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Categories: Uncategorized

विधि का शासन , vidhi ka shasan , rule of law in indian constitution in hindi , विचार कहाँ से लिया गया है

rule of law in indian constitution in hindi , विचार कहाँ से लिया गया है ,
विधि का शासन :
विधि का शासन लोकतांत्रिक सरकार की मूलभूत आवश्यकता है।
सभी नागारिकों को विधि के समक्ष समता तथा विधियों का सामान
संरक्षण का अधिकार विधि के शासन की संकल्पना के तहत् प्राप्त
होता है। साथ ही सभी नागरिकों को राज्य द्वारा अपनी शक्तियों के
मनमाने प्रयोग से सुरक्षा प्राप्त होता है। अतः विधि के समक्ष समता
तथा विधि के शासन के अनुपालन के लिए एक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष
न्यायपालिका का होना आवश्यक है।
उल्लेखनीय है कि ‘‘विधि का शासन’’ संकल्पना ब्रिटिश विद्वान
डायसी की देन है। इस संकल्पना का मूल आधार संविधान की
सर्वोच्चता है अर्थात् कोई भी व्यक्ति या संस्था विधियों की विधि
(सर्वोच्च विधि) ‘संविधान’ से ऊपर नही है। यह प्राकृतिक न्याय के
सिद्वान्त पर आधारित है।
भारत में विधि का शासनः- भारत में विधि के शासन
की संकल्पना को संविधान के मूलभूत सिद्वान्त के रूप में अपनाया
गया है। यधापि विधि के शासन की संकल्पना का जन्म ब्रिटेन में
हुआ जहाँ कि संसदीय सर्वोच्चता के अधीन इसे अपनाया गया है।
जबकि भारत में इसके आधुनिक स्वरूप को अपनाया गया है जो
कि संसदीय संप्रभुता एवं न्यायिक सर्वोच्चता के सुंदर समन्वय पर
आधारित है। भारत में विधि का शासन, सरकार के सभी अंगों तक
विस्तारित है तथा शासन के सभी अंग इसके द्वारा संचालित एवं
नियंत्रित है।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि ‘‘विधि के शासन’’ की
संकल्पना को उच्चत्तम न्यायलय द्वारा संविधान के आधारभूत ढ़ाँचे
के रूप में स्वीकार किया गया है अतः इसे संविधान संशोधन की
प्रक्रिया द्वारा भी संशोधित नहीं किया जा सकता है।
विधि के षासन के लिए संवैधानिक प्रावधान
मौलिक अधिकारः- व्यक्ति के प्राकृतिक मानवाधिकारों की सुरक्षा तथा
राज्य के विरूद्व एक सशक्त व्यक्तिगत रक्षोपाय के रूप में मौलिक
अधिकारों को भारतीय संविधान में एक विशिष्ट भाग के रूप में
सम्मिलित किया गया है। यह विधि के शासन को लागू करने का सबसे
सशक्त माध्यम है। राज्य की निरंकुश शक्ति पर अंकुश लगाते हुए यह
सामाजिक समता, न्याय, स्वतंत्रता तथा बंधुता को स्थापित करते हुए
‘‘विधि के शासन’’ की प्राकृतिक न्याय की संकल्पना को क्रियान्वित
करता है।
समता का अधिकार, जिसके तहत् विधि के समक्ष समता तथा विधियों
का समान संरक्षण का अधिकार प्रदान किया गया है, ‘‘विधि के शासन’’
की मूलभूत संकल्पना का आधार है। स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के
विरूद्व अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार तथा संास्कृतिक एवं
शिक्षा संबंधी अधिकार, संविधान के अधीन रहते हुए व्यक्ति के मूलभ्ूात
मौलिक मानवाधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित कराते हैं। वहीं अनुच्छेद
(32) में उल्लेखित संवैधानिक उपचारों का अधिकार ‘‘विधि के शासन’’
के सुचारू संचालन की गारंटी प्रदान करता है। इसके द्वारा नागरिकों
को, उनके अधिकारों के हनन एवं राज्य के मनमाने शक्ति प्रयोग पर
रोक लगाने हेतु उच्चत्तम न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार
प्रत्याभूत किया गया है। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 13(2), के तहत्
राज्य पर यह सीमा आरोपित की गई हैं कि वह कोई ऐसी विधि नहीं
बनाएगा जो मूल अधिकारों को न्यून करती हो। ऐसी कोई भी विधि मूल
अधिकारों की उल्लंधन की मात्रा तक शून्य होगी।
राज्य नीति के निर्देशक तत्वः- मौलिक अधिकारों द्वारा जहाँ
राज्य के विरूद्व लोगों को अधिकार प्रदान कर राजनीतिक न्याय
सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है वहीं संविधान के भाग ;पअद्ध
में राज्य नीति के निर्देशक तत्वों द्वारा राज्य को किन-किन उद्देश्यों को
प्राप्त करना है, को आधार सिद्वान्त के रूप में स्थापित कर सामाजिक
एवं आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है क्योंकि
बिना सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के राजनीतिक न्याय की प्रभावशीलता
संदिग्ध होगी।
यह सच है कि संसदीय लोकतंत्र वाली हमारी व्यवस्था में चुने हुए
प्रतिनिधि संविधान के सुचारू संचालन के प्रति प्रतिबद्ध होते हैं, लेकिन
शक्ति एवं प्राधिकार के अप्रतिबंधित आधिकार मिलने के बाद उनके
निरंकुश एवं उदासीन होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा
सकता। निर्देशक तत्व, राजनीतिज्ञों तथा न्यायपालिका दोनों के लिए
एक प्रकाशस्तभ्भ के रूप में स्थापित हैं जो कि (राजनीतिज्ञ एवं
न्यायपालिका) सरकार संचालन, नागारिकों के अधिकारों की रक्षा तथा
विधि के शासन के तहत् कार्य संचालन हेतु उत्तरदायी हैं।

न्यायिक पुनर्विलोकन

न्यायिक पुनर्विलोकन वह व्यवस्था है जिसके तहत न्यायपालिका को
यह शक्ति प्रदान की जाती है कि, वह राज्य द्वारा, संविधान द्वारा प्राप्त
शाक्तियों एवं प्राधिकार के बाहर बनाई गई विधियों को शून्य घोषित
कर दे। यह कार्यपालिका तथा विधायिका द्वारा अपनी शक्तियों के
असंवैधानिक प्रयोग पर अंकुश लगाने वाला एक सशक्त उपकरण है।
यद्यपि न्यायिक पुनर्विलोकन का सिद्वान्त न्यायपालिका को नीतिगत मुद्दों
में कार्यपालिका एवं विधायिका को निर्देश, सलाह या उपदेश देने का
अधिकार प्रदान नहीं करता तथापि किसी भी ऐसे मुद्दे पर जो कि
संविधान के तहत् विधायिका एवं कार्यपालिका को अधिकृत है, इनके
द्वारा संवैधानिक एंव विधिक सीमाओं की अवहेलना नहीं की जा सकती।
भारत में न्यायिक पुनर्विलोकन -‘‘न्यायिक पुनर्विलोकन’’ शब्द का
भारतीय संविधान में कहीं भी प्रयोग नहीं किया गया है। परन्तु भारतीय
संविधान के निर्माता संसद तथा राज्य विधायिकाओं द्वारा पारित कानूनों
की न्यायपाालिका द्वारा न्यायिक समीक्षा किए जाने के पक्ष में थे।
सन् 1967 तक उच्चत्तम न्यायालय ने न्यायिक पुनर्विलोकन की
शक्ति का प्रयोग कुछ सीमाओं के साथ किया। लेकिन गोलकननाथ
बनाम पंजाब राज्य वाद, 1967 में उच्चत्तम न्यायालय ने यह फैसला
दिया कि संसद संविधान में ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती जो
मूल अधिकारों को न्यून करती हों । इस फैसले ने संसदीय सम्प्रभुता
के प्रश्न पर सार्वजनिक बहस को जन्म दे दिया। इसके बाद बैंक
राष्ट्रीयकरण तथा प्रिवी पर्स वाद में पुनः उच्चत्तम न्यायालय ने
संसदीय प्रभुता पर प्रश्न-चिन्ह लगाया। 1971 में हुए संसदीय चुनाव
में नए लोक सभा ने जल्द हीं 24 वें, 25 वें तथा 26 वें संविधान
संशोधनों द्वारा इन तीनों न्यायिक निर्णयों को निष्प्रभावी बना दिया। परन्तु
केशवानन्द भारती वाद, 1973 के निर्णायक एवं अति-महत्वपूर्ण फैसले
में उच्चत्तम न्यायालय ने अपने गोलकनाथ वाद फैसले को उलट दिया
तथा मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन
करने की संसद की शक्ति को पुर्नस्थापित किया। परन्तु यह भी
अभिनिर्धारित किया कि संसद संविधान के आधारभूत ढ़ाँचे में किसी
प्रकार का संशोधन नहीं कर सकती।
42 वें संविधान संशोधन का प्रभावः-
आपात काल के दौरान संसदीय प्रभुत्व को स्थापित करने एवं न्यायपालिका
की शक्तियों में कटौती करने के लिए संविधान में 42 वाँ संशोधन किया
गया। इसक े तहत् प्रावधान किया गया कि संि वधान सश्ं ााध्े ान का े न्यायालय
में प्रश्नगत नहीं किया जा सकेगा। साथ हीं इसे और स्पष्ट करते हुए यह
कहा गया कि संसद संविधान संशोधन द्वारा किसी भी प्रावधान को हटाने,
जोड़ने या बदलने की शक्ति रखती हैं और इस शक्ति की कोई सीमा नहीं
होगी। इस प्रकार इस संविधान संशोधन द्वारा संसद की सर्वोेच्च
संप्रभुता स्थापित करने के लिए न्यायपालिका की न्यायिक पुनर्विलोकन
शक्ति को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया।
42 वें संविधान संशोधन के तहत् यह प्रावधान गया कि,
(ं) एक उच्च न्यायालय किसी भी केन्द्रीय कानून को श्ूान्य या
अवैध घोषित नहीं कर सकती ।
(ंइ) उच्चत्तम न्यायालय राज्य के किसी विधि पर संज्ञान तभी
लेगा जब इस संदर्भ में चल रही कार्यवाही में किसी केन्द्रीय
विधि की संवैधानिक वैधता का प्रश्न सम्मिलित हो।
इसके अलावा यह भी प्रावधान किया गया कि केन्द्रीय या राज्य
विधियों की संवैधानिक वैधता की समीक्षा के लिए संवैधानिक पीठ में
बैठने वाले न्यायाधीशों की संख्या उच्चत्तम न्यायालय के संदर्भ में सात
एवं उच्च न्यायालय के संदर्भ में पांच होगी। यह भी कहा गया कि
किसी भी विधि-को अमान्य घोषित करने के लिए संवैधानिक पीठ के
कम से कम दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन प्राप्त होना आवश्यक
होगा। परन्तु 43 वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा न्यायपालिका की
न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति को पुनः बहाल कर दिया गया। जहाँ
तक संसद की संविधान संशोधन सबंधी सम्प्रभुता का प्रश्न है, उसमें
कोई बदलाव नहीं किया गया। अर्थात् संसद की संविधान संशोधन की
शाक्ति वही रही जो 42 वें संशोधन के बाद थी। परन्तु 1980 के मिनर्वा
मिल्स वाद में उच्चतम न्यायलय ने अपने फैसले में संसद की संविधान
संशोधन की असीमित शक्ति पर रोक लगाया तथा यह अभिनिर्धारित
किया कि संसद संविधान की आधारभूत ढ़ाॅचे में किसी तरह का बदलाव
किए बिना हीं संशोधन कर सकती है।
संवैधानिक प्रावधान
न्यायिक पुनर्विलोकन का मुख्य संवैधानिक श्रेात अनुच्द्देद 13(2),
तथा अनुच्द्देद (32) में है। अनुच्द्देद 13(2), में कहा गया है कि राज्य
कोई ऐसी विधि नहीं बनाएगा जो संविधान के भाग तीन में उल्लेखित
मूल अधिकारों को छीनती हों या न्यून करती हो तथा इस प्रकार
की विधि उल्लंधन की मात्रा तक शून्य होगी। वहीं अनुच्द्देद (32) में
संवैधानिक उपचारों के अधिकार के तहत् उच्चतम न्यायालय को
मूल अधिकारों की रक्षा हेतु रिट अधिकारिता प्रदान की गई है।
न्यायिक पुनर्विलोकन का महत्व- हमारे संविधान के मूल दर्शन,
यथा स्वतंत्रता, समता, न्याय तथा बंधुता आधारित लोकतांत्रिक समाजवाद,
की स्थापना में न्यायिक पुनर्विलोकन एक सशक्त माध्यम है। आज यह
कहा जा रहा है कि न्यायपालिका की परम्परागत भूमिका में परिवर्तन
आ गया है तथा यह अब निष्क्रियता से सक्रियता की ओर परिवर्तित
हो रहा है। अब यह समुदाय के बदलते ढ़ँाचे एवं जरूरतों को ध्यान
में रखते हुए नागरिकों के शिकायत निवारण के नए तरीकों को अपना
रहा है। इसी के तहत् लोक-हित वाद न्यायिक सक्रियता का एक
प्रमुख उपकरण बन गया है एवं अपनी बदलती भूमिका में सर्वोच्च
न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों ने कई मुद्दों पर सक्रिय भूमिका दिखाई
है, जैसे- वंचित एवं शोषित वर्ग, कैदियों की हितों की रक्षा, पर्यावरण
सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवा में सुधार, इत्यादि। इसके अतिरिक दिल्ली में
सी0एन0जी0 गैस आधारित वाहनों के परिचालन, दिल्ली में हुए
अवैध निर्माण को तोड़ने, व्यवसायिक संस्थाओं में प्रवेश फीस का
तार्किकीकरण, न्यायिक आदेशों के अवमान पर कड़ा रूख, उच्च स्तर
पर भ्रष्टचार के मुद्दों पर सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय ने
न्यायिक सक्रियता का पारिचय दिया है।
निष्कर्ष – निस्संदेह, हमारे संवैधानिक व्यवस्था में ‘‘राजा कोई
गलती नहीं कर सकता’’ की ब्रिटिश धारणा को नाकार दिया गया है
अर्थात् सरकार को अपनी शाक्तियों के संदर्भ में पूर्ण उन्मुक्ति प्रदान नहीं
की गई है। जबकि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका किसी भी न्यायिक
व्यवस्था के लिए अनिवार्य तत्व है। वास्तव में न्यायिक सक्रियता
विधायिका एवं कार्यपालिका को उनके कार्यों के सफल संपादन में
न्यायिक सहायता है ताकि ‘‘विधि का शासन’’ संकल्पना का पालन हो।
न्यायिक सक्रियता संवैधानिक रूप से स्वीकार्य संकल्पना है जिस पर
उच्चत्तम न्यायालय द्वारा कई वादों यथा मिनर्वा मिल्स लि0 बनाम भारत
संघ, सुभेश शर्मा बनाम भारत संघ इत्यादि में बल दिया गया कि यह
संकल्पना भारत में लोकतंात्रिक संविधानवाद का प्रथम उत्पाद है तथा
विधि के शासन का एक प्रमुख भाग है।
परन्तु यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि देश की वास्तविक
सरकार कार्यपालिका हीं है जो विधायिका के प्रति उत्तरदायी है।
अतः न हीं न्यायपालिका और न हीं कार्यपालिका अपनी विधिक
प्राधिकार की सीमाओं से आगे बढ़कर कार्य कर सकते हैं। ऐसा
होने पर हीं राज्य के सभी अंग सामंजस्यपूर्ण ढ़ग से कार्य कर
पाएगें। अतः आत्म संयम बेहतर उपाय है।

Sbistudy

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