WhatsApp Group Join Now
Telegram Join Join Now

संगीत की परिभाषा क्या होती है | definition of sangeet in hindi मूलभूत अवधारणा किसे कहते हैं

definition of sangeet in hindi मूलभूत अवधारणा किसे कहते हैं संगीत की परिभाषा क्या होती है ?

संगीत
संगीत मानव के लिए प्रायः उतना ही स्वाभाविक है जितना भाषण। कब से मनुष्य ने गाना प्रारंभ किया, यह बतलाना उतना ही कठिन है जितना कि कब से उसने बोलना प्रारंभ किया। परंतु बहुत काल बीत जागे के बाद उसके गान ने व्यवस्थित रूप धारण किया।
जब स्वर और लय व्यवस्थित रूप धारण करते हैं तब एक कला का प्रादुर्भाव होता है और इस कला को संगीत, म्यूजिक कहते हैं। संगीत का जन्म कैसे हुआ, इस संबंध में कई दृष्टिकोण हैं। कहा जाता है कि संगीत पहले ब्रह्माजी के पास था। उन्होंने यह कला शिवजी को दी और शिव के द्वारा देवी सरस्वती को प्राप्त हुई। सरस्वती को इसीलिए ‘वीणा पुस्तक धारिणी’ कहकर संगीत और साहित्य की अधिष्ठात्री माना गया है। सरस्वती से यह ज्ञान नारदजी को तथा नारदजी से स्वग्र के गधर्व, किन्नर और अप्सराओं को मिला। वहां से ही भरत, नारद और हनुमान प्रभृति ऋषि संगीत कला में पारंगत होकर भूलोक पर संगीत के प्रचार-प्रसार हेतु अवतीर्ण हुए।
एक अन्य मत के अनुसार शिवजी ने पार्वती जी की शयनमुद्रा को देखकर उनके अंग-प्रत्यंगों के आधार पर ‘रुद्रवीणा’ बनाई और अपने पांच मुखों से पांच रागों को जन्म दिया। तत्पश्चात् छठा राग पार्वती जी के श्रीमुख से उत्पन्न हुआ। शिवजी के पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और आकाशोन्मुख से क्रमशः भैरव, हिंडोल, मेघ, दीपक और श्री राग प्रगट हुए तथा पार्वती जी द्वारा कौशिक राग की उत्पत्ति हुई।
मूलभूत अवधारणा
भारतीय संगीत का आदि रूप वेदों में मिलता है। वेद के काल के विषय में विद्वानों में बहुत मतभेद है, किंतु उसका काल ईसा से लगभग 2000 वर्ष पूर्व था इस पर प्रायः सभी विद्वान् सहमत हैं। इसलिए भारतीय संगीत का इतिहास कम से कम 4000 वर्ष प्राचीन है। वेदों में वाण, वीणा और ककेरि इत्यादि वाद्यों का उल्लेख मिलता है। विश्व में सबसे प्राचीन संगीत सामवेद में मिलता है। उस समय ‘स्वर’ को यम कहते थे। साम का संगीत से इतना घनिष्ठ संबंध था कि साम को स्वर का पर्याय समझने लग गए थे। साम का ‘स्व’ अपनापन ‘स्वर’ है। ‘तस्य हैतस्य साम्नो यः स्वं वेद, भवति हास्य स्वं, तस्य स्वर एवं स्वम्’ अर्थात् जो साम के स्वर को जागता है उसे ‘स्व’ प्राप्त होता है। साम का ‘स्व’ ही स्वर है।
वैदिक काल में तीन स्वरों का गान सामिक कहलाता था। ‘सामिक’ शब्द से तात्पर्य तीन स्वरों से हैं। ये स्वर ‘ग रे स’ थे। कुछ समय पश्चात् पांचए छह और सात स्वरों के होने लगे। अध्यधिक ‘साम’ तीन से पांच स्वरों तक के मिलते हैं। साम के यमों (स्वरों) की जो संज्ञाएं हैं उनसे उनकी प्राप्ति के क्रम का पता चलता है। उल्लेखनीय है कि सामगायकों को स्पष्ट रूप से पहले ‘ग रे स’ इन तीन यमों (स्वरों) की प्राप्ति हुई। इनका नाम हुआ प्रथम, द्वितीय, तृतीय। ये सब अवरोही क्रम में थे। इनके अनंतर नि को प्राप्ति हुई जिसका नाम चतुर्थ हुआ।

सामग्राम और उनकी आधुनिक संज्ञाओं की सारणी
साम आधुुिनक
क्रुष्ट
प्रथम
द्वितीय
तृतीय
चतुर्थ
मंद्र
अतिस्वार्य मध्यम (म)
गांधार (ग)
ऋषभ (रे)
षड्ज (स)
निषाद (नि)
धैवत (ध)
पंचम (प)

संमात्य स्वरों के नियम क्रम का जो समूह है वह संगीत में ‘साम’ कहलाता है। यूरोपीय संगीत में इसे ‘स्केल’ कहते हैं।
एक अन्य धार्मिक दृष्टिकोण के अनुसार हज़रत मूसा पैगम्बर को जेवरायूल नामक फरिश्ते ने एक पत्थर दिया था। एक बार जंगल में घूमते हुए मूसा को प्यास लगी, किंतु पानी नहीं मिला। फिर उन्होंने खुदा की बंदगी की और बारिश होने लगी। पानी की धार उस पत्थर पर गिरी तो उसके सात टुकड़े हो गए और उनसे सात अलग-अलग ध्वनियां निकली। इन्हें ही सात स्वर माना गया। कई लोगों का कथन है कि ‘कोहकाफ’ में एक पक्षी है, जिसे फारसी में ‘आतिशजन’ कहते हैं। इस पक्षी की चोंच में सात छिद्र होते हैं, जिनमें से हवा के प्रभाव से सात प्रकार की ध्वनियां निकलती हैं और ये ही सातों स्वर हैं।
इसके अतिरिक्त किसी ने बुलबुल पंछी से संगीत की उत्पत्ति मानी तो किसी ने पुरुष और नारी के मिलन का हेतु संगीत को ही माना। किसी ने प्रकृति को संगीत का उत्स माना। नारी सौंदर्य में आकर्षण पैदा करने के लिए सृष्टिकर्ता ने उसे संगीत से अलंकृत किया, क्योंकि यदि नारी के अंदर संगीत न होता तो वह सृष्टि की जननी न बन पाती। उसके अंदर कोमलता, स्निग्धता, शालीनता और मधुरता न होती तो वह प्रेरणा न बन पाती।
इन सभी दृष्टिकोणों के मध्य संगीत की महत्ता अक्षुण्ण है और इतना तो निर्विवाद है कि संगीत के अभाव में जीवन का शृंगार न हो पाता।
संगीत के रूप
प्राचीन काल में संगीत के दो रूप अत्यधिक प्रचलित हुए (प) मार्गी संगीत, (पप) देसी संगीत। बाद में मार्गी संगीत लुप्त हो गया और देसी संगीत दो रूपों में विकसित हो गया। वर्तमान में संगीत के दो रूप प्रचलित हैं (1) शास्त्रीय संगीत, (2) लोक संगीत।
शास्त्रीय संगीतः शास्त्रों के आधार पर प्रयुक्त संगीत शास्त्रीय संगीत कहलाता है।
लोक संगीतः प्रकृति के स्वच्छंद वातावरण में काल और स्थान के अनुसार पुष्पित, पल्लवित संगीत लोक संगीत कहलाता है।