संसद के कार्य क्या है , चार कार्यों का वर्णन कीजिए की व्याख्या करो work of parliament in hindi

what are the work of parliament in hindi संसद के कार्य क्या है , चार कार्यों का वर्णन कीजिए की व्याख्या करो ?

संसद के काम (works of parliament)
आजकल की संसद का काम केवल कानून अथवा विधान बनाना नहीं है। वर्तमान युग में इस संस्था के अब अनेक कृत्य हो गए हैं । यह विभिन्न भूमिकाएं निभाती है जिनमें से अनेक परस्पर संबद्ध हैं, यहां तक कि उनमें भेद करना कठिन हो जाता है। परंतु यह तथ्य प्रायः लोग समझते नहीं हैं और संसद के कार्यकरण के किसी एक या दो पहलुओं पर ही बल दिया जाता है । आधुनिक संसदीय राजनाति विज्ञान की भाषा में वर्तमान संसद की भूमिकाओं को पूरी तरह निश्चित करने और इसके कृत्यों का विश्लेषण करने का प्रयास बहुत भ्रामक सिद्ध हो सकता है। फिर भी, विचारों को स्पष्ट करने की दृष्टि से, संसद की कुछ मौलिक भूमिकाएं एवं कृत्य इस प्रकार कहे जा सकते हैं:
ऽ राजनीतिक और वित्तीय नियंत्रण
(या कार्यपालिका की जिम्मेदारी अथवा दायित्व)
ऽ प्रशासन की निगरानी
(या प्रशासनिक हिसाबदेही)
ऽ जानकारी प्राप्त करने का अधिकार
ऽ प्रतिनिधित्व करना, शिकायतें व्यक्त करना, शिक्षित करना और मंत्रणा देना
ऽ संघर्षों का समाधान करना और राष्ट्रीय एकता सुनिश्चित करना
ऽ विधि-निर्माण, विकास, सामाजिक परियोजना और वैधीकरण
ऽ संविधायी भूमिका (संविधान में संशोधन करना) ।
ऽ नेतृत्व (भर्ती एवं प्रशिक्षण)

राजनीतिक और वित्तीय नियंत्रण (या कार्यपालिका की जिम्मेदारी अथवा दायित्व)
संसद के प्रति कार्यपालिका का या सरकार का दायित्व या जिसे प्रायः कार्यपालिका पर या सरकार पर संसदीय नियंत्रण कहा जाता है, वह निम्न बातों पर आधारित है:
(1) मंत्रिपरिषद का संसद के निर्वाचित सदन के प्रति सामूहिक दायित्व संबंधी संवैधानिक उपबंध; और
(2) बजट पर संसद का नियंत्रण।
इन दोनों मामलों में, कार्यपालिका पर संसद का नियंत्रण राजनीतिक स्वरूप का है। कार्यपालिका का दायित्व प्रत्यक्ष, निरंतर, समवर्ती एवं दिन प्रतिदिन का है। जब संसद की बैठक चल रही हो तो सरकार का सत्ता में बने रहना हर समय लोक सभा के विश्वास को बनाए रखने पर निर्भर करता है । सदन किसी भी समय बहुमत द्वारा सरकार को अपदस्थ करने का फैसला कर सकता है, अर्थात यदि सत्ताधारी दल सदन के बहुमत का समर्थन खो देता है तो सरकार अपदस्थ हो जाती है। तब कोई आधार बताना, प्रमाण देना या औचित्य बताना आवश्यक नहीं होता। जब सदन स्पष्ट रूप से और अंतिम रूप से कह देता है कि सरकार को बहुमत का समर्थन प्राप्त नहीं है तो सरकार को सत्ता छोड़नी ही पड़ती है। सरकार में संसद के विश्वास के अभाव को लोक सभा द्वारा इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है:
(क) मंत्रिपरिषद में अविश्वास का मूल (सबस्टेंटिव) प्रस्ताव पास करके,
(ख) नीति संबंधी किसी बड़े मामले पर सरकार को पराजित करके;
(ग) कोई स्थगन प्रस्ताव पास करके; और
(घ) आपूर्ति (सप्लाईज) की स्वीकृति देने से इंकार करके या किसी वित्तीय उपाय पर सरकार को पराजित करके।
कार्यपालिका को बजट तैयार करने का अधिकार प्राप्त है । संविधान में उपबंध है कि अनुमानित प्राप्तियों तथा व्यय का एक वार्षिक विवरण संसद के समक्ष रखा जाएगा। कार्यपालिका को यह सझाव देने की पूरी स्वतंत्रता है कि उसके व्यय का स्तर क्या हो और विभिन्न राशियां किस किस प्रयोजनार्थ अपेक्षित हैं । उसे यह सुझाव देने की पूरी स्वतंत्रता है कि उसके व्यय को पूरा करने के लिए राजस्व किस प्रकार जुटाया जाए । इस प्रकार, वित्तीय मामलों में हर प्रकार से पहल सरकार ही कर सकती है। परंतु कार्यपालिका मनमाने ढंग से शक्ति धारण न कर ले इसके लिए सबसे बड़ी रोक सार्वजनिक वित्त पर संसद का नियंत्रण है, अर्थात कर लगाने या उनमें परिवर्तन करने और आपूर्ति तथा अनुदानों को स्वीकृति देने की संसद की शक्ति । विधि द्वारा विशिष्ट संसदीय अधिकार के बिना कानूनी तौर पर कोई कर नहीं लगाया जा सकता और न ही राजकोष से कोई खर्च किया जा सकता है।
वास्तव में, बजट पर नियंत्रण या अविश्वास के प्रस्ताव की अंतिम स्वीकृति के सैद्धांतिक अर्थों के सिवाय, सरकार पर संसदीय नियंत्रण एक भ्रम है। कार्यपालिका पर संसदीय नियंत्रण का 19वीं शताब्दी का ब्रिटिश विचार, “मदर आफ पार्लियामेंट्स‘‘ (ब्रिटिश संसद) में भी अब मान्य नहीं है। संसद का सरकार पर नियंत्रण नहीं रहता । व्यावहारिक तथ्य है कि लोक सभा अपने बहुमत के द्वारा और सदन को भंग कर देने और नये चुनाव कराने की अपनी शक्ति के द्वारा सरकार संसद पर नियंत्रण रखती है। जैसाकि एक अन्य स्थान पर कहा गया है:
‘‘आज राजनीति का व्यावहारिक तथ्य यह है कि वास्तविक शक्ति प्रधानमंत्री और उसके मंत्रिमंडल को प्राप्त है न कि संसद को । प्रधानमंत्री लोक सभा में बहुमत का नेता होता है और सरकार का प्रमुख भी होता है। प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद, सरकार और विधानमंडल, दोनों पर नियंत्रण रखती है क्योंकि इसे व्यापक मान्यता प्राप्त है और फैसले करने और उन्हें कार्यान्वित करने की शक्ति भी प्राप्त है।‘‘
और ऐसा होना भी चाहिए।
‘‘प्रधानमंत्री के प्राधिकार का खंडन नहीं होना चाहिए क्योंकि उस स्थिति में मंत्रिमंडलीय सरकार कार्य नहीं कर सकती। आखिर प्रधानमंत्री उसकी धुरि है। वह दो या तीन सहयोगियों से मंत्रणा करके कार्यवाही कर सकता है। यही कारण है कि मंत्रिमंडल समितियों की व्यवस्था है। अंततोगत्वा प्रधानमंत्री ही सरकार की नीतियों के लिए संसद और राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार है।‘‘

प्रशासन की निगरानी (या प्रशासनिक हिसाबदेही): प्रशासनिक हिसाबदेही का अर्थ है संसद के प्रति प्रशासन का दायित्व । प्रशासन का कार्य स्थायी सिविल सेवाओं द्वारा चलाया जाता है। संसद प्रशासन के दिन प्रतिदिन के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करती, न ही वह प्रशासन पर नियंत्रण रखती है । दायित्व तकनीकी और अप्रत्यक्ष रूप से, अर्थात मंत्रियों के द्वारा होता है और वह तब होता है जब कार्य किया जा चुका हो । इसके अतिरिक्त, दायित्व के विशिष्ट आधार होते हैं। हमारी व्यवस्था में, नीति निर्धारित किए जाने के पश्चात विधेयक पास किया जाता है या धन मंजूर किया जाता है और फिर उसे कार्यरूप देना प्रशासन का काम है । संसद स्वयं तो प्रशासन का काम नहीं कर सकती और न ही मंत्रिगण ऐसा कर सकते हैं । अतः यदि कार्यान्वयन में गलतियां हो जाएं तो मंत्रियों को नहीं बल्कि अधिकारियों को उसका स्पष्टीकरण करना होता है।
संसदीय राजनीतिक व्यवस्था में चूंकि संसद में लोगों की इच्छा निहित होती है अतः यह देखना उसी का काम होता है कि सार्वजनिक नीति को किस प्रकार कार्यरूप दिया जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वह सामाजिक-आर्थिक प्रगति के उद्देश्यों, कुशन प्रशासन और समूचे तौर पर लोगों की आकांक्षाओं के अनुकूल हो । संक्षेप में, संसद द्वारा प्रशासन की निगरानी का यही उद्देश्य है । संसद को प्रशासन के कार्य-व्यवहार पर निगरानी रखनी ही होती है। वह विगत मामलों के बारे में पूछ सकती है और जांच कर सकती है कि प्रशासन ने स्वीकृत नीतियों के अधीन अपने दायित्वों के अनुकूल कार्य किया है और जिस प्रयोजन से उसे शक्तियां प्रदान की गई थीं उसी प्रयोजनार्थ उनका प्रयोग किया गया है और क्या धन संसदीय मंजरी के अनुसार खर्च किया गया है। इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि अधिकारी इस बात का ध्यान रखकर ही काम करेंगे कि बाद में उनके काम की संसद द्वारा छानबीन होगी और जो कुछ वह करते हैं या नहीं करते हैं उसके लिए वे उत्तरदायी होंगे। परंतु सार्थक छानबीन करने और प्रशासनिक कृत्यों की निगरानी के लिए संसद के पास तकनीकी संसाधन एवं जानकारी अवश्य होनी चाहिए। संसदीय समिति प्रणाली, प्रश्नों, ध्यानकर्षण सूचनाओं, आधे घंटे की चर्चाओं आदि जैसे विभिन्न प्रक्रियागत साधन भी प्रशासनिक कार्यों पर संसदीय निगरानी रखने के लिए बहुत सशक्त माध्यम हैं जिनके द्वारा संसद को तरह तरह की जानकारी प्राप्त होती है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव, बजट की मांगों और सरकारी नीति और स्थितियों के विशिष्ट पहलुओं पर चर्चाओं के दौरान प्रशासनिक पुनर्विलोकन के महत्वपूर्ण अवसर मिले हैं। इसके अतिरिक्त अविलंबनीय लोक महत्व के विषयों संबंधी प्रस्तावों, गैर-सरकारी सदस्यों के संकल्पों और अन्य मूल प्रस्तावों, के द्वारा भी विशिष्ट मामलों पर चर्चा हो सकती है।

जानकारी प्राप्त करने का अधिकार: जानकारी संसद के लिए बहुत महत्व रखती है। इसके किसी भी कृत्य के प्रभावी निर्वहन के लिए यह सबसे पहली आवश्यकता है । संसद को अनेक प्रकार से, विभिन्न स्रोतों से जानकारी प्राप्त होती है, परंतु सरकार क्योंकि जानकारी का सबसे बड़ा स्रोत है अतः संसद एवं इसके सदस्यों की जानकारी की अपनी आवश्यकताओं के लिए सरकारी विभागों पर काफी निर्भर रहना पड़ता है। जानकारी प्राप्त करना संसद की शायद सबसे बड़ी शक्ति है । संसद का जानकारी प्राप्त करने का अधिकार असीम है, सिवाय इसके कि यदि किसी जानकारी को जाहिर करने से महत्वपूर्ण राष्ट्रीय हित पर या राज्य की सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो तो उस पर जोर नहीं दिया जा सकता । जहां तक सरकार के क्रियाकलापों का संबंध है, वह स्वयं सरकार का ही कर्तव्य है कि वह समय पर पूरी, सही सही और स्पष्ट जानकारी संसद को उपलब्ध कराए । यह जानकारी मंत्रियों द्वारा सदन में वक्तव्य देकर, प्रतिवेदन और पत्र सभा पटल पर रखकर या दस्तावेज संसद ग्रंथालय में रखकर उपलब्ध कराई जाती है। उपर्युक्त सारी जानकारी महत्वपूर्ण होती है तो तुरंत ही प्रकाशित कर दी जाती है और उसका प्रयोग सदन में चर्चाएं उठाने के लिए किया जा सकता है।
सबसे अधिक प्रसिद्ध एवं प्रभावी माध्यम जिसके द्वारा सदस्य स्वयं जानकारी प्राप्त करते हैं वह है संसद के सदनों में प्रश्न पूछा जाना। यह ठीक ही कहा गया है कि संसद में प्रश्नकाल के दौरान “विशाल प्रशासनिक व्यवस्था के प्रत्येक विभाग के प्रत्येक क्रियाकलाप की बारीकी से जांच होती है और कोई भी क्षेत्र संसद की छानबीन से अछूता नहीं रहता‘‘। जानकारी मांगने वाले अनुपूरक प्रश्नों के माध्यम से, जो इस तरह पूछे जाते हैं कि प्रशासन की कमियां प्रकाश में आ जाएं, मंत्रियों का कडा परीक्षण होता है। कभी कभी तो मंत्री सदस्यों के प्रश्नों द्वारा जान पाते हैं कि उनके अधीन विभागों की स्थिति क्या है और उनमें कौन सी त्रुटियां हैं जिनकी ओर ध्यान देना आवश्यक है। किसी प्रश्न के अधूरे उत्तर की अनुवर्ती कार्यवाही के तौर पर कोई भी सदस्य आधे घंटे की चर्चा की मांग कर सकता है। सदस्य अविलंबनीय लोक महत्व के विषयों पर मौखिक उत्तर के लिए अल्प सूचना प्रश्न पूछ सकते हैं। इनके अलावा, एक अन्य प्रक्रियागत उपाय ध्यानाकर्षण सूचनाओं का है। कोई सदस्य, अध्यक्ष की पूर्व अनुमति से, अविलंबनीय लोक महत्व के किसी मामले की ओर मंत्री का ध्यान दिला सकता है और उससे अनुरोध कर सकता है कि वह उस मामले पर वक्तव्य दे। सदस्य संबंधित मंत्री को लिखकर भी ऐसी जानकारी मांग सकते हैं जिसकी कि उन्हें आवश्यकता हो और ऐसी जानकारी आमतौर पर दे दी जाती है।
संस्थागत स्तर पर, जानकारी प्राप्त करने का एक अन्य माध्यम विभिन्न संसदीय समितियों के प्रतिवेदन हैं। अपनी छानबीन की प्रक्रिया में समितियां खोजी प्रश्न करके सरकार के परीक्षणाधीन मंत्रालयों एवं विभागों, सरकारी उपक्रमों इत्यादि से विस्तृत एवं बहुमूल्य जानकारी एकत्र करती हैं यह प्रक्रियागत उपाय अविलंबनीय लोक महत्व के मामलों पर जानकारी प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण साधन बन गया है और इसका सदन के दोनों पक्षों के सदस्य बहुत प्रयोग करते हैं।
कुछ राजनीतिक दलों के शोध एवं संदर्भ के लिए अपने कर्मचारी हैं जो विशेषकर दल की स्थिति की दृष्टि से आवश्यक जानकारी अपने सदस्यों को देते रहते हैं। निर्वाचन क्षेत्रों में तथा अन्य स्थानों पर जाने, निर्वाचकों और अन्य लोगों से पत्र व्यवहार करने, सरकारी मंत्रणा या अन्य समितियों, बोर्डों आदि का सदस्य बनने, सरकारी एवं गैर-सरकारी प्रकाशनों, सामयिक साहित्य तथा रेडियो, टेलीविजन, समाचारपत्रों जैसे जन-संचार माध्यमों से भी सदस्यों को नवीनतम घटनाओं की जानकारी रहती है और वे प्रशासन तथा सार्वजनिक नीतियों संबंधी मामलों से सुपरिचित रहते हैं।
प्रेस संसदीय जीवन में विशेष रूप से महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराने की भूमिका निभाता है। परंतु इससे प्रेस पर भारी दायित्व भी आ जाता है कि वह स्वयं अपनी आचरण संहिता का पालन करे सनसनीखेज बातें लिखने के प्रलोभन में नहीं आए पत्रकारिता से तच्छ लाभों के लिए राष्ट्रीय हित का बलिदान न करने के अपने सर्वाेच्च कर्तव्य को याद रखे, समाचारों का तथ्यात्मक आधार पर सही होना और विश्वसनीय होना सुनिश्चित करे और सर्वाेपरि, ईमानदार और निष्पक्ष रहे तथा जनता की सेवा के लिए समर्पित रहे । प्रायः प्रेस प्रशासनिक त्रुटियों, घोटालों और कमियों का पता लगाने के लिए कठिन परिश्रम करता है, लोगों की शिकायतें और कठिनाइयां व्यक्त करता है और यह बताता है कि नीतियों को किस तरह कार्यरूप दिया जा रहा है। संसदीय प्रश्नों प्रस्तावों और वाद विवाद के लिए अधिकांश जानकारी दैनिक समाचारपत्रों से प्राप्त होती है और यह एक महत्वपूर्ण माध्यम है जिस पर सदस्य निर्भर करते हैं। इसके साथ साथ, प्रेस लोगों को जानकारी देता रहता है कि संसद में क्या हो रहा है। इस आदान प्रदान से प्रेस लोगों और संसद के बीच महत्वपूर्ण तथा मजबूत संपर्क बनाए रखने में समर्थ होता है । इन मामलों को जितना स्थान दिया जाता है और जितनी जानकारी दी जाती है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि हमारे देश में प्रेस उस आवश्यकता की पूर्ति करता है जो संसद सदस्यों तथा लोगों द्वारा समान रूप से महसूस की जाती है।
विभिन्न स्रोतों से संसद के लिए इतनी अधिक जानकारी उपलब्ध होने पर भी यह पर्याप्त नहीं है । सरकारी स्रोतों द्वारा उपलब्ध की जाने वाली जानकारी कुशल ढंग से एकत्रित की जाती है और तैयार की जाती है परंतु यह जानबूझकर या अनजाने में कभी कभी एकतरफा या पक्षपातपूर्ण हो सकती है और हो सकता है कि वह सदा पूर्ण, तथ्यात्मक और निष्पक्ष हो। जन संचार माध्यम, राजनीतिक दलों, निहित स्वार्थ वाले ग्रुपों या लॉबी खड़ी करने वालों जैसे अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी तो उससे भी कम तथ्यात्मक या निष्पक्ष होगी । अतः आवश्यकता इस बात की है कि संसद जानकारी के लिए स्वयं अपना संस्थागत स्रोत विकसित करे । जो स्वतंत्र जानकारी का रक्षित भंडार हो, और विशिष्ट प्रसार प्रक्रियाओं का भी विकास करे। संसद ग्रंथालय और इसकी शोध, संदर्भ, प्रलेखन तथा सूचना सेवाओं का यही उद्देश्य होता है। ये सेवाएं सदस्यों के लिए उपलब्ध रहती हैं और जब भी वे चाहें, निष्पक्ष एवं बिल्कुल संगत जानकारी अल्प सूचना पर प्राप्त कर सकते हैं। उनकी भावी आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा जाता है। विधायकगण चूंकि बहुत व्यस्त रहते हैं और उनके पास समय बहुत कम होता है अतः जानकारी ठीक ठीक होनी चाहिए, संक्षिप्त, आसानी से समझी जा सकने वाली
और तुरंत प्रयोग में लाए जा सकने योग्य होनी चाहिए।

प्रतिनिधित्व करना, शिकायतेंयक्त करना, शिक्षित करना तथा मंत्रणा देना: आधुनिक लोकतंत्र में संसद का मुख्य कृत्य लोगों का प्रतिनिधित्व करना है। पिछली कुछ दशाब्दियों में, संसद की प्रतिनिधित्व करने और शिकायतें व्यक्त करने की भूमिका पर अधिकाधिक बल दिया गया है। संसद लोगों की सर्वाेत्कृष्ट संस्था है । यह सर्वाेच्च मंच है जिसके द्वारा वे अपनी आशाओं, इच्छाओं एवं आकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहते हैं, अपनी शिकायतों, कठिनाइयों और यहां तक कि अपनी भावनाओं, चिंताओं और निराशाओं को भी व्यक्त करना चाहते हैं । संसद लोगों की परिवर्तनशील भावनाओं एवं आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व करती है। यह लोगों का दर्पण ही नहीं बल्कि उनकी दिलों की धड़कन का मापदंड भी है।
संसद सदस्यों की भूमिका के बारे में उनके अपने विचारों का अध्ययन करना, अथवा इस बात की जांच करना दिलचस्प बात होगी कि संसद सदस्य स्वयं क्या सोचते हैं कि उनकी उचित भूमिका क्या होनी चाहिए और यह भी कि क्या संसद के सदनों के बदलते हुए स्वरूप का कोई प्रतिबिंब संसद सदस्यों की अपनी भूमिका संबंधी विचारों में और सदनों के वास्तविक कार्यकरण में दिखाई देता है या नहीं । अनुभव पर आधारित सामग्री के विश्लेषण के अनुसार, स्वतंत्रता पूर्व का केंद्रीय विधानमंडल विशिष्ट वर्ग के लोगों का निकाय था। किंतु,प्रत्येक निर्वाचन के बाद लोक सभा अधिकाधिक प्रतिनिधि निकाय का रूप लेती रही। पहले एक अध्ययन में किए गए विश्लेषण के अनुसार:
‘‘… भारतीय संसद बहुमुखी भारतीय समाज का सच्चा दर्पण है। संसद में भारत के लोगों का, उनकी राजनीतिक जागृति के स्तर का, उनके सीधे सादे जीवन का और उनकी समस्याओं, आशाओं एवं आकांक्षाओं का अधिक प्रतिनिधि स्वरूप दिखाई देने लगा है। विशिष्ट वर्ग की राजनीति का स्थान धीरे धीरे ग्रामोन्मुख राजनीति ले रही है। नगरीय वकील जो कानून और संसदीय प्रक्रिया की बारीकियों को समझता था, उसका स्थान ग्रामीण किसान या राजनीतिक/सामाजिक कार्यकर्ता ले रहा है जिसकी अंतर्जात सहज बुद्धि है और जो यह पूरी तरह समझता है कि लोगों की आवश्यकता क्या है। अब विदेशी शिक्षा प्राप्त, पब्लिक या कान्वेंट स्कूलों में पढ़े उच्च-मध्यम श्रेणी के नगरीय विशिष्ट लोगों का स्थान गांवों के शिक्षित साधारण लोग ले रहे हैं‘‘।

इसके अतिरिक्त, एक औसत संसद सदस्य समझता है कि उसका प्रमुख कर्तव्य अपने लोगों का प्रतिनिधित्व करना और उनकी समस्याओं, कठिनाइयों तथा शिकायतों को व्यक्त करना और उन्हें दूर करने का प्रयास करना है। क्योंकि, यदि कार्यपालिका संसद के प्रति उन्हें उत्तरदायी है तो संसद और इसके सदस्य भी लोगों के प्रति उत्तरदायी हैं । सदस्य जिन लोगों का प्रतिनिधित्व करता है उनके और संसद एवं सरकार के बीच वह संचार की मुख्य कड़ी है। इसके अतिरिक्त, सदस्य की शैक्षिक भूमिका भी है। जो कुछ संसद में हो रहा हो सदस्य को उसे समझना और उसमें अंतग्र्रस्त होना होता है ताकि वह संसद के बारे में लोगों को शिक्षित कर सके और उन्हें जानकारी दे सके । इसका कारण यह है कि यदि उसे संसद में लोगों का प्रतिनिधित्व करना है तो उसके लिए यह भी आवश्यक है कि वह संसद की, इसके कार्यकरण की और इसकी समस्याओं की सही तस्वीर लोगों के सामने पेश करे। उसे अपने निर्वाचकों, उनकी समस्याओं और आवश्यकताओं का ज्ञान अवश्य होना चाहिए और उनके कल्याण के लिए सदस्य को अधिक से अधिक योगदान करना चाहिए । सदस्य उपलब्ध विभिन्न प्रक्रियागत उपायों का पूर्ण उपयोग करके और सदन में इस हेतु हर संभव अवसर का लाभ उठाकर और याचिका समिति तथा अन्य संसदीय समितियों के द्वारा ऐसा कर सकता है।
विधायी प्रस्तावों या वित्तीय विधेयकों पर, सरकार की नीतियों पर विचार करने और उन्हें स्वीकृति प्रदान करने के प्रस्ताव पर, राष्ट्रपति के अभिभाषण पर, धन्यवाद प्रस्ताव पर, बजट इत्यादि पर वाद विवाद एवं चर्चा के दौरान सदस्य अपने विचार व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हैं और वे कह सकते हैं कि देश की बेहतरी किस में है और वर्तमान नीति में क्या रूपभेद करना अपेक्षित है। सरकार संसद की राय के प्रति संवेदनशील रहती है; अधिकांश मामलों में वह पहले से सब कुछ जानती है; कुछ मामलों में वह झुक जाती है और कुछ मामलों में वह महसूस करती है कि वह अपने वचनों, दायित्वों और राजनीतिक विचारधारा के अनुसार कोई परिवर्तन नहीं कर सकती । तथापि चर्चाओं के दौरान सदस्यों को प्रशासन के कार्य निष्पादन के लिए उसकी आलोचना करने और इस बारे में सुझाव देने की पूरी स्वतंत्रता है कि भविष्य में वह कैसे कार्य करे या किसी उपाय विशेष को किस प्रकार कार्यरूप दे । चर्चाएं महत्वपूर्ण होती हैं क्योंकि उनसे पता चलता है कि संसद का क्या दृष्टिकोण है। चर्चाओं से प्रशासनिक तंत्र पर लोगों के विचारों का प्रभाव पड़ता है और यदि ऐसा न हो तो प्रशासन लोगों की भावनाओं से अनभिज्ञ रहे । संसदीय वाद-विवाद प्रशासन को उसके कर्तव्यों एवं दायित्वों की याद दिलाते हैं। संसदीय वाद-विवाद विभिन्न प्रकार से प्रशासन की विचारधारा और कार्यों को प्रभावित करता है और ऐसा सूक्ष्म प्रभाव प्रशासन के उच्च एवं निम्न, सभी स्तरों पर रहता है जिसका स्पष्ट रूप से अनुमान नहीं लगाया जा सकता । यद्यपि प्रशासकों के लिए संसद द्वारा स्वीकृत नीतियों को यथासंभव बेहतर से बेहतर तरीके से कार्यान्वित करने की पूर्ण स्वतंत्रता रहती है, तथापि सदन में व्यक्त किए गए विभिन्न विचारों का उन पर गहरा प्रभाव रहता है और उनसे उनका मार्गदर्शन होता है। और इसी को संसद की मंत्रणादाता की भूमिका कहा जा सकता है।

संघर्षों का समाधान करना और राष्ट्रीय एकता सुनिश्चित करनाः व्यक्ति के जीवन में टकराव होना स्वभाविक है, विचारों एवं हितों का टकराव और विभिन्न स्पर्धी शक्तियों द्वारा शक्ति के लिए संघर्ष । राष्ट्रीय राजनीति में टकरावों के समाधान के सशक्त माध्यम और प्रमुख मध्यस्थता शक्ति के रूप में संसद का उद्भव भारतीय राजनीतिक जीवन का अब एक सर्वमान्य तथ्य है । संसदीय लोकतंत्र को बेहतर एवं अधिक सभ्य शासन प्रणाली माना जाता है क्योंकि इसमें गली गली में लड़ाईयां युद्ध क्षेत्रों में लड़ाई का स्थान विधानमंडलों में वाद विवाद तथा चर्चाएं ले लेती हैं। वाद विवाद और चर्चाओं से समाज के भीतर के तनाव और असंतोष प्रकाश में आ जाते हैं । संसद, शक्ति संघर्ष के लिए, राजनीतिक गतिविधि को स्पष्ट करने के लिए या परस्पर विरोधी भूमिकाएं अदा करने के लिए वैध रूप से मैदान बन जाता है और संसदीय नियम तथा प्रक्रियाओं के कारण अंत में समझौता करना संभव हो जाता है। एक-दूसरे को मिटाने हेतु लड़ाई करने के बजाय, दल कम से कम असहमति के लिए और एक-दूसरे को सहन करने के लिए सहमत हो जाते हैं। कुछ सूक्ष्म समस्याओं का समाधान संसद में ही हो जाता है । स्पर्धी शक्तियां अपनी बात मनवाने के लिए प्रयास करती हैं और अंत में मेल मिलाप कर लेती हैं। टकराव के समाधान की यह भूमिका निभाते हुए संसदीय संस्था राष्ट्रीय एकता लाने वाली और मध्यस्थता करने वाली महान संस्था का काम करती है। हमारे अनेक मतमतांतरों वाले समाज के प्रसंग में, टकरावों का समाधान करने और एकता लाने वाली संसद की भूमिका विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
औपचारिक संसदीय मंचों तथा संसदीय प्रक्रियाओं द्वारा अदा की जाने वाली भूमिका के अतिरिक्त, संसद भवन का सेंट्रल हाल अपने आप में एक संस्था है। यह बहुत बड़े क्लब की तरह है और अपने विचारों तथा भावनाओं को व्यक्त करने का महत्वपूर्ण स्थान है। यहां देश के सभी भागों के संसद सदस्य, चाहे उनकी जाति, मत, क्षेत्र या धर्म कोई भी हो, औपचारिक रूप से मिलते हैं और सारे देश को प्रभावित करने वाली समस्याओं पर व्यक्तिगत रूप से या ग्रुपों में विचार करते हैं। इससे राष्ट्रीय एकता की इतनी अधिक भावना पैदा हो जाती है जो अन्यत्र पैदा नहीं हो सकती। जो सदस्य यहां प्रवेश करने से पहले पृथकतावादी या क्षेत्रीय विचार रखते हों वे भी सेंट्रल हाल में आकर अपने को एक ही देश के नागरिक महसूस करने लगते हैं। विखंडनकारी प्रवृत्तियों का तीखापन छूट जाता है। जो बात किन्हीं राज्यों की राजधानियों में बिल्कुल ठीक प्रतीत होती है और बिल्कल स्वीकार्य और यहां तक कि सराहनीय लगती है, वही बात सेंट्रल हाल में हंसी का विषय बन जाती है, वहां वातावरण ही ऐसा होता है जो वृहत राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के पक्ष में सभी को बाध्य कर देता है।