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निर्देशात्मक नियोजन किसे कहते हैं | Indicative Planning in hindi definition meaning परिभाषा क्या है

Indicative Planning in hindi definition meaning निर्देशात्मक नियोजन किसे कहते हैं | परिभाषा क्या है

निर्देशात्मक नियोजन
(Indicative Planning)
सोवियत संघ में नियोजन शुरू होने के बाद के दो दशकों में नियोजन के विचार पर लोकतांत्रिक दुनिया का ध्यान गया। फिर ऐसा समय आया जब ऐसी कुछ अर्थव्यवस्थाओं ने राष्ट्रीय नियोजन शुरू किया। चूंकि न तो वह राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्थाएं थीं न ही उनकी राजनीतिक प्रणाली साम्यवादी/समाजवादी थीं, इसलिए उनके नियोजन को आदेशात्मक अर्थव्यवस्था से अलग होना था। ऐसे नियोजन को अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों ने निर्देशात्मक नियोजन कहा। इसकी विशेषताओं को नीचे दर्शाया गया हैः
;i) निर्देशात्मक नियोजन का पालन करने वाली सभी अर्थव्यवस्थाएं मिश्रित अर्थव्यवस्था थीं।
ii. एक केंद्र नियोजित अर्थवस्था के विपरीत (जो देश आदेशात्मक नियोजन का पालन कर रहे थे) निर्देशात्मक नियोजन बाजार (मूल्य प्रणाली) की जगह लेने के बजाय इसके जरिए काम करता है।
iii. संख्यात्मक/मात्रात्मक लक्ष्य निर्धारित करने के साथ ही (आदेशात्मक नियोजन की तरह ही) योजना के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अर्थव्यवस्थाएं निर्देशात्मक प्रकृति की आर्थिक नीतियों की भी घोषणा करती हैं।
iv. आर्थिक नीतियों की निर्देशात्मक प्रवृत्ति जिनका ऐलान ऐसे नियोजन में किया जाता है दरअसल निजी क्षेत्र को आर्थिक निर्णय लेने की प्रक्रिया में उत्साहित या निरुत्साहित करती हैं।
चालीस के दशक के मध्य में मिश्रित अर्थव्यवस्था बनने के बाद फ्रांस ने 1947 में अपनी पहली छह वर्षीय योजना शुरू की जिसे माॅनेट योजना (वह योजना आयोग के पहले अध्यक्ष थे और फ्रांस में तत्कालीन योजना मंत्री थे) कहा जाता है। बाद में माॅनेट योजना निर्देशात्मक नियोजन की पर्यायवाची बन गई। इस योजना को कभी-कभी सेक्टर योजना भी कहा जाता है क्योंकि सरकार ने विकास के मूल के रूप में आठ आधारभूत उद्योगों को चुना था जिसके लिए नियोजन लगभग आदेशात्मक था, जो राज्य सरकार के एकाधिकार में थे (यह ऐसे क्षेत्र थे जिन पर 1944 तक, जब तक फ्रांस ने उनका राष्ट्रीयकरण नहीं किया, निजी क्षेत्र का स्वामित्व था)। अन्य आर्थिक गतिविधियां निजी साझीदारी के लिए खुली हुई थीं जिनके लिए निर्देशात्मक नीति नियोजन अनिवार्य था। फ्रांस के साथ ही जापान ने भी निर्देशात्मक नियोजन को बेहद सफलता के साथ किया है। साल 1965 में ब्रिटेन ने राष्ट्रीय योजना के साथ ऐसा नियोजन किया और कुछ घटनाएं होने के बाद 1966 में इसे छोड़ दिया (एक भुगतान संकट खड़ा हो गया था जिसकी वजह से महंगाई कम करने के उपाय करने पड़े)। तब से ब्रिटेन ने कभी भी नियोजन नहीं किया।
हालांकि आर्थिक विकास के उपकरण के रूप में आर्थिक नियोजन के सबसे पहले प्रयोग अमेरिका ने किया था (क्षेत्रीय स्तर पर 1916 में टेनेसी वैली अथाॅरिटी के साथ), लेकिन इसने कभी औपचारिक राष्ट्रीय नियोजन नहीं किया। चालीस के दशक में कुछ अर्थशास्त्री राष्ट्रीय नियोजन के पुरजोर समर्थक थे। हम लोगों को अमेरिका में निर्देशात्मक नियोजन की झलक नियमित अंतराल पर आने वाली प्रेजिडेंशियल रिपोर्ट्स में दिख सकती है। यह रिपोर्ट्स संसाधनों के इस्तेमाल और सरकार की अपनी लक्ष्यों के प्रति घोषणाओं के लिए ‘मानदंड’ हैं-मूल रूप से सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने के लिए। मिश्रित अर्थव्यवस्थाएं निर्देशात्मक नियोजन का जिस तरह प्रयोग करती हैं, उससे विकास के लक्ष्य तभी हासिल किए जा सकते हैं जब सरकारी और निजी उद्यम एक ही साइकिल के दो सवारों की तरह काम करें। इसीलिए योजना के लक्ष्यों के अलावा सरकार को कुछ निर्देशात्मक नीतियों की भी घोषणा करनी होती है ताकि निजी क्षेत्र को आर्थिक गतिविधियों को योजना के लक्ष्यों की दिशा में काम करने की प्रेरणा दी जा सके।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तकरीबन सभी नव-स्वतंत्र देशों ने नियोजित विकास का रास्ता अपनाया। हालांकि उन्होंने मोटे-तौर पर निर्देशात्मक नियोजन को ही अपनाया था लेकिन उनमें से बहुत सारों में आदेशात्मक नियोजन के गंभीर संकेत नजर आ रहे थे। भारत के संदर्भ में, आदेशात्मक नियोजन के प्रति भारी झुकाव को 1991 में आर्थिक सुधार शुरू होने के बाद ही दुरुस्त किया जा सका।
आज, दुनियाभर में ज्यादातर देशों में केवल मिश्रित अर्थव्यवस्थाएं हैं, किसी भी देश के विकास की योजनाएं केवल सांकेतिक प्रकार की हो गई हैं। वाशिंगटन सर्वसम्मति (1985), 1998 की सेंटियागो/नई सर्वसम्मति और विश्व व्यापार संगठन (1995) के तहत विकास को बढ़ावा देने में बाजार की जरूरत और भूमिका के पुनरुद्वार के बाद, सिर्फ सांकेतिक नियोजन ही संभव रह गया है क्योंकि राज्य अर्थव्यवस्था, विशेषकर सामाजिक महत्व के क्षेत्रों (यानी पोषण, स्वास्थ्य, पेयजल, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा, आदि) में सीमांत भूमिका निभा रहे हैं।
हमारे दृष्टिकोण के हिसाब से अभी कई अन्य प्रकार की योजनाएं भी बन रही हैं। उदाहरण के लिए, क्षेत्रीय नजरिये की दृष्टि से योजना क्षेत्रीय या राष्ट्रीय हो सकती है। राजनीतिक दृष्टिकोण से योजना केंद्रीय, राज्य स्तरीय या स्थानीय हो सकती है। इसी तरह, भागीदारी दृष्टिकोण से योजना को केंद्रीकृत और विकेंद्रीकृत के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इसके अतिरिक्त, अस्थायी दृष्टिकोण से योजना लंबी या छोटी अवधि की (सापेक्ष अर्थों में) हो सकती है। अंत में, मूल्य दृष्टिकोण से योजना आर्थिक या विकासात्मक हो सकती है।
योजना का एक प्रमुख वर्गीकरण सामाजिक प्रभाव के आधार पर किया जाता है। ऐसी योजना जिसमें सामाजिक और संस्थागत आयामों पर कम जोर दिया जाता है उसे व्यवस्था योजना (Systems Planning) के रूप में जाना जाता है। इस तरह की योजना बनाने में योजनाकार स्थापित लक्ष्यों के संबंध में जाति, पंथ, क्षेत्र, भाषा, विवाह, परिवार, आदि मुद्दों को कम महत्व देते हुए सर्वोत्तम संभव परिणामों के लिए खोज करता है। इसके विपरीत, मानक योजना (Normative Planning) सामाजिक-संस्थागत कारकों को उचित महत्व देती है। यह सामाजिक-तकनीकी दृष्टिकोण से बनाई गई योजना है, लेकिन सिर्फ उस देश के लिए उपयुक्त है जहां सामाजिक विविधताएं बहुत कम हैं (स्वाभाविक तौर पर, भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल नहीं है)। लेकिन, आने वाले वर्षों में नीति-निर्माताओं की सोच में बहुत बदलाव आया है। आर्थिक सर्वेक्षण 2010-11 संभवतः भारत सरकार का पहला दस्तावेज है जो भारत में योजना के लिए मानक दृष्टिकोण की आवश्यकता की वकालत करता है। ऐसा माना जाता है कि सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रम/योजनाएं जब तक लोगों के रीति-रिवाजों, परंपराओं और स्वभाव के साथ मेल नहीं खाएंगी, तब तक लक्षित आबादी तक उनकी स्वीकार्यता वांछित स्तर तक नहीं होगी। कार्यक्रमों/योजनाओं और लक्षित आबादी के बीच मजबूत रिश्ता बनाने को अब योजना और नीति का एक महत्वपूर्ण पहलू माना जाता है। सोच में इस तरह का बदलाव दुनिया में भारत और दूसरे देशों के अनुभवों पर आधारित है।
जनवरी 2015 में भारत सरकार द्वारा योजना आयोग की जगह नीति आयोग की स्थापना की गयी। अगर हम इस नये ‘नीति चिंतक निकाय’ के कार्यों को देखें तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि भारत आधिकारिक रूप से ‘मानक नियोजन’ को अपनाने की ओर अग्रसर हो चुका है। इस निकाय को एक ऐसे विकास माॅडल के निर्माण का कार्य दिया गया है जो कि ‘भारतीय’ हो अर्थात् इस विकास माॅडल में भारत की सांस्कृतिक एवं मूल्य विधनों का घटक भी शामिल हो।
हाल के वर्षों में भारत सरकार द्वारा इस दिशा में कई पहल की गयी हैं तथा इसके परिणाम भी अच्छे मिले हैं ‘सामाजिक मानकों’ ;ैवबपंस छवतउेद्ध को प्रभावित करने की दिशा में सरकार द्वारा किए गए प्रयासों को आर्थिक समीक्षा 2015-16 ने भी उद्घृत किया हैः
i. धनी लोगों को छूटों (Subsidies) को छोड़ने के लिए समझाना (Persuade)
ii. लड़कियों के प्रति सामाजिक पूर्वाग्रहों ;चतमरनकपबमेद्ध को कम करने का प्रयास;
iii. खुले में शौच नहीं करने के स्वास्थ्य संबंधी लाभों के प्रति लोगों को जागरूक करने की कोशिश, एवं
iv. सार्वजनिक स्थानों को साफ-सुथरा रखने के लिए लोगों को उत्साहित करने का प्रयास।
विश्व के कई अन्य देशों की तरह भारत द्वारा भी आर्थिक विकास की प्रक्रिया को बढ़ावा देने के लिए नागरिकों में ‘व्यवहारिक बदलाव’ करने पर ध्यान दिया जा रहा है। इस दिशा में भारत के प्रयास की सराहना विश्व विकास रिपोर्ट-2015 (विश्व बैंक) में भी की गयी है। भारत द्वारा किए जा रहे उपरोक्त सारे प्रयास ‘मानक नियोजन’ के उदाहरण हैं।
आर्थिक नियोजन को और अधिक बका-क्षेत्रीय और स्थानिक में वर्गीकृत किया जाता है। क्षेत्रीय (Sectoral) योजना बनाने में योजनाकार अर्थव्यवस्था के विशेष क्षेत्र पर जोर देता है, जैसे-छषि, उद्योग या सेवा क्षेत्र। स्थानिक (Spatial) योजना में विकास को स्थानिक ढाँचे में देखा जाता है। विकास के स्थानिक आयामों को राष्ट्रीय आर्थिक विकास की जरूरतों और दबाव में परिभाषित किया जा सकता है। भारतीय नियोजन मौलिक रूप से एक स्तरीय (single level) और क्षेत्रक दृष्टिकोण (sectoral approach) पर निर्भर रहा है। वैसे 1990 के दशक से नियोजन की
प्रक्रिया में बहुस्तरीय (multi-level) एवं प्रादेशिक (regional तत्वों पर बल बढ़ता गया है जिनमें हमें मानक (normative) आयामों पर भी बढ़ते जोर का स्पष्ट संकेत मिलता है।