सीलेन्ट्रेटा के दो उदाहरण क्या है | संघ सीलेन्ट्रेटा का वर्गीकरण लक्षण एवं उदाहरण सहित कीजिए

संघ सीलेन्ट्रेटा का वर्गीकरण लक्षण एवं उदाहरण सहित कीजिए सीलेन्ट्रेटा के दो उदाहरण क्या है ?

अध्याय २
सीलेण्ट्रेटा
 1. हाइड्रा- ताजे पानी का शिकारभक्षी प्राणी
स्वरूप हाइड्रा (आकृति ६) ग्रीष्म और शरद ऋतुओं में झीलों, तालाबों और स्थिर बंधे हुए पानी में पाया जाता है। यह प्राणी बहुत ही कम चलता है। नियमतः यह जलवनस्पतियों के आधार से रहता है। अपने शरीर के एक सिरे के सहारे वह वनस्पति से चिपका रहता है। यह सिरा आधार-मण्डल कहलाता है।
हाइड्रा का पता लगाने के लिए किसी तालाब के अलग अलग हिस्सों से कुछ पौधे लाकर एक जलपात्र में डालो। यदि पानी स्थिर रखा जाये तो कुछ ही देर में हाइड्रा दिखाई देने लगेंगे। वे नन्हे भूरे या कुछ हरे-से डंठलों जैसे लगते हैं। इनकी लम्बाई लगभग १.५ सेंटीमीटर होती है और वे बहुत सूक्ष्म स्पर्शिकाओं का मुकुट धारण किये होते हैं। बाह्यतः हाइड्रा, प्राणी की अपेक्षा वनस्पति ही अधिक लगते हैं।
प्राणिविषयक विशेषताएं यह निश्चित रूप से समझने प्राणिविषयक के लिए कि हाइड्रा प्राणी ही हैं, हमें कुछ देर बारीकी से देखते रहना होगा। पहले पहल हम जो कुछ देखते हैं वह है उनकी स्पर्शिकाओं की गति। हाइड्रा उन्हें धीरे से झुकाकर विभिन्न दिशाओं में लहराता है। यदि हम जल-पात्र को कुछ हिला दें या सूई से हाइड्रा का स्पर्श कर दें तो इस प्राणी का शरीर संकुचित होकर एक छोटा-सा पिण्ड बन जाता है।
आगे देखते रहने पर हमें पौधे पर हाइड्रा की गति दिखाई देती है। वह वारी वारी से अपने शरीर के सिरे पौधे पर टिकाकर चलता है (आकृति १०)।
यदि हम जल-पात्र में डैफनीया नामक नन्हीं नन्हीं मछलियों सहित पानी डाल दें तो हाइड्रा उन्हें अपनी स्पर्शिकाओं से पकड़कर निगल जायेगा। यहां हमें शरीर के खुले सिरे पर स्पर्शिकाओं के मुकुट के बीच हाइड्रा का मुंह दिखाई देगा।
मुंह जठर संवहनीय गुहा में खुलता है जहां निगली हुई डैफनियां पहुंच जाती हैं। हाइड्रा इन्हें अपना मुंह पूरी तरह खोलकर पूरी की पूरी निगल जाता है। यह परले सिरे का पेटू होता है और एकसाथ पांच पांच , छरू छः डैफनियों को चट कर जाता है। उसका शरीर फैल सकता है और इसलिए वह अपनी जठर संवहनीय गुहा में अपने शरीर से काफी बड़े आकारवाली छोटी-सी मछली, छोटी-सी बेंगची या छोटे-से कृमि को खींच सकता है।
इस प्रकार जल-पात्र में किये गये हाइड्रा के निरीक्षण से स्पष्ट होता है कि वह एक प्राणी है और है शिकारभक्षी।
कलिकाना और पुनर्जनन ग्रीष्म ऋतु में, जब भोजन समृद्ध मात्रा में उपलब्ध है, हाइड्रा कालकाना और के शरीर पर नन्हे नन्हे उभाड़ पैदा होते हैं जो कलिकाएं (आकृति ६) कहलाते हैं। धीरे धीरे ये बड़े हो जाते हैं और फिर डंठलों का आकार धारण करते हैं जिनके ऊपरवाले सिरे पर स्पर्शिकाओं से घिरा हुआ मुख-द्वार निकल आता है। इस प्रकार नया हाइड्रा परिवर्दि्धत होता है।
शुरू शुरू में मां और बच्चे की जठर संवहनीय गुहाएं सम्बद्ध रहती हैं। फिर नवजात हाइड्रा का आधार-मण्डल तैयार हो जाता है और वह मातृ-शरीर से अलग हो जाता है। इस प्रकार कलिकाने के द्वारा अलिंगी जनन होता है।
यदि हाइड्रा के दो टुकड़े किये जायें तो हर आधा टुकड़ा शरीर का बाकी हिस्सा फिर से प्राप्त कर लेता है। इस प्राणी के कई टुकड़े भी किये जा सकते हैं। अनुकूल परिस्थितियों में ये सब के सब टुकड़े हाइड्रा में परिवर्दि्धत हो जायेंगे। ऐसी घटना को पुनर्जनन कहते हैं।
प्रश्न- १. हाइड्रा कैसे दिखाई देते हैं ? २. हाइड्रा कैसे और क्या खाते हैं ? ३. हम यह कैसे सिद्ध कर सकते हैं कि हाइड्रा प्राणी हैं ? ४. हाइड्रा का अलिंगी जनन कैसे होता है ? ५. पुनर्जनन क्या होता है ?
व्यावहारिक अभ्यास – १. ग्रीष्म ऋतु में तालाब के विभिन्न हिस्सों से कई पौधे लाकर एक जल-पात्र में डालो। कुछ देर बाद खुर्दबीन लेकर पौधों या जल-पात्र के अंदर के हिस्से पर हाइड्रा को खोजने की कोशिश करो। २. हाइड्रावाले जल-पात्र में कुछ डैफनियां डालो। देखो हाइड्रा किस प्रकार खाते हैं। ३. सूई से स्पर्श करने पर हाइड्रा क्या करता है , देखो। ४. हाइड्रा के कलिकाने की क्रिया देखो। ५. हाइड्रावाला जल-पात्र शरद तक अपने पास रखो और फिर उसे स्कूल ले आओ।
७. हाइड्रा – बहुकोशिकीय प्राणी
पेशीय प्रावरण कोशिकाएं हाइड्रा के शरीर की तुलना एक ऐसी थैली के साथ की जा सकती है जिसके अंग कोशिकाओं की दो परतों से बने हुए हों- एक वाह्य आवरण अथवा एक्टोडर्म और दूसरी अंदरूनी या पाचक परत – एण्टोडर्म (आकृति ११)। इन दो परतों के बीच एक आधारपट्टिका – मेसोग्ली होती है। इस पट्टिका की संरचना अकोशिकीय होती है।
बाह्य आवरण-कोशिकाओं के जरिये हाइड्रा ऑक्सीजन का अवशोषण करता है. और कारबन डाइ-आक्साइड को बाहर छोड़ता है। हाइड्रा के विशेष श्वसन-अंग नहीं होते।
बाह्य आवरण की कुछ कोशिकाओं में आधार-पट्टिका के सामने की ओर संलग्न अंग होते हैं। ये संलग्न अंग उद्दीपन पाकर संकुचित होते हैं। यानी उनका आकार घट जाता है। जब ये सब के सब एकसाथ संकुचित हो जाते हैं तो प्राणी का शरीर छोटा हो जाता है। इस प्रकार के संलग्न अंगों वाली कोशिकाएं पेशीय आवरण-कोशिकाएं कहलाती हैं। ये वही काम करती हैं जो मानव शरीर में पेशियां।
दंशक कोशिकाएं बाह्य आवरण में दंशक कोशिकाएं भी होती हैं। ये सबसे बड़ी संख्या में स्पर्शिकाओं पर समूहों में अवस्थित होती हैं।
हर दंशक कोशिका में एक कोष होता है जिसमें कुंडल में लिपटा हुआ एक लचीला तन्तु होता है। कोशिका की सतह पर एक अत्यन्त संवेदनशील प्रवर्द्ध होता है (आकृति १२)।
कोशिकाओं को जन्म देती हैं। विभाजक अण्डा एक संरक्षक आवरण परिवर्दि्धत कर लेता है और तालाब के तल में जा गिरता है । यहां वसन्त के आगमन तक उसका परिवर्द्धन रुका रहता है। बसन्त में यह अण्डा तब तक विभक्त होता रहता है जब तक नये हाइड्रा के बहुकोटिकीय शरीर तैयार न हो जायें।
ऊतक बहुकोशिकीय जीव में कोशिकाओं के भिन्न भिन्न समूह भिन्न भिन्न कार्य करते हैं। एक जैसी संरचनावाले और एक ही निश्चित कार्य करनेवाले कोशिका समूह ऊतक कहलाते हैं। हाइड्रा में हमें इन ऊतकों के पृथक्करण का प्रारम्भ दिखाई देता है जैसे – तन्त्रिकीय , आवरणीय और पेशीय।
प्रश्न- १. हाइड्रा में कौन कौनसी विशेष कोशिकाएं होती हैं और वे क्या क्या कार्य करती हैं ? २. ऊतक क्या होता है ? ३. हाइड्रा के तन्त्रिका-तन्त्र की संरचना कैसी होती है और वह क्या कार्य करता है ? ४ प्रतिवर्ती क्रिया किसे कहते हैं ? ५. हाइड्रा का लैंगिक जनन कैसे होता है ?

८. छत्रक-मछली
सागरों और महासागरों में अक्सर छत्रक-मछली रहती है। यह एक बहुत ही विशिष्ट सीलेण्ट्रेटा प्राणी है जो प्राकृति १५ में दिखाया गया है। उसका अर्द्धपारदर्शी शीशानुमा शरीर एक छाते जैसा लगता है जिसका नीचे की ओर निकला हुआ प्रवर्द्ध मुख-दण्ड कहलाता है। मुख-दण्ड के सिरे में एक छेद होता है जो जठर की गुहा में खुलता है।
आम तौर पर छत्रक-मछली का शरीर पानी में लटका-सा रहता है , लहरों के कारण हिलता-डुलता है और धारा के साथ बहता जाता है। जब कोई शिकारभक्षी प्राणी उसपर धावा बोल देता है तो वह अपने छाते के नीचे से बड़े जोर से पानी छोड़ देता है। परिणामतः वह झटके के साथ उल्टी दिशा में चलता है । जब ये झटके एक के बाद एक बराबर जारी रहते हैं तो छत्रक-मछली तैरती है और काफी तेज तैरती है। इस समय उसकी उन्नत सतह सबसे आगे होती है।
जब छोटी-सी मछली जैसा कोई प्राणी धीरे से और दीखता न दीखता हुआ छत्रक-मछली के पास पहुंचता है और उसके छाते के किनारे की अनगिनत स्पर्शिकाओं का स्पर्श करता है तो दंशक तन्तु फैला दिये जाते हैं। ये तन्तु सम्वन्धित प्राणी को हतबल कर देते हैं। फिर वह जठर की गुहा में खींच लिया जाता है। वड़ी छत्रकमछली कभी कभी एक मीटर से अधिक लम्बी होती है। उसकी दंशक कोशिकाएं, मनुष्य के शरीर में उसी प्रकार की तेज चुभन पैदा करती हैं जिस प्रकार बिच्छू घास को छूने पर पैदा होती है। पहले बड़ी छत्रक-मछलियां समुद्री बिच्छू घास कहलाती थीं। इनका डंक आदमी के लिए खतरनाक होता है।
छत्रक-मछली और हाइड्रा की संरचना की तुलना की जाये तो छत्रक-मछली नीचे को मुंह किये हुए बड़े हाइड्रा जैसी दिखाई देती है। इस ‘हाइड्रा‘ का आधारमण्डल ऊपर की ओर मुंह किये और फैलकर छाते में परिवर्दि्धत हुआ होता है। यह तैराकी अंग का काम देता है।
प्रवाल बहुपाद (प्राकृति १६) समूह-जीवी मुख्यतया समुद्र के कुनकुने पानी में रहते हैं। सागर-तल में अक्सर इनकी बड़ी बड़ी झाड़ियां-सी बनी रहती हैं जो सौन्दर्य एवं रंग के विषय में धरती पर की झाड़ियों से होड़ लगाती हैं। धरती पर के उष्णकटिबन्धीय फूल-पौधे कितने भी सुन्दर क्यों न हों सागर-तलस्थ बहुपाद प्रवालों का संसार उन्हें रंग और रूप की छटा की दृष्टि से मात कर देता है।
सागर-तल में समूह-जीवी प्रवाल बहुपाद एक एक करके नहीं बल्कि समूहों में रहते हैं (आकृति १७)। ये प्रवाल-समूह कैसे बनते हैं यह जानने के लिए हमें कलिकाने की प्रक्रिया में हाइड्रा को स्मरण करना चाहिए जिसमें कई अपृथक् अपत्यवत् हाइड्रा होते हैं। प्रवाल बहुपाद के कलिकानेवाले अपत्य मातृ-शरीर से कभी भी पृथक् नहीं होते बल्कि हमेशा उसके साथ रहते हैं। जीवन-भर उनकी जठर-गुहाएं सम्बद्ध रहती हैं। इस कारण एक बहुपाद द्वारा पकड़े गये भोजन का उपयोग सारा समूह कर लेता है।
सुविख्यात रक्त प्रवाल (लाल मूंगा) समूह के गुलाबी या लाल चूने का शाखायुक्त कंकाल होता है। यह कंकाल प्रवाल-समूह के आधार का काम देता है और शिकारभक्षी प्राणियों से उसकी रक्षा करता है। प्रवाल-समूह की ऊपरी सतह पर हमें अनगिनत सफेद सितारे दिखाई देते हैं-ये हैं पृथक् बहुपादों के स्पर्शिका-मुकुट। अपने सम्पूर्ण रूप में हर प्रवाल-समूह लाल तने और सफेद .फूलों वाले पेड़ जैसा लगता है। फिर भी ये ‘फूल‘ कभी कभी अपनी ‘पंखुड़ियां‘ अर्थात् स्पर्शिकाएं झुका लेते हैं और पास से गुजरनेवाले किसी प्राणी को पकड़ लेते हैं।
रक्त प्रवाल के कंकालों से सुन्दर गलहार बनाये जाते हैं। प्रवालों का शिकार गरम सागरों की ६० से २०० मीटर तक की गहराइयों में किया जाता है। मूंगे के शिकारी समुद्र पर कुछ देर अपनी नावों के पीछे वजनदार जालों को घसीटते जाते हैं। मूंगों के पेड़नुमा समूहों के टुकड़े कटकर जाल में फंस जाते हैं। मूंगे के कंकाल का बहुपादवाला मुलायम बाहरी आवरण उतार दिया जाता है और फिर उसे तोड़कर पालिश की जाती है। तथाकथित चट्टानी प्रवाल बहुपादों के ऐसे कंकाल होते हैं जो जहाजरानी में बाधा डालते हैं। रक्त प्रवाल के उल्टे , ये केवल वहीं रह सकते हैं जहां भारी मात्रा में रोशनी और ऑक्सीजन हो। ऐसी हालतें किनारे के पास उन कम गहरे क्षेत्रों में पायी जाती हैं जहां ज्वार का पानी धुन धुनकर महीन फव्वारों में परिवर्तित हो जाता है और इसी कारण वह वायुमण्डलीय ऑक्सीजन से परिपूर्ण होता है। पतली सुकुमार शाखाओं वाले पेड़नुमा कंकालों का ऐसे स्थानों में लहरों के जोरदार चपेटों के आगे बच पाना असम्भव ही है। इसी लिए आम तौर पर चट्टानी मूंगों के मजबूत , भारी-भरकम चूने के कंकाल होते हैं जिनकी सतह पर नन्हे नन्हे जीवित बहुपाद छोटी छोटी प्यालियों में जड़े हुए से होते हैं। मर जाने के बाद चट्टानी मूंगों के समूह दो मीटर तक व्यासवाले चूने के कंकाल छोड़ देते हैं। उष्णकटिबन्धीय समुद्र के तटवर्ती पानी में डेरा डाले हुए ये बहुपाद क्रमशः अनगिनत जलमग्न चट्टानों की सृष्टि करते हैं जो जहाजरानी में रुकावट डालती हैं। महासागरों के कुछ टापू तो केवल मृत मूंगों के समूहों के खनिज कंकालों के बने हुए हैं।
सामान्य विशेषताएं हाइड्रा, छत्रक-मछली और प्रवाल बहुपाद उस समूह के प्राणी हैं जो सीलेण्ट्रेटा समूह कहलाता है। सभी सीलेण्ट्रेटा बहुकोशिकीय प्राणी हैं। उनका शरीर कोशिकाओं की दो परतों से बनी हुई थैली-सा होता है। शरीर के अंदर एक जठर संवहनीय गुहा होती है जिसके एक ही बाहरी द्वार होता है। अधिकांश सीलेण्ट्रेटा सुस्ती में जीवन बिताते हैं।
मूल पहले सीलेण्ट्रेटा प्राचीन प्रोटोजोआ के वंशज के रूप में उत्पन्न हुए। अण्डे से हाइड्रा के परिवर्द्धन का अध्ययन करते समय हम उस प्रक्रिया का चित्र अंकित कर सकेंगे जिसके कारण एककोशिकीय प्राणी बहुकोशिकीय प्राणियों में रूपान्तरित हुए।
यह स्पष्ट है कि प्रोटोजोमा समूह में प्रथमतः ऐसे प्राणियों का उदय हुआ जिनके जनन में नवरचित कोशिकाएं पृथक् नहीं होती थीं। इस प्रकार धरती पर दो, चार और आठ कोशिकाओं वाले प्राणी पैदा हुए।
क्रमशः ऐसे प्राणियों में कोशिकाओं की संख्या बढ़ती गयी। इसी के फलस्वरूप कोटिकायों के बीच विभिन्न कार्य बंट गये , ऊतकों की रचना हुई और बहुकोशिकीय प्राणियों का अवतार हुआ।
प्रश्न – १. छत्रक-मछली और हाइड्रा के बीच क्या समानता है ? २. स्वरूप की दृष्टि से हाइड्रा और छत्रक-मछली से प्रवाल किस प्रकार भिन्न है ? ३. मनुष्य द्वारा कौनसे प्रवाल वहुपादों का उपयोग किया जाता है और किस लिए? ४. जहाजरानी के लिए कौनसे प्रवाल बहुपाद खतरनाक होते हैं ? ५. सीलेण्ट्रेटा की संरचना के विशेष लक्षण क्या हैं ? ६. प्रोटोजोना से बहुकोशिकीय प्राणियों के परिवर्द्धन का चित्र हम कैसे बना सकते हैं ?