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वायु से बजने वाले यंत्र कौन कौनसे है | वाद्ययंत्रों में वायु की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सुषिर वाद्य यंत्र कौन-कौन से हैं
वाद्ययंत्रों में वायु की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आप कैसे प्रमाणित करेंगे? वायु से बजने वाले यंत्र कौन कौनसे है ? सुषिर वाद्य यंत्र कौन-कौन से हैं
विभिन्न वाद्ययंत्र
संगीत के उपकरणों की शुरुआत सामान्य जीवन में विभिन्न अनुप्रयोगों तथा क्रिया-कलापों के क्रम में हुई है। उदाहरण के तौर पर-शुरू में घड़े और अन्य बर्तनों को ढोल की तरह बजाया जाता था। इन वाद्यों के कई प्रकार के उपयोग हैं। प्राचीन काल में शंख का प्रयोग युद्ध में विजय की घोषणा या युद्ध प्रारंभ के समय किया जाता था। आज भी इसका प्रयोग धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान किया जाता है। संगीत उपकरण मनुष्य की सामाजिक धार्मिक परंपरा, जीव-जंतु, वनस्पति के भौगोलिक वितरण के बारे में हमें ऐतिहासिक जागकारियां प्रदान करते हैं। अगर कोई समुदाय एक खास किस्म का संगीत उपकरण प्रयोग में लाता है तो उससे उसके समाज में व्याप्त शुरुआती निषेधों का पता लगाया जा सकता है। उपकरण के निर्माण में लगे सामान से उस क्षेत्र में पाए जागे वाले जीव-जंतुओं तथा वनस्पतियों के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है।
संगीत का अध्ययन तथा संगीत के किसी सिद्धांत या व्याकरण की उत्पत्ति इन उपकरणों के बिना संभव नहीं है। इसके पीछे कारण यह है कि ध्वनि को सीधे नहीं मापा जा सकता। संगीत के विभिन्न पक्षों के अध्ययन के लिए कई तरह के उपकरण आवश्यक हैं। विभिन्न उपकरणों के प्रयोग में वृद्धि या कमी का असर संगीत के विकास पर पड़ता है।
लोक संगीत तथा शास्त्रीय संगीत में प्रयोग हो रहे उपकरणों को मिलाकर तकरीबन 500 संगीत उपकरण मनुष्य को ज्ञात हैं। इनका वर्गीकरण यूं तो कई प्रकार से किया जा सकता है, किंतु नाट्यशास्त्र के रचयिता भरत मुनि द्वारा निर्धारित मानदंड आज भी मान्य हैं। इनका समय 200 ई.पू. से लेकर 400 ई.पू. के बीच में माना जाता है।
ढोल
इसको ‘अवगद्य’ वाद्य या चारों तरफ से ढका हुआ संगीत उपकरण कहते हैं। इसे मेम्ब्रानोफोन के नाम से भी पुकारा जाता है। खाना बनाने और उसे सुरक्षित रखने के क्रम में इस खोखले उपकरण की खोज हुई। ढोल हमेशा खाल से ढंका रहता है तथा संगीत एवं नृत्य में पूरक वाद्य के रूप में इसका प्रयोग किया जाता है। सभ्यता के शुरुआती दिनों में जमीन में बने गड्ढे को खाल से ढंककर ध्वनि करने के लिए प्रयोग किया जाता था। बाद में यह लकड़ी तथा मिट्टी के भी बनने लगे। ढोल को उसके आकार, उसकी संरचना और उसे बजागे के क्रम में किस स्थिति में रखा गया, इस आधार पर उसे वर्गीकृत किया जा सकता है।
खुले ढोल का आकार वृत्ताकार होता है। यह लकड़ी या धातु के फ्रेम का बना होता है। लोकसंगीत में इसका सामान्य रूप डफ है (इसे डफली या डपपु भी कहते हैं)। राजस्थान में इसे घेरा, दक्षिण में तप्पत्ताई, तप्पेत या तप्पत्ता तथा ओडिशा में ‘चेंगु’ कहा जाता है। दक्षिण में ‘सूर्य पिरई’ तथा ‘चंद्र पिरई’ उत्तर में ‘खंजरी’ तथा दक्षिण में ‘खंजीरा’ भी प्रसिद्ध ढोल हैं।
लद्दाख के ‘ग्ना’ की तरह दो सतहों वाले ढोल शुरू से लकड़ी के बनते रहे हैं तथा ये शंकु के आकार के होते थे। छोटे आकार वाले को ढोलक तथा बड़े आकार वाले को ‘ढोले’ कहा जाता है। ढोले का आकार वैसे बैरल के समान होता है। प्राचीन काल में प्रयोग में आने वाला ‘भेरी’ तथा केरल का प्रचलित ‘चेंदा’ इसी श्रेणी में आता है। इस तरह के कुछ ढोल ‘मृदंग’ भी कहलाते हैं। दक्षिण में इसे ‘मृदंगम’, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ‘पखावज’, मणिपुर में ‘पंगु’ तथा पश्चिम बंगाल में ‘श्री खोले’ कहा जाता है। दक्षिण भारत में इसे ‘तबिल’ भी कहते हैं। कर्नाटक के संगीतमय सम्मेलनों में मृदंगम का ही प्रयोग होता है। कथकली नृत्य के लिए ‘शुद्धा मंडलम’ बजाया जाता है। इसकी दोनों सतहें अलग-अलग ढंग से बनी होती हैं। इसकी बाकी सतह पर एक सादा झिल्ली (टोपी) लगी रहती है। दायीं सतह पर ‘सोरू’ नाम से एक काला मिश्रण बजागे से ठीक पहले लगाया जाता है। लकड़ी से बनने वाले ‘पखावज’ का जिक्र ‘आईन-ए-अकबरी’ में भी मिलता है। यह बैरेल के आकार का होता है तथा इसमें घूमने वाला शंकुनुमा खण्ड लगा होता है। स्वराघात में सुधार के लिए इसकी प्लेटों पर एक हथौड़े से चोट की जाती है। ‘मृदंगम’ में ‘सोरू’ की जगह ‘स्याही’ का प्रयोग किया जाता है। इसके प्रमुख घरानों में 19वीं शताब्दी के कुदऊ सिंह एवं नाथ घराने आते हैं।
दो सतहों वाले ढोल का एक और प्रकार है जिसे डमरू, बुडबुडके, कुडुकुडुपे के नाम से विभिन्न स्थानों में जागा जाता है। इस श्रेणी में तिब्बत का ‘नगा छंग’, दक्षिण का ‘तूडी’ तथा केरल का ‘इदारा’ आता है।
सुराही के आकार के ढोल भी देखने को मिलते हैं। कश्मीर के ‘टुंबकनरी’, तमिलनाडु के ‘जमुकु’ तथा आंध्र प्रदेश के ‘बुरा’ को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। ढोल का एक प्रकार ‘दंदुभी’ भी है। संथाल क्षेत्र में इसे ‘धुमसा’ ओडिशा में ‘निशान’ तथा उत्तरी भारत के लोक कलाकार इसे ‘नगाड़ा’ कहते हैं। ढोल का ही एक रूप ‘तबला’ है, जो समय के साथ-साथ काफी लोकप्रिय होता जा रहा है। महीन और मधुर आवाज के कारण यह वाद्य ख्याल गायकी में अब पखावज की जगह ले रहा है। हालांकि तबले की उत्पत्ति के बारे में विवाद है। तबला एक तरह से दो ढोलों का एक जोड़ा है। दायीं ओर वाला तबला लकड़ी का बना होता है तथा इसके केंद्र में एक विशेष लेप लगा होता है। बायीं ओर वाले को डग्गर, डुग्गी या बचान कहा जाता है। दक्षिण भारत में ‘बुरबुरी’ नाम के घर्षण वाले ढोल भी चलते हैं, किंतु इन्हें अपवाद ही माना जा सकता है।
वायु से बजने वाले यंत्र
इन्हें सुशीर वाद्य, खाली वाद्य यंत्र या एयरोफोन के नाम से भी जागा जाता है। एयर काॅलम में कंपन की वजह से इन यंत्रों से सुरीली आवाज निकलती है। इनमें ऐसी कोई चीज नहीं लगी होती, जिससे ध्वनि को उत्पन्न या नियंत्रित किया जा सके। इसकी पहली श्रेणी में ‘तुरही’ को रखा जाता है। शुरू में इसके लिए जागवरों के सींगों का इस्तेमाल किया जाता था। इसे बजागे के लिए होठों का प्रयोग किया जाता है। इससे हवा नियंत्रित होती है। प्राचीन काल में तुरही को सीधे मुंह से फूंक मारी जाती थी। अब इसके लिए माउथपीस जैसी चीजें आ गई हैं। बगल से या किनारे से फूंकी जागे वाली तुरही भी उपलब्ध है। इसके लिए सींग तथा शंख का प्रयोग होता है। सींग से बनी तुरही का उल्लेख प्राचीन काल से ही मिलता है। जगजातीय समुदाय के लोकसंगीत में इसका प्रयोग होता रहा है। भील जगजाति में इसे ‘सिंगी’, मुरिया में ‘कोहुकु’ तथा उत्तर-पूर्व में ‘रेली-की’ कहते हैं। उत्तर प्रदेश में हिरण के सींग से ‘सिंगी’ बनती है। दक्षिण भारत में तांबे एवं पीतल की बनी अंग्रेजी अक्षर ‘सी’ के आकार की तुरही, कोम्बु, ‘एस’ के आकार का कोम्बु (इसे बंका, बंकया, बरगु, रन-सिंगा, नरसिंगा, तुरी के नाम से भी जागा जाता है) भी देखने को मिलता है। भारतीय शंख या तुरही पूजा, लोकसंगीत व नृत्य में खूब प्रयोग होती है। शुरू में इसका आकार सीधा भी होता था। इसे महाराष्ट्र में ‘भोंगल’, ओडिशा में ‘कहल’, उत्तर प्रदेश में भेनटर, उत्तर हिमाचल क्षेत्र में ‘थंुचेने’ तथा प्रायद्वीपीय क्षेत्र में ‘तिरूचिन्नम’ के नाम से जागा जाता है।
ऐसा कहा जाता है कि बांसुरी की खोज आर्यों ने की। आमतौर पर यह बांस की बनती है। सीधी बांसुरी सबसे अधिक चलन में है। इसमें स्वराघात संशोधन स्वतः ही होता है। इसके बंद सिरे के पास वाले छिद्र में जब फूंक मारी जाती है तो यह बज उठती है। कुछ बांसुरियों का ऊपरी सिरा थोड़ा संकरा होता है। इसे बांसुरी या अलगोजा के नाम से पुकारते हैं। भारतीय बांसुरी को तमिलनाडु में मुरली, वंशी, पिलनकुझल, आंध्रप्रदेश में पिलनग्रोवी, कर्नाटक में ‘कोलालु’ के नाम से जागा जाता है।
वायु द्वारा बजने वाले वाद्य उपकरणों में कंपक भी लगे रहते हैं किसी में एक तो किसी में दो, किसी में एक भी नहीं। पहले किस्म के उपकरण में छिद्र के कारण कंपक काम करता है और हवा को नियंत्रित करता है। छिद्र के भाग से इसका कोई स्पर्श नहीं होता। एक कंपक वाले वाद्य यंत्र में बीन (पुंगी), तारपो (इसे घोघा, डोबरू तथा खोनगाडा भी कहा जाता है), टिटी या मशक (भारतीय बैगपाइप) तथा असम का पेपा आता है। दो कंपक वाले यंत्र में कर्नाटक संगीत का प्रमुख उपकरण ‘नगासवरम’ तथा शहनाई आती है। अब ये दोनों वाद्य यंत्र संगीत गोष्ठियों में भी प्रयुक्त होने लगे हैं। इसी कड़ी में मुखवीणा, सुंदरी, नफेटी तथा ओट्टु जैसे यंत्र भी आते हैं। बिना कंपक वाले वाद्य यंत्र वैसे कम होते हैं पर, इसमें हारमोनियम का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। हारमोनियम से स्वर लहरी तब निकलती है, जब इसकी कुंजियों पर अंगुलियों से दबाव बनाया जाता है। होता यह है कि इसके भीतर भरी हवा एक संकरे छिद्र से होकर बाहर निकलती है। पूर्वी भारत का खुंग या रूसम भी इसी श्रेणी का एक वाद्य यंत्र है।
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