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वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट किसने लागू किया , वर्नाकुलर प्रेस एक्ट कब लागू हुआ , क्यों लाया गया था?

जानिये वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट किसने लागू किया , वर्नाकुलर प्रेस एक्ट कब लागू हुआ , क्यों लाया गया था ?

प्रश्न : वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट के बारे में बताइए।
उत्तर : वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट 1878 में गवर्नर जनरल और वायसराय लॉर्ड लिटन द्वारा देशी भाषा समाचार पत्रों पर कठोर नियंत्रण के लिए लाया गया। इस अधिनियम का उद्देश्य भारतीय ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध द्रोहात्मक सामग्री को छापने एवं परिसंचरण करने पर सख्त पाबंदी लगाई गई। जिसे देशी भाषा समाचार पत्रों का मुख बंद करने वाला अधिनियम कहा जाता है। यह मुख्यतः सोमप्रकाश, अमृत बाजार पत्रिका, संवाद कोमुदी, बंग दर्शन आदि बंगाली समाचार पत्रों के विरुद्ध लाया गया था। इसे लार्ड रिपन ने रद्द कर दिया।
प्रश्न : ब्रिटिश शासन काल में धन निर्गमन से आप क्या समझते है ? भारत की अर्थव्यवस्था पर इसके क्या प्रभाव पड़े ?
उत्तररू भारत की संपत्ति और संसाधनों का एक हिस्सा अंग्रेजों द्वारा ब्रिटेन को भेज दिया जाता था और इसके बदले भारत को पर्याप्त आर्थिक, व्यापारिक अथवा भौतिक लाभ नहीं मिल रहा था। ऐसे धन को भारतीय राष्ट्रीय नेताओं तथा अर्थशास्त्रियों ने श्धन निर्गमश् की संज्ञा दी है। इस धन के निकास के कारण देश में पूंजी एकत्रित नहीं हो सकी, जिससे देश के औद्योगिक विकास की गति बहुत धीमी हो गयी। इससे भारत में रोजगार तथा आय की सम्भावनाओं पर अत्यधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इस कारण भारत एक निर्धन देश के रूप में परिणत हो गया।
प्रश्न : 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मुक्त व्यापार की नीति ने किस प्रकार भारतीय कपड़ा और कुटीर उद्योगों को हानि पहुंचायी ?
उत्तर : 19वीं शताब्दी औद्योगिक पूंजी का काल था अर्थात इस युग में उभरते हुए अंग्रेज उद्योगपतियों तथा व्यापारियों ने आक्रामक रुख अपनाया, जिसका आधार था- मुक्त व्यापार। उनके लगातार प्रचार तथा संसद सदस्यों के प्रभाव के कारण 1813 के चार्टर एक्ट द्वारा भारतीय व्यापार पर एकाधिकार समाप्त कर दिया गया। अब भारतीय व्यापार का स्वरूप बदल गया। अब तक भारत मुख्य रूप से निर्यात करने वाला देश था, परन्तु अब वह आयात करने वाला देश बन गया। बढ़िया एवं सस्ते अंग्रेजी सूती माल एवं वस्तुओं की भारतीय मण्डियों में बाढ़-सी आ गयी और देश का बुनकर एवं कुटीर उद्योग ठप्प हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक भारतीय दस्तकारी उद्योग लगभग पूर्णतः विनष्ट हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में रेलवे के विकास के परिणामस्वरूप ब्रिटिश उत्पादित माल देश के कोने-कोने में पहुंचने लगा, जिसके द्वारा भारतीय बाजारों में ब्रिटिश माल का स्थायी आधिपत्य स्थापित हो गया।

प्रश्न : भारत में लार्ड क्लाईव के समय से लेकर लार्ड लिटन के काल तक सिविल सेवा के विकास का क्रम बताइए ?
उत्तर : लोक सेवा शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन में उन कर्मचारियों के लिए किया जा असैनिक सेवा में थे। दीवानी कार्यों में लगे होने के कारण इन्हें सिविल सेवा कर्मचारी कहा जाता था। जिसमें अपरेन्टिस, जनियर व सीनियर मर्चेट आदि सम्मिलित किए जाते थे। क्लाईव के गर्वनर काल में इन पदों पर नियुक्त कर्मचारी का लोक सेवकों की संज्ञा दी। क्योंकि इन पदों पर नियुक्त होने से पहले प्रत्येक व्यक्ति को प्रसंविदा पर हस्ताक्षर करके पड़ते थे, जिसमें सेवा नियम शामिल थे।
प्रसविदा का उल्लंघन करने वालों पर अनुशासनात्मक कार्यवाही का प्रावधान किया। कार्नवालिस ने लोकसेवा में मौलिक परिवर्तन किए, उसके लोकसेवकों की व्यापारिक गतिविधियों पर पाबंदी लगा दी, वेतन में वृद्धि की तथा पदोन्नति में वरिष्ठता के सिद्धांत को मान्यता दी। इनसे लोक सेवा में ईमानदारी और कार्यकुशलता को बढ़ावा मिला।
वेलेजली ने लोक सेवक अधिकारियों के प्रशिक्षण हेतु कलकत्ता में श्फोर्ट विलियम कालेजश् की स्थापना की। 1805 में हरफोर्ड में श्ईस्ट इंडिया कॉलेजश् स्थापित किया तथा श्फोर्ट विलियम कालेज बंद कर दिया। 1809 में ईस्ट इंडिया कॉलेज की जगह श्हैलीबरी कॉलेजश् स्थापित किया, यह कंपनी के लोक सेवा अधिकारियों के प्रशिक्षण का केन्द्र बन गया। यह कॉलेज 1858 में कंपनी की समाप्ति के बाद बंद कर दिया तथा भारतीय लोक सेवा योग्यता के आधार पर सबके लिए खोल दी गई। इस लोक सेवा का सबसे बड़ा दोष था कि इसमें भारतीय को उच्च पदों से वंचित रखा गया। जबकि चार्टर एक्ट, 1833 एवं भारत सुधार अधिनियम, 1858 में ठीक इसके विपरीत प्रावधान किए गए थे अर्थात योग्यता को ही आधार बनाया गया था।
प्रसविदा सेवा में सदस्यों की संख्या अचानक नहीं बढ़ाई जा सकती थी, क्योंकि इनकी नियुक्ति बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स और बाद में ब्रिटिश क्राउन के माध्यम से होती थी, इसलिए इसके समानांतर अप्रसंविदा सेवा की शुरूआत की जिसमें आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु कर्मचारियों की भर्ती कंपनी द्वारा की जा सकती थी। इसमें यूरोपियन के साथ-साथ भारतीयों को भी नियुक्त किया जाता था। बैंटिक के काल में इस सेवा को औपचारिक मान्यता प्रदान की।
सत्येन्द्र नाथ ठाकुर का प्रसविदा सेवा में चयन 1864 में हुआ। वे पहले भरतीय आईसीएस बने। प्रारंभ में प्रसविदा सेवा में प्रवेश की अधिकतम आयु 23 वर्ष रखी गई जिसे 1860 में घटाकर 22 वर्ष कर दिया गया। तत्पश्चात् 1866 में 21 वर्ष कर दिया गया। लिटन के समय 1878 में 19 वर्ष कर दिया ताकि भारतीय प्रवेश ना कर सके।

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