था। इसके पश्चात यह नष्ट हो गया, क्योंकि सातवीं शताब्दी में जब ह्वेनसांग ने इस स्थान की यात्रा की थी तो इसे नष्ट स्थिति में पाया था।

पितलखोड़ा (20.31° उत्तर, 74.99° पूर्व)
महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित पितलखोड़ा एक प्रारंभिक बौद्ध स्थल है, जहां प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के स्थापत्य अवशेष एवं पांचवीं सदी ईस्वी की चित्रकला के अवशेष पाए गए हैं। यहां से ऐतिहासिक महत्व की कई वस्तुएं प्राप्त हुई हैं, जिनमें एक यक्ष की सुंदर प्रतिमा सर्वाधिक उल्लेखनीय है।
पितलखोड़ा की गुफाएं एलोरा उत्तर पश्चिम में लगभग 40 किमी. की दूरी पर स्थित हैं। इन गुफाओं में कई विहार हैं, जो हीनयान बौद्ध धर्म से संबंधित हैं। पितलखोड़ा से प्राप्त वस्तुओं में-पशुओं की प्रतिकृतियां, चैत्यों की प्रतिकृति, हाथी की आकृतियां, संरक्षकों एवं यक्ष की मूर्तियां प्रमुख हैं। यद्यपि पितलखोड़ा के चैत्य विनष्ट हो चुके हैं। इन चैत्यों के कुछ स्तंभ ही शेष हैं, जो जीर्ण-शीर्ण स्थिति में हैं तथा पांचवीं सदी ईस्वी में निर्मित माने जाते हैं।
चैत्यों से जुड़े हुए विहार प्रारंभिक विहारों से रचना में थोड़ी भिन्नता दर्शाते हैं। गुफाओं की दीवारों एवं गर्भगृहों में सुंदर नक्काशी से तत्कालीन समाज की समृद्धि का आभास होता है।
यहां तीन छोटी गुफाएं भी हैं, जिनके अंदर स्तूप बने हुए हैं। इनमें एक छोटा चैत्य गृह भी है। लंबाई में ये मानव की ऊंचाई से लगभग दुगने हैं। स्पष्टतया ये एक ही चट्टान को काट कर नहीं बनाए गए हैं, बल्कि इनके लिए बनाए गए आलों में इन्हें लाया गया है।