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संविधान और भारतीय समाजवाद के बारे में जानकारी ? संविधान की परिभाषा क्या है संविधान में कब जोड़ा गया
संविधान की परिभाषा क्या है संविधान में कब जोड़ा गया संविधान और भारतीय समाजवाद के बारे में जानकारी ? समाजवाद : संविधान निर्माता नहीं चाहते थे कि संविधान किसी विचारधारा या वाद विशेष से जुड़ा हो या किसी आर्थिक सिद्धांत द्वारा सीमित हो। इसलिए वे उसमे, अन्य बातों के साथ साथ, समाजवाद के किसी उल्लेख को सम्मिलित करने के लिए सहमत नहीं हुए थे। कितु उद्देशिका मे सभी नागरिकों को आर्थिक न्याय और प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता दिलाने के सकल्प का जिक्र अवश्य किया गया था। संविधान (42वा सशोधन) अधिनियम, 1976 के द्वारा हमारे ‘गणराज्य‘ की विशेषता दर्शाने के लिए ‘समाजवादी‘ शब्द का समावेश किया गया। यथासंशोधित उद्देशिका के पाठ मे ‘समाजवाद‘ के उद्देश्य को प्रायः सर्वोच्च सम्मान का स्थान दिया गया है। ‘सपूर्ण प्रभुत्व संपन्न‘ के ठीक बाद इसका उल्लेख किया गया है। किंतु ‘समाजवाद‘ शब्द की परिभाषा संविधान में नहीं की गई।
सविधान (45वा सशोधन) विधेयक मे “समाजवादी‘‘ की परिभाषा करने का प्रयास किया गया था तथा उसके अनुसार इसका अर्थ था “सभी प्रकार के शोषण-सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक-से मुक्त।‘6 इस विधेयक को अततः 44वे सशोधन के रूप मे पास किया गया, कितु इसमे ‘समाजवादी‘ की परिभाषा नहीं थी। ‘समाजवाद‘ की परिभाषा करना कठिन है। विभिन्न लोग इसका भिन्न भिन्न अर्थ लगाते हैं और इसकी कोई निश्चित परिभाषा नही है। शब्दकोश के अनुसार समाजवाद में उत्पादन तथा वितरण के साधन, पूर्णतया या अंशतया, सार्वजनिक हाथों मे अर्थात सार्वजनिक (अर्थात राज्य के) स्वामित्व अथवा नियंत्रण में होने चाहिए।
समाजवाद का आशय यह है कि आय तथा प्रतिष्ठा और जीवन-यापन के स्तर मे विषमता का अत हो जाए। इसके अलावा, उद्देशिका मे ‘समाजवादी‘ शब्द जोड दिए जाने के बाद, संविधान का निर्वचन करते समय न्यायालयों से आशा की जा सकती है कि उनका झुकाव निजी सपत्ति, उद्योग आदि के राष्ट्रीयकरण तथा उस पर राज्य के स्वामित्व के तथा समान कार्य के लिए समान वेतन के अधिकार के पक्ष मे हो।
पंथनिरपेक्षता
शब्दकोशों मे सेक्यूलेरिज्म (धर्मनिरपेक्षता या पथनिरपेक्षता) की परिभाषा ‘ऐहिलौकिक अथवा अनाध्यात्मिक‘, ‘धर्म से सबध न रखने वाली‘, ‘विश्वास की पद्धति जिसमे सभी प्रकार की धार्मिक आस्थाओ तथा उपासना को नकारा जाता है‘, ‘अधार्मिक‘ पद्धति आदि के रूप में की गई है। इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में सेक्यूलेरिज्म (पंथनिरपेक्षता) की परिभाषा ‘उपयोगितावादी नैतिकता‘ के‘रूप में की गई है, जिसकी अभिकल्पना मानव जाति के भौतिक, आध्यात्मिक और नैतिक सुधार के लिए की गई हो और जो धर्म के आस्तिकता संवधी पक्ष की न तो पुष्टि करता है तथा न ही उसका खडन करता है। इसाइक्लोपीडिया आफ सोशल साइसिस मे इसकी परिभाषा ज्ञान का स्वायत्त क्षेत्र स्थापित करने के ऐसे प्रयास के रूप में की गई है जो अलौकिक पूर्वधारणाओ से मुक्त हो।
ए.आर. ब्लेकशीड ने पश्चिम मे ‘सेक्यूलेरिज्म‘ (पंथनिरपेक्षता) के अवबोधन तथा उसकी सीमाओ को नियत करने का प्रयास किया, पर वे इस शब्द की किसी ऐसी परिभाषा पर पहुंचने में असमर्थ रहे जो पूरी तरह से सक्षम तथा स्वीकार्य हो। वे इस निष्कर्ष पर पहुचे कि यह यथार्थतया धर्म के विरुद्ध नहीं है, कितु धर्म की परिभाषा करना भी सरल नहीं है। उनके अनुसार, ‘पंथनिरपेक्षता‘ का अर्थ धार्मिक स्वतंत्रता तथा सहिष्णुता और हेतुवाद, भौतिकवाद और मानववाद आदि विचारों के प्रति आदर माना जा सकता है।
डोनाल्ड यूजीन स्मिथ ने भारतीय संदर्भ में पंथनिरपेक्षता की सकल्पना की निम्नलिखित शब्दों में एक तर्कपूर्ण परिभाषा प्रस्तुत करने का प्रयास किया है:
पथनिरपेक्ष राज्य वह राज्य है जो धर्म की व्यक्तिगत तथा समवेत स्वतत्रता प्रदान करता है, सवैधनिक रूप से किसी धर्म विशेष से जुड़ा हुआ नही है और जो धर्म का न तो प्रचार करता है तथा न ही उसमे हस्तक्षेप करता है।
जैसा कि न्यायमूर्ति देसाई ने कहा था, एक पंथनिरपेक्ष राज्य व्यक्ति के साथ एक नागरिक के रूप में व्यवहार करता है और उसके पंथ की ओर ध्यान नहीं देता। वह किसी पंथ विशेष से जुड़ा नहीं होता, और वह न तो किसी पथ को बढावा देता है और न ही उसमें हस्तक्षेप करने का प्रयास करता है। अनिवार्य है कि एक पंथनिरपेक्ष राज्य का धार्मिक कार्यों से कोई संबंध न हो, सिवाय उस स्थिति के जब उनके प्रबंध में अपराध, धोखाधडी अंतर्ग्रस्त हो या वह राज्य की एकता तथा अखडता के लिए खतरा बन जाए।
जियाउद्दीन बुरहामुद्दीन बुखारी बनाम बृज मोहन रामदास मेहरा एंड ब्रदर्स (1975 सप्ली ए सीआर 281) के मामले में अपना निर्णय सुनाते समय न्यायमूर्ति एम.एच. बेग ने कहा था
पथनिरपेक्ष राज्य, पथ के सभी भेदभावों से ऊपर उठकर, अपने सभी नागरिको का, उनके धार्मिक विश्वासो तथा व्यवहारो की ओर ध्यान दिए बिना, कल्याण सुनिश्चित करने का प्रयास करता है। यह सभी जातियो तथा सप्रदायो के नागरिकों को लाभ देने मे तटस्थ या निष्पक्ष होता है। मेटलैंड का मत है कि इस प्रकार के राज्य को अपने कानूनो के माध्यम से यह सुनिश्चित करना होता है कि राजनीतिक या नागरिक अधिकार या इसके अधीन किसी पद या स्थिति को धारण करने या इससे सबंधित कोई सरकारी कर्तव्य निभाने के अधिकार अथवा सामर्थ्य का अस्तित्व या प्रयोग किसी पथ विशेष की आस्था या उसके व्यवहार पर निर्भर न हो।
हमारा संविधान तथा उसके अधीन बनाए गए कानून नागरिको को उनके धार्मिक तथा पूरी तरह पृथक किए जा सकने वाले कानून और राजनीति के पथनिरपेक्ष क्षेत्रो के बीच सुखद और सामजस्यपूर्ण सबंध स्थापित करने की खुली छूट देते हैं। किंतु, वे एक दूसरे के क्षेत्र का अनुचित अतिक्रमण करने की इजाजत नहीं देते। किसी विवाद के सिलसिले मे, यह निर्धारण करना न्यायालयों का काम है कि किसी क्षेत्र मे कोई हस्तक्षेप उचित तौर पर और संविधान के अनुसार हुआ है अथवा नहीं, भले ही हस्तक्षेप किसी कानून के द्वारा ही क्यो हुआ हो।
किसी भी ऐसी चीज को जो अनिष्टकारी तथा शोषणकारी है, केवल इसलिए कानून के नियंत्रण से बाहर नहीं रहने दिया जा सकता कि धर्म की आड़ में उसका प्रदर्शन किया जाता है।
न्यायमूर्ति गजेन्द्रगडकर, धवन और बेग इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि प्राचीन भारतीय समाज में पंथनिरपेक्षता का अनुसरण किया जाता था तथा उसी तरह से इसके प्रमाण इस्लामी न्यायशास्त्र मे भी मिलते है। न्यायमूर्ति वेग ने कहा, “पथनिरपेक्षता तथा मजहब के अदर जो सर्वोत्तम विशेषताए है उनका ‘सुमधुर सामजस्य तथा सश्लेषण‘ सभव है।” पथनिरपेक्षता के सिद्धांत का निर्माण प्राचीन न्यायशास्त्र के आधार पर किया जा सकता है। केशवानन्द भारती के मामले मे, न्यायमूर्ति बेग ने मनु तथा पाराशर से उद्धरण प्रस्तुत करते हुए कहा
हमारे प्राचीन न्यायविदो ने भी इन सिद्धातो की पुष्टि की कि एक पीढी को यह अधिकार नही है कि मूलाधारो के बारे में भी वह अपने विचार या कानून भावी पीढियो पर लादे। वे न केवल विभिन्न समाजो मे अलग अलग होते है बल्कि एक ही समाज या राष्ट्र की एक ही अथवा दूसरी पीढी मे भी भिन्न भिन्न होते है।
भारतीय संदर्भ मे, पथनिरपेक्षता की किसी औपचारिक या निश्चित परिभाषा के अभाव मे अनेक परस्परविरोधी निर्वचन संभव है। पश्चिम के विपरीत, भारत मे पथनिरपेक्षता का जन्म चर्च तथा राज्य के परस्पर सघर्ष के कारण नही हुआ। इसकी जडे सभवतया भारत के अपने इतिहास तथा उसकी अपनी संस्कृति मे विद्यमान है। हो सकता है कि वह उसके बहुलवाद का तकाजा हो या हो सकता है कि उसके पीछे सविधान निर्माताओं की यह इच्छा हो कि वे संख्या के भेदभाव के बिना, सभी समुदायों के प्रति न्यायोचित तथा निष्पक्ष व्यवहार करे। इसलिए, हमारी बोलचाल की भाषा मे अग्रेजी ‘सैक्यूलरवाद‘ का प्रयोग अक्सर केवल साप्रदायिकता के विलोम के रूप में किया जाता है।
संविधान सभा ने जिस रूप में उद्देशिका को स्वीकार किया था उसके मूल पाठ में ‘पंथनिरपेक्ष‘ शब्द नहीं था। ‘समाजवादी‘ शब्द की भांति यह शब्द भी आपात स्थिति के दौरान 42वें सविधान संशोधन अधिनियम द्वारा ‘गणराज्य‘ से पूर्व एक अतिरिक्त विशेषण के रूप में जोड़ा गया। इस शब्द को इधर कुछ समय से ‘सर्व धर्म समभाव‘ का अर्थ देने का प्रयास भी किया गया है यानी सभी धर्मों को एक समान समझना या सभी धर्मों का समान रूप से आदर करना। धर्मनिरपेक्षता जो पहले सैक्यूलेरिज्म का शब्दार्थ माना जाता था, अब मान्य नहीं रहा है क्योंकि ऐसा नहीं कहा जा सकता कि धार्मिक मामलों मे राज्य संपूर्ण तटस्थता का आचरण करे। संविधान के प्राधिकृत हिंदी पाठ में अब ‘पंथनिरपेक्ष‘ शब्द का प्रयोग किया गया है।
यही एक स्वाभाविक तथा एकमात्र संभव निर्वचन है, क्योंकि भारतीय स्थिति के ठोस ‘तथ्यों ने पश्चिम की सैक्यूलरवाद की संकल्पना को पूर्णतया अनुपयुक्त बना दिया है। हमारे संदर्भ में पंथनिरपेक्षता का केवल यही अर्थ है कि हमारा राज्य कोई मजहबी अथवा धर्मतंत्रवादी राज्य नहीं है, राज्य का इस रूप में अपना कोई पंथ, मजहब या संप्रदाय नहीं है, इसकी नजरो में सभी पथ बराबर हैं और यह पंथ के आधार पर नागरिकों के बीच कोई विभेद नहीं करेगा।
न्यायमूर्ति गजेन्द्र गडकर ने भारतीय संविधान की पथनिरपेक्षता की परिभाषा करते हुए इसका अर्थ यह बताया है कि सभी नागरिको को नागरिकों के रूप में समान अधिकार प्राप्त हैं तथा इस मामले में उनका पंथ या मजहब पूर्णतया अप्रासंगिक है। उन्होंने कहा कि राज्य किसी पथ विशेष के प्रति आसक्ति नहीं रखताय यह अधार्मिक या धर्मविरोधी नहीं होता, यह सभी पंथों को समान स्वतत्रता प्रदान करता है। “भारतीय पंथनिरपेक्षता ने‘‘ धर्म के युक्तियुक्त कार्यो के बीच “तर्कसंगत संश्लेषण‘‘ स्थापित करने का प्रयास किया। श्री एम.सी सीतलवाड का भी यह विचार था कि पंथनिरपेक्ष राज्य के अधीन सभी नागरिकों के साथ एक-सा व्यवहार होना चाहिए तथा उनके धर्म के कारण उनके साथ भेदभाव नहीं बरता जाना चाहिए।
42वे संशोधन से पहले, ‘सैक्यूलर‘ शब्द का एकमात्र जिक्र संविधान के अनुच्छेद 25(2) में आया था, जिसमें राज्य को धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी भी ‘लौकिक क्रियाकलाप‘ का विनियमन या निर्बधन करने की शक्ति प्रदान की गई थी। स्पष्ट है कि यहां पर ‘सैक्यूलर‘ शब्द का प्रयोग ‘लौकिक‘ के अर्थ में अथवा शुद्ध धार्मिक से भिन्न मामलों से संबंधित अर्थों में किया गया था। 42वें संविधान संशोधन अधिनियम में, जिसके द्वारा ‘पथनिरपेक्ष‘ शब्द जोड़ा गया था, इसकी परिभाषा करने का प्रयास नहीं किया गया। किंतु यह महसूस किया गया कि इस शब्द का जोड़ा जाना केवल उस तथ्य का अनुमोदन तथा स्पष्टीकरण करना था जो, विश्वास किया जाता है कि, संविधान की बुनियादी विशेषता के रूप में पहले से विद्यमान था। केशवानन्द भारती तथा मिनरवा के मामलों में पथनिरपेक्षता को एक बुनियादी विशेषता बताया गया। इसके अलावा, यह मूल अधिकार के रूप में धर्म की स्वतत्रता की गारटी में अंतर्निहित थी। सेंट जेवियर कालेज सोसाइटी बनाम गुजरात राज्य के मामले मे उच्चतम न्यायालय ने 1974 में निर्णय दिया कि भल ही संविधान में पथनिरपेक्ष राज्य की बात नहीं कही गई है, फिर भी इस विषय में कोई संदेह नहीं है कि सविधान निर्माता इसी तरह का राज्य स्थापित करना चाहते थे।
संविधान (45वां संशोधन) विधेयक में यह निर्धारित करने का प्रयास किया गया था कि संविधान के पथनिरपेक्ष तथा लोकतंत्रात्मक स्वरूप को संविधान की एक बुनियादी विशेषता माना जाएगा। किंतु विधेयक को 44वें संशोधन के रूप में अधिनियमित किए जाने से पहले बुनियादी विशेषताओं की सूची को उसमें से निकाल दिया गया था। इसके अलावा उद्देशिका में ‘पथनिरपेक्ष‘ शब्द प्रयोग करने के अलावा, हमारे संविधान में अन्य किसी भी जगह स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा गया कि धर्म को राजनीति के साथ नही मिलाने दिया जाएगा या धार्मिक समस्याओं, निधियों और उपासना के स्थानों का प्रयोग राजनीतिक उद्देश्यों के लिए नहीं करने दिया जाएगा। यह भी अभी तय नहीं हो पाया है कि कहां ‘पंथ‘ शब्द का प्रयोग उचित होगा और कहां ‘धर्म‘ का अथवा ‘संप्रदाय‘ का।
शाह बानो के मामले में कानून-निर्माता रूढ़िवादी मुसलमानों के दबाव में आ गए और पंथनिरपेक्षता या सभी के लिए समान न्याय के संवैधानिक संबोध की मूल भावना के नितांत प्रतिकूल मुस्लिम महिला (विवाह-विच्छेद के अधिकार का संरक्षण) अधिनियम, 1986 लाया गया ताकि उच्चतम न्यायालय के निर्णय को रद्द किया जा सके।
बोम्मई वाले मामले में उच्चतम न्यायलय ने मध्य प्रदेश, हिमाचल और राजस्थान में 3 भाजपा सरकारों की बर्खास्तगी को ठीक ठहराया और कहा कि पंथनिरपेक्षतावाद को संविधान का बुनियादी तत्व माना जाना चाहिए। भाजपा सरकार वाले तीनों राज्यो में पंथनिरपेक्षता को भारी आघात पहुचा था।
जो भी हो, अब भारतीय सवैधानिक विधि मे ‘पंथनिरपेक्ष‘ शब्द का एकमात्र प्रवर्तनीय निर्वचन वही होगा जो संविधान के विभिन्न प्रावधानो जैसे अनुच्छेद 14,15,16,19 और 25 तथा 28 से समझा जा सकता है। उद्देशिका के असंशोधित रूप में भी, अन्य बातो के साथ साथ, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतत्रता शामिल थी। दूसरे शब्दो में, इसमें सभी के लिए धार्मिक स्वतंत्रता का सत्यनिष्ठा के साथ वचन दिया गया था। भारत के सभी लोगों में प्रतिष्ठा तथा अवसर और बंधुता के सिद्धांतो द्वारा इसकी पुन. पुष्टि की गई थी।
संविधान निर्माताओ ने एक ऐसे राष्ट्र का सपना संजोया था जो धर्म, जाति, पथ की समूची विविधताओ से परे होगा। वे धर्म के खिलाफ नहीं थे, कित् वे आशा करते थे कि राजनीतिक एकता जुटाना सभव होगा और धार्मिक मतभेद राष्ट्र-निर्माण मे बाधक नहीं बनेंगे। संविधान में एक ऐसी नयी समाज व्यवस्था की परिकल्पना की गई थी जो सांप्रदायिक संघर्षों से मुक्त होगी तथा जिसका आधार होगा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय । इसमें एक ऐसी राज्य व्यवस्था का निरूपण किया गया था जिसके अंतर्गत कानूनों में धर्म, जाति आदि के आधार पर नागरिको के बीच भेदभाव नहीं किया जाएगा। संविधान में एक ऐसी ‘पथनिरपेक्ष‘ व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया गया जिसके अतर्गत बहुसंख्यकों को राज्य की ओर से कोई विशेष अधिकार नहीं दिए गए या उन्हें कोई प्राथमिकता पाने का अधिकार नहीं दिया गया और अल्पसंख्यको के ‘धार्मिक अधिकारों‘ को अनेक प्रकार से सरक्षण प्रदान किया गया।
यह जरूरी दीख पड़ता है कि पंथनिरपेक्षता शब्द की स्पष्ट परिभाषा स्वय संविधान में ही कर दी जाए, विद्यमान कानूनों को दृढ़ता से लागू किया जाए तथा और भी कड़ा कानून पास किया जाए ताकि कोई दल या व्यक्ति राजनीतिक प्रयोजनों के लिए धर्म का दुरुपयोग न कर सके।
(सविधान (80वां संशोधन) विधेयक, 1993 द्वारा संविधान मे सशोधन करने के निष्फल प्रयास के बारे मे तथा इस विषय की पूरी चर्चा के बारे मे देखिए सुभाष सी. काश्यप, डीलिकिंग रिलिजन एंड पालिटिक्स, नयी दिल्ली, 1993)
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