हिंदी माध्यम नोट्स
विऔद्योगीकरण क्या है | निरुद्योगीकरण से आपका क्या तात्पर्य है | निरूद्योगी करण से आप क्या समझते हैं
निरूद्योगी करण से आप क्या समझते हैं विऔद्योगीकरण क्या है Industrialisation in hindi | निरुद्योगीकरण से आपका क्या तात्पर्य है ?
विऔद्योगीकरण (Industrialisation)
किसी भी देश के उद्योगों के क्रमिक ह्रास अथवा विघटन को ही विऔद्योगीकरण कहा जाता है। भारत में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत हस्तशिल्प उद्योगों का पतन सामने आया. जिसके परिणामस्वरूप कृषि पर जनसंख्या का बोझ बढ़ता गया। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत विऔद्योगीकरण को प्रेरित करने वाले निम्नलिखित घटक माने जाते हैं –
ऽ प्लासी और बक्सर के युद्ध के बाद ब्रिटिश कंपनी द्वारा गुमाश्तों के माध्यम से बंगाल के हस्तशिल्पियों पर नियंत्रण स्थापित करना अर्थात् उत्पादन प्रक्रिया में उनके द्वारा हस्तक्षेप करना।
ऽ 1813 ई. के चार्टर एक्ट के द्वारा भारत का रास्ता ब्रिटिश वस्तुओं के लिए खोल दिया गया।
ऽ भारतीय वस्तुओं पर ब्रिटेन में अत्यधिक प्रतिबंध लगाये गये. अर्थात् भारतीय वस्तुओं के लिए ब्रिटेन का द्वार बंद किया जा रहा था।
ऽ भारत में दूरस्थ क्षेत्रों का भेदन, रेलवे के माध्यम से किया गया। दूसरे शब्दों में, एक ओर जहाँ दूरवर्ती क्षेत्रों में भी ब्रिटिश फैक्ट्री उत्पादों को पहुँचाया गया, वहीं दूसरी ओर कच्चे माल को बंदरगाहों तक लाया गया।
ऽ भारतीय राज्य भारतीय हस्तशिल्प उद्योगों के बड़े संरक्षक रहे थे, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्यवादी प्रसार के कारण ये राजा लुप्त हो गये। इसके साथ ही भारतीय हस्तशिल्प उद्योगों ने अपना देशी बाजार खो दिया।
ऽ हस्तशिल्प उद्योगों के लुप्तप्राय होने के लिए ब्रिटिश सामाजिक व शैक्षणिक नीति को भी जिम्मेदार ठहराया जाता है। इसने एक ऐसे वर्ग को जन्म दिया जिसका रुझान और दृष्टिकोण भारतीय न होकर ब्रिटिश था। अतः अंग्रेजी शिक्षाप्राप्त इन भारतीयों ने ब्रिटिश वस्तुओं को ही संरक्षण प्रदान किया।
भारत में 18वीं सदी में दो प्रकार के हस्तशिल्प उद्योग अस्तित्व में थे- ग्रामीण उद्योग और नगरीय दस्तकारी। भारत में ग्रामीण हस्तशिल्प उद्योग यजमानी व्यवस्था (Yajamani System) के अंतर्गत संगठित था। नगरीय हस्तशिल्प उद्योग अपेक्षाकृत अत्यधिक विकसित थे। इतना ही नहीं पश्चिमी देशों में इन उत्पादों को अच्छी-खासी माँग थी। ब्रिटिश आर्थिक नीति ने दोनों प्रकार के हस्तशिल्प उद्योगों को प्रभावित किया। नगरीय हस्तशिल्प उद्योगों में सूती वस्त्र उद्योग अत्यधिक विकसित था। कृषि के बाद भारत में सबसे अधिक लोगों को रोजगार सूती वस्त्र उद्योग द्वारा ही प्राप्त होता था। उत्पादन को दृष्टि से भी कृषि के बाद इसी क्षेत्र का स्थान था, किंतु ब्रिटिश माल की प्रतिस्पर्धा तथा भेदभावपूर्ण ब्रिटिश नीति के कारण सूती वस्त्र उद्योग का पतन हुआ। अंग्रेजों के आने से पूर्व बंगाल में जूट के वस्त्र की बुनाई भी होती थी। लेकिन 1835 ई. के बाद बंगाल में जूट हस्तशिल्प की भी ब्रिटिश मशीनीकृत उद्योग के उत्पाद के साथ . प्रतिस्पर्धा हुई जिससे बंगाल में जूट हस्तशिल्प उद्योग को धक्का लगा। उसी प्रकार कश्मीर शाल एवं चादर के लिए प्रसिद्ध था। उसके उत्पादों की माँग पूरे विश्व में भी थी. किंतु 19वीं सदी में स्कॉटिश उत्पादों की प्रतिस्पर्धा के कारण कश्मीर में शाल उत्पादन को भी धक्का लगा। ब्रिटिश शक्ति की स्थापना से पूर्व भारत में कागज उद्योग का भी प्रचलन था. किंतु 19वीं सदी के उत्तरार्ध में चार्ल्स वुड की घोषणा से स्थिति में नाटकीय परिवर्तन आया। इस घोषणा के तहत स्पष्ट रूप से यह आदेश जारी किया गया था कि भारत में सभी प्रकार के सरकारी कामकाज के लिए कागज की खरीद ब्रिटेन से ही होगी। ऐसी स्थिति में भारत में कागज उद्योग को धक्का लगना स्वभाविक ही था। प्राचीन काल से ही भारत बेहतर किस्म के लोहे और इस्पात के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध था. किंतु ब्रिटेन से लौह उपकरणों के आयात के कारण यह उद्योग भी प्रभावित हुए बिना न रह सका।
भारत में विऔद्योगीकरण की अवधारणा को औपनिवेशिक इतिहासकार स्वीकार नहीं करते। उदाहरणार्थ, सूती वस्त्र उद्योग पर ब्रिटिश नीति के प्रभाव की व्याख्या करते हुए मॉरिस डी-मॉरिस जैसे ब्रिटिश विद्वान विऔद्योगीकरण की अवधारणा को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि ब्रिटिश नीति ने भारत में हस्तशिल्प उद्योग को प्रोत्साहन दिया। उनका तर्क है कि ब्रिटेन के द्वारा भारत में यातायात और संचार व्यवस्था का विकास किया गया तथा अच्छी सरकार दी गयी. जिसके परिणामस्वरूप यहाँ प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि हुई। अतः भारत के बाजार का विस्तार हुआ। ऐसे में भारतीय हस्तशिल्प उद्योग उस मांग को पूरा नहीं कर सकता था। मुद्रास्फीति और मूल्यवृद्धि के रूप में इसका स्वाभाविक परिणाम देखने में आता है। ऐसी स्थिति में ब्रिटेन से अतिरिक्त वस्तुएँ लाकर इस बाजार की जरूरतों को पूरा किया गया। इस संबंध में दूसरा तर्क यह भी दिया जाता है कि ब्रिटेन ने भारत में ब्रिटेन से केवल वस्त्रों का ही आयात नहीं किया वरन् सूत का भी आयात किया। इसके परिणामस्वरूप शिल्पियों को सस्ती दर पर सूत उपलब्ध हुआ, जिससे सूती वस्त्र उद्योग को बढ़ावा मिला। लेकिन, मॉरिस डी-मॉरिस के इस तर्क से सहमत नहीं हुआ जा सकता है।
हमारे पास कोई ऐसे निश्चित आँकड़े नहीं है, जिनके आधार पर यह कहा जा सके कि उस काल में भारत में प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि हुई। हालांकि यह सत्य है कि ब्रिटेन से भारत में वस्त्र के साथ-साथ सूत भी लाया गया, लेकिन यह भी सही है कि सूत से भी सस्ती दर पर वस्त्र लाये गये। अतः भारतीय शिल्पियों के हित-लाभ का तो प्रश्न ही नहीं उठता है।
विऔद्योगिकरण की समीक्षा करने पर इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि इस काल में सभी प्रकार के हस्तशिल्प उद्योगों का पतन नहीं हुआ तथा कुछ उद्योग ब्रिटिश नीति के दवाब के बावजूद भी वने रहे।
इसके निम्नलिखित कारण थे :
(1) भारत में कुछ हस्तशिल्प उत्पाद ऐसे थे जिनका विकल्प ब्रिटिश उत्पादन हो ही नहीं सकते थे। उदाहरण के लिए. बढ़ईगिरी. कुंभकारी. लुहारगिरी आदि।
(2) उस काल में भारतीय बाजार एकीकृत नहीं था अतः कुछ क्षेत्रों में चाहकर भी ब्रिटिश उत्पाद नहीं पहुँच सके।
(3) बढ़ती हुई बेरोजगारी के कारण आर्थिक रूप से लाभकारी न होने पर भी कुछ हस्तशिल्प उद्योग अस्तित्व में बने रहे।
यदि हम विश्व के संपूर्ण औद्योगिक उत्पाद में भारत के अंशदान पर नजर डालें तो ज्ञात होगा कि 1800 ई. में यह 19.6 प्रतिशत था। 1860 ई. में यह कम होकर 8.6 प्रतिशत तथा 1913 ई. में यह मात्र 1.4 प्रतिशत रह गया। इस गिरावट का कारण पश्चिमी देशों में होने वाला औद्योगीकरण भी था क्योंकि हस्तशिल्प उद्योगों से आधुनिक संगठित फैक्ट्री का उत्पादन कहीं अधिक था। लेकिन एक महत्त्वपूर्ण कारण के रूप में भारत में प्रतिव्यक्ति औद्योगिक उत्पादन की औसत दर में गिरावट को माना जाता है।
जहाँ तक हस्तशिल्प उद्योगों के पतन का सवाल है तो हम यह जानते हैं कि हस्तशिल्प उद्योग एक प्राक-पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली (Pre-capitalist Production System) है। अतः पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली (Capitalist Production System) के विकास के बाद इसका कमजोर पड़ जाना स्वाभाविक ही है। इस पूरी प्रक्रिया का एक दुःखद पहलू यह भी है कि पश्चिम में तो हस्तशिल्प उद्योगों के पतन की क्षतिपूर्ति आधुनिक उद्योगों की स्थापना के द्वारा कर दी गयी. लेकिन भारत में ऐसा नहीं हो सका। अतः जहाँ, पश्चिम में बेरोजगार शिल्पी आधुनिक कारखानों में काम में लग गए. वहीं भारत में बेरोजगार शिल्पी ग्रामीण क्षेत्र में पलायन कर गये। परिणामतः कृषि पर जनसंख्या का अधिभार बढ़ता चला गया। निष्कर्षतः ग्रामीण गरीबी और ग्रामीण बेरोजगारी बढ़ती गई। कुल मिलाकर भारत का पारंपरिक ढाँचा टूट ही गया और पूंजीवादी संरचना ने किसी भी प्रकार से उसकी भरपाई नहीं की।
कृषि का व्यावसायीकरण (Commercialisation of Agriculture)
एडम स्मिथं के अनुसार व्यावसायीकरण उत्पादन को प्रोत्साहन देता है तथा इसके परिणामस्वरूप समाज में समृद्धि आती है किंतु औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत लाये गए व्यावसायीकरण ने जहाँ ब्रिटेन को समृद्ध बनाया, वहीं भारत में गरीबी बढ़ी। ‘कृषि के क्षेत्र में व्यावसायिक संबंधों तथा मौद्रिक अर्थव्यवस्था के प्रसार’ को ही कृषि के व्यावसायीकरण की संज्ञा दी जाती है। गौर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि कृषि में व्यावसायिक संबंध तथा कृषि का मौद्रीकरण (Monetisation of Agriculture) कोई नई घटना नहीं थी क्योंकि मुगलकाल में भी कृषि अर्थव्यवस्था में ये कारक विद्यमान थे। राज्य तथा जागीरदार दोनों के द्वारा राजस्व की वसूली में अनाजों के बदले नगद वसूली पर बल दिए जाने को इसके कारण के रूप में देखा जाता है। यह बात अलग है ब्रिटिश शासन में इस प्रक्रिया को और भी बढ़ावा मिला। रेलवे का विकास तथा भारतीय अर्थव्यवस्था का विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ जाना भी इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कारक सिद्ध हुआ। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत कृषि के व्यावसायीकरण को जिन कारणों ने प्रेरित किया वे निम्नलिखित थे-
(क) भारत में भू-राजस्व की रकम अधिकतम निर्धारित की गयो थो। परम्परागत फसलों के उत्पादन के आधार पर भू-राजस्व की इस रकम को चुका पाना किसानों के लिए संभव नहीं था। ऐसे में नकदी फसल के उत्पादन की ओर उनका उन्मुख होना स्वाभाविक ही था।
(ख) ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति आरंभ हो गई थी तथा ब्रिटिश उद्योगों के लिए बड़ी मात्रा में कच्चे माल की जरूरत थी। यह सर्वीविदित है कि औद्योगीकरण के लिए एक सशक्त कृषि आधार का होना जरूरी है। ब्रिटेन में यह आधार न मौजूद हो पाने के कारण ब्रिटेन में होनें वाले औद्योगीकरण के लिए भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था का व्यापक दोहन किया गया।
(ग) औद्योगीकरण के साथ ब्रिटेन में नगरीकरण की प्रक्रिया को भी बढ़ावा मिला था। नगरीय जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बड़ी मात्रा में खाद्यानं की आवश्यकता थी, जबकि ब्रिटेन खाद्यान के मामले में आप्रत्मनिर्भर नहीं था। अतः भारत से खाद्यान्न के निर्यात को भी इसके एक कारण के रूप में देखा जाता है।
(घ) किसानों में मुनाफा प्राप्त करने की उत्प्रेरणा भी व्यावसायिक खेती को प्रेरित करने वाला एक कारक माना जाता है।
इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि औपनिवेशिक सरकार ने भारत में उन्हीं फसलों के उत्पादन को बढ़ावा दिया जो उनकी औपनिवेशिक मांग के अनुरूप थीं। उदाहरण के लिए – कैरिबियाई देशों पर नील के आयात की निर्भरता को कम करने के लिए उन्होंने भारत में नील के उत्पादन को प्रोत्साहन दिया। इस उत्पादन को तब तक बढ़ावा दिया जाता रहा जब तक नील की माँग कम नहीं हों गयी। नील की माँग में कमी सिंथेटिक रंग के विकास के कारण आई थी। उसी प्रकार, चीन को निर्यात करने के लिए भारत में अफीम के उत्पादन पर जोर दिया गया। इसी प्रकार इटैलियन रेशम पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए बंगाल में मलबरी रेशम के उत्पादन को बढ़ावा दिया गया। भारत में छोटे रेशे वाले कपास का उत्पादन होता था जबकि ब्रिटेन और यूरोप में बड़े रेशे वाले कपास की मांग थी। इस माँग की पूर्ति के लिए महाराष्ट्र में बड़े रेशे वाले कपास के उत्पादन को प्रोत्साहित किया गया। उसी तरह ब्रिटेन में औद्योगीकरण और नगरीकरण की आवश्यकताओं को देखते हुए कई प्रकार की फसलों के उत्पादन पर बल दिया गया। उदाहरणार्थ, चाय और कॉफी बागानों का विकास किया गया। पंजाब में गेहूँ. बंगाल में पटसन तथा दक्षिण भारत में तिलहन के उत्पादन पर जोर देने को इसी क्रम से जोड़कर देखा जाता है। कृषि के व्यावसायीकरण के प्रभाव पर एक दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भले ही सीमित रूप में ही सही, किंतु भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका सकारात्मक प्रभाव भी देखा गया। इससे स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ी लेकिन इसी के परिणामस्वरूप अखिल भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास हुआ। किसानों को इस व्यावसायीकरण से कुछ खास क्षेत्रों में. उदाहरण के लिए दक्कन का कपास उत्पादन क्षेत्र तथा कृष्णा. गोदावरी एवं कावेरी डेल्टा क्षेत्र में, लाभ भी प्राप्त हुआ।
यदि हम इसके व्यापक प्रभाव पर दृष्टिपात करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह अधिकांश भारतीय किसानों पर थोपी गयी प्रक्रिया थी। औपनिवेशिक सत्ता के अंतर्गत लायी गई इस व्यावसायीकरण की प्रक्रिया ने भारत को अकाल और भुखमरी के अलावा कुछ नहीं दिया। वस्तुतः भारतीय किसान मध्यस्थ और बिचैलियों के माध्यम से एक अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर निर्भर थे। इस व्यवस्था का एक अन्य पहलू यह भी था कि व्यावसायिक फसलों (Commercial Crops) से लाभ प्राप्त करने वाला व्यवसायी अपनी जिम्मेदारी अपने से नीचे वाले पर डालने का प्रयास करता और अंततः यह सारा दवाब किसानों के ऊपर पड़ता। दूसरे शब्दों में, जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में व्यावसायिक फसलों की मांग में तेज वृद्धि होती तो इसका लाभ मध्यस्थ और बिचैलियों को प्राप्त होता, लेकिन इसके विपरीत जब बाजार में मंदी आती तो इसकी मार किसानों को झेलनी पड़ती अर्थात् लाभ बिचैलियों को और नुकसान हर स्थिति में किसानों को। दूसरे. व्यावसायिक फसलों की खेती से गरीबों के आहार यानी मोटे अनाजों का उत्पादन कम हो गया। इसके परिणामस्वरूप भुखमरी में वृद्धि हुई। कोयम्बटूर के एक किसान ने तो यह तक कह डाला कि हम कपास इसलिए उपजाते हैं क्योंकि इसे हम खा नहीं सकते। दूसरी ओर. नगदी फसलों (Cash Crops) की खेती के लिए निवेश की भी आवश्यकता पड़ती थी। किसान इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए साहूकारों व महाजनों से कर्ज लेते थे. जिसके परिणामस्वरूप ग्रामीणों पर ऋण बोझ बढ़ता गया। इसीलिए ऐसा माना जाता है कि भारतीय किसानों ने ठीक वैसा दुःख भोगा जैसा कि हम जावा (Dutch Culture System) में देखते हैं। जावा में किसानों को अपनी भूमि के एक खास भाग में कॉफी और गन्ने की खेती करनी पड़ी तथा पूरा उत्पादन राजस्व के रूप में सरकार को देना पड़ा।
ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था का भारतीय ग्रामीण जीवन पर प्रभाव
(Impact of British Land Revenue System on Indian Rural Life)
आरम्भ से ही कंपनी भू-राजस्व के रूप में अधिकतम राशि निर्धारित करना चाहती थी। अतः आरम्भ में वारेन हेस्टिस के द्वारा फार्मिंग पद्धति की शुरूआत की गयी, जिसके तहत भू-राजस्व की वसूली का अधिकार ठेके के रूप में दिया जाने लगा था। इसका परिणाम यह निकला कि बंगाल में किसानों का शोषण हुआ तथा कृषि उत्पादन में हास हुआ। आगे कार्नवालिस के द्वारा एक नवीन प्रयोग स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement) के रूप में किया गया। इसके माध्यम से जमींदार मध्यस्थों की भूमि का स्वामी तथा स्वतत्र किसानों को अधीनस्थ रैय्यतों के रूप में तब्दील कर दिया गया। सबसे बढ़कर. सरकार की राशि सदा के लिए निश्चित कर दी गयी तथा रैय्यतों को जमींदारों की कृपा पर छोड़ दिया गया। राजस्व के अधिकतम निर्धारण ने ग्रामीण समुदाय को कई तरह से प्रभावित किया। इनमें से कुछ प्रभाव इस प्रकार हैं – (1) वे नकदी फसलों के उत्पादन की ओर उन्मुख हुये, परन्तु कृषि के व्यावसायीकरण के बावजूद भी कोई सुधार नहीं हुआ क्योंकि इसका मुख्य अंश जमींदार और बिचैलियों को प्राप्त हुआ। (2) भू-राजस्व की राशि अधिकतम रूप में होने के कारण किसानों के पास ऐसा कोई अधिशेष नहीं बच पाता था जिसका कि वे फसल नष्ट होने के पश्चात उपयोग कर सकें। अतः ग्रामीण क्षेत्रों में अकाल एवं भुखमरी और भी बढ़ती गई। (3) जमींदारों को कृषि क्षेत्र में निवेश करने में कोई रुचि नहीं थी तथा कृषक निवेश करने की स्थिति में नहीं थे। अतः कृषि पिछड़ती चली गयी। उत्तर भारत के ग्रामीण जीवन पर स्थायी बंदोबस्त के परिणामस्वरूप पड़ने वाले प्रभाव का बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्रण प्रेमचंद ने अपने उपन्यास गोदान में किया है।
स्थायी बंदोबस्त की तरह रैय्यतवाड़ी तथा महालवाड़ी भू-राजस्व प्रबंधन से भी तत्कालीन ग्रामीण समुदाय दुष्प्रभावित हुआ। उपर्युक्त भू-राजस्व प्रबंधनों पर यूरोपीय विचारधारा तथा दृष्टिकोण का व्यापक प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है। उपर्युक्त सभी पद्धतियाँ ब्रिटिश औपनिवेशिक हितों तथा भारतीय परिस्थितियों एवं अनुभव पर ही आधारित रही हैं। कुछ ब्रिटिश पक्षधर ग्रामीण क्षेत्र में होने वाले परिवर्तनों को पूँजीवादी रूपांतरण से जोड़कर देखते हैं। परन्तु. ब्रिटिश नीति ने गाँव को और भी ऋण के बोझ तले कुचला और ग्रामीण लोगों को और भी निर्धन बनाया। ब्रिटिश भू-राजस्व नीति के कारण कृषि कुछ इस तरह पिछड़ी कि स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में औद्योगीकरण को कृषि का समर्थन प्राप्त नहीं हो सका। निष्कर्षतः हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि स्वतन्त्रता के 60 वर्षों के पश्चात् भी-भारतीय ग्रामीण जीवन पर ब्रिटिश भू-राजस्व नीति का प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगत होता है।
Recent Posts
सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke rachnakar kaun hai in hindi , सती रासो के लेखक कौन है
सती रासो के लेखक कौन है सती रासो किसकी रचना है , sati raso ke…
मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी रचना है , marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the
marwar ra pargana ri vigat ke lekhak kaun the मारवाड़ रा परगना री विगत किसकी…
राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए sources of rajasthan history in hindi
sources of rajasthan history in hindi राजस्थान के इतिहास के पुरातात्विक स्रोतों की विवेचना कीजिए…
गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है ? gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi
gurjaratra pradesh in rajasthan in hindi गुर्जरात्रा प्रदेश राजस्थान कौनसा है , किसे कहते है…
Weston Standard Cell in hindi वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन
वेस्टन मानक सेल क्या है इससे सेल विभव (वि.वा.बल) का मापन Weston Standard Cell in…
polity notes pdf in hindi for upsc prelims and mains exam , SSC , RAS political science hindi medium handwritten
get all types and chapters polity notes pdf in hindi for upsc , SSC ,…