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Categories: इतिहास

हिंदुस्तानी संगीत शैली क्या है इतिहास बताइए कर्नाटक संगीत में अलापना हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के समान होता है

कर्नाटक संगीत में अलापना हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के समान होता है हिंदुस्तानी संगीत शैली क्या है इतिहास बताइए ?

भारतीय संगीत शैली
भारतीय संगीत शैली को दो प्रमुख वर्गें में विभाजित किया गया है (1) हिन्दुस्तानी संगीत शैली, (2) कर्नाटक संगीत शैली।
हिन्दुस्तानी संगीत एवं कर्नाटक संगीत भारतीय संगीत की प्रचलित धाराएं हैं। आरंभ में संगीत की ये दोनों पद्धतियां भौगोलिक क्षेत्र की द्योतक हैं, परंतु वर्तमान में संगीत के दोनों स्वरूप एवं क्षेत्र में काफी परिवर्तन हो गया है। इतिहास की दृष्टि से हिन्दुस्तानी संगीत को उत्तरी भारत का संगीत कहना अनुचित न होगा कि, परंतु आधुनिक हिन्दुस्तानी संगीत का क्षेत्र इतना अधिक बढ़ गया है कि उसे हम केवल उत्तरी भारत का संगीत नहीं कह सकते, वस्तुतः हिन्दुस्तानी संगीत की पद्धति सामवेद से ही प्रसूत होकर विभिन्न समसामयिक परिवर्तनों को अपने अंदर समाहित करते हुए हमारे समक्ष उपस्थित है। जब हम इसके साथ आधुनिक शब्द का प्रयोग करते हैं तो इसका अर्थ यही है कि इस संगीत को अकबर के युग से लेकर वर्तमान काल तक हम देखते हैं।
इन दो अलग-अलग पद्धतियों का वर्णन करने से यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यह एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। सांस्कृतिक रूप से ये दोनों हमारी सांस्कृतिक आत्मा के दो अनिवार्य अंग हैं। कर्नाटक संगीत की बहुत सी रागें हमारी रागों से मिलती-जुलती हैं। हिन्दुस्तानी संगीत में रागों का भाव प्रदर्शन उनसे कहीं अधिक व्यापक है और हिन्दुस्तानी संगीत अपने रागों का कर्नाटक संगीत से कहीं अधिक सूक्ष्म, भावुक और कलात्मक विश्लेषण भी करता है। कर्नाटक संगीत समय के साथ इतना प्रभावित नहीं हुआ जितना हमारा हिंदुस्तानी संगीत। इसी कारण शायद कर्नाटक संगीत में एक प्रकार की सभ्य कट्टरता है और वह इतना रोचक, भावुक और परिवर्तनशील नहीं रहा है जितना अधिक हिन्दुस्तानी संगीत।
हिन्दुस्तानी संगीत शैली
भारतीय संगीत शास्त्र की परंपरा वेद, आगम, पुराण और संहिता से निर्मित हुई है। सामवेद में इसकी उत्पत्ति बतायी गई। सामवेद में हमारे संगीत का शैशव काल था। फिर भी संगीत के आधारभूत नियमों को वैदिक काल में ऋषियों ने खोज निकाला था। सामवैदिक संगीत में मूर्छना का बीज विद्यमान था। सामगीतों को सौंदर्यात्मक दृष्टि से परिपूर्ण करने के लिए, उन्हें मधुर और ललित बनाने के लिए आवश्यक गमकों और अलंकारों का आविष्कार व प्रयोग होने लगा था। ताल का प्रयोग प्रारंभ नहीं हुआ था।
इतिहास और मुख्य पुराणों के काल में संगीत किशोरावस्था को प्राप्त हुआ। सामवेद के आधार पर गांधर्व संगीत का विकास हुआ, जिसमें सामवेद के मंत्रों के अतिरिक्त गाथाएं और विभिन्न प्रकार के प्रबंध गाए जागे लगे। संगीत एक स्वतंत्र शास्त्र बन गया। बाल्मिकी रामायण में हमें जातिगान का उल्लेख मिलता है। महाभारत में ग्राम रागों का वर्णन है। जाति और ग्रामराग से ही आधुनिक रागों का विकास हुआ है। रामायण में तालों और भिन्न प्रकार के अवन) वाद्यों और वीणाओं का उल्लेख (जिनका वर्णन इतिहासकाल के अध्याय में किया गया है)। स्पष्ट है कि इतिहासकाल तक संगीत का पर्याप्त विकास हो चुका था। उस विकसित संगीत का कोई न कोई शास्त्र भी अवश्य बना होगा, किंतु उसका पता नहीं चलता। गांधर्ववेद का यत्र-तत्र उल्लेख मिलता है।
संगीत, नृत्य और अभिनय पर उपलब्ध ग्रंथ भरतमुनि का ‘नाट्यशास्त्र’ है। कहते हैं कि भरत ने अपने शास्त्र में संगीत की विद्या का उपयोग करने के लिए नारद और स्वाति से ही इस कला की दीक्षा ली। महर्षि नारद का ग्रंथ ‘नारदीय शिक्षा’ है। आगम परंपरा में संगीत के आदिकर्ता स्वयं देवाधिपति महादेव हैं। ‘नंदकेश्वर संहिता’ में और ‘काश्यपीयम्’ आदि ग्रंथों में संगीत की संहिता परंपरा के भी श्रोतों का उल्लेख है। संगीत की अन्य परंपराओं में दुग्र और आंजनेय परम्पराएं भी महत्वपूर्ण हैं। आंजनेय मत का अनुकरण ‘संगीत-दर्पण’ में किया गया है, जबकि याष्टिक और दुग्र परंपराओं का अनुसरण भारतीय संगीत के शिखर टीकाकार शारंगदेव ने अपने ग्रंथ ‘संगीत-रत्नाकर’ में किया है। उल्लेखनीय है कि ‘संगीत-रत्नाकर’ पूरे भारत के संगीत में एकरूपता लाने वाला एकमात्र, उपलब्ध महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
नाट्यशास्त्र के अनुसार हमारे संगीत का विकास चार परिवेशों में हुआ (1) यज्ञशाला (2) मंदिर (3) रंगमंच (4) राजप्रसाद। यज्ञशाला में सामवेद के मंत्र गाए जाते थे। यह सरल किंतु शुद्ध संगीत था। मंत्रों में शब्दों की प्रधानता थी, स्वर गौण था। गंधर्व संगीत यज्ञशाला में अंकुरित हुआ, किंतु वह पल्लवित और पुष्पित हुआ मंदिरों में। मंदिरों में वृंदगान होता था। रंगमंच का संगीत प्रायः युगल और वृंदगान अथवा वृंदवाद्य के रूप का था। एकल संगीत बहुत कम होता था। रंगमंच का संगीत प्रायः नृत्यमिश्रित अभिनय के साथ होता था। हरिवंश में यह प्रमाण मिलता है कि नाटक में रंगमंच पर श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न और साम्ब ने वज्रनाभपुर में ग्रामराग और छलिक अथवा छालिम्य का प्रयोग किया था। राजप्रसाद में दरबारी संगीत होता था। यह प्रायः एकल अथवा युगल संगीत होता था। प्रसादों में राजा और उसके अधिकारियों को प्रसन्न करने के लिए ही संगीत का कार्यक्रम होता था। अतः यह प्रायः एकल संगीत अथवा एकल नृत्य मिश्रित छलिक प्रकार का संगीत होता था, जिसका उदाहरण कालिदास के ‘मालविकाग्निमित्र’ नाटक में मालविका के छलिक में मिलता है। मुस्लिम काल
संगीत शास्त्र के प्रमुख ग्रंथ और ग्रंथकार
ग्रंथ   ग्रंथाकार
नारदी शिक्षा   नारद
संगीत रत्नाकर शारंग देव
संगीत समय सार पाश्र्व देव
संगीत तरंग राधा मोहन सेन
संगीत राज महाराजा कुम्भा
संगीत मकरंद नारद
संगीत सारामृत तुलाजीराव भोंसले
संग्रतांजलि ओंकारनाथ ठाकुर
संगीत दर्पण दामोदर मिश्र
बृहदेशी मतग देव
राग बोध सोमनाथ
शृंगार प्रकाश राजाभोज
लोचन टीका अभिनव गुप्त
आदिभारतम मुम्मदि चिक्क भूपाल
श्रुति भास्कर भाव भट्ट
हृदय कौतुक हृदय नारायण देव
राग तरंगिनी लोचन
अलंकार शास्त्र राजा भोज
अभिनव शास्त्र राजा भोज
अभिनव भारत सार माधव विद्यारण्य संग्रह
ध्रुपद टीका भरताचार्य

में यज्ञशाला का संगीत बहुत कम रह गया। कुछ मंदिर के परिवेश का संगीत बचा रहा। रंगमंच का संगीत लुप्त हो गया। विशेष रूप से राजप्रसाद का संगीत पनपा, जो एकल और प्रबंध बहुल था। यही दरबारी संगीत विशेष रूप से अपने देश में अवशिष्ट रह गया।
मनुष्य जब भी कोई भाव व्यक्त करना चाहता है तो उसके पहले उसका मन प्रेरित होता है। इस प्रेरणा से ही शरीर के भीतर अग्नि जागती है जो वायु को अपने आघात से उद्वेलित करती है। इन आघातों के क्रमिक उद्देलन से ही श्रुतियां निर्मित होती रही हैं। शास्त्रोक्त है कि पहली चार श्रुतियों से षड्ज स्वर का जन्म हुआ। इसके बाद इन्हीं श्रुतियों से क्रमानुसार गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और अंत की इक्कीसवी और बाइसवीं श्रुतियों से ‘निषाद’ की उत्पत्ति हुई। यही भारतीय संगीत के ‘प्रकृति स्वर’ माने गए हैं।
भारतीय संगीत साधना को सुलभ और ग्राह्य बनाने के लिए रागों की कल्पना की गई। इन्हीं से आकर्षण पैदा होता है। इसके लिए छः मूल रागों की कल्पना की गईः (1) भैरव (2) मालकौंस (3) हिण्डोल (4) दीपक (5) श्री और (6) मेघ। इन रागों को गायन में साक्षात् अनुभव करने के लिए इनके प्रतिष्ठित ध्यान की कल्पना की गई।
ये राग दो प्रकार के हुएएक प्राचीन और दूसरा नवीन। प्राचीन रागों को माग्रराग और नवीन रागों को देसीराग कहा गया है।
इन रागों पर जिन्होंने अभ्यास किया वे गायन में निपुण हुए और जो स्वयं शब्द व छंद रचना करने लगे, वे संगीत शास्त्र में ‘वाग्येकार’ के नाम से जागे गए। प्राचीन और नवीन संगीत का संपूर्ण ज्ञान रखने वाले गंधर्व कहलाते थे। अतः इस देश का जो संगीत विकसित हुआ, वह स्वरों के मेल से उत्पन्न रागों के माध्यम से शब्द और गायन का ही विस्तार था। ये गायन प्रबंध गायन के नाम से प्रचलित हुए। ये तालबद्ध होते थे। शारंगदेव के ‘संगीत रत्नाकर’ में ‘श्रीवर्धन’ प्रबंध का उल्लेख है। कवि जयदेव कृत ‘गीत गोविंद’ भी भारतीय संगीत में प्रबंध गायन के रूप में लोकप्रिय हुआ। उनका ‘देशावतार’ हर रचनाकार को कंठस्थ था।
रागों के गायन में समय का भी महत्व था। भैरव को उषाकाल में, मेघ को प्रातःकाल में, दीपक और श्री राग को तीसरे प्रहर तथा हि.डोल एवं कौशिक को रात्रि में गाए जागे के योग्य माना गया। इसके अतिरिक्त ये राग मनोदशा और अनुभूतियों से भी जुड़े हैं। भैरव को भय से, कौशिक को प्रमोद से, हि.डोल, दीपक और श्रीराग को प्रेम से और मेघ को शांति से जोड़ा गया।
प्रबंध गायन अपने विस्तार को सीमित करते हुए ध्रुपद में पल्लवित हुआ। वस्तुतः अपने मूल ढांचे में बिना किसी परिवर्तन की अनुमति दिए हुए अचल रहने का शब्द और स्वर की अन्विति में जो संकल्प था, वही ‘ध्रुवपद’ हुआ। ध्रुव अचल के पर्याय के रूप में स्वीकृत था। इस प्रकार भारतीय संगीत की यात्रा ऋचाओं से छंदगान, छंद से प्रबंध गायन और प्रबंध गायन से ध्रुपद संगीत तक सीधे चलती चली आई। स्थाई, अंतरा, संचारी और आभोग के विभिन्न चरणों में इस ध्रुपद गायन का विकास हुआ। यही गायन लम्बे समय तक भारतीय संगीत का पर्याय बना रहा। प्रसिद्ध ध्रुपद गायक बैजू बावरा, गोपाल लाल, मदन नायक, चरजू, छवि नायक, प्रेमदास यहां तक कि स्वयं तानसेन भी ध्रुपद गायकी के आचार्य थे। क्रमशः धु्रपद गायन में भी कई उपभेद हुए। इनमें गौड़ीयवाणी, खण्डारवाणी, डागुरवाणी और नौहारवाणी अत्यंत प्रसिद्ध हुईं। गौड़हार (गौड़ीय) को राजा के समान माना गयाए खण्डार को सेनापति और सबकुछ संचय करने वाली डागुरवाणी को कोषाधिकारी के रूप में ध्रुपद गायक मानते रहे।
स्वर, ताल और पद गायन इन तीनों का सम्यक रूप ध्रुपद शैली प्रस्तुत करती रही। इसमें आलाप शुद्ध स्वरों की क्रमशः बढ़त दिखाता है, फिर इसमें गति आती है। एक प्रकार से ध्रुपद की मूल छवि उसके आलाप में ही बन जाती है। ध्रुपद की विशिष्ट गायन शैली का उन्नायक ग्वालियर नरेश मानसिंह तोमर को बताया गया है। इसमें चाहे ओंकार को स्मरण करते हुए नोम, तोम का आलाप हो, चाहे काव्यमय बंदिशें हों, चाहे उसकी लयकारी और उपज हो धु्रपद गायन लम्बे अरसे तक भारतीय संगीत पर राज करता रहा। इस गायन शैली में जिस भव्यता, गरिमा और स्वरों के उदात्त स्वरूप का परिचय होता है, वह इसे उच्चतम शिखर पर स्थापित करता है।
गायक को स्वर विस्तार और कल्पना की मुक्त छूट नहीं थी। ध्रुपद की इसी जकड़बंदी के प्रतिक्रियास्वरूप गायन में ख्याल शैली का जन्म हुआ। ख्याल गायकों में स्वरों को, स्वरों के रचना प्रबंध को, उनकी उपज और कल्पना को प्रमुख स्थान मिला। हालांकि, ख्याल गायक अपने आलाप अंग में ध्रुपद से एकदम नाता तोड़ नहीं पाए, फिर भी उन्होंने उसके बंधे-बंधा, चैखटे को तोड़ जरूर
प्रमुख संगीत शिक्षण संस्थाएं
संस्था स्थान
1- श्रीराम भारतीय कला केंद्र दिल्ली
2- गंधर्व महाविद्यालय दिल्ली
3- भारतीय कला केंद्र दिल्ली
4- स्वर साधना समिति मबंुई
5- देवधर स्कूल आॅफ इंडियन म्यूजिक मबंुई
6-शासकीय संगीत महाविद्यालय ग्वालियर
7-शंकर गानधर्व महाविद्यालय ग्वालियर
8- अलाउद्दीन खां संगीत अकादमी भोपाल
9- काॅलेज आॅफ म्यूजिक महैर
10- कमला देवी संगीत महाविद्यालय रायपुर
11- कला संस्थान जयपुर
12- संगीत भारती बीकानेर
13- सयाजी राव म्यूजिक काॅलेज बड़ौदा
14- संगीत कला केंद्र आगरा
15- आई.टी-सी. रिसर्च अकादमी कलकत्ता
16- अली अकबर काॅलेज आॅफ म्यूजिक कलकत्ता
17- रविन्द्र भारतीय विश्वविद्यालय कलकत्ता
प्रमुख राग
भारतीय संगीत के राग रूप से प्रकृति एवं वातावरण से प्रभावित होते हैं। इन रागों को समय चक्र के अनुसार गाने पर उनकी प्रभावोत्पादकता बढ़ जाती हैं। इसलिए प्रत्येक राग की प्रकृति के अनुसार उनकी गाने की ऋतुएं भी निश्चित हैं। इन ऋतुओं की प्रकृति का इन रागों के स्वरों में प्रभाव मिलता है। ऋतु के अनुसार रागों को निम्नलिखित वर्गें में बांटा जा सकता है।
(1) वर्षा ऋतु के रागः गाय मल्हार, सूरमल्हार, देस एवं अन्य मल्हार, प्रकार।
(2) वसंत ऋतु के रागः राग वसंत बहार, हिण्डोल भैरव बहार आदि।
(3) फालगुन के रागः इनमें विशिष्ट रूप से होलियां गायी जाती हैं।

दिया। विशुद्ध स्वर के ही माध्यम से संगीत से साक्षात्कार करने वाले कलाकारों ने ख्याल शैली को जन्म दिया। ख्याल नाम क्यों पड़ा, इसके पीछे कोई सुस्पष्ट चिंतन या परिभाषा का उल्लेख नहीं मिलता। कुछ इसे ध्रुपद गायन में आए ‘ध्यान’ को ख्याल का पर्यायवाची मानते हैं तो कुछ इसे स्वरों की मुक्त उड़ान के नाम पर ख्याल कहते हैं।
जो भी हो, इस समय ख्याल गायन ही भारतीय संगीत का प्रतिनिधि स्वर माना जाता है। इन ख्याल गायकों ने अपनी विशिष्ट शैलियों के कारण, अपने गुरुओं की परंपरा के कारण स्थान विशेष में बंधकर सीखने के कारण, अपनी गायकी को एक विशिष्ट घरानेदार गायकी के रूप में मान्यता प्राप्त कराई। इसमें कुछ घराने तो अत्यंत प्रसिद्ध हुए; जैसे ग्वालियर घराना, आगरा घराना, किराना, सहसवान या रामपुर घराना, पटियाला घराना और जयपुर घराना। स्वरों के विशिष्ट लगाव, आलाप या स्थाई अंतरे के बोलों पर आग्रह के कारण अथवा गायकी में तानों के विभिन्न प्रयोगों के द्वारा एक ही राग गाते हुए भी ये कलाकार अपनी प्रस्तुति की शैलियों में एक-दूसरे से भिन्न हो गए। ख्याल शैली के विकास में मुसलमान कलाकारों और शासकों का विशेष योगदान रहा है। भारतीय संगीत में मान्य मूर्छनाओं के स्थान पर अमीर खुसरो ने ईरानी संगीत के ‘मुकामों’ की स्थापना की। बारह स्वरों की एक नई कल्पना भी सामने आई, जिनसे रागों के स्वरूप में बदलाव हुआ। अमीर खुसरो के काल में ही ठेठ भारतीय और ईरानी संगीत का अनोखा सम्मिलन हुआ। कई नए राग जुड़े, उनका स्वरूप बदला और नए वाद्य भारतीय संगीत को मिले। जौनपुर में शर्की हुकूमत के दौरान सुल्तान हुसैनशाह शर्की ने भारतीय संगीत में कई बदलाव लाए। राग जौनपुरी के साथ ख्याल गायकी की मूल अवधारणाओं को प्रतिष्ठित करने में इनका भी नाम लिया जाता है।
ख्याल गायकी में अब तक कई शलाकापुरुष हुए हैं, जिन्होंने भारतीय संगीत की दिशा मोड़ी। एक ओर जहां विशुद्ध शास्त्रीय गायन के प्रतिनिधि के रूप में ग्वालियर के पंडित कृष्ण राव शंकर पंडित और उनकी शिष्य परंपरा ने एक प्रतिमान बनाया तो वहीं दूसरी तरफ बड़े गुलाम अली खां साहब ने स्वरों के अपने लगाव से एक नई क्रांति पैदा कर दी। नत्थन खां, पीरबक्श, हाजी सुजाग खां, फैय्याज खां, अल्लादिया खां, अब्दुल वाहिद खां, अब्दुल करीम खां ने भी गायन में नये प्रवाह जोड़े।
तथापि, बोलों के विशेष आग्रह ने और उनकी रसमय अदायगी पर अतिरिक्त बल देने के कारण ख्याल में भी गंभीरता बनी रही। इस गंभीरता को कम करने के लिए ही संभवतः ठुमरी गायन का जन्म हुआ। ठुमरी ने संगीत को काव्यमय अनुभूतियों से अधिक सुदृढ़ और ग्राह्य बनाया तथा रागों के कठोरतम बंधनों से मुक्त होकर मानवीय संवेदनाओं को सही अर्थों में और भी गहरा उतरकर छूने का प्रयास किया। रागों के अगम और सूक्ष्म भावबोध जीवन के अधिक निकट आए।
ठुमरी का जन्म स्थान लखनऊ माना जाता हैं। लखनऊ के ही उस्ताद सादिक अली खां इस अंग की गायकी के जनक कहे जाते हैं। अवध के कला-विलासी नवाब वाजिद अली शाह जिन अनेक कलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए विख्यात हैं, उनमें ठुमरी का अपना एक महत्व है। वे स्वयं ठुमरी के एक अच्छे रचयिता थे जिन्होंने ‘कदरपिया’, ‘ललनपिया’, ‘अख्तरपिया’ जैसे उपनामों वाले अनेक ‘पिया’ ठुमरियों की रचना की। अवध का कत्थक नृत्य ठुमरी गायकी से विशेष रूप से सम्बंधित रहा है। विशिष्ट भाव की स्वरों में अदायगी के लिए ठुमरी में बोल बनाव का आविष्कार हुआ। एक ही बोल को कितने रसों में कितने प्रकार से नाटकीयता के साथ अदा किया जा सकता है, यह ठुमरी गायन ने साक्षात् करके दिखा दिया। लखनऊ के अतिरिक्त बनारस में भी ठुमरी ने अपनी जगह बनाई। राज्य संरक्षण से सर्वथा विहीन और विमुक्त बनारस में ठुमरी ने लोकतत्वों को ही अपनाया। चैती, कजरी, सावनी, होरी आदि लोक प्रचलित धुनें इसमें शामिल हुईं। लखनऊ और बनारस दोनों को ही एक प्रकार से पूरब अंग की ठुमरी कहा जाता है। ठुमरी का दूसरा पक्ष पंजाबी अंग के नाम से प्रसिद्ध है। इस अंग की ठुमरी का उद्गम पंजाब के लोक संगीत माहिया, पहाड़ी आदि धुनों से हुआ है। इसमें तानों पर अधिक बल है, इसलिए बोलपक्ष पीछे छूट जाता है। वास्तविक रूप में, ठुमरी गायकी बोलों की ही गायकी है।
ठुमरी के सीमित राग हैं। संक्षिप्त और चंचल राग ही ठुमरी के लिए उपयुक्त माने गए हैं। खम्माच, पीलू, काफी, भैरवी आदि प्रचलित राग हैं, किंतु आजकल तिलंग, खम्भावती, सिंदूरा जैसे रागों में भी ठुमरी गाते हैं। उस्ताद बड़े गुलाम अली खां की या उनके भाई बरकत अली की ठुमरियां पंजाबी अंग की उपलब्धियां हैं जबकि पूर्वी अंग की ठुमरी में रसूलन बाईए, बड़ी मोती बाई, सिद्धेश्वरी देवी, लखनऊ के महाराज बिंदादीन तथा उनके वंशजों द्वारा गाई गईं ठुमरियां आज भी अपने स्वर विन्यास हेतु विख्यात हैं।
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