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शैलकृत स्थापत्य क्या है , शैलकृत स्थापत्य प्रारंभिक भारतीय कला एवं इतिहास के ज्ञान के अति महत्त्वपूर्ण स्रोतों में से एक का
शैलकृत स्थापत्य प्रारंभिक भारतीय कला एवं इतिहास के ज्ञान के अति महत्त्वपूर्ण स्रोतों में से एक का शैलकर्त गुहाएं क्या है ?
शैलकृत गुहा वास्तु : गुप्तकालीन स्थापत्य का एक महत्वपूर्ण पक्ष शैलकर्त-गुहाएं भी हैं। वास्तव में मौर्यकाल में गुहा-भवनों का जो कार्य शिल्पकारों ने आरंभ किया वह तकनीक इस युग में अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई थी। नवीन प्रतिमानों के आविष्कार, चिंत्राकन की कोमलता, खुदाई की सूक्ष्मता, कल्पनाशील-सृजन तथा संयोजन की सुंदरता कतिपय ऐसे वास्तु पक्ष हैं जिनमें इस काल खण्ड के शिल्पियों को अकल्पनीय दक्षता एवं कौशल की उत्कृष्टता परिलक्षित होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस युग में प्रायः एक ही केंद्र पर हिंदू तथा बौद्ध दोनों धर्मों से संबंधित गुहा-भवनों का निर्माण बिना किसी द्वेष भाव के निरंतर चलता रहा।
अध्ययन की दृष्टि से गुप्तकालीन शैलकत्र्त गुहाओं को दो वर्गें में विभाजित किया जा सकता है (i) हिंदू धर्म से संबंधित गुहायें, (ii) बौद्ध धर्म की शैलकत्र्त गुहाएं।
उदयगिरि की गुहाएं हिंदू धर्म से संबंधित हैं। यह स्थान सांची से 3 किण्मी. तथा बेसनगर से 3-25 किण्मी. की दूरी पर हैं। यहां की गुहा शृंखला में गुफा संख्या-1 सबसे प्राचीन मानी जाती है इसकी छत स्वतः प्राकृतिक पर्वत के निकले हुए अग्रभाग से बनी है, जिसके सामने चार स्तम्भों वाला बरामदा विद्यमान है जो चिनाई करके निर्मित किया गया है।
उदयगिरी की दो शैलकत्र्त गुहाओं में गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल के अभिलेख अंकित हैं। इनमें से एक गुफा की भीतरी दीवार पर अंकित अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसका निर्माण चंद्रगुप्त द्वितीय के सेनापति वीरसेन द्वारा हुआ था। शैलकत्र्त शैव-मंदिर के भीतर एक चैकोर गर्भगृह है जिसकी छत सपाट है। इसके सामने स्तंभों पर आधारित आयताकार अग्रमण्डप बना, गए हैं। इस गुहा का वैशिष्टय यह है कि यह हिंदू मंदिर का प्राचीन रूप है।
उदयगिरी के हिंदू गुहा मंदिर अपने ‘वास्तु विधान’ में बौद्ध शैलकत्र्त गुहाओं से सर्वथा भिन्न हैं। क्योंकि बौद्ध गुफाओं की भांति सम्पूर्ण गुफा को चट्टान काटकर नहीं बनाया गया है। अपितु उसके भीतरी भाग के पर्वत को तराशकर निर्मित किया गया तथा मण्डप भाग के प्रस्तर खण्डों को चिनकर बनाने की विधि इन गुफा मंदिरों की विशिष्टता मानी जाती है। इस समूह में बीना की गुफा भी एक महत्वपूर्ण शैलकत्र्त गुफा मानी जाती है। इस गुहा में अग्रमण्डप के चार सामान्य स्तंभों के अतिरिक्त दोनों ओर एक-एक लघु स्तम्भ बना, गए हैं
गुप्तकालीन मंदिर शैलीः विदिशा के निकट ऐरान में एक वैष्णव क्षेत्र है, जो मंदिरों की एक महान शृंखला के रूप में स्थित है, उन मंदिरों में उत्कीर्ण मूर्ति कला गुप्त काल के दौरान विकसित की गयी थी। ऐरान (प्राचीन एराकाइना) में मिले अभिलेख, समुद्रगुप्त के शासनकाल से लेकर छठी शताब्दी के प्रारंभ में हूण आक्रमण के समय की कलात्मक गतिविधियों के दस्तावेज हैं। यहां मिली वाराह की एक वृहद् मूर्ति पांचवीं शताब्दी के प्रारंभ में ऐरान व उदयगिरि के मध्य कलात्मक विकास व मूर्ति कला के परस्पर संबंधों को दर्शाती है। जिसमें देवी देवताओं की शक्ति को पूरी तरह से शरीर के भाव और उसकी भंगिमा द्वारा प्रदर्शित किया गया है।
तिगवा का विष्णु मंदिरः मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में तिगवा नामक स्थान के ऊंचे टीले पर यह मंदिर स्थित है। गढ़े हुए पत्थरों से निर्मित यह मंदिर गुप्तकालीन स्थापत्य का एक सुंदर उदाहरण है। इसका निर्माण काल 5वीं शती का माना जाता है। गर्भगृह के सामने चार स्तंभों पर आधारित बाहर की ओर निकला हुआ एक अग्रमण्डप है। स्तम्भों के शीर्ष पर कलश या पूर्णघट एवं कलशों के ऊपर तीन भागों में विभक्त पीठिका है। वास्तव में गर्भगृह के प्रवेश द्वार में तीन शाखाएं हैं जिनमें अगल-बÛल की पट्टियां ही पुष्पवल्ली से अलंकृत है।
यद्यपि तिगवा के विष्णु मंदिर में स्थापत्य की दृष्टि से सुरुचि का अभाव प्रतीत होता है परंतु इसका रूपाकार नूतनस्फूर्ति नवयौवन तथा नवीन चेतना की भावना से अनुप्राणित है।
देवगढ़ की गुप्तकालीन कलाः जैसाकि विदित है कि गुप्तकाल भारतीय कला इतिहास का स्वर्ण युग है और इसमें रचनात्मक कला का अद्वितीय प्रतिबिम्ब विद्यमान है। प्राचीन व्यापारिक माग्र पर होने के कारण देवगढ़ समय-समय पर विभिन्न राजवंशों जैसे गुप्त, परमार, गुर्जर-प्रतिहार, चंदेल वंश के शासन के दौरान एक सक्रिय व्यापारिक एवं धार्मिक नगर के रूप में फला-फूला। वैसे तो देवगढ़ प्राचीन काल से मध्यकाल तक के भारतीय मूर्तिकला तथा वास्तुशिल्पीय वैभव की कई धाराओं को प्रभावित करता है, पर अपने दशावतार मंदिर के कारण भारतीय कला इतिहास में इसका विशिष्ट स्थान है। उल्लेखनीय है कि इस देवस्थान में गुप्तकालीन मंदिर वास्तु एवं शिल्पकला के सभी परिपक्व लक्षण देखे जा सकते हैं।
देवगढ़ में गुप्तकाल के दो मंदिर,दशावतारएवं वराह विभिन्न भग्नावस्थाओं में हैं। देवगढ़ पहाड़ी पर स्थित वराह मंदिर अब पूर्णतया विनष्ट स्थिति में है। मंदिर के गर्भगृह में श्रीविष्णु की प्रतिमा उदयगिरी (मध्य प्रदेश) की गुफाओं में उत्कीर्ण गुप्तकालीन वराह की प्रतिमा जैसी ही थी। दुर्भाग्यवश अब केवल उस प्रतिमा के एक पैर का पंजा ही लुप्त गर्भगृह की पीठिका पर अवशिष्ट है।
दशावतार मंदिर का निर्माण पांचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तब किया गया था जब ब्राह्मणवाद का पुगर्जागरण अपने चरम पर था। आज मंदिर के जो हिस्से मौजूद हैं वे मूल भव्य मंदिर की एक छाया मात्र हैं, लेकिन वर्तमान में भी जो दृष्टिगोचर होता है वह अद्भुत है और गुप्तकाल की वास्तु एवं मूर्ति शिल्पकला का अप्रतिम उदाहरण है। गुप्तकाल के प्रारंभ में बने हिंदू धर्म स्थल भारतीय मंदिर वास्तुशिल्प के पूर्व चरणों की विशेषताओं को दर्शाते हैं। ये मंदिर लघु आकार के होते थे, जिनमें एक वग्रकार गर्भगृह होता था। गर्भगृह के प्रवेश द्वार के सम्मुख लघु अनुपात वाले मण्डप निर्मित किए जाते थे। वे मूलतः पूजित प्रतिमा के धर्म स्थल होते थे, न कि भक्तों के एकत्र होने का स्थान। उनकी छत सामान्यतः चपटी होती थी। तिगवा, मध्य प्रदेश का ‘कंकाली देवी मंदिर’ एवं ‘दर्रा-मुकन्दरा’, राजस्थान का ‘भीम का चैरी मंदिर’ गुप्तकाल के प्रारंभ में निर्मित कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं।
अन्य कई गुप्तकालीन मंदिरों की तरह दशावतार मंदिर गढ़े हुए बलुआ पत्थरों से बना हुआ है, जिसका प्रयोग स्वतंत्र मंदिर निर्माण की तकनीक में एक सुदृढ़ कदम था। इन पत्थरों को किसी गारे के बिना परस्पर जोड़ा गया है। यह मंदिर गुप्तकाल के प्रारंभिक काल में निर्मित (चपटे छतों एवं लघु अर्थ मण्डपों वाले) एवं मध्यकालीन उत्तर भारत में निर्मित (खजुराहो एवं कोणार्क जैसे उच्च शिखरों तथा विशाल मण्डपों वाले) हिंदू धर्म स्थलों के मध्य एक अनूठी कड़ी है। पंचायतन शैली में निर्मित इस मंदिर-प्रांगण में मुख्य मंदिर के चारों कोनों पर अन्य चार छोटे मंदिर बने हुए थे। इन लघु मंदिरों के अवशेष अब उपलब्ध नहीं हैं पर उनके आधार-चिन्ह अवश्य दिखाई देते हैं।
दशावतार मंदिर उत्तरी भारत में प्रायः देखे जागे वाले मंदिर-वास्तुशिल्प की शिखर (नागरा) शैली के अनुरूप सर्वप्रथम निर्मित मंदिरों में से एक है। इसी कारण इस मंदिर को भारतीय मंदिर निर्माण के वास्तुगत विकास क्रम में महान प्रगति का परिचायक माना जाता है। कला इतिहासकारों का मत है कि गुप्तकालीन शिल्पकारों ने पूर्व की कुछ शताब्दियों के दौरान प्रचालित धार्मिक प्रथाओं तथा प्रतिमा शास्त्र संबंधी विकास से प्रेरणा ली होगी। प्रतिमा विज्ञान कला के सुस्पष्ट स्वरूपों की विरासत के साथ गुप्तकालीन कलाकारों ने श्रीविष्णु से संबंधित पुराण कथाओं तथा अवतारों को दशावतार मंदिर की बाह्य दीवारों पर अत्यंत कलात्मकता से निरूपित किया था। मंदिर में विशेष रूप से श्रीविष्णु के दशावतारों को प्रदर्शित किया गया था, जिससे इसका नाम दशावतार मंदिर पड़ा।
गुप्तकाल के रचनात्मक उत्साह की लहर तथा इसके पीछे मौजूद गहन धार्मिक प्रयोजन को दशावतार मंदिर की मूर्तिकला में बखूबी अनुभूत किया जा सकता है। निःसंदेह देवगढ़ की शिलाकला की प्रकृति धार्मिक है तथापि सुखी-समृद्धि दैनिक जीवन के कार्यकलापों का चित्रण भी यहां परिलक्षित होता है।
देवगढ़ की शिल्पकला में लोक विश्वास एवं सौंदर्यपरक दर्शन का निदर्शन कराती यहां की मूर्तियों में कलाकारों ने अपनी अथक् साधना से भौतिकता के बंधन से मुक्त शाशवत आनंद की स्थिति की अभिव्यक्ति की है। इन मूर्तियों में गुप्तकालीन मूर्तिकला की सभी उत्कृष्टताएं यथा सूक्ष्म गढ़ाई, स्पष्ट रूपरेखा, अर्द्ध-पारदर्शी एवं तनग्राही वस्त्र, अर्द्ध उन्मीलित नयन, तन की सुकुमारता, मुखमंडल पर अद्भुत ओज एवं मधुर मुस्कान, कटावदार पत्रलताएं इत्यादि सहज ही परिलक्षित होते हैं।
गुप्तकालीन मूर्तिकलाः गुप्तकाल में मूर्ति रचना के लिए प्रस्तर, धातु तथा मिट्टी का प्रयोग किया गया। मथुरा, पाटलीपुत्र एवं सारनाथ इस युग के मूर्ति-निर्माण के विशिष्ट केंद्र थे। परंतु यदि सारनाथ को उस समय की मूर्ति-निर्माण कला का ‘यंत्रालय’ कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। गुप्तकालीन मूर्तिकला में भद्रता, सौंदर्य एवं शालीनता का अद्भुत समन्वय दृष्टिगोचर होता है। वास्तव में शिलाशास्त्र तथा लोक परम्परा को आधार बनाकर इस युग में जो कला विकसित हुई, वह विशुद्ध भारतीय आदर्शों एवं परम्पराओं पर आधारित रही। कलाओं ने नग्नता के स्थान पर संयमित सौंदर्य की प्रधानता दी है जिसमें कला शैली की सरलता और अभिव्यक्ति की सहजता दर्शनीय है। गुप्तकालीन सिद्धहस्त कलाविदों की अमर कीर्ति हिंदू प्रतिमा रचनाओं में परिलक्षित होती है, विशेषकर भगवान विष्णु तथा उनके अवतारों की मूर्तियां उल्लेखनीय हैं।
गुप्तकाल में विष्णु एवं शिव की प्रतिमाएं विशेष रूप से उपलब्ध हुई। किंतु इस काल में सूर्य की प्रतिमा अधिक संख्या में नहीं हैं। इस कालखण्ड में भगवती-दुग्र का विशेष उल्लेख नहीं हैं परंतु भारतीय धर्म एवं संस्कृति में प्रकृति या ईश्वर के साथ शक्ति का संबंध अभिन्न माना गया है। देवी की शक्ति के रूप में उपासना गुह्यसूत्र एवं महाभारत काल में पूर्व का माना गया है। इससे स्वयं प्रमाणित होता है कि देवी दुग्र की पूजा एक महान-शक्ति के रूप में अभीष्ट प्राप्त करने हेतु की जाती थी।
गुप्तकालीन हिंदू प्रतिमाएं जिन स्थानों से प्राप्त हुई हैं उनमें पहाड़पुर (राजशाही-उत्तर बंगाल) का महत्वपूर्ण स्थान है। यहां के मंदिर की दीवारों पर बनी रामायण एवं महाभारत की कथाओं के साथ ‘राधा-कृष्ण’ की मूर्ति विशेष उल्लेखनीय है। इन सुंदर एवं अद्भुत कृष्ण तथा राधा की मूर्तियों का वेश, अलंकरण एवं मुद्रा आदि का आकर्षक शिल्पांकन किया गया है।
गुप्त मूर्ति कला की सफलता प्रारंभिक मध्यकाल की प्रतीकात्मक छवि एवं कुषाण युग की कलापूर्ण छवि के मध्य निर्मित एक संतुलन पर आधारित है।
हिंदू, बौद्ध एवं जैन कलाकृतियां मध्य भारत सहित देश के अनेक भागों में पायी गयीं। ये मूर्तियां अपनी मूर्ति कला में अद्वितीय हैं। बेसनगर से गंगा की मूर्ति, ग्वालियर से उड़ती हुई अपस्राओं की मूर्तियां, सोंडानी से मिली हवा में लहराते गंधर्व युगल की मूर्ति, खोह से प्राप्त ,कमुख लिंग, और भुमारा से अन्य कई प्रकार की मिली मूर्तियां उसी सुंदरता, परिकल्पना और संतुलन को प्रदर्शित करती हैं जैसाकि सारनाथ में देखा जाता है। भगवान हरिहर (आधा शिव और आधा विष्णु) की मानवाकार प्रतिमा मध्यप्रदेश में मिली है। अनुमान है कि यह पांचवीं ईस्वी के पूर्वार्द्ध की रचना है। विष्णु का आठवां अवतार कहे गए कृष्ण की प्रतिमाएं भी 5वीं सदी ई. के आरंभिक काल से मिल रही हैं। वाराणसी से प्राप्त एक मूर्ति में उन्हें ‘कृष्ण गोवर्धनधारी’ के रूप में अंकित किया गया है। जिसमें उन्हें बाएं हाथ के सहारे गोवर्धन पर्वत उठा, दिखाया गया है जिसके नीचे वृंदावनवासी जल प्रलय से बचने के लिए एकत्रित हुए थे। वह भयावह जलवृष्टि इंद्र ने भेजी थी, जो वृंदावनवासियों की अपने प्रति उपेक्षा से क्रोधित हो उठे थे।
भारतीय ललित कला के विकास में गुप्त शासकों का महत्वपूर्ण योगदान था, परिणामस्वरूप गुप्तकलाविदों ने अपने अभूतपूर्व कौशल से कला के क्षेत्र में एक नवीन युग का सूत्रपात किया। इसका साक्षात् दृष्टान्त हमें गुप्तकालीन प्रस्तर एवं धातु निर्मित बौद्ध मूर्तियों में स्पष्टतया परिलक्षित होता है। बौद्ध मूर्तिशास्त्र में सारनाथ बौद्धों का प्रधान तीर्थ स्थान माना गया है। उल्लेखनीय है कि गुप्तकालीन बौद्ध मूर्तियों में पांच मुद्राएं ध्यान मुद्रा, भूमिस्पर्शमुद्रा, अभय मुद्रा, वरद मुद्रा, तथा धर्मचक्र मुद्रा अधिकांशतः मिलती हैं।
सारनाथ संग्रहालय में बुद्ध की अनेक ऐसी ख.िडत मूर्तियां हैं जिनमें सिर अथवा हाथ का अभाव है। गुप्तकालीन बुद्ध की बैठी हुई प्रतिमाएं सारनाथ कला केंद्र में विविध मुद्राओं में प्राप्त हुई हैं। भगवान बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त करने के पूर्व ‘सम्बोधि प्राप्त हेतु’ जो अनेक अवतार धारण किए थे उन्हें बोधिसत्व कहते हैं। ऐसे बोधिसत्वों की प्रतिमाएं भी प्रस्तरों पर अंकित मिली हैं। इन मूर्तियों की विशेषता यह है कि इनका शरीर अलंकारों से सुशोभित पाया गया है।
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