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कुटियट्टम और कृष्णाट्टम नृत्य किस राज्य से संबंधित है , Koodiyattam and Krishnattam in hindi is a traditional dance of

Koodiyattam and Krishnattam in hindi is a traditional dance of कुटियट्टम और कृष्णाट्टम नृत्य किस राज्य से संबंधित है ?

यात्रा
‘यात्रा’ शब्द संभवतः उरांव भाषा से लिया गया है, जिसमें इसका अर्थ है एक महत्वपूर्ण आनुष्ठानिक नृत्य महोत्सव और किसी भी उत्सव पर नाटकों का भी प्रदर्शन किया जाता हैं। पश्चिम बंगाल और ओडिशा में जहां वैष्णववाद के चैतन्य सम्प्रदाय का विशेष प्रभाव है, यात्रा को हमेशा चैतन्य उत्सव से जोड़ा जाता है। इसके विषय कृष्ण के जीवन से लिए जाते हैं। बंगाल के सामाजिक जीवन पर वैष्णववाद के कम होते प्रभाव से यात्रा में अब पौराणिक और धर्मनिरपेक्ष प्रसंग भी शामिल किए जागे लगे हैं। यात्रा के नए रूप में आर्केस्ट्रा शामिल किया गया है, जिसमें देशी और विदेशी वाद्ययंत्र हैं और अभी तक यह चला आ रहा है। यह नया रूप ‘नूतन यात्रा’ के नाम से जागा जाता है। राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान यात्रा ने छुआछूत और जातिप्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों को दूर करने की मंशा से सामाजिक विषयों को भी शामिल किया था।
यात्रा एक चलता फिरता रंगमंच है और पेशेवर समूह अक्टूबर और जून के बीच विभिन्न स्थानों पर जाकर प्रदर्शन करते हैं।
सांग
हरियाणा में लोक रंगमंच काफी लोकप्रिय है, जिसे सांग कहते हैं। खुले स्थान पर वादक बीचों-बीच बैठते हैं और उनके चारों तरफ श्रोता व दर्शक बैठते हैं। अभिनेता, सह-गायक, सह-नर्तक पूरे मंच पर घूमते हैं। इनकी कथावस्तु लोकप्रिय पौराणिक आख्यानों पर आधारित होती है। बीच-बीच में हंसी.मजाक के भी दृश्य प्रस्तुत किए जाते हैं।
भवाई
भारत के पश्चिमी क्षेत्र में प्रचलित भवाई की उत्पत्ति राजस्थान और गुजरात के उत्तरी हिस्से में हुई। प्रारंभ में भवाई धार्मिक उत्सवों के दौरान देवी मां को प्रसन्न करने के लिए किया जागे वाला अनुष्ठान था। बाद में इनका प्रदर्शन पूरे साल किया जागे लगा। हालांकि अभी भी, साल की पहली प्रस्तुति किसी शिव मंदिर में नवरात्र के पहले दिन की जाती है। वस्तुतः भवाई, नाटिकाओं की क्रमिक प्रस्तुति है, नाटिका का विषय धार्मिक, पौराणिक या सामाजिक कुछ भी हो सकता है। कुछ नाटिकाओं में प्रमुख भूमिका मुसलमान पात्र निभाता है। इससे दक्कन और दिल्ली में मुसलमान शासकों के प्रभाव का पता चलता है। ये भवाई गांव-गांव में घूम-घूमकर किए जाते हैं। संगीत शास्त्रीय रागों पर आधारित होता है, किंतु इनकी अपनी शैली होती है। नृत्य भी शास्त्रीय नहीं है, लेकिन रास और गरबा के लोक नृत्य के अतिरिक्त कथक का प्रभाव देखा जा सकता है। नृत्य की सहायता से नाटक के किसी चरित्र को उजागर करना होता है। भुंगल, झांझ और पखावज जैसे वाद्य प्रयोग में लाए जाते हैं। पहनावे और साज-संवार की निश्चित शैली होती है।
राजस्थान के भवाई नृत्य में कुछ कथानक महत्वपूर्ण हैं जैसे ‘बोरा और बोरी’ इसमें गांव के एक बनि, तथा उसकी कृपण पत्नी की नकल उतारी जाती है। ‘ढोला मारू’ इसमें ढोला और मारू की सदियों से चली आ रही प्रेम कहानी दिखाई जाती है। ‘डोकरी’ इसमें एक वृद्धा का दुर्भाग्य दिखाया जाता है।
ख्याल
ख्याल राजस्थान की एक नृत्य नाटिका शैली है। यह परंपरा लगभग 400 वर्ष पुरानी है। मनोरंजन का माध्यम होने के साथ-साथ ख्याल सांस्कृतिक और सामाजिक शिक्षा का भी माध्यम है। गायन और वादन की विशिष्ट शैली वाले इस ख्याल में राजस्थान की लोक संस्कृति झलकती है।
करयाला
हिमाचल प्रदेश के लोक नाट्य करयाला में जीवन और मृत्यु के गंभीर प्रश्नों पर संक्षेप में विचार किया जाता है। हास्य का पुट लिए इसमें अदायगी एवं संवाद की सरलता दिखती है। वस्तुतः, दर्शकों को हमारी सांस्कृतिक विरासत का निचोड़ बताया जाता है, जिसमें यह संसार एक मंच है और सारहीन आडम्बर है। इसी से समझौता करते हुए इससे ऊपर उठकर जीना है।
जशिन
कश्मीर की मशहूर प्रदर्शनकारी कला जशिन वस्तुतः प्रहसन है, जिसे ‘भांड’ कहे जागे वाले लोक-कलाकार करते हैं। हर प्रहसन का मजेदार अंत होता है। संस्कृत नाटकों का इस पर प्रभाव है। वैसे यह किसी देवता के सम्मान में किया जाता है। प्रदर्शन खुले मंच पर किया जाता है और अभिनेता दर्शकों में भी मिले रहते हैं। इसमें मसखरे या विदूषक की उपस्थित अनिवार्य होती है। जशिन समाज की बुराइयों पर व्यंग्य करने का सशक्त माध्यम है।
तमाशा
महाराष्ट्र में रंगमंच की बहुत ही समृद्ध परंपरा रही है। प्रारंभ में तमाशा नाचने-गाने वाले समूह के रूप में था। पेशवा के काल में इसका स्वरूप निश्चित होता गया और इसका वर्तमान रूप सामने आया। महिलाएं मंच पर आने लगीं। हांलाकि विशेष साजो सामान या भड़कीले वस्त्रों की जरूरत इन्हें नहीं पड़ती थी, विदूषक अवश्य ही रंग-बिरंगे वस्त्र पहनता था। नाचने और गाने की इसकी अपनी अलग ही शैली है। लावणी नृत्य का भी समावेश इसमें कर लिया जाता है। तमाशा में आम लोगों की सामाजिक और कभी कभार राजनीतिक आकांक्षाएं भी परिलक्षित होती हैं। इसने आधुनिक रंगमंच और फिल्म पर गहरी छाप छोड़ी है।
मुदियेत्तु
केरल में काफी प्राचीन काल से किया जागे वाला आनुष्ठानिक नृत्य नाटक मुदियेत्तु हर वर्ष काली के मंदिरों में किया जाता है। यह बुराई के ऊपर अच्छाई की विजय का प्रतीक है, क्योंकि काली ने दारिका राक्षस का संहार किया था।
यूनेस्को ने तीन भारतीय कला रूपों को अंकित किया
यूनेस्को ने मानवीयता की अक्षुण्ण सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची में केरल के रंगमंच मुदियेतु, पूर्वी भारत के परम्परागत नृत्य शैली छऊ, एवं कालबेलिया नृत्यों एवं गीतों को शामिल किया। यह गिर्णय वर्ष 2011 में नैरोबी में यूनेस्को की अक्षुण्ण सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा संबंधी अंतर्सरकारी समिति के पांचवें सत्र में लिया गया। यह एक वार्षिक सूची है जो बेहद कीमती परफाॅर्मिंग कला रूपों पर प्रकाश डालती है जैसाकि विश्व विरासत सूची करती है जो स्मारकों एवं प्राकृतिक स्थलों से सम्बद्ध है।
विरासत कलाओं की बेहतरी एवं उनके संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय मदद के लिए अंकित करना आवश्यक है।
अंकित करने या सूचीबद्ध करने से इनका संरक्षण एवं प्रोत्साहन करना सरकारों का दायित्व बन जाता है जो यूनेस्को के विश्व विरासत संरक्षण अभिसमय की पुष्टि करते हैं। इसके लिए यूनेस्को अंतरराष्ट्रीय सहायता एवं सहयोग को सुसाध्य बनाता है, वित्तीय एवं अध्ययन में मदद का विस्तार करता है, विशेषज्ञता एवं प्रशिक्षण प्रदान करता है, और अवसंरचना का सृजन करता है।
सरकारों ने प्रतिनिधि सूची में अंकन के लिए विरासत संबंधी तत्वों के नामांकन को अग्रेषित किया है। अत्यावश्यक सुरक्षा सूची में अंकन के लिए पृथक् नामांकन भेजे जाते हैं।
अभी तक आठ भारतीय विरासत अवयवों को प्रतिनिधि सूची में अंकित किया गया है। इसमें रामलीला, कुट्टीयट्टम नाटक रूप, रम्मन पारम्परिक थियेटर एवं वैदिक मंत्र शामिल हैं।

कृष्णाट्टम
कथा प्रचलित है कि राजा मानवेदन को गुरुवायुर मंदिर के प्रांगण में एक वृक्ष के नीचे खेलते हुए कृष्ण का दिव्य दर्शन हुआ था। जब उनकी भाव समाधि टूटी तो उन्होंने उस क्रीड़ा स्थल पर पड़ा हुआ मोर पंख देखा। इस रहस्यमय अनुभव से उन्हें कृष्ण के जीवन पर कृष्णगीति की रचना करने की प्रेरणा मिली। यही कृष्ण्गगीति अष्ट प्रसंगों वाले नाटक कृष्णाट्टम का आधार बनी। भक्त दर्शकों के लिए कृष्णाट्टम का प्रदर्शन मंदिर के देवता के दर्शन के समान है। केरल उसी समय से वैष्णव भक्ति के प्रभाव में आ गया था जब कृष्ण और राधा के प्रगढ़ प्रेम का काव्य गीत-गोविन्द वहां पहुंचा था। उसे अष्टपदीअट्टम के रूप में अंगीकार किया गया और केरल के विष्णु मंदिरों में गाया जागे लगा। अष्टपदीअट्टम की प्रदर्शन परम्परा में महत्वपूर्ण भूमिका रही और कृष्णाट्टम तथा कथकलि जैसे नृत्यनाट्य के लिए उसी रचना-बंध को स्वीकार किया गया।
जन्म से लेकर मृत्यु तक कृष्ण के जीवन को दर्शाती आठ नाटकों की कड़ी कृष्णाट्टम 17वीं शताब्दी में कालिकट के जमोरिन राजा मानवेदन की संस्कृत कविता ‘कृष्ण गीति’ पर आधारित है। संवाद, समूह द्वारा आर्केस्ट्रा पर शकर/बोलकर अदा किए जाते हैं। कलाकार कथानक को स्पष्ट करने के लिए व्यापक संकेतों का सहारा लेते हैं। इसी प्रकार का एक अन्य नृत्य नाटक रामट्टम है, जिसमें राम का जीवन चक्र दर्शाया जाता है।
कुटिअट्टम
नौवीं-दसवीं शताब्दी में केरल में ‘चक्यार’ अभिनेताओं ने मंदिरों के प्रांगण में भास, कुलशेखरवर्मन इत्यादि द्वारा लिखे गए संस्कृत नाटकों का मंचन प्रारंभ किया। कई दिनों तक विस्तार से प्रस्तुत किए जागे वाले इन नाटकों में भाव-भंगिमाओं का भरपूर प्रयोग होता था या यूं कहें कि हर शब्द की व्याख्या अंग संचालन से की जाती थी। विदूषक मलयालम भाषा के माध्यम से संस्कृत के अनुच्छेदों को समझाता था और इस प्रकार संस्कृत नाटक आम जनता तक पहुंचते थे। क्रिया-व्यापार पर टिप्पणी करता है, हास्य उत्पन्न करता है, और नायक द्वारा बोले गएश्लोकों के साथ प्रतिश्लोक बोलता है। जब उदयन कहता है, ‘वासवदता वीणा बजा रही थी, मैं उसे खड़ा देख रहा था और विचारों में इतना खो गया कि मैंने अपने हाथ उठाए और शून्य में ही ऐसे हाथ चलाने लगा जैसे मैं स्वयं वीणा बजा रहा हूं।’ इस पर बिदूषक एक प्रतिश्लोक बोलता है, ‘मेरी पत्नी चावल फटक रही थी, मैं उसे देखता रहा और विचारों में ऐसा खो गया कि मैं अपने हाथ ऐसे चलाने लगा जैसे स्वयं चावल फटक रहा हूं।’
दोनों महाकाव्यों पर आधारित भास के तेरह नाटक 1912 में ही प्राप्त हुए। वैसे शताब्दियों से उनके नाटकों के कई अंक कुटिअट्टम में प्रस्तुत हो रहे थे। कुटिअट्टम मूल पाठ के प्रदर्शन में अंतरण की अत्यंत जटिल प्रक्रिया का उदाहरणप्रस्तुत करता है। कथकलि और यक्षगान जैसे अत्यंत विकसित नाट्य रूपों के समान कुटिअट्टम बहुविधि संचार सरणियों का प्रयोग करता है, जिसमें प्रत्येक सरणी की अपनी निश्चित प्रविधि एवं परिपाटी होती है। संचार की सबसे महत्वपूर्ण सरणी अर्थात् नाट्य संवाद को उसमें छोटी-छोटी लयबद्ध इकाइयों में तोड़कर संगीतात्मक शैली में प्रस्तुत किया जाता है जो वैदिक ऋचाओं के गायन के सदृश होती है। संवाद की यह लयात्मक पद्धति यद्यपि कुछ नीरस प्रतीत होती है, परंतु इसकी अत्यंत रीतिबद्ध शारीरिक गतियों तथा हस्त मुद्राओं से इसका कलात्मक संतुलन रहता है। कुटिअट्टम में प्रस्तुत संस्कृत नाटकों के अंक इस प्रकार हैं ‘नागानंद’, ‘शाकुंतलम’, ‘आश्चर्य चूड़ामणि’, ‘सुभद्रा धनंजयम’, ‘कल्याण सौगंधिकम्’ और दो प्रसिद्ध संस्कृत प्रहसन ‘मत्तविलास’ एवं ‘भगवदज्जुकीयम’। भास के नाटकों ‘प्रतिज्ञा’, ‘प्रतिज्ञायोगंधरायण’, ‘स्वपन्नवासवदत्तम’, ‘अभिषेक’, ‘बाल चरित’, ‘दूतवाक्य’, ‘कर्णभार’, ‘दूतघटोत्कच’, ‘चारूदत्तम’, ‘मध्यम व्यायोग’ और ‘पांचरात्र’ के अंक भी प्रस्तुत किए जाते हैं।
इस नाट्य रूप ने कृष्णट्टम और रामट्टम के विकास को प्रभावित किया, जिनसे कथकली का शास्त्रीय नृत्य विकसित हुआ।

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