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उर्दू भाषा का आधुनिक साहित्य क्या हैं ? what is modern literature of urdu language in hindi

what is modern literature of urdu language in hindi उर्दू भाषा का आधुनिक साहित्य क्या हैं ?

उर्दू भाषा का आधुनिक साहित्य
उर्दू साहित्य को विकास के लिए पहल आधुनिक प्रेरणा फोर्ट विलियम कालेज में मिली। डा. जान गिल्क्रिस्ट ने उर्दू गद्य पर काफी ध्यान दिया और उन्होंने कुछ भारतीय विद्वानों को हिंदस्तानी व्याकरण तैयार करने के लिए रखा। अन्य भाषाओ की कुछ मूल्यवान कृतियों का भी उर्दू में अनुवाद किया गया। 1825 ई. में स्थापित दिल्ली कालेज, दिल्ली, इस नए साहित्य के संवर्द्धन का संस्थान बन गया। इस कालेज ने वैज्ञानिक विषयों पर लिखने और पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए 1844 ई. में एक वर्नेकुलर ट्रांसलेशन सोसाइटी (भाषाई अनुवाद संस्था) स्थापित की। नए साहित्य के प्रसार के लिए दो पत्रिकाएं ‘मुजीदन नजीरीन‘ और ‘मुहिबे हिंद‘ प्रकाशित की गई। धीरे धीरे पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से एक परिवर्तन आया और छापेखानों ने काफी मात्रा में साहित्य तैयार किया जो और अधिक पाठकों तक पहुंचा।
उर्दू साहित्य को नई पीढ़ियों की आशाओं, आकांक्षाओं और भावनाओं के अनुरूप ढाला गया।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सर सैरद अहमद खान ने आधुनिक ढंग के उर्दू साहित्य के पुनर्लेखन के लिए लेखकों का प्रेरित करने में महत्वपूर्ण कार्य किया। सैयद अहमद का कहना था कि शायरी का जो अंदाज मुगल दरबार में था और इसे बयान करने के जो तरीके थे वे पुराने पड़ चुके हैं। उन्होंने मुसलमानों को यूरोपीय ज्ञान के लाभ दिलाने का निश्चय कर रखा था और उनका अलीगढ़ अभियान धार्मिक बातों को पुनरूज्जीवित करने और शिक्षा तथा प्रगति में सुधार लाने के लिए था। बहरहाल उनके आंदोलन ने उर्दू साहित्य की प्रगति पर काफी असर डाला।
1874 से कवि गोष्ठियों (मुशायरे) के रूप में उर्दू साहित्य को नई प्रेरणा मिली। इसका उद्देश्य नई कविताओं के पाठ को प्रोत्साहन देना था। इस अभियान के प्रणेता थे शायर हाली। उनकी कृतियों वरखारूस, उम्मीद, इंसाफ, और हुब्बेवतन ने उर्द शायरी को नयी दिशा दी। नई प्रवत्तियां मिर्जा गालिब की गजलों में पहले ही मौजूद थीं। गालिब मृत्यु 1869 ई. में हुई। हाली और इकबाल पर उनका जबर्दस्त असर था। हाली, इस्माईल, दुर्गा सहाय सरूर और अकबर कविता (नज्म) की नई प्रवृत्तियों के प्रतिपादक थे। इकबाल, हसरत मोहानी, और असगर जैसे शायरों ने गजल के दायरे और विस्तृत किए। स्वाधीनता से पहले के राजनीतिक संकट के दिनों में और देश के विभाजन के बाद के वर्षों में होने वाली घटनाओं को लेकर उर्दू गजलो ने वक्त के दुख-दर्द को जबान दी और इंसान के जज्बात को छू गई। उथल-पुथल के उन दिनों के हालात की, जगन्नाथ आजाद, साहिर, अर्श मलसियानी महरूम, हरिचंद अख्तर, हफीज होशियारपुरी, तब्स्सुम, जहीर, नासिर काजिम और अन्य शायरों ने गजलों में बयान किया।
20वीं शताब्दी के तीसरे दशक में प्रगतिवादियों के एक शक्ति के रूप में उभरने से, उर्दू साहित्य में उल्लेखनीय विकास हुआ। वे उर्दू शायरी में यथार्थवाद लाए ओर इसे एक नई व्यवस्था के लिए सामाजिक चेतना जगाने का माध्यम बनाया। प्रगतिवादियों ने परिवर्तन लाने के लिए कलम उठाई। इनमें अत्यंत अल्लेखनीय हैं जोश, फैज, फिराक, मखदूम, जां निसार अख्तर और सरदार जाफरी। कहानीकारों में प्रमुख प्रगतिवादी थे हुसैनी, कृश्न चन्दर, अख्तर अंसारी, अहमद अली, हयातुल्ला, बलवंत सिंह, हसन असकरी, गुलाम अब्बास, मुमताज मुफ्ती और इब्राहीम जालिस । उन्होंने अपनी कहानियों में समाज की कई बुराइयों की कई बुराइयों और इंसान द्वारा इंसान पर किए गए अधिकांश पक्तियों की कविताएं (सानेट) तथा गीत लिखने वालों में अगुआ थे। असमिया के अन्य विशिष्ट कवि और कवियित्रियों में थे अम्बिका राय चैधरी, रघुनाथ चैधरी, यतीन्द्रनाथ दुआरा, रत्नकांत बड़काकती, देवकांत बरूआ, नलिनि बालादेवी और धर्मेश्वरी देवी, जिन्होंने असमिया कविता के विभिन्न पहलुओं की उल्लेखनीय सेवा की। हेम बरूआ, नवकांत बरूआ और अन्य कवियों ने प्रगतिवादी कवतिा के क्षेत्र में नई आशाओं के युग का समारंभ किया।
आधुनिक असमिया उपन्यास 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में अस्तित्व में आया। इस क्षेत्र में पहल करने वाले थे रजनीकांत बारडोलाई, जिन्होंने बुरंजियों की कथाओं और मैलिक कल्पनाओं का प्रयोग किया। उनके उपन्यास ‘मिरी जियारो‘ (1805) ‘मानो माटी‘ (1900), ‘दंडुआ द्राह‘ (1909) और ‘राहादाई लिगिरि‘ (1930) बहुत सफल हुए। अन्य उपन्यासकारों में पदमनाथ गोहैन बरूआ, दैवचंद्र तालुकदार और दंडीनाथ कालिता ने भी विशिष्ट योगदान किया। बरूआ के पया ‘लहरी‘ और ‘भानमति‘, तालकदार का ‘आदर्शपीठ‘ और कालिता का ‘साधना‘ उन थोड़े से उपन्यासों में से थे जो अत्यंत लोप्रिय और शिक्षाप्रद समझे गए। प्रगतिशील विचार, सामाजिक वातावरण में मनुष्य, उसकी समस्याओं के संदर्भ में मानव मस्तिष्क की उलझनें. खून-पसीना बहाकर जीने वाले आदमी की सच्ची परेशानियां और दुख-दर्द और सामाजिक संबंधों में ठीक तरह न खप सकने के यथार्थवादी अध्ययन पर कद्रित थे। इन्ही बातों को विषयवस्त मानकर हिलो का ‘अजीर मनह‘ आद्यनाथ शर्मा का ‘जीवनार तीन अध्ययन‘, चंद्रकांत गोगोई का ‘सुनार नंगल‘ और गोबिंद महंत का ‘कष्कार नटी‘ उपन्यास लिखे गए। जोगेश दास के ‘दावर‘ आरूनाई जैसे उपन्यासों में दूसरे विश्वयद्ध जेसी घटनाओं में पृष्ठभमि बनाया गया। कुछ उपन्यासकारों ने युवावर्ग की अपूर्ण आशाओं से उपजी असंतोष और निराशा की भावनाओं बड़ा सशक्त प्रदर्शन किया। इसके दो उदाहरण हैंः प्रफुल्ल दत्त गोस्तामी का ‘केकापातार का, पानी‘ और राधिका मोहन गोस्वामी का ‘चकनैया‘।
उपन्यास की तरह असमिया भाषा में लघुकथाओं ने भी 20वीं शताब्दी के प्रारंभ के बाद बड़ी तेज प्रगति की। इस क्षेत्र के अगुआ ये लक्ष्मीनाथ वेजबरुआ। शारतचंद्र गोस्वामी ने भी महत्वपूर्ण योगदान किया। कुछ समय बाद कहानियों में और अधिक यथार्थवाद आया। इस दिशा में बैलोक्यनाथ गोस्वामी ने काफी प्रगति की। उनकी कहानियों में ‘जड़वा‘ और ही ‘विधवा‘ समाज की बर्बरता से उत्पन्न करूणा का विशिष्ट स्थान है। तीन अन्य उल्लेखनीय कहानी लेखकों में थे, लक्ष्मीनाथ शर्मा, बीना बरूआ और रमादास। उन्होंने बौद्धिक अभिव्यक्ति, सोच-विचार कर देने वाले मतों और रूचिकर विवरणों पर आधारित सुधरे हुए तरीकों और शैलियों के साथ प्रयोग किए।
आधुनिक असमिया नाटक बड़ी दृढ नींव पर आधारित है। गुणाभिराम बरूआ, हेमचंद्र बरूआ और रूद्रराम बोर्डोलोई ने पश्चिमी ढंग के नाटक लिखने शुरू किए। ऐतिहातिक घटनाओं को बड़ी सफलता से नाटक के रूप में प्रस्तुत किया गया। लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ की ‘चक्रद्वज सिन्हा‘, ‘बेलिमार‘ और ‘जयमाटी‘ जैसी कृतियों का बहुत नाटकीय महत्व था। इसी प्रकार पद्मनाथ गुहैन बरूआ के प्रसिद्ध नाटक ‘गदाधार‘, ‘साधानी‘ और ‘ललित फुकन‘ ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित थे। चंद्रधर बरूआ जैसे नाटककारों ने महाकाव्यों की कथाओं को लेकर ‘मघनाथ-बध‘ और ‘तिलोन जसे नाटक लिखे। राष्ट्रीय संघर्ष के दिनों में असमिया नाटक लेखकों ने देशभक्ति की भावनाओं वाले ऐतिहासिक लिखने पर अधिक ध्यान दिया। इस कार्य के लिये प्रसिद्ध हुए नकुलचंद्र भूयान, प्रसन्नलाल चैधरी, शैलाधार और देवचंन्द्र तालुकदार। अतुलचंद्र हजारिका के नाटक ‘छत्रपति शिवाजी‘ और ‘कन्नौजी कुंवरी‘ राष्ट्रीय भावना को के रूप में प्रस्तुत करने के अच्छे उदाहरण है। स्वाधीनता के बाद के वर्षों में असमिया नाटक उन्हीं पुरानी विषयवस्त पर आधारित रहा, इसमें कोई आमूल परिवर्तन नहीं आया।