प्राच्यवादी किसे कहते हैं , प्राच्यवाद की परिभाषा क्या है इतिहासलेखन इतिहासकार Orientalism in hindi

Orientalism in hindi प्राच्यवादी किसे कहते हैं , प्राच्यवाद की परिभाषा क्या है इतिहासलेखन इतिहासकार ?

उत्तर : इतिहास के बारे में लिखना और इसके बारे में जानकारी देना ही प्राच्यवादी कहलाता है , भारत में इसकी शुरुआत के बारे में आगे बताया जा रहा है |

प्रश्न: प्राचीन भारतीय इतिहास की प्राच्यवादी पुनर्प्रस्तुति का महत्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: बंगाल की एशियाटिक सोसायटी, जिसका गठन विलियम जोंस ने लंदन की रॉयल सोसायटी को मॉडल बनाकर किया था, ने भारतीय इतिहास और संस्कृति में वैज्ञानिक और विशेषीकृत अध्ययन का सूत्रपात किया।
विश्व के समक्ष भारत का प्रकटीकरण: भारतविद्या की खोज को ज्ञान के इतिहास में सबसे प्रमुख उपलब्धियों में से एक माना जाना चाहिए। ए.ए. मैक्डोनल लिखते हैं: ‘‘पुनर्जागरण के बाद से संस्कृति के इतिहास में विश्वव्यापी महत्व की कोई इतनी महत्वपूर्ण घटना नहीं हुई जितनी महत्वपूर्ण घटना अठारहवीं शताब्दी के परवर्ती भाग में संस्कृत साहित्य की खोज थी।‘‘ विलियम जोंस को अधिक सम्मान मिला और उन्हें यह सम्मान एक ऐसे मनीषी के रूप में मिला जिन्होंने विश्व की सभ्यताओं में भारत को वह स्थान पुनः दिलाया जिसका वह हकदार था। उनके द्वारा अंग्रेजी में अनुवादित कालिदास की अमर कृति शकुंतला, जिसका जर्मन में 1791 में अनुवाद हुआ, ने हर्डर और गेटे को तथा श्लेगलों के माध्यम से पूरे रोमांटिक आंदोलन को प्रभावित किया। कोलबूक की कृति ‘‘एस्से ऑन द वेदाज‘‘ ने यूरोप को ‘आर्य‘ मस्तिष्क की प्राचीनतम रचना से अवगत करायाय और ‘ऑक्वेटिल ड्यूपेरों‘ द्वारा उपनिषदों के फारसी अनुवाद से किए गए अनुवाद को जब शिलिंग तथा शॉपेनहवार ने पढ़ा। वस्तुतः उपनिषदों ने शॉपेनहावर को दार्शनिक परमानंद की स्थिति में ला दिया जैसे शकुंतला ने गेटे को काव्यात्मक परमानंद की अनुभूति प्रदान की। भौतिक रूप से इतने दबे-कुचले जनसमुदाय के लिए यह कोई साधारण आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं थी और इसे प्राच्यवादियों ने ही संभव बनाया।
प्राच्यवाद का दोषपूर्ण पक्ष: प्राच्यवादियों के कार्य के कुछ नकारात्मक पक्ष भी थे जिनकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। विलियम जोंस द्वारा प्रस्तुत भाषा-प्रजाति संबंध की अवधारणा को अत्यंत विवादास्पद माना गया और आर्य नस्ल के सिद्धांत को अब सामान्य रूप से त्याग दिया गया है। श्वेत आर्य नस्ल की सर्वोच्चता सर्वत्र यूरोपीय साम्राज्यवाद की एक आधारभूत धारणा बन गई और ब्रिटिश साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने भारत में ब्रिटिश शासन के औचित्य को सिद्ध करने के लिए इसका प्रयोग किया। जिसकी चर्चा आगे की जाएगी।
किंतु आर्य नस्ल सिद्धांत का भारतीय इतिहास-लेखन पर एक और नकारात्मक प्रभाव पड़ा। इसका अर्थ इस रूप में सामने आया कि भारोपीय भाषा बोलने वाली एक श्रेष्ठ विजेता प्रजाति ईसा पूर्व द्वितीय सहस्राब्दि में उत्तर पश्चिमी दरों से होकर भारत पर आक्रमण करके यहां पहुंची तथा मुख्यतः द्रविड़ और ऑस्ट्रिक मूल की स्थानीय आबादी जो प्रजातीय और सांस्कृतिक दृष्टियों से उनसे निकृष्ट थी, पर विजय प्राप्त की। इस विवेचना में न केवल श्उच्चतरश् जाति की श्रेष्ठता की एक व्याख्या अंतर्भूत थी बल्कि आर्य-द्रविड़ प्रजातीय विभाजन का संकेत भी दिया गया था।
जोंस ने संस्कृत भाषा को ‘ग्रीक की अपेक्षा अधिक पूर्ण, लैटिन की अपेक्षा अधिक समृद्ध और इन दोनों की अपेक्षा अधिक परिमार्जित-परिष्कृत…..‘ माना। उन्होंने यह दर्शाने के लिए काफी मेहनत की कि राशियों का भारतीय विभाजन यूनानियों या अरबों से नहीं लिया गया था। उन्होंने इस अनुश्रुति का समर्थन किया कि प्लेटो और पाइथागोरस ने अपने दार्शनिक विचार भारत से लिए और छह हिंदू चिंतन संप्रदायों में प्राचीन प्लेटोनिक अकादमी की संपूर्ण पराभौतिकी समाहित थीय उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि भारत अंकगणित, ज्यामिति और तर्कशास्त्र में उत्कृष्टता हासिल कर चुका था।
प्रश्न: साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद से आप क्या समझते हैं ? भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरणों की विवेचना कीजिए।
उत्तर: किसी भिन्न प्रजाति के देश द्वारा अन्य भिन्न प्रजाति के देश पर राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्रों पर अपना शासन स्थापित करना साम्राज्यवाद कहलाता है। जैसे – चीन पर ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस आदि का साम्राज्य था। किसी भी देश द्वारा किसा भी खास क्षेत्र पर अपना आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक आधिपत्य स्थापित कर लेने के पश्चात् वह का उस देश का उपनिवेश कहलाता है तथा अपनी जाति के लोगों को वहां बसाना ही उपनिवेशवाद है। जैसे – भारत ब्रिटेन का साम्राज्य एवं उपनिवेश था।
भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद चरण
रमेशचन्द्र दत्त ने इकॉनोमिक हिस्ट्री ऑफ इण्डिया में लिखा है कि भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद मुख्यतः 3 चरणों से गजरा व सभी चरण भारत के आर्थिक अधिशेष को हड़पने के विभिन्न तरीकों पर आधारित थे, इन चरणों को क्रमशः वाणिज्यिक, औद्योगिक तथा वित्तीय पूंजीवाद का नाम दिया गया।
1. वाणिज्यवादी – पूंजीवाद युग – 1757-1813
2. औद्योगिक – पूंजीवाद ़ मुक्त व्यापार का युग – 1813-1860।
3. वित्तीय पूंजीवाद ़ विदेशी पूंजी निवेश का युग – 1860-1947
प्रथम चरण: बंगाल विजय के बाद 1757 से 1813 तक व्यापार एकाधिकार साधन था जिसमें प्रत्यक्ष लूट, प्रत्यक्ष प्राप्तियाँ आर्थिक शोषण का साधन था।
द्वितीय चरण: 1813 के बाद एकाधिकार व्यापार की समाप्ति तथा मुक्त व्यापार की स्थिति आयी। 1833 के चार्टर एक्ट में एकाधिकार की पूर्ण समाप्ति। एडम स्मिथ का प्रभाव ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति, सरकार पर दबाव बुर्जुआ वर्ग के उदय आदि से मुक्त व्यापार को बल मिला। अब सभी ब्रिटिश कम्पनियाँ आर्थिक शोषण में लग गयी। लेकिन प्रत्यक्ष लूट, व धन के निर्गमन की प्रक्रिया अंग्रेजी शासन की समाप्ति तक चलती रही।
तृतीय चरण: 1860 के बाद मुक्त व्यापार, धन का निर्गमन बना रहा लेकिन ब्रिटिश पूँजी का निवेश (रेलवे, बैंक, उद्योगों, जूट मिल, कॉटन मिलों आदि में निवेश) प्रारम्भ हुआ। इसे वित्तीय पूँजीवाद कहा गया। इससे आर्थिक शोषण के स्वरूप में परिवर्तन आ गया। इस काल में उपनिवेशवाद को मजबूत बनाने के लिए शासन के सुदृढ़ीकरण को वायसरायों ने महत्व प्रदान किया।
प्रश्न: ब्रिटिश भारत में कृषि के वाणिज्यीकरण के प्रभावों की समालोचनात्मक विवेचना कीजिए।
उत्तर: नकारात्मक प्रभाव
कृषकों की गरीबी एवं ऋणग्रस्तता: इसका सभी लाभ बिचैलियों एवं व्यापारियों को मिला। कृषि उत्पादों को किसानों के हाथों से इंग्लैण्ड तक पहुंचाने के लिए उन्हें अनेक हाथों से गुजरना पड़ता था अर्थात कई स्तरों पर दलालों एवं बिचैलियों के माध्यम से कृषि उत्पाद इंग्लैण्ड तक पहुंचते थे। अतः उन वस्तुओं के मूल्यों में बढ़ोतरी के बावजूद भी असली लाभ बिचैलियों को मिला, किसानों को नहीं। कृषक बाजार की शक्तियों के प्रभाव में तथा प्रतियोगिता की स्थिति में बंध गए। इस तरह व्यापारियों, बिचैलियों, दलालों, महाजनों, आयात-निर्यात दफ्तरों, ब्रिटिश एजेंटों के अस्तित्व आदि ने किसानों की गरीबी एवं ऋणग्रस्तता को चोटी पर पहुंचा दिया। अतः बाजार की मांग ने कृषि को प्रभावित किया। कृषि उपज द्वारा बाजार प्रभावित नहीं हुआ। यह सब अंग्रेजों की औपनिवेशिक नीति का ही प्रभाव था।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आत्मनिर्भरता पर प्रतिकूल प्रभाव
1. एक समृद्ध अर्थव्यवस्था का निर्माण नहीं हो सका।
2. खाद्यानों के उत्पादन में कमी एवं अकालों की बारंबारता।
3. जॉर्ज एलन द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों में नकदी फसलों की खेती में अपेक्षाकृत वृद्धि को दर्शाया गया है। 1891-1946 के बीच नकदी फसलों की कुल उत्पादन वृद्धि की दर 13 प्रतिशत थी जबकि कुल खाद्यान पदार्थों की वृद्धि दर मात्र 1 प्रतिशत थी। इसके अलावा अपेक्षाकृत अच्छी जमीन, अच्छी खाद व सिंचाई का ज्यादा पानी अर्थात अधिक विनियोग नकदी फसलों में किया जाता रहा, क्योंकि प्रति एकड़ उत्पादन की दर प्रतिदशक में 8.5 प्रतिशत से अधिक थी, जबकि खाद्य पदार्थों में यही औसत प्रतिदशक 2 प्रतिशत से भी कम था। चूंकि इस वाणिज्यीकरण का स्वरूप औपनिवेशिक था इसलिए भारत का कृषि ढांचा इंग्लैण्ड के उद्योगों की दया पर निर्भर हो गया।
सकारात्मक प्रभाव
1. वाणिज्यीकरण की प्रक्रिया के कारण भारत के विभिन्न क्षेत्रों के बीच अलगाव की स्थिति की समाप्ति एवं इन क्षेत्रों का आपसी जुड़ाव – इससे अर्थव्यवस्था का एकीकरण हुआ।
2. भारतीय गांव अब भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रमुख इकाई के रूप में विकसित हुए।
3. यातायात सुधार के कारण गांव से गांव तथा गांव से शहर परस्पर नजदीक आ गए तथा उनमें आपसी सहयोग की भावना का विकास हुआ।
4. इस सहयोग से राजनीतिक चेतना का उदय हुआ, जिसने किसानों को शोषणकारियों के विरूद्ध विद्रोह के लिए प्रेरित किया। 1875 में दक्कन में मराठा किसानों द्वारा साहूकारों के विरूद्ध बगावत के परिणामस्वरूप ही 1879 में दक्कन कास्तकारी सहायता अधिनियम पारित हुआ। संथालों के विद्रोह के फलस्वरूप 1885 में बंगाल काश्तकारी अधिनियम पारित हुआ।
5. किसानों की आर्थिक दुर्दशा के कारण किसानों ने शोषणकारी सरकारों का संगठित रूप से विरोध करने के लिए 1936 में अखिल भारतीय किसान कांग्रेस का गठन किया गया।
प्रश्न: ब्रिटिश भारत सरकार ने प्रेस पर नियंत्रण के लिए कौन-कौनसे अधिनियम बनाये? बताइए।
उत्तर: न्यूज पेपर सेंसरशिप एक्ट – 1799, लार्ड वेलेजली: लार्ड वेलेजली द्वारा 1799 में न्यूज पेपर सेंसरशिप एक्ट लागू किया गया। जिसमें समाचार पत्र के संपादक, मुद्रक तथा मालिक का नाम प्रकाशित करना अनिवार्य किया। सरकारी सचिव को सेंसर देखने का काम सौंपा गया। लार्ड हेस्टिंग्स ने 1818 में इसे समाप्त कर दिया। लाईसेंस रेग्यूलेशन एक्ट – 1823: इस एक्ट के अनुसार लाईसेंस के बिना 400 रु. अर्थ दण्ड या कारावास की सजा का प्रावधान किया गया। मजिस्ट्रेट प्रेस को जब्त कर सकता था, इसी वजह से मिरात-उल-अखबार बंद करना पड़ा। चार्ल्स मेटकाफ ने इसे रद्द कर दिया। इसलिए ‘‘चार्ल्स मेटकाफ भारतीय समाचार पत्रों का मुक्तिदाता‘‘ कहलाता है।
गैगिंग एक्ट 1857: 1857 के कुख्यात ‘‘गैगिंग एक्ट‘‘ को गदर के बाद पारित किया गया जिसने प्रेस की स्थापना को विनियमित करने, मुद्रित सामग्री के परिसंचरण को नियंत्रित करने तथा सभी प्रेसों को लाइसेंस प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया। इसमें अंग्रेजी तथा देशी भाषाओं में कोई भेद नहीं किया गया।
लाइसेंसिंग एक्ट – 1857: लाइसेंसिंग एक्ट आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिए 1857 में लागू किया मया था। इसने भारतीय समाचार पत्रों पर कठोरता से सेंसरशिप लागू की।
वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट – 1878: वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट 1878 में गवर्नर जनरल और वायसराय लॉर्ड लिटन द्वारा देशी भाषा समाचार पत्रों पर कठोर नियंत्रण के लिए लाया गया। इस अधिनियम का उद्देश्य भारतीय ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध द्रोहात्मक सामग्री को छापने एवं परिसंचरण करने पर सख्त पाबंदी लगाई गई। जिसे ‘देशी भाषा समाचार पत्रों का मुख बंद करने वाला अधिनियम‘ कहा जाता है। यह मुख्यतः सोमप्रकाश, अमृत बाजार पत्रिका, संवाद कौमुदी, बंग दर्शन आदि बंगाली समाचार पत्रों के विरूद्ध लाया गया था। इसे लार्ड रिपन ने रद्द कर दिया।
द न्यूज पेपर एक्ट – 1908: लार्ड मिन्टो द्वारा द न्यूज पेपर एक्ट 1908 भारतीय राजनीति में उग्रवाद से निपटने के लिए लाया गया।
इंडियन प्रेस एक्ट – 1910: बरन हार्डिंग आफ पेन्सहर्स्ट द्वारा यह एक्ट लाया गया इस अधिनियम के द्वारा वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट के सभी घिनोने पक्ष पुनः जीवित कर दिए थे। प्रेस के लिए पंजीकरण व प्रकाशन जमानत राशि 500 तथा 2000 रु. रखी गई। द इण्डियन प्रेस इमरजेंसी पावर्स एक्ट – 1931: लार्ड इरविन द्वारा इस एक्ट के जरिये प्रेस अधिनियम 1910 के सभी पक्षों को वापिस लागू कर दिया जिसके जरिये सविनय अवज्ञा आंदोलन को सीमित करने का प्रयास किया गया।
ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट प्रेस इन्क्वारी कमेटी – 1947: लार्ड माउंट बेटन द्वारा 1947 में ऑफिसियल सीक्रेट एक्ट प्रेस इंक्वारी कमेटी बिठाई गई। समस्त प्रेस कानूनों की समीक्षा की गई व उनके घिनोने पक्ष समाप्त कर दिए।

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