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विधवा पुनर्विवाह अधिनियम किसके शासनकाल में क्रियान्वित किया गया , गवर्नर कौन था नाम किसने पारित किया था
यहाँ जान पाएंगे विधवा पुनर्विवाह अधिनियम किसके शासनकाल में क्रियान्वित किया गया , गवर्नर कौन था नाम किसने पारित किया था ?
प्रश्न: विधवा विवाह निषेध कानून
उत्तर: उत्तर भारत में ईश्वर चंद्र विद्यासागर, बंबई में प्रो.डी.के कर्वे, मद्रास में वीरे सालिंगम पंतुलु ने विधवा पुनः विवाह की दिशा में विशेष कार्य किया। इन्हीं के प्रयासों से लार्ड डलहौजी ने हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम – 1856 पारित किया। इसी संदर्भ में पारसियों में जी.एम. मालाबारी तथा हिन्दुओं में हरविलास शारदा का भी विशेष योगदान रहा।
प्रश्न: आर्य समाज के उद्देश्यों को बताइये?
उत्तर: आर्य समाज की स्थापना के उद्देश्य
1. वैदिक धर्म के शुद्ध रूप की पुनः स्थापना करना।
2. भारत को सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक रूप में एक सूत्र में बांधना।
3. भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति पर पड़ने वाले पाश्चात्य प्रभाव को रोकना।
स्वामी दयानंद ऐसे पहले हिन्दू सुधारक थे, जिन्होंने बचाव के स्थान पर प्रहार की रणनीति अपनायी और हिन्दू विश्वास की रक्षा करते हुए ईसाईयों और मुसलमानों को उनके ही दोषों के आधार पर चुनौती दी।
1. लिए कारगर नीतियां तैयार करना था।
प्रश्न: भारतीय राज्यों के विलय में राज्यों के जन आन्दोलनों की भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर: ब्रिटिश कालीन देशी रियासतों में निरंकुश शासन, करों का बोझ, अधिकारों का न होना आदि।
ब्रिटिश सरकार से देशी रियासतों को सहयोग था क्योंकि दोनों जनता को दबाकर रखना चाहते थे। आन्दोलनों व विद्रोहों को दबाना चाहते थे।
देशी रियासतों में आन्दोलन के लिए अनुकूल परिस्थितियां थी।
1915 ई. में क्रांतिकारी आतंकवाद का पतन हो जाने से ये क्रांतिकारी इस पतन के काल में देशी रियासतों में चले गये और वहां राष्ट्रीयता का प्रचार-प्रसार करने लगे। 1916 के होम रूल आंदोलन व 1920 के खिलाफत व असहयोग आंदोलन का देशी रियासती क्षेत्र व वहां के लोगों पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इससे वहां भी आन्दोलन प्रारम्भ होने लगे। प्रत्येक देशी रियासत में प्रजा मण्डलों की स्थापना होने लगी। यह जनता का मंच था। इन्हीं मंचों से प्रारम्भ आन्दोलनों को प्रजा मण्डल आन्दोलन कहा जाता है। ये आन्दोलन प्रजातान्त्रिक व उत्तरदायी सरकारों की स्थापना करना चाहते थे।
1927 के पूर्व प्रजामण्डल आन्दोलन का स्वरूप क्षेत्रीय था। 1927 ई. में इस आन्दोलन ने एक अखिल भारतीय स्वात ग्रहण कर लिया। अखिल भारतीय देशी राज्य सम्मेलन (प्रजा मण्डल सम्मेलन, बम्बई में) 1927 में आयोजित किया गया। इसमें महत्वपूर्ण भूमिका मनिक लाल कोठारी, बलवन्त सिंह मेहता व जी.आर. अभयंकर ने निभायी। इसका अध्यक्ष रामचन्द्र राव था। इससे रियासतों में राष्ट्रीय आंदोलन ने जोर पकडा। 1935 का भारतीय शासन अधिनियम में एक संघ की स्थापना का प्रस्ताव था। इस संघ में देशी रियासतों के प्रतिनिधियों को मनोनीत करने की बात कही गयी न कि निर्वाचित करने की। इस बात को लेकर यह आन्दोलन बहुत तीव्र हो गया।
1937-38 तक कांग्रेस पार्टी ने इससे अपने को अलग रखा। 1938 के बाद कांग्रेस ने देशी रियासतों के आन्दोलन को राष्ट्रीय आन्दोलन का हिस्सा मान कर उसे अपना समर्थन दिया। कुशासन एवं अत्याचारों से मुक्त होने के लिए राज्यों की जनता रियासतों के विलय की मांग करने लगी।
1938-39 के वर्षों में आन्दोलन बहुत तीव्र हो गया। (1937 में कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों की ब्रिटिश राज्यों में स्थापना से प्रेरणा पाकर) ब्रिटिश शासन वाले भाग में चल रहे पूर्व के आन्दोलनों का देशी रियासतों मे विस्तार नहीं था लेकिन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का देशी रियासत क्षेत्रों में विस्तार कर दिया गया। इससे देशी रियासतों के प्रजा मण्डल आन्दोलन को बल मिल गया। अब ब्रिटिश विरोधी आन्दोलन के साथ इस आन्दोलन का विलय हो गया। भारत छोड़ो आन्दोलन की मांग व देशी रियासतों में उत्तरदायी सरकार की मांग की बातें जुड़ गयी।
1945-46 के काल में अंग्रेजों ने भारत छोड़ने का निर्णय लेने के बाद रियासत क्षेत्रों में प्रजातान्त्रिक व उत्तरदायी सरकार की मांग पीछे छूट गयी तथा अब वहां की जनता देशी रियासतों की भारत में विलय की मांग अपने शासकों से करने लगी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जूनागढ़ एवं हैदराबाद की जनता द्वारा किये गये आन्दोलन के बाद ही जूनागढ़ एवं हैदराबाद का भारत संघ में विलय संभव हो पाया। इसके अलावा अन्य राज्यों का विलय भी वहां की जनता के दबाव के कारण ही संभव हो पाया। देशी रियासतों के लोगों की इस मांग ने पटेल के देशी रियासतों के विलय के कार्य को आसान कर दिया क्योंकि वहां की जनता इस विलय के लिए तैयार थी।
प्रश्न: 1920 के दशक बाद देशी रियासतों में प्रजा मण्डल आंदोलन का विकास एवं कांग्रेस के दृष्टिकोण की विवेचना कीजिए।
उत्तर: 1920 एवं 1930 के दशक में प्रजा मण्डल आंदोलन
ऽ नागपुर सत्र (1920 ई.) में देशी रियासतों के प्रति स्पष्ट नीति के प्रतिपादन का प्रथम प्रयास।
ऽ नीति में गांधीजी के दृष्टिकोण व विचार का प्रभाव स्पष्ट था।
ऽ घोषणा की गयी कि देशी रियासत क्षेत्रों की परिस्थितियाँ ब्रिटिश भारत क्षेत्रों से भिन्न हैं।
ऽ कांग्रेस संस्था के रूप में इस क्षेत्र के आन्दोलन में हिस्सा नहीं लेगी।
ऽ देशी रियासत की प्रजा कांग्रेस आन्दोलन में हिस्सा ले सकती है।
ऽ देशी रियासत की प्रजा स्वयं की शक्ति के माध्यम से आन्दोलन की प्रगति को सुनिश्चित करें।
ऽ कांग्रेस की ओर से नैतिक समर्थन।
ऽ कांग्रेस का सदस्य व्यक्तिगत रूप से आन्दोलन में हिस्सा ले सकता है।
प. 1939 ई. में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद के लुधियाना सत्र में जवाहरलाल नेहरू ने अध्यक्षता थी।
1930 एवं 1940 के दशक में प्रजा मण्डल आंदोलन
ऽ देशी रियासत क्षेत्रों में प्रगतिशील आन्दोलन का विकास। अब तक यह अछूता था। (विस्तार) लम्बे समय काल से यह प्रगतिशील विचारों से प्रभावित नहीं था। इन क्षेत्रों में प्रगतिशील विचारों का प्रसार एक धीमी प्रक्रिया थी। इस आन्दोलन से प्रजातान्त्रिक चेतना आदर्शों व मूल्यों का प्रसार हुआ।
ऽ देशी रियासत क्षेत्रों में प्रजातान्त्रिक आन्दोलन से सम्पूर्ण भारत क्षेत्र में राष्ट्रीय प्रजातान्त्रिक क्षेत्र में एकरूपता की स्थितियां आ गयी। सम्पूर्ण भारत के एकता व अखण्डता के विकास की पृष्ठभूमि का निर्माण।
ऽ इस आन्दोलन का देशी-रियासतों के शासकों पर एक प्रभाव। आन्दोलन से शासकों पर एक नवीन दबाव व कुछ रियासतों में सुधारों के कुछ प्रयास।
ऽ प्रजा मण्डल आन्दोलन से देशी रियासतों में राष्ट्रीय संघर्ष की रणनीतियों का प्रसार हुआ। कई क्षेत्रों में सत्याग्रह। उदाहरण- हैदराबाद सत्याग्रह, जयपुर सत्याग्रह आदि में देखा जा सकता है। राजकोट सत्याग्रह इसका महत्वपूर्ण उदाहरण है।
ऽ कांग्रेस के साम्राज्यावाद विरोधी रणनीति को बल मिला। 1942 ई. में भारत छोड़ो आन्दोलन का विस्तार देशी रियासतों क्षेत्रों में हो गया। ‘भारत छोड़ो‘ का उद्देश्य मात्र ब्रिटिश भारत तक सीमीत नहीं रहा।
ऽ देशी रियासतों के भारत मे विलय की प्रक्रिया में एक व्यापक जनसमर्थन का आधार तैयार हुआ। (विस्तार)
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